प्रगतिवाद किसे कहते हैं ?

प्रगतिवाद(Pragativad): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत प्रगतिवाद पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

प्रगतिवाद किसे कहते हैं  – Pragativad Kise Kahte Hai

छायावादी और स्वछंदतावादी काव्यधारा की अतिशय काल्पनिकता और वैयक्तिकता के विरोध में ‘सामाजिक यथार्थवाद’ के नाम पर चलाया गया साहित्यिक आंदोलन ‘प्रगतिवाद’ कहलाया। प्रगतिवाद की समय सीमा 1936 से 1943 ईस्वी मानी जाती है।

प्रगतिवाद का मूल उद्देश्य जनजीवन की समस्याओं तथा नित्यप्रति के संघर्षरत जीवन का चित्रण करना था। अंतर्मुखी, पलायन, निराशा, पराजय इत्यादि के स्थान पर उत्साह और जूझने की प्रेरणा लेकर प्रगतिशील चेतना उद्भूत हुई थी। इसे प्रगतिशील-आंदोलन भी कहा जाता है।

लंदन में 1935 ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई और 1936 ई. में प्रेमचंद ने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की अध्यक्षता की। आगे चलकर इस चेतना में मार्क्सवादी विचारधारा का समावेश हो गया और इसने प्रगतिवादी आंदोलन का रूप धारण कर लिया।

प्रगतिवादी विचारधारा का आधार कार्लमार्क्स का द्वन्द्वात्मक तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद है।

प्रगतिवाद के कवि और उनकी रचनाएँ

हिंदी में प्रगतिवाद का पहला कवि वही सुमित्रानंदन पंत हैं, जो छायावाद के एक प्रमुख आधार स्तंभ थे। उनकी रचना ‘युगवाणी’ प्रथम प्रगतिवादी रचना है।

प्रगतिवादी कवियों में मुख्य कवि एवं उनकी रचनायें निम्नांकित हैं –

कवि रचनाएँ
दिनकर संस्कृति के 4 अध्याय, रेणुका, हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी (महाकाव्य)
नागार्जुन युगधारा, सतरंगी पंखों वाली, प्रेत का बयान, भस्मांकुर
केदारनाथ अग्रवाल युग की गंगा, नींद के बादल, फूल नहीं रंग बोलते हैं
शिवमंगलसिंह सुमन जीवन के गान, विंध्य हिमालय
रांगेय राघव अजेय खंडहर, पिघलते पत्थर
मुक्तिबोध चाँद का मुँह टेढ़ा है

प्रगतिवाद की विशेषताएं

1. ‘सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति’ प्रगतिवाद की मुख्य विशेषताएँ थीं। प्रगतिवादी साहित्य जनता का, जनता के लिए चित्रण करता है। यथा – यह तो मानव लोक नहीं है, यह है नरक अपरिचित।

2. प्रगतिवादी कवियों ने जहाँ समसामयिक समस्याओं (भारत- विभाजन, कश्मीर-समस्या, बंगाल का अकाल, महँगाई, बेकारी, रूढ़ियों का विरोध इत्यादि) का चित्रण किया, वहीं मार्क्सवाद और रूसी शासन की प्रशंसा भी की।

(i) ‘लाल रूस है ढाल साथियों, सब मजदूर किसानों की’

(ii) ‘धन्य मार्क्स चिर तामाच्छन्न पृथ्वी के उदय शिखर पर।
तुम त्रिनेत्र के ज्ञान चक्षु से प्रकट हुए प्रलयंकर।

(iii) बाप बेटा बेचता है, भूख से बेहाल होकर,
धर्म धीरज प्राण खोकर, हो रही अनीति बर्बर।
राष्ट्र सारा देखता है, बाप बेटा बेचता है। (केदारनाथ अग्रवाल)

3. प्रगतिवाद ने जहाँ शोषकों, पूँजीपति वर्ग के प्रति घृणा, रोष, विरोध इत्यादि का भाव व्यक्त किया, वहीं शोषितों का करुण गान गाया –

(i) ‘श्वानों को मिलता वस्त्र दूध, भूखे बालक चिल्लाते हैं।’

(ii) ये व्यापारी जमीदार जो हैं लक्षमी के परम भक्त,
वे निपट निरामिष सूदखोर, पीते मनुष्य का उष्ण रक्त। (दिनकर)

4. प्रगतिवादी ने ईश्वर, धर्म, परलोक एवं भाग्य संबंधी विचारों का विरोध किया। आत्मा, परमात्मा, सृष्टि, जन्मान्तर इत्यादि में उसने अविश्वास प्रकटकर समाजवाद या मानव-सत्ता का महत्त्व प्रतिपादित किया और एक नई व्यवस्था का आहवान किया।

(i) द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र (पंत)।

(ii) हो यह समाज चिथड़े-चिथड़े, शोषण पर जिसकी नींव पड़ी।

5. बौद्धिकता एवं व्यंग्यात्मकता’ का प्रसार प्रगतिवादी एक अन्य मुख्य विशेषता थी। नागार्जुन का व्यंग्य बेजोड़ है –

‘घुन खाए शहतीरों पर की बारह घड़ी विधाता बाँचे
फटीभीत है छत है चूती… आदम से सांचे।’

6. न सिर्फ काव्य बल्कि गद्य में भी प्रगतिशील साहित्य की विशेषता देखने को मिलती है। प्रेमचंद के पश्चात् किसानों की जिंदगी पर प्रगतिशील लेखकों ने उपन्यास लिखे। आलोचना के क्षेत्र में मार्क्सवादी समीक्षा को स्थान मिला।

7. प्रगतिवाद की भाषा सुस्पष्ट, संयत, सामान्य एवं प्रचलित भाषा है। शैली उपदेशात्मक है। लोकगीतों की कई धुनों को कविता में प्रगतिवादी कवियों ने पुनर्जीवित किया है, यथा –

मांझी न बजाओ वंशी, मेरा मन डोलता है, मेरा तन घूमता है- (केदार)

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