पद्मावती समय – पृथ्वीराज रासो | व्याख्या सहित | प्रश्नोत्तर | Padmavati Samaya
इस आर्टिकल में पृथ्वीराज रासो के ‘पद्मावती समय'(Padmavati Samaya) की व्याख्या समझायी गई है , साथ ही प्रश्नोत्तर दिए गए है।
पद्मावती समय : चंदवरदायी
कवि-परिचय- हिंदी साहित्य के आदिकाल में जो वीरगाथा काव्य लिखा गया, उसमें सबसे अधिक प्रसिद्धि ‘पृथ्वीराज ‘रासो’ को प्राप्त हुई। इसके रचयिता चंद्रवरदायी का जन्म सन् 1168 ई. में लाहौर में हुआ था। ये महाकवि भाट जाति के जगता गोत्र के थे। ये दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सखा और सभा कवि थे। कहते है कि चंदवरदायी और पृथ्वीराज के जन्म तथा मृत्यु की तिथि भी एक ही थी। प्रसिद्धि है कि जब मुहम्मद गोरी सम्राट पृथ्वीराज को बंदी बनाकर गजनी ले गया, तो वहाँ पहुँच कर चंद ने उनकी अद्भुत बाण विद्या की प्रशंसा की। संकेत पाकर पृथ्वीराज ने शब्दबेधी बाण से गोरी को मार गिराया और अपनी स्वातंत्र्य की रक्षा करने के लिए एक-दूसरे को कटार मारकर दोनों ने मृत्यु का वरण किया।
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चंदवरदायी कलम के ही धनी नहीं थे, रणभूमि में पृथ्वीराज के साथ ही अन्य सामंतों की तरह तलवार भी चलाते थे। वे स्वयं वीररस की साकार प्रतिमा थे। उनका ‘पृथ्वीराज रासो हिंदी का आदिकाव्य है। इसमें सम्राट पृथ्वीराज के पराक्रम और वीरता का सजीव वर्णन है। इसमें 69 समय (सर्ग या अध्याय) हैं। कहा जाता है चंद इसे अधूरा ही छोड़कर गजनी चले गए थे जिसे उनके पुत्र जल्हण ने बाद में पूरा किया I
काव्य – परिचय
‘पृथ्वीराज रासो’ जिस रूप में मिलता वह प्रामाणिक नहीं है क्योंकि उसमें वर्णित पात्र, स्थान, नाम, तिथि और घटनाओं में से अधिकतर की प्रामाणिकता संदिग्ध है परंतु इतना अवश्य है कि मूल रूप में यह ग्रंथ इतना विशाल नहीं था। इसमें पृथ्वीराज के अनेक युदधो, आखेटों और विवाहों का वर्णन है। कवि ने अपने चरितनायक को सभी श्रेष्ठ गुणों से युक्त चित्रित किया है। पृथ्वीराज के व्यक्तित्व में अदभुत सौंदर्य, शक्ति और शील का सन्निवेश है।
‘पृथ्वीराज रासो’ वीर रस प्रधान काव्य है। इसमें ओज गुण की दीप्ति आदि से अंत तक विद्यमान है। रौद्र, भयानक, वीभत्स आदि रसों का वर्णन युद्ध के प्रसंग में और श्रृंगार का वर्णन विविध विवाहों के प्रसंग में मिलता है। शशिव्रता, इंछिनी, संयोगिता, पद्मावती आदि के रूप-सौंदर्य का मोहक वर्णन चंद ने किया है।
चंद की भाषा में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, अरबी आदि की शब्दावली का सशक्त प्रयोग हुआ है। परंपरा से चले आते हुए संस्कृत तथा प्राकृत छंदों का प्रयोग रासो में हुआ ही है, युद्ध वर्णन के लिए सबसे अधिक उपयुक्त छप्पय छंद की छटा देखते ही बनती है।
श्रेष्ट जीवन-पद्धति, पराक्रम एवं वीरता का जो आदर्श भारतीय जनता के लिए अपने चित्त में प्रतिष्ठित कर रखा है, पृथ्वीराज उसके प्रतिनिधि रूप में चित्रित हुए है। इसलिए पराजित होने पर भी वे जन-मानस के अजेय योद्धा के रूप में विराजमान है। चंद ने उनके रूप में भारतीय वीर-भावना का चरमोत्कर्ष दिखाया है, अतएव अप्रमाणिक माना जाने वाला ‘पृथ्वीराज रासो’ हमारा उत्कृष्ट महाकाव्य है। इससे प्रेरणा लेकर डिंगल में अनेक रासो काव्यों की रचना की गई है।
पाठ-परिचय
प्रस्तुत संकलन में ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय’ में से कतिपय छंद उद्घृत किए गए हैं। समुद्र शिखर दुर्ग के गढ़पति की राजकुमारी पद्मावती अद्वितीय सुंदरी है। एक तोता उससे पृथ्वीराज के सौंन्दर्य और पराक्रम का वर्णन करता है जिसे सुनकर वह पृथ्वीराज के प्रति अनुराग रखने लगती है। जब राजा उसका विवाह कुमाऊँ के राजा कुमोदमणि के साथ करना चाहते हैं, तो वह तोते को संदेशवाहक बनाकर पृथ्वीराज के पास भेजती है। वे शुक की बात सुनकर पद्मावती का वरण करने के लिए चल देते है। उधर पद्मावती शिव मंदिर में पूजा करने आती है। वहीं से पृथ्वीराज रुक्मिणी की भाँति उसका हरण करके घोड़े पर बिठाकर दिल्ली की ओर चल देते है। राजा की सेना युद्ध करके हार जाती है। इसी बीच अवसर पाकर शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज पर आक्रमण करता है और घोर युद्ध होता है। अंत में गोरी को परास्त करके पकड़ लिया जाता है। दिल्ली आकर शुभ लग्न में पद्मावती के साथ पृथ्वीराज विवाह कर लेते हैं।
