मीरा के काव्य की विशेषताएँ

मीरा के काव्य की विशेषताएँ(Meera ke Kavya ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत मीरा के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

मीरा के काव्य की विशेषताएँ

(i) भावपक्ष विशेषताएँ –

1. विरह-वर्णन –

मीरा के काव्य का सर्वप्रमुख पक्ष है—उनकी वेदनानुभूति और विरह-वर्णन। मीरा का विरह-वर्णन अंतर्मुखी, अनुभूतिप्रवण, दर्द और तडपन से युक्त आनंद की सजग साधना है। मीरा के विरह-वर्णन में ‘प्रवासजन्य विरह’ की प्रधानता है।

प्रभु जी कहाँ गयो नेहड़ा लगाय।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे, थे विण रहयां ण जाये।

उनके काव्य में विरह की अंतर्दशाओं का भी वर्णन हुआ है। यथा –

1. होली पिया बिन लागां री खारी।
2. पपइया रे पिव की वाणि न बोल।

2. भक्ति-पद्धति –

मीरा बाई (meera bai) कृष्णभक्त कवयित्री थीं। मीरा की भक्ति कांताभाव की माधुर्य भक्ति थी। मीरा की भक्ति एकनिष्ठता, अन्यतम, आत्मसमर्पण, परित्राण की याचना, प्रभु के शरण में आने की आज्ञा एवं कृष्ण की विविध लीलाओं का गान इत्यादि अन्यतम विशेषताएँ हैं। मीरा की भक्ति में नवधा भक्ति एवं निर्गुण भक्ति का भी समावेश हुआ है। वस्तुतः मीरा सगुणोपासक, मूर्तिपूजक, कृष्णाश्रयी माधुर्योपासक वैष्णव भक्त थीं। मीरा की भक्ति से संबंधित कुछ पद देखें –

1. राम नाम रस पीजे मनुआं।
2. मन रे परस हरि के चरण।
3. मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।

3. प्रेमानुभूति –

मीरा कृष्ण-प्रेम की अनन्य पुजारिन थीं। प्रेम दीवानी मीरा ने बार-बार अपने प्रियतम कृष्ण के चरणों में लिपट जाने की इच्छा प्रकट की है। समर्पण भाव की पराकाष्ठा मीरा की प्रेम-पद्धति की सर्वप्रमुख विशेषता है। मीरा का समूचा काव्य उनका सुंदर प्रेमोद्गार है –

गिरधर म्हांरो प्रीतम।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ।

4. अन्य विशेषताएँ –

मीरा के काव्य में भावपक्ष के अंतर्गत जीवन संबंधी, प्रकृति-वर्णन संबंधी, रहस्य-भावना एवं दर्शन-संबंधी पद भी मिलते हैं। उदाहरण के रूप में इन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है –

1. जीवन संबंधी पद – मीरा के प्रभु सदा सहाई राखै विघन हटाय।
भजन भाव में मस्त डोलती गिरधर पै बलि जाय।
2. प्रकृति वर्णन संबंधी – झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मन भावन की।
3. रहस्य-भावना संबंधी – तुम बिच, हम बिच अंतर नाहीं जैसे सूरज घामा।
4. दर्शन संबंधी – भज मन चरण कमल कंवल अविनासी।

(ii) कलापक्ष विषयक विशेषताएँ –

भाषा – मीरा की भाषा में मुख्यतः ब्रज, गुजराती, राजस्थानी तथा पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग मिलता है। मीरा का उद्देश्य अपने प्रेमपूर्ण हृदय को प्रकट करना था। उनकी भाषा अनुभूति की भाषा है, जो हृदयस्पर्शी, भावप्रवण, प्रवाहमय, प्रभावात्मक, सहज और स्वाभाविक बन पड़ी है। यथा –

1. यहि विधि भक्ति कैसे होय……(ब्रजभाषा)
2. मुज अबला ने मोटी नीरांत धई रे – (राजस्थानी)
3. लागी सोही जाणै, कठण लगण दी पीर (पंजाबी)
4. प्रेमनी प्रेमनी प्रेमनी रे, मनी लागी कटारी प्रेमनी (गुजराती)

