मीरा के काव्य की विशेषताएँ
मीरा के काव्य की विशेषताएँ(Meera ke Kavya ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत मीरा के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।
मीरा के काव्य की विशेषताएँ
(i) भावपक्ष विशेषताएँ –
1. विरह-वर्णन –
मीरा के काव्य का सर्वप्रमुख पक्ष है—उनकी वेदनानुभूति और विरह-वर्णन। मीरा का विरह-वर्णन अंतर्मुखी, अनुभूतिप्रवण, दर्द और तडपन से युक्त आनंद की सजग साधना है। मीरा के विरह-वर्णन में ‘प्रवासजन्य विरह’ की प्रधानता है।
प्रभु जी कहाँ गयो नेहड़ा लगाय।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे, थे विण रहयां ण जाये।
उनके काव्य में विरह की अंतर्दशाओं का भी वर्णन हुआ है। यथा –
1. होली पिया बिन लागां री खारी।
2. पपइया रे पिव की वाणि न बोल।
2. भक्ति-पद्धति –
मीरा बाई (meera bai) कृष्णभक्त कवयित्री थीं। मीरा की भक्ति कांताभाव की माधुर्य भक्ति थी। मीरा की भक्ति एकनिष्ठता, अन्यतम, आत्मसमर्पण, परित्राण की याचना, प्रभु के शरण में आने की आज्ञा एवं कृष्ण की विविध लीलाओं का गान इत्यादि अन्यतम विशेषताएँ हैं। मीरा की भक्ति में नवधा भक्ति एवं निर्गुण भक्ति का भी समावेश हुआ है। वस्तुतः मीरा सगुणोपासक, मूर्तिपूजक, कृष्णाश्रयी माधुर्योपासक वैष्णव भक्त थीं। मीरा की भक्ति से संबंधित कुछ पद देखें –
1. राम नाम रस पीजे मनुआं।
2. मन रे परस हरि के चरण।
3. मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।
3. प्रेमानुभूति –
मीरा कृष्ण-प्रेम की अनन्य पुजारिन थीं। प्रेम दीवानी मीरा ने बार-बार अपने प्रियतम कृष्ण के चरणों में लिपट जाने की इच्छा प्रकट की है। समर्पण भाव की पराकाष्ठा मीरा की प्रेम-पद्धति की सर्वप्रमुख विशेषता है। मीरा का समूचा काव्य उनका सुंदर प्रेमोद्गार है –
गिरधर म्हांरो प्रीतम।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ।
4. अन्य विशेषताएँ –
मीरा के काव्य में भावपक्ष के अंतर्गत जीवन संबंधी, प्रकृति-वर्णन संबंधी, रहस्य-भावना एवं दर्शन-संबंधी पद भी मिलते हैं। उदाहरण के रूप में इन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है –
1. जीवन संबंधी पद – मीरा के प्रभु सदा सहाई राखै विघन हटाय।
भजन भाव में मस्त डोलती गिरधर पै बलि जाय।
2. प्रकृति वर्णन संबंधी – झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मन भावन की।
3. रहस्य-भावना संबंधी – तुम बिच, हम बिच अंतर नाहीं जैसे सूरज घामा।
4. दर्शन संबंधी – भज मन चरण कमल कंवल अविनासी।
(ii) कलापक्ष विषयक विशेषताएँ –
भाषा – मीरा की भाषा में मुख्यतः ब्रज, गुजराती, राजस्थानी तथा पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग मिलता है। मीरा का उद्देश्य अपने प्रेमपूर्ण हृदय को प्रकट करना था। उनकी भाषा अनुभूति की भाषा है, जो हृदयस्पर्शी, भावप्रवण, प्रवाहमय, प्रभावात्मक, सहज और स्वाभाविक बन पड़ी है। यथा –