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पद्मावती समय : व्याख्या सहित
(1-2)
पूरब दिस गढ़ गढ़नपति। समुद्र सिषर अति दुग्ग।
पूरब दिस गढ़ गढ़नपति। समुद्र सिषर अति दुग्ग।
तहँ सु विजय सुर राज पति। जादू कुलह अभंग।।1।।
धुनि निसान बहु साद। नाद सुरपंच बजत दीन।
दस हजार हय चढ़त। हेम नग जटित साज तिन।।
गज असंष गजपतिय। मुहर सेना तिय संषह।।
इक नायक कर धरी। पिनाक धरभर रज रष्षह।।
दस पुत्र पुत्रिय एक सम। रथ सुरड्ग अम्मर डमर।।
भंडार लछिय अगनित पदम। सो पदम सेन कुँवर सुघर।।2।।
कठिन–शब्दार्थ : पूरब दिसि – पूर्व दिशा में। गढ़नपति – गढ़ों का स्वामी,श्रेष्ठ दुर्ग या गढ़। समुंद शिखर – समुद्रशिखर, दुर्ग का नाम। यति – अत्यन्त विशाल। दुग्रा – दुर्ग। तहँ वहाँ। सु – श्रेष्ठ। सुरराजपति इंद्र। कूलह – यादव वंश का, यदुकुल का। अभग्ग अभग्न, अभेद्य, अजेय। धुनि ध्वनि। निसान – नगाड़े। नाद – गूँज,शब्द। सुरपंच – पंचम स्वर (मृदंग, तंत्री, मुरली, ताल, वेला या झाँझ और दुंदुभि आदि वाद्यों के स्वर)। हूय् चंढत – घुड़सवार। हेम – स्वर्ण। नग – रत्न। जटित – जड़े हुए। साज – घोड़ों की सज्जा। तिन- उसकी। करधरी पिनाक – हाथ में धनुष धारण करके। पुत्र-पुत्रिय सम – समान गुणों से युक्त पुत्र-पुत्री सुरंग – सुंदर। अम्मर – आकाश डमर – फहराती थी। लछिय – लक्ष्मी । अगनित असंख्य। पदम संख्या विशेष (दस नील से आगे) सुघर – सुन्दर।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश कवि चन्दवरदायी के ‘पृथ्वीराज रासो’ ‘महाकाव्य’ के ‘पद्मावती समय‘ से उद्धृत है। यहाँ पद्मावती के पिता राजा विजयपाल के समुद्रशिखर नामक दुर्ग, सेनाओं, वैभव और सुन्दर पत्नी का वर्णन हुआ है।
व्याख्या – कवि कहता है कि पूर्व दिशा में दुर्गों में श्रेष्ठ समुद्रशिखर नामक अति दुर्गम एवं विशाल दुर्ग है। वहाँ इन्द्र के समान यदुवंश श्रेष्ठ राजा विजयपाल निष्कंटक रूप से राज्य करता था। उसके नगाड़ों की भयंकर ध्वनि गूँजती थी। उसके राज्य में नित्य प्रति पंचम स्वर करती हुई रणभेरियाँ या नगाड़े बजा करते थे। उसके दस हजार थे जिनके स्वर्ण और रत्नों से जड़े हुए वस्त्र घुड़सवार शोभा पाते थे। असंख्य हाथी और हाथियों पर सवार सैनिक जो आगे चलते थे, संख्या में तीन शंख थे। राजा स्वयं सेना का नेतृत्व करता था, जिसके हाथ में शिवजी के पिनाक के समान धनुष रहता था। ऐसा वह राजा पृथ्वीभर के राजाओं की रक्षा करने में स्वयं राजपूती आन रखता था। उसके दस पुत्र और एक पुत्री थी। वे सब रूप, गुण में एक समान थे। उसके सुन्दर रथ की पताकाएँ आकाश में फहराती थीं। उसके खजाने में अगणित पद्म धन भरा पड़ा था। उस राजा की ‘पद्मसेन कॅवर’ नाम की सुन्दर रानी थी।
विशेष –
(1) प्रस्तुत पक्तियों में कवि ने राजा विजयपाल, उसके दुर्ग, सेना और खजाने का वर्णन किया है।
(2) पद्यांश की भाषा प्रारंभिक हिन्दी है।
(3) यहाँ अतिशयोक्ति, यमक, अनुप्रास आदि अलंकार है।
(4) वर्णन में कल्पना का अतिशय प्रयोग किया गया है।
(5) वर्णन में चित्रात्मकता है।
(6) ‘कुँवर’ शब्द का प्रयोग कवि ने विजयपाल की रानी के लिये किया है। इस शब्द का अर्थ होता है ‘कुमार’ । राजपूतों में रानी के नाम के साथ ‘कँवर’ शब्द का प्रयोग सम्मान के रूप में होता था। कवि ने उसी परम्परा के अनुसार ‘कॅवर’ शब्द का प्रयोग किया है; वैसे ‘कुँवर’ शब्द का प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध है।
(3)
मनहुँ कला ससिभान। कला सोलह सो बन्निय।।
मनहुँ कला ससिभान। कला सोलह सो बन्निय।।
बाल बैस ससिता समीप। अम्रित रस पिन्निय।।
बिगसि कमल मिग्र भमर। वैन षंजन मृग लुट्टिय।।
हीर कीर अरू बिंब। मोति नष सिष अहि घुट्टिय।।
छप्पति गंयद हरि हंस गति। विह बनाय संचै सचिय।।
पद्मिनिय रूप पद्मावतिय। मनहु काम कामिनि रचिय।।3।।