मीरा की भाषा में शब्दों का अशुद्ध प्रयोग भी मिलता है। जैसे न का ‘ण’ प्रयोग, सहेली का बहुवचन सहेल्यां मुरली का मुरलिया नृत्य का निरत, सेह का नेहड़ा इत्यादि।

मीरा का समूचा काव्य उनके हृदय की भाषा है; उसमें कोई लुकाव- छिपाव नहीं, अतः उनके काव्य में अधिकांशतः ‘अभिधाशक्ति’ का प्रयोग मिलता है।

म्हारा री गिरधर गोपाल दूसरा णा कूंयां। (अभिधा शक्ति)
म्हीं गिरधर आगां नाच्या री।।

मीरा ने अपनी अभिव्यक्ति को सरस और मधुर बनाने के लिए अनेक लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग किया है; जिनसे उनके पदों में अर्थ- गांभीर्य की वृद्धि हो गई है। यथा-आली रे णेणा बाण पड़ी, थारो रूप देख्यां अटकी इत्यादि। अलंकार की दृष्टि से मीरा के काव्य में अनुप्रास, वीप्सा, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अत्युक्ति, उदाहरण, अर्थान्तरन्यास इत्यादि अनेक शब्दालंकारों व अर्थालंकारों का प्रयोग हुआ है। यथा –

1. तुम बिच, हम बिच अंतर नाहीं जैसे सूरज घामा। (उदाहरण)
2. अंसुवं जल सींच-सींच प्रेम बेलि बूयां। (रूपक)
3. गिणतां गिणतां घिस गया, रेखा आंगलियां सारी (अत्युक्ति)

मीरा के काव्य में छंदों की स्थिति भी भाषा के समान है। उनके काव्य में लगभग 15 प्रकार के छंदों का प्रयोग मिलता है; जिनमें सरसीछंद, सारकंद, विष्णुपद, उपमानछंद, दोहानंद, शोभन छंद, कुण्डल चंद इत्यादि मुख्य हैं। मीरा ने किसी पिंगलशास्त्र का अध्ययन नहीं किया था, इसलिए उनके छंदों में कई दोष अथवा त्रुटियाँ रह गई हैं।

संगीतात्मकता – मीरा का काव्य ‘गीतिकाव्य’ के अंतर्गत आता है। मीरा ने गीति का माध्यम अपनाया नहीं, बल्कि उनकी विरह-वेदना स्वतः ही गीतों के रूप में फूट पड़ी है। उनके पदों में गीतिकाव्य की समस्त विशेषताएँ — आत्माभिव्यक्ति, संगीतात्मकता, भावप्रवणता तथा भावों का ऐक्य इत्यादि सहज सुलभ हैं। यथा –

1. बस्यां म्हारे णेणा मां नंदलाल।
2. आली रे म्हारे नेणां बाण पड़ी।

शैली – मीरा के काव्य में क्या कहा गया है? कैसे कहा गया है? —यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं है; महत्त्वपूर्ण यह है कि उनके काव्य में उनका प्रेमदग्ध हृदय साकार हुआ है। मीरा पदावली वस्तुतः मीरा के प्रेमी-हृदय की एक अमरगाथा है, जो शब्दों के चमत्कार, अलंकारों की छटा, छंदों के सौंदर्य इत्यादि की दृष्टि से बहुत समृद्ध न होने पर भी जीवंत, प्रभावात्मक बन पड़ी है। मीरा का सम्पूर्ण काव्य आत्मव्यंजक काव्य है और इस दृष्टि से मीरा की शैली गीतिकाव्य की आत्मव्यंजक शैली है। इस प्रकार, मीरा का भावपक्ष जितना संपन्न है, उतना ही कलापक्ष भी समृद्ध है।

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मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ

मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ(maithili sharan gupt ki kavyagat visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ

1. रामभक्ति –

मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-प्रवृत्तियों में सर्वप्रमुख प्रवृत्ति उनकी ‘रामभक्ति’ है। ‘रंग में भंग’ से लेकर ‘जयभारत’ तक की सभी कृतियों में गुप्त जी ने रामभक्ति का सुन्दर निदर्शन प्रस्तुत किया है। रामभक्ति- काव्यधारा में गुप्त जी की ‘साकेत’ रचना का अक्षुण्ण महत्त्व है। मैथिलीशरण गुप्त जी ने राम की कथा को एक नवीन रूप प्रदान किया। उन्होंने राम को ईश्वर का विश्वव्यापी रूप प्रदान किया है और यह कहा है कि राम से प्रेम करना ईश्वर से प्रेम करना है।

‘’राम तु मानव हो ईश्वर नहीं हो क्या ?
विश्व में रमे हुए नहीं सभी वहीं क्या?
तब मैं निरीश्वर हूँ ईश्वर क्षमा करें
तुम न रमो तो मन में रमा करें।‘’

डॉ. सत्येन्द्र का मत है कि – “गुप्त जी के काव्य में राम के प्रति अटूट भक्ति है। गुप्त जी की कविता व्यक्तिगत हर्ष-विषाद और संयोग-वियोग की अभिव्यक्ति नहीं, एक परम्परागत भारतीय परिवार की गौरवमयी झाँकी है।” डॉ. नगेन्द्र ने ‘मानस’ के बाद साकेत को राम काव्य का दूसरा स्तंभ कहा है।

2. राष्ट्रीयता –

गुप्त जी राष्ट्रीय कवि हैं। विजयेन्द्र स्नातक के शब्दों में “राष्ट्रीय सांस्कृतिक मूल्यों के वैतालिक गुप्त जी थे।” ‘भारत-भारती’ के प्रकाशन के साथ ही गुप्त जी की पहचान राष्ट्रीय भावधारा के प्रतिनिधि कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गई। गुप्त जी की राष्ट्रीयता में अतीत का गौरवगान (भारत-भारती, हिन्दू ), जन्मभूमि से अकाट्य प्रेम, कर्त्तव्य- अकर्त्तव्य का विवेक, सांस्कृतिक जागरण, कर्त्तव्यबोध, स्वतंत्रता के लिए व्याकुल पुकार, जातीय गौरव का अमर दिव्य संदेश है, तो न्यायार्थ अपने बन्धुओं को भी दण्ड देने का अद्भुत भाव है। गुप्त जी की राष्ट्रीयता देखें –

1. हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।

2. फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार में।
जागी यहीं थी जग रही जो ज्योति अब संसार में।

राष्ट्रीय एकता, साम्प्रदायिक सद्भाव और सौहार्द के सम्बन्ध में गुप्त जी ‘मातृवंदना’ शीर्षक कविता में कहते हैं कि –

3. जाति, धर्म या संप्रदाय का, नहीं भेद व्यवधान यहाँ।

सबका स्वागत, सबका आदर, सबका सम-सम्मान यहाँ। विजयेन्द्र स्नातक ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि – “भारतीय संस्कृति की विराट सामाजिकता ही गुप्त जी को इष्ट थी और इसी उदात्त भावना को वह राष्ट्र-भावना के रूप में स्वीकार करते हैं। जिस राष्ट्रीय एकता, अखंडता और साम्प्रदायिक सद्भावना की बात आज देश में की जा रही है, गुप्त जी के काव्य में वह सर्वोपरि है।” गुप्त जी सच्चे अर्थो में राष्ट्रीय कवि हैं। भारत- भारती रचना राष्ट्रीय जागरण का शंखनाद है।

3. उपेक्षितों का उद्धार –

मैथिलीशरण गुप्त का काव्य उपेक्षित पात्रों के उद्धार की दृष्टि से विशिष्ट काव्य है। गुप्त जी ने ‘पंचवटी’ में लक्ष्मण का, ‘साकेत’ में उर्मिला का और ‘यशोधरा’ में यशोधरा का उद्धार किया है। रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि- “साकेत की रचना तो मुख्यतः इस उद्देश्य से हुई है कि उर्मिला काव्य की उपेक्षित पात्र न रह जाये। पूरे दो सर्ग (9 और 10) उसके वियोग वर्गन में खाप गये हैं। जिनके बीच-बीच में अत्यंत उच्च भावों की व्यंजना है।”