1. यहि विधि भक्ति कैसे होय……(ब्रजभाषा)
2. मुज अबला ने मोटी नीरांत धई रे – (राजस्थानी)
3. लागी सोही जाणै, कठण लगण दी पीर (पंजाबी)
4. प्रेमनी प्रेमनी प्रेमनी रे, मनी लागी कटारी प्रेमनी (गुजराती)
मीरा की भाषा में शब्दों का अशुद्ध प्रयोग भी मिलता है। जैसे न का ‘ण’ प्रयोग, सहेली का बहुवचन सहेल्यां मुरली का मुरलिया नृत्य का निरत, सेह का नेहड़ा इत्यादि।
मीरा का समूचा काव्य उनके हृदय की भाषा है; उसमें कोई लुकाव- छिपाव नहीं, अतः उनके काव्य में अधिकांशतः ‘अभिधाशक्ति’ का प्रयोग मिलता है।
म्हारा री गिरधर गोपाल दूसरा णा कूंयां। (अभिधा शक्ति)
म्हीं गिरधर आगां नाच्या री।।
मीरा ने अपनी अभिव्यक्ति को सरस और मधुर बनाने के लिए अनेक लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग किया है; जिनसे उनके पदों में अर्थ- गांभीर्य की वृद्धि हो गई है। यथा-आली रे णेणा बाण पड़ी, थारो रूप देख्यां अटकी इत्यादि। अलंकार की दृष्टि से मीरा के काव्य में अनुप्रास, वीप्सा, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अत्युक्ति, उदाहरण, अर्थान्तरन्यास इत्यादि अनेक शब्दालंकारों व अर्थालंकारों का प्रयोग हुआ है। यथा –
1. तुम बिच, हम बिच अंतर नाहीं जैसे सूरज घामा। (उदाहरण)
2. अंसुवं जल सींच-सींच प्रेम बेलि बूयां। (रूपक)
3. गिणतां गिणतां घिस गया, रेखा आंगलियां सारी (अत्युक्ति)
मीरा के काव्य में छंदों की स्थिति भी भाषा के समान है। उनके काव्य में लगभग 15 प्रकार के छंदों का प्रयोग मिलता है; जिनमें सरसीछंद, सारकंद, विष्णुपद, उपमानछंद, दोहानंद, शोभन छंद, कुण्डल चंद इत्यादि मुख्य हैं। मीरा ने किसी पिंगलशास्त्र का अध्ययन नहीं किया था, इसलिए उनके छंदों में कई दोष अथवा त्रुटियाँ रह गई हैं।
संगीतात्मकता – मीरा का काव्य ‘गीतिकाव्य’ के अंतर्गत आता है। मीरा ने गीति का माध्यम अपनाया नहीं, बल्कि उनकी विरह-वेदना स्वतः ही गीतों के रूप में फूट पड़ी है। उनके पदों में गीतिकाव्य की समस्त विशेषताएँ — आत्माभिव्यक्ति, संगीतात्मकता, भावप्रवणता तथा भावों का ऐक्य इत्यादि सहज सुलभ हैं। यथा –
1. बस्यां म्हारे णेणा मां नंदलाल।
2. आली रे म्हारे नेणां बाण पड़ी।
शैली – मीरा के काव्य में क्या कहा गया है? कैसे कहा गया है? —यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं है; महत्त्वपूर्ण यह है कि उनके काव्य में उनका प्रेमदग्ध हृदय साकार हुआ है। मीरा पदावली वस्तुतः मीरा के प्रेमी-हृदय की एक अमरगाथा है, जो शब्दों के चमत्कार, अलंकारों की छटा, छंदों के सौंदर्य इत्यादि की दृष्टि से बहुत समृद्ध न होने पर भी जीवंत, प्रभावात्मक बन पड़ी है। मीरा का सम्पूर्ण काव्य आत्मव्यंजक काव्य है और इस दृष्टि से मीरा की शैली गीतिकाव्य की आत्मव्यंजक शैली है। इस प्रकार, मीरा का भावपक्ष जितना संपन्न है, उतना ही कलापक्ष भी समृद्ध है।
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