कठिन-शब्दार्थ : कला सोलह- चन्द्रमा की सोलह कलाओं से। सो – वह । बन्निय – बनी थी। बाल बैस बाल। वयस – बचपन। ससिता-शिशुता – शैशवावस्था। ससि – चन्द्रमा। ता – उसके । अंम्रित – अमृत। पिन्निय – पीया है, पान किया है। विंगसि कमल म्रिग – मुख विकसित कमल की श्रेणी को भी लज्जित करता है। बेनु वंशी । मृग – हरिण । लुट्टिय – लूट लिया है, श्रीहीन कर दिया है। छप्पति – छिपाती है। हरि – सिंह। बिह बनाय – विधि ने बनाकर। संचै सचिय – साँचे में ढालकर। मनहूँ मानो। काम-कामिनी – कामदेव की पत्नी, रति। रचिय – रचना की है।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश कवि चन्दवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ महाकाव्य के ‘पद्मावती समय से उद्धृत है। इसमें कवि ने परम्परायुक्त उपमानों द्वारा पद्मावती के अपूर्व सौन्दर्य का अत्यन्त कलापूर्ण चित्रण किया है।
व्याख्या- वह कहता है कि राजा विजयपाल की पदमसेन कुँवर रानी से उत्पन्न पुत्री पद्मवती इतनी सुन्दर है मानो वह साक्षात् चन्द्रमा की कला हो तथा उसका निर्माण चन्द्रमा की सम्पूर्ण सोलह कलाओं से किया गया हो। अभी उसकी बाल्यावस्था है। उसके पावन और शान्तिप्रदायक रूप को देखकर ऐसा लगता है कि मानो चन्द्रमा ने उसी से अमृत का पान किया हो। कहने का भाव यह है कि उसके सौन्दर्य को देखकर नेत्रों को उसी प्रकार शीतलता प्राप्त होती है जिस प्रकार चन्द्रमा को देखकर नेत्र शीतल होते हैं। कवि वर्णन करते हुए कहता है कि पद्मावती के मुख, नेत्र, हाथ, चरणों के सौन्दर्य ने विकसित कमलों के सौन्दर्य को, उसके केशों के श्याम रंग ने भ्रमरों के श्यामल सौन्दर्य को, उसकी मधुर वाणी ने वंशी के मधुर स्वर को, उसके चंचल नेत्रों ने खजन पक्षी की चंचलता के सौन्दर्य का, नेत्रों की विशालता एवं भोलेपन ने मृगों के नेत्रों के इन्हीं गुणों को छीन लिया हो। तात्पर्य यह है कि पद्मावती के शरीर के अंग-प्रत्यंग इतने अधिक सुन्दर हैं कि उनके सामने, उनके लिए प्रयुक्त होने वाले सारे उपमान फीके जान पड़ते हैं।
कवि कह रहा है कि पद्मावती का गौरवर्ण शरीर हीरे के समान चमकता है। उसकी नासिका को देखकर तोते की चोंच का आभास होता है, उसके अधर बिम्बाफल की तरह लाल और मोहक हैं। उसकी अंगुलियों के नाखून मोती के समान सुन्दर और सुडौल हैं और शिखा सर्प को लज्जित करने वाली है। उसकी गति को देखकर हाथी, हंस और सिंह भ लज्जित हो दूर जाकर छिप जाते हैं। अर्थात् उसकी चाल में हाथी की सी मस्ती, सिंह का सा गर्व और हंस की सी मंथरता है। उसका सम्पूर्ण शरीर इतना सुडौल और सुगठित है कि मानो विधाता ने उसे साँचे में ढालकर गढ़ा हो, अथवा ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ब्रह्मा ने इन्द्र की पत्नी शची का सौन्दर्य लेकर उसे बनाया हो। ऐसी उस पद्मावती का रूप पद्मिनी नारी (नारियों का एक भेद) के समान सुन्दर और मोहक है। उसके रूप को देखकर ऐसा लगता है कि मानो विधाता ने उसके रूप में कामदेव की पत्नी रति का ही दूसरा रूप खड़ा कर दिया हो।
विशेष –
(1) कवि ने पद्मावती को अतिशय सुन्दर बतलाया है। सौंदर्य के जितने भी सुन्दर उपमान होते हैं उनका प्रयोग किया है।
(2) यहाँ अतिशयोक्ति, अनुप्रास, उत्प्रेक्षा और व्यतिरेक अलंकार हैं।
(3) यह वर्णन नारी के नख-शिख वर्णन की परम्परा के अनुसार हैं।
(4) सुन्दरी नारियों के चार प्रकार बताये जाते हैं – 1. पद्मिनी 2. चित्रिणी 3. शंखिनी 4. हस्तिनी। इनमें से पद्मिनी सर्वोत्तम जाति की स्त्री मानी जाती गयी है।
(4)
सामुद्रिक लच्छन सकल। चौसठि कला सुजान ।।
जानि चतुर दस अंग षट। रति बसंत परमान।।4।।
कठिन-शब्दार्थ – सामुद्रिक हस्त एवं पद तथा मुखाकृति से शुभाशुभ बताने की विद्या। लच्छन – लक्षण। सकल-समस्त। चौंसठ कला – चौंसठ कलाएँ। सुजान अच्छी प्रकार जानकारी रखने वाली चतुर्दश – चौदह विद्याएँ। षट – छह शास्त्र वेद के अंग। रति बसन्त परमान – रति और वसंत के अनुरूप। परमार – प्रमाण।
प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश चन्दवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती के समय’ से उद्धृत है। इसमें कवि ने (सामुद्रिकशास्त्र की दृष्टि से पद्मावती के शरीरांगों के सौन्दर्य का महत्त्व वर्णित किया है।
व्याख्या – कवि कहता है कि पद्मावती के शरीर के सभी अंगों में सामुद्रिकशास्त्र के सभी शुभ लक्षण विद्यमान थे। वह चौंसठ कलाओं में पारंगत थी। वह चौदहों विद्याओं तथा छहों दर्शनों तथा वेद के छह अंगों में पारंगत थी। वह कामदेव की पत्नी रति तथा वसंत के समान सुन्दर थी।
विशेष –
(1) कवि ने पद्मावती को सब प्रकार से सुन्दर और गुणवती बतलाना चाहा है।
(2) कवि चंद की सामुद्रिकशास्त्र, कलाओं, विद्याओ आदि की जानकारी का भी पता चलता है।
(3) यहाँ अतिशयोक्ति, अनुप्रास तथा उपमा अलंकार हैं।
(4) यहाँ अंग षट से तात्पर्य वेद के छः अंग और दर्शनशास्त्र के छः प्रकार से है। वेद के छह अंग हैं – शिक्षा, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष और छन्दशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र के छह प्रकार हैं – सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, वेदान्त और न्यास।
(5)
सषियन संग खेलत फिरत। महलनि बाग निवास।।
कीर इक्क दिष्षिय नयन। तब मन भयौ हुलास।।5।।
कठिन शब्दार्थ– सवियन संग सखियों के साथ में। महलनि – महलों में। बग्ग – बाग में, उद्यान में। कीर – तोता। इक्क – एक। दिष्षिय – देखा। हुलास – प्रसन्न।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश कवि चन्दवरदायी के ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय’ शीर्षक से लिया गया है।
व्याख्या – यहाँ पद्मावती की क्रीड़ाओं का सौन्दर्यपूर्ण वर्णन करते हुए कवि कहता है – पद्मावती अपनी सखियों के साथ महलों, निवास-स्थान और बागों में खेलती रहती थी, एक दिन खेलते समय ही उसे एक तोता दिखाई दिया। उस तोते को देखकर उसके मन में बड़ी प्रसन्नता हुई ।
विशेष –
(1) कवि ने यहाँ पद्मावती की क्रीड़ा तथा तोते को देखकर हुई उसकी प्रतिक्रिया के बारे में वर्णन किया है।
(2) यहाँ प्रकृति का भी थोड़ा-सा वर्णन हो गया है।
(3) दोहा छन्द है।
(4) प्रारम्भिक हिन्दी पर अपभ्रंश का प्रभाव होने से ‘ख’ की जगह ‘ष’ का ही अधिकतर प्रयोग हुआ है। ‘दिष्षिय’ आदि इसके उदाहरण हैं।
(6)
मन अति भयो हुलास। विगसि जनु कोक किरण रवि।।
मन अति भयो हुलास। विगसि जनु कोक किरण रवि।।
अरुण अधर तिय सुधर। बिंब फल जानि कीर छबि।।
यह चाहत चष चकित। उहजु तक्किय झरप्पि झर।।
चंच चहुट्टिय लोभ। लियौ तब गहित अप्प कर।।
हरषत अनंद मन महि हुलस। लै जु महल भीतर गइय।।
पंजर अनूप नग मनि जटित। सो तिहि मँह रष्षत भइय।।6।।
कठिन-शब्दार्थ – हुलास -प्रसन्नता, आनन्द। बिगसि – खिला हो, प्रसन्न हुआ हो। चष – नेत्र। जनु – मानो। कोक – चकवा। रवि – सूर्य। अरुन – लाल रंग के। तिय – नारी। सुधर – सुन्दर। बिंब फल – बिंबाफल, फल विशेषं जो अन्दर से लाल होता है। चक्रित – चकित आश्चर्ययुक्त। उहजु – वह भी जैसे। तक्किय – देखा। झरप्पि – झपटकर। चंच – चोंच। गहित – ग्रहण कर लिया, पकड़ लिया। अप्प कर – अपने हाथ में। अनंद – आनंद। महि – में। लै – लेकर। रष्षत भइय – रख दिया।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश चन्दवरदायी के ‘पद्मावती समय’ से उद्धृत है। कवि ने पद्मावती के सौन्दर्य एवं गुणों का वर्णन किया है। यहाँ कवि वाटिका में विचरण करती हुई पद्मावती द्वारा तोते के पकड़े जाने के बारे में वर्णन कर रहा है।
व्याख्या – कवि कहता है कि तोते को देखकर पद्मावती के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। वह इस प्रकार प्रसन्न हो उठी मानों रात भर चकवी से वियुक्त रहा चकवा प्रभाव होते हुए सूर्य की किरणें देखकर खुश हो उठा हो। उस प्रसन्न पद्मावती के लाल होठ देखकर तोते को उनमें सुन्दर बिम्बाफल का भ्रम हुआ। उसने होठों को बिम्बाफल समझकर लेना चाहा। पद्मावती तोते को वहाँ आया देखकर चकित थी, उधर तोता भी होठों को बिम्बाफल समझकर उन पर झपटा। उसने उन्हें प्राप्त करने के लोभ में अपनी चोंच चलाई। पद्मावती ने उसे हाथ से पकड़ लिया। वह मन में प्रसन्न होकर उसे अपने महल में ले गई। उसने वहाँ उसे नगों और मणियों से जड़े हुए पिंजरे में सँभाल कर रख लिया।
विशेष –
(1) यहाँ वाटिका में विचरण करती पद्मावती के लाल रंग के सुन्दर होठों का और तोते को उनमें बिम्बाफल का भ्रम होने का वर्णन हुआ है।
(2) सूर्य उदय होने पर चक्रवाक को इस बात की अनुभूति हो जाती है कि अब बिछुड़ी हुई चकवी से मिलने का समय आ गया है, इसलिएय वह प्रसन्न होता है। क्योंकि इन दोनों के सम्बन्ध में ऐसी मान्यता है कि रात्रि के समय ये दोनों एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं और प्रातः होते ही एक-दूसरे से मिल जाते हैं।
(3) इस पद्यांश में उत्प्रेक्षा, भ्रान्तिमान और अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
(7-9)
सवालष्ण उत्तर सयल। कमऊँ गड्ड दूरंग।।
सवालष्ण उत्तर सयल। कमऊँ गड्ड दूरंग।।
राजत राज कुमोदमनि। हय गय द्रिब्ब अभंग।।7।।
नारिकेल फल परठि दुज। चौक पूरि मनि मुत्ति।।
दई जु कन्यसा बचन बर। अति अनंद करि जुत्ति।।8।।
पदमावति विलषि बर बाल बेली। कही कीर सोबात तब हो अकेली॥
झटं जाहु तुम्ह कीर दिल्ली सुदेस। बरं चाहुवांन जु आनौ नरेस॥9॥
कठिन-शब्दार्थ – सवालष्ष – सपादलक्ष। सयल – शैल, पर्वत। दूरंग – दुर्गम । राजत – सुशोभित होता है। हय – घोड़े। गय – गज, हाथी। ट्रिब्ब – द्रव्य अभंग – परिपूर्ण। नारिकेल – नारियल परठि – स्थापित किया। दुज – द्विज। मनि-मुक्ति – मणि-मोतियों से। जुत्ति – युक्ति, विधिपूर्वक। झटं – शीघ्र। बालबेली – नवयुवती, अर्धविकसित लता। विलषि – व्याकुलतापूर्वक। आनौ – ले आओ ।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश चन्दबरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय से उद्धृत है। इसमें पद्मावती के लिए योग्य वर खोजे जाने की घोषणा के बाद कवि ने राजपुरोहित द्वारा पद्मावती के लिए वर खोजे जाने के प्रयत्न के बारे में वर्णन किया है। उसकी कुमोदमणि के साथ सगाई की गई किन्तु पद्मावती के मन में कुछ और ही था।
व्याख्या – कवि कहता है कि सपादलक्ष के उत्तर में दुर्गम कुमायूँ गढ़ था। उसमें कुमोदमणि राजा सुशोभित होता था। उसके पास घोड़े, हाथी आदि अपार सम्पदा थी। ब्राह्मण ने मोती-मणियों से चौक पूर कर, उस पर नारियल स्थापित किया और आन्दपूर्ण विधि-विधान से राजा से पद्मावती की सगाई तय कर दी। नई लता के समान विकसित युवती पद्मावती ने दुःखी होकर तोते से कहा कि तुम शीघ्र दिल्ली जाकर श्रेष्ठ प्रतापी राजा पृथ्वीराज चौहान को ले आओ।
विशेष –
(1) कवि ने पद्मावती के पृथ्वीराज के प्रति अनुराग को व्यक्त किया है।
(2) यहाँ उपमा व अनुप्रास अलंकार है ।
(3) काव्य-परम्परा में तोता, कौआ, भौंरा आदि को दूत बनाकर भेजने की परम्परा रही है। उसी परम्परा के अन्तर्गत पद्मावती ने तोता द्वारा पृथ्वीराज चौहान को संदेश भेजा है।
(10-12)
आँनो तुम्ह चाहुवांन बर। अरु कहि इहै संदेस।।
आँनो तुम्ह चाहुवांन बर। अरु कहि इहै संदेस।।
सांस सरीरहि जो रहै। प्रिय प्रथिराज नरेस।।10।।
लै पत्री सुक यों चल्यौ। उड्यौ गगनि गहि बाव।।
जहँ दिल्ली प्रथिराज नर। अट्ठ जाम में जाव।।11।।
दिय कग्गर नृप राज कर। बुलि बंचिय प्रथिराम ।।
सुक देखत मन में हँसे। कियौ चलन कौ साज।।
कठिन-शब्दार्थ – अरु – और। कहि – कहकर। इहै – यह। समीरहिं – वायु से। प्रथिराज – पृथ्वीराज। सुक – तोता। पत्री – पत्र। गगनि – आकाश में। गहि बाव- वायु का आधार लेकर। अट्ठ जाम – आठ याम। कग्गर – कागज, पत्र। षुलि बंचिय – खोलकर बाँचा, पढ़ा।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश चन्दवरदायी के ‘पृथ्वीराज रासो’ महाकाव्य के ‘पद्मावती समय से उद्धृत है। पद्मावती की कुमायूँ के राजा से सगाई कर दी गई, किन्तु दुःखी पद्मावती ने तोते से कहा कि तू शीघ्र पृथ्वीराज चौहान को लेकर आ। इसी क्रम में यह वर्णन है।
व्याख्या – पद्मावती ने कहा कि हे तोते! तुम पृथ्वीराज को यहाँ ले आओ और उनसे मेरा यह सन्देश कहो कि जब तक मेरे शरीर में श्वास- समीर रहेगा तब तक मेरे लिए राजा पृथ्वीराज ही प्रिय रहेगा। दूसरे शब्दों में, मेरे पति पृथ्वीराज ही रहेंगे। इस प्रकार पद्मावती का पत्र लेकर तोता वहाँ से चला और हवा के सहारे वह आकाश में उड़ने लगा। पृथ्वीराज जहाँ विराजमान थे, वहाँ वह आठ याम या प्रहर में पहुँच गया। उसने पद्मावती का पत्र पृथ्वीराज के हाथों में दे दिया। पृथ्वीराज ने उस कागज या पत्र को खोलकर पढ़ा। वह तोते को देखकर मन ही मन हँसा और फिर उसने पद्मावती के पास चलने की तैयारी की।
विशेष –
(1) पद्मावती ने राजा पृथ्वीराज के पास संदेश तोते के माध्यम से पहुँचाया।
(2) यहाँ रूपक व अनुप्रास अलंकार हैं।
(3) नाटकीयतायुक्त शैली है।
(13-15)
कर पकरि पीठ हय परि चढ़ाय। लै चल्यौ नृपति दिल्ली सुराय।।
कर पकरि पीठ हय परि चढ़ाय। लै चल्यौ नृपति दिल्ली सुराय।।
भइ षबरि नगर बाहिर सुनाय। पदमावतीय हरि लीय जाय।।13।।
कम्मान बांन छुट्टहि अपार। लागंत लोह इम सारि धार।।
घमसान घाँन सब बीर घेत। घन श्रोन बहत अरु रकत रेत।14।।
पदमावति इम लै चल्यौ। हरषि राज प्रिथिराज।।
एतें परि पतिसाह की। भई जु आनि अवाज।।15।।
कठिन-शब्दार्थ – हय – घोड़ा। सुराय – श्रेष्ठ राजा। षबरि – खबर। हरि लीय जाय – अपहरण किया जा रहा है, हर कर ले जा रहा है। कम्मान – कमान, धनुष। लागत = लगते हैं। इसि – इस प्रकार। सारि धार – तलवार की धार। घॉन- युद्ध। षेत – खेत रहना, मारे जाना। श्रौन – श्रोणित, खून। रुकत – लाल। एतें – इतने में, इस बीच । पतिसाह – बादशाह आनि – आने की। अवाज – आवाज।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश कवि चन्दवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय’ से उद्धृत है। तोते द्वारा दिये गये पत्र में समाचार जानकर पृथ्वीराज पद्मावती के पास आया। यहाँ पद्मावती को ले जाये जाने के बारे में वर्णन है।
व्याख्या – कवि वर्णन करता है कि पद्मावती का हाथ पकड़कर उसे घोड़े की पीठ पर चढ़ाकर दिल्लीपति श्रेष्ठ राजा पृथ्वीराज उसे लेकर दिल्ली गढ़ की ओर चल पड़ा। नगर के बाहर से आने वाले लोगों से सुनकर यह बात फैल गई कि राजा पद्मावती का अपहरण करके ले जा रहा है। तब विजयपाल और कुमोदमणि की सेनाओं से पृथ्वीराज का युद्ध हुआ। उस युद्ध में धनुषों से छूटे हुए बहुत से बाण कवचों से ढँके हुए शरीर में घुस रहे थे। ये बाण तलवार की धार की तरह पैने प्रतीत होते थे। इस प्रकार बड़ा घमासान युद्ध हुआ और बहुत से वीर खेत रहे,। मारे गये। बहुत-सा खून बहने से युद्ध क्षेत्र का रेत लाल हो गया। पृथ्वीराज युद्ध जीतकर हर्षित होता हुआ दिल्ली की ओर चल पड़ा। इसी बीच बादशाह शहाबुद्दीन गोरी के चढ़ आने की सूचना मिली।
विशेष –
(1) कवि ने यहां श्रीकृष्ण द्वारा रूक्मिणी हरण का अनुकरणात्मक वर्णन किया है।
(2) उपमा, अनुप्रास और अतिशयोक्ति अलंकार प्रयुक्त हुए हैं।
(3) कवि की कल्पना शक्ति का सुन्दर प्रयोग हुआ है।
(16)
भई जु आँनि अवाज। आय साहबदीन सुर।।
भई जु आँनि अवाज। आय साहबदीन सुर।।
आज गहौं प्रथिराज। बोल बुल्लंत गजत धुर।।
क्रोध जोध जोधा अनंद। करिय पती अनि गज्जिय।।
बांन नालि हथनालि। तुपक तीरह स्स्रव सज्जिय।।
पव्वै पहार मनों सार के। भिरि भुजांन गजनेस बल।।
आये हकरि हकार करि। षुरासान सुलतान दल।।16।।
कठिन-शब्दार्थ – गहौं – पकडूँगा। बोल बुलंत – बोल बोलता हुआ, हुंकार करता हुआ। अनंत – अंतरहित, बहुत से । करिय पंती पंक्तिबद्ध किया। गज्जिय गर्जना की। नालि – नाल, बन्दूक। हथनालि – तोप। स्रब – सब। सज्जिय – सुसज्जित थी। सार के – लोहे के। पब्बै – पड़ना, गिरना, वज्र गजनेस – गजनीपति गोरी। हकारि – गर्जकर बुलाये गए। करि – कर। तुपक – छोटी तोप।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश चन्दवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज ‘रासो’ नामक महाकाव्य के ‘पद्मावती समय’ से लिया गया है। जब पृथ्वीराज युद्ध जीतकर पद्मावती को लेकर दिल्ली की ओर चल पड़ा तभी गजनी के बादशाह गोरी ने उस पर आक्रमण कर दिया। गोरी ने किस प्रकार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया, इसी सम्बन्ध में प्रस्तुत वर्णन है।
व्याख्या – सेना सहित शूर शहाबुद्दीन के आने पर बड़ी आवाज, बड़ा शोर हुआ। वह गर्जकर कहने लगा कि मैं आज पृथ्वीराज को पकडूंगा। उसके साथ असंख्य क्रोधपूर्ण योद्धा थे। उसकी पंक्तिबद्ध सेना गर्जना कर रही थी। वह सेना धनुष-बाण, तोप, नाल, तीर आदि हथियारों से सुसज्जित थी। उसके सुसज्जित सैनिकों का समूह ऐसा लगता था। मानो लोहे का पहाड़ टूटकर गिर रहा हो। गजनीपति गोरी के वे सैनिक अपनी भुजाओं के बल पर युद्ध में जूझ रहे थे। खुरासान सुल्तान का वह दल हुकार करता हुआ बढ़ रहा था।
विशेष –
(1) कवि ने गजनीपति की विशाल सुसज्जित सेना के बारे में वर्णन किया है। सेना के युद्ध-प्रयाण का वर्णन परम्परागत है।
(2) वर्णन से लगता है कि कवि को युद्ध क्षेत्र की जानकारी है। आदिकाल के कवि स्वयं भी तलवार लेकर युद्ध करते थे, इस कारण उनका युद्ध सम्बन्धी वर्णन यथार्थ प्रतीत होता है।
(3) वर्णन वीररसपूर्ण है। भाषा ओजपूर्ण है। भाषा में चित्रात्मकता है।
(4) यहाँ उत्प्रेक्षा और अनुप्रास अलंकार है।
(17)
तिनं घेरियं राज प्रथिराज राज। चिहौ ओर घन घोर निसान बाजं।।
तिनं घेरियं राज प्रथिराज राज। चिहौ ओर घन घोर निसान बाजं।।
गही तेग चहुंवान हिंदवानं रानं। गजं जूथ परि कोप केहरि समानं।।17।।
कठिन-शब्दार्थ – तिनं – उसने। घेरियं – घेर लिया। चिहौं ओर – चारों ओर। घनघोर -भयानक, बहुत अधिक। निसानं – नगाड़े। गही – पकड़ी, ग्रहण की। तेन – उस गंज जूथ – हाथियों के समूह। केहरि – शेर। हिंदवान रान हिंदुओं के राजा।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश चन्दवरदायी के ‘पृथ्वीराज रासो’ महाकाव्य के ‘पदमावती समय से उद्धत है। इसमें शहाबुद्दीन गोरी की सेना द्वारा पृथ्वीराज चौहान को घेर लिये जाने और फिर पृथ्वीराज द्वारा किये गये शत्रु-सेना के संहार के बारे में वर्णन है।
व्याख्या – कवि वर्णन करता है कि गोरी की सेना ने पृथ्वीराज को घेर लिया। चारों ओर सेना में नगाड़ों को बजाये जाने का तुमुल नाद हो रहा था। तब हिन्दुओं के राजा पृथ्वीराज चौहान ने तलवान उठाई। वह शत्रु-सेना पर उसी प्रकार प्रहार करने लगा जिस प्रकार शेर हाथियों के समूह पर टूटकर उन्हें आघात पहुँचाता है।
विशेष –
(1) कवि ने शत्रु-सेना के भारी जमावड़े का दृश्य प्रस्तुत किया है।
(2) पृथ्वीराज के रण कौशल का वर्णन किया है।
(3) पृथ्वीराज के पराक्रम को स्पष्ट करने के लिए उसने हाथियों के समूह पर टूट पड़ते शेर का उदाहरण देकर अपनी कल्पना-शक्ति का सुंदर प्रयोग किया है।
(4) वर्णन में चित्रात्मकता है।
(5) अनुप्रास एवं उपमा अलंकार हैं।
(18)
गिरद्दं उड़ी भाँन अंधार रैनं। गई सूधि सुज्झै नहीं मज्झि नैनं।।
सिरं नाय कम्मान प्रथिराज राजं। पकरियै साहि जिम कुलिंगबाजं।।18।।
कठिन-शब्दार्थ – गिरंद्द – गर्द, धूल। भाँन – सूर्य। अँधार – अँधेरा। रैनं – रात। नाय – रखकर। जिम – जैसे। मज्झि – बीच में। कुलिंग – पक्षी ।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय’ से लिया गया है। पृथ्वीराज पर शहाबुद्दीन गोरी ने भारी सेना लेकर आक्रमण कर दिया था। पृथ्वीराज अपने. हाथ में तलवार लेकर शत्रु-सेना पर इस प्रकार टूट पड़े जैसे हाथियों के समूह पर शेर टूट पड़ता है। इसी क्रम में प्रस्तुत वर्णन है।
व्याख्या – उस युद्ध में सेना की हलचल और हाथियों की भगदड़ से इतनी धूल उड़ी कि सूर्य धूल से ढ़क गया। अंधकार छा जाने से रात-सी हो गई। उस अँधेरे में दिशाओं को पहचानना असंभव हो गया। नेत्रों को कुछ दिखाई न देता था। राजा पृथ्वीराज ने शहाबुद्दीन गोरी की गर्दन में अपना धनुष डालकर उसे इस प्रकार पकड़ लिया जिस तरह बाज किसी पक्षी को पकड़ लेता है।
विशेष –
(1) वीरगाथा काल के कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा की है। यहाँ पृथ्वीराज चौहान द्वारा गोरी के बंदी बनाये जाने पर वर्णन है।
(2) अनुप्रास और उपमा अलंकारों का प्रयोग किया गया है।
(3) आदिकालीन हिन्दी की यह विशेषता यहाँ द्रष्टव्य है कि उसमें शब्दों पर अनुस्वार लगाकर संस्कृत शब्दों
का भ्रम पैदा किया गया है।
(4) वर्णन में चित्रात्मकता की विशेषता है।
(5) वर्णन वीररसमूर्ण है।
(6) भाषा ओजगुणयुक्त है।
(19-20)
जीति भई प्रथिराज की। पकरि साह लै संग।।
जीति भई प्रथिराज की। पकरि साह लै संग।।
दिल्ली दिंसी मारगि लगौ। उतरि घाट गिर गंग।।19।।
बोलि विप्र सोधे लगन्न। सुभ घरी परट्ठिय।।
हर बांसह मंडप बनाय। करि भांवरि गंठिय।।
ब्रह्म वेद उच्चरहिं। होम चौरी जुप्रति वर।।
पद्मावती दुलहिन अनूप। दुल्लह प्रथिराज राज नर।।
डंडयौँ साह साहाबदी। अट्ठ सहस हे वर सुघर।।
दै दाँन माँन षट भेष कौ। चढे राज द्रूग्गा हुजर।।20।।
कठिन-शब्दार्थ – लगौ – चल पड़ा। गिरि-गंग – पर्वत से निकलती हुई गंगा। लगन्न – लगन। परट्ठिय – पूछी, तय की गई। हर बांसह – हरे-हरे बांस। भांवरि गठिय – भांवरे पड़ीं। चौरी – वेदी। जु – जहाँ। प्रति-प्राप्ति। दुल्लह- दूल्हा। साहाबदी – शहाबुद्दीन। अट्ठ – आठ । माँन – मान, सम्मान। द्रूग्गा – दुर्गा। हुजर – सामने।
प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश कवि चन्दवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय’ से उद्धृत है। कवि ने पृथ्वीराज द्वारा शहाबुद्दीन गोरी के पकड़े जाने का वर्णन किया है। पृथ्वीराज उसे पकड़कर दिल्ली ले गया और वहाँ हुए पृथ्वीराज और पद्मावती के विवाह का वर्णन किया गया है।
व्याख्या – कवि वर्णन करता है कि उस युद्ध में पृथ्वीराज की विजय हुई। गोरी को उसने बंदी बनाकर अपने साथ ले लिया और गंगानदी को पार कर वह दिल्ली की ओर चल पड़ा। वहाँ पृथ्वीराज ने ब्राह्मणों को बुलवाकर विवाह की लग्न पूछी। ब्राह्मणों ने लग्न की शुभ घड़ी तय की। हरे बाँसों द्वारा विवाह मण्डप बनाया गया तथा भाँवरें पड़ने • और दूल्हा-दुलहिन के गठबंधन का कार्यक्रम किया गया। ब्राह्मणों ने विवाह के समय के वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया और पृथ्वीराज को होम की वेदी के सामने बिठाया। पृथ्वीराज सुन्दर दूल्हे थे और पद्मावती अनुपम दुलहिन थी। दिल्लीपति पृथ्वीराज ने शहाबुद्दीन गोरी को दण्डित किया अर्थात् उससे दण्ड के रूप में आठ हजार सुन्दर स्वस्थ घोड़े लिये । पृथ्वीराज ने दुर्गा के मंदिर में विवाह करके योगियों, संन्यासियों आदि को बहुत प्रकार से दान देकर सम्मानित किया।
विशेष –
(1) कवि ने पृथ्वीराज की विजय, उसके विवाह की पद्धति का वर्णन किया है।
(2) विवाह का वर्णन वैदिक रीति-रिवाजों के ही अनुसार है।
(3) हिन्दू राजा सामान्यतया दुर्गा और शिव की पूजा करते थे।
(4) अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।
महत्वपूर्ण प्रश्न – पद्मावती समय
(1483-1563)
- “तहँ सु विजय सुर राजपति। जाहू कुलह अभंग। – पंक्ति में ‘ सुर राजपति’ किसे कहा गया है?
– राजा विजयपाल
- ‘सो पदमसेन ‘कँवर सुघर’। “पंक्ति में पद्मसेन कुँवर सुधर – किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
– राजा विजयपाल की रानी पद्मसेन कँवर
- ‘’मनहुँ कला सासिभान। कला सोलह सो बन्निय।”
पंक्ति में किसके रूप सौन्दर्य का वर्णन किया है?
– पद्मावती
- राजा विजयपाल ने अपनी पुत्री पद्मावती की सगाई कहाँ के राजा के साथ निशचित (तय) कर दी थी?
– कुमाऊँ के राजा कुमोदमणि के साथ
- “झटं जाहु तुम्ह कीर दिल्ली सुदेस।‘’ वह कथन किसने किसके प्रति कहा है?
– पद्मावती ने तोते से
- पद्मावती ने दिल्ली के राजा पृथ्वीराज के पास अपना प्रेम संदेश किसके माध्यम से पहुँचाया?
– तोते के
- “घमासान घाँन सब वीर खेत। धन श्रोन बहत अरु रक्त रेत। “पंक्ति में कौन से रर्स की व्यंजना हुई है?
– वीभत्स रस की
- “एतें परि पतिसाह की।‘’ पंक्ति में ‘पतिसाह’ शब्द किसके लिये प्रयुक्त हुआ है?
– शहाबुद्दीन गौरी
- ‘कम्मान बान छुट्टहि अपार। लागत लोग इमि सरिधार।‘ – पंक्ति में किनके मध्य हुए युद्ध का चित्रण किया गया है? – पृथ्वी तथा विजयपाल कुमोदमाणि
- “गिरद्द उदी भॉन अंधार रैन। गई सूचि सूज्जै नहिं मज्झि नैंन। पंक्तियों में किनके मध्य हुए युद्ध दृश्य का चित्रित है।
- ‘पृथ्वीराज रासों’ का प्रधान रस कौन सा है?
– वीर रस
- काव्य रूप की दृष्टि से ‘पृथ्वीराज रासो’ किस काव्य की श्रेणी में आता है?
– महाकाव्य
- पृथ्वीराज रासो में किस गुण की दीप्ति आदि से अंत तक विद्यामान है?
– ओज गुण
- चंदबरदायी किस राजा के सभा कवि थे ?
– पृथ्वीराज चौहान
- पूर्व दिशा में स्थित गढ़ का क्या नाम था ?
– समुद्र शिखर
- “सिरं नाय कम्मानं पृथ्वीराज राजं। पकरियै साहि निमि कुलिंगबाज।” पंक्ति में प्रयुक्त अलंकार है?
– उपमा और अनुप्रास
- “अरून अधर तिय सुघर बिम्बफल जानि कीर छवि।” पंक्ति में प्रयुक्त अंलकार है?
– भ्रांतिमान
- शहाबुद्दीन को पकड़ने वाले पृथ्वीराज की तुलना किससे की गयी है?
– बाज पक्षी से
- ‘गही तेग चहुंवान हिंदबांन राजं। गंज जूथ परिकोप केहरि समान । “पंक्ति में रेखांकित पद किसका प्रतीकार्थ लिये है?
– गजंजूथ – शाहाबुद्दीन की सेना । केहरि – पृथ्वीराज
- पाठ्यपुस्तक में संकलित अंश चंदबरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’ के कौनसे ‘समय’ से संबंधित है?
– पद्मावती समय से
- पद्मावती समय पृथ्वीराज रासो
- पद्मावती समय की कथावस्तु
- पद्मावती समय की व्याख्या