‘साकेत’ के नवम् सर्ग में उर्मिला का चरित्रोत्कर्ष देखते ही बनता है। वह अपने त्याग और पवित्र प्रेम के बल पर अविस्मरणीय चरित्र बनकर उभरती है। काव्य की उपेक्षिताओं के सन्दर्भ में ‘यशोधरा’ कृति की ‘यशोधरा’ नारी चरित्र भी गुप्त जी की एक अविस्मरणीय सृष्टि है यशोधरा के प्रथम पृष्ठ पर ही गुप्त जी ने लिखा है कि-

‘’अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में है पानी।‘’

गुप्त जी ने यशोधरा के चरित्र के द्वारा भारतीय नारी को उसके स्वाभाविक गुणों के साथ प्रतिष्ठित किया है; जो पुरुष को बाँधती नहीं मुक्त करती है। और उसे कर्मण्यता सिखाती है। गुम जी की ‘विष्णुप्रिया’ रचना भी यशोधरा के समान है। चैतन्य महाप्रभु की गृहिणी ‘विष्णुप्रिया’ का दुःख भी यशोधरा से मिलता-जुलता है। विष्णुप्रिया को भी चैतन्य निद्रामग्न छोड़ गृह-त्याग करते हैं।

गुप्त जी एक स्थान पर चैतन्य के माध्यम से कहते हैं कि – “पुरुष क्या करेगा त्याग करती है नारी ही।” उर्मिला, यशोधरा, विष्णुप्रिया इत्यादि उपेक्षिता नारी पात्रों को सर्वप्रथम गुप्त जी ने ऐसी प्रतिष्ठा प्रदान की है कि ये अमर नारी चरित्र के रूप में प्रतिष्ठित हो गईं। हिन्दी-कविता के इतिहास में गुप्त जी पहले कवि हैं, जिन्होंने उपेक्षित नारियों का उद्धार कर इनका परिष्कृत आदर्श रूप समाज के समक्ष रखा।

4. मानवतावाद –

सांस्कृतिक पुनर्जागरण के पुरोधा और भारतीय सभ्यता, संस्कृति और परंपरा के पोषक मैथिलीशरण गुप्त सच्चे अर्थों में मानवतावाद के पोषक और समर्थक थे। गुप्त जी ने ‘काबा और कर्बला’ लिखकर मुसलमानों के प्रति उदारता बरती, तो ‘गुरुकुल’ लिखकर सिक्खों के धर्म गुरुओं के प्रति सहिष्णुता का अद्‌भुत परिचय दिया। आशावादी कवि गुप्त जी मानवतावाद के पक्षधर हैं जो विषम स्थिति में भी स्वर्णिम स्वरूप को साकार करने एवं आशा का महत् संदेश देते हैं। यथा-

”भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया,
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल ही को स्वर्ग बनाने आया।।”

5. भारतीय संस्कृति –

गुप्त जी भारतीय संस्कृति के अनन्य प्रस्तोता हैं और उनका काव्य भारतीय संस्कृति का आख्यान है। गुप्त जी की समस्त रचनाओं में भारतीय संस्कृति की पुरजोर अभिव्यक्ति होने के साथ-साथ भारतीय समाज के उद्बोधन की दिशा में स्तुत्य एवं सार्थक प्रयास व्यक्त हुआ है। डॉ उमाकांत गोयल ने गुप्त जी को भारतीय संस्कृति का आख्याता सही कहा है। गुप्त जी गार्गी, मैत्रेयी, अहल्या, लक्ष्मी, पद्मिनी, भारती जैसी स्त्रियों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि “इससे हमारी संस्कृति और जातीय इतिहास जगमगा रहे हैं।”

वहीं दूसरी ओर पूरे विश्वास के साथ यह लिखते हैं कि “पाती स्त्रियाँ आदर जहाँ रहतीं वहीं सब सिद्धियाँ”। परिवार के केन्द्र में स्थित नारी को विशिष्टता प्रदान कर गुप्त जी ने भारतीय संस्कृति के उज्वल पक्ष को रूपावित किया है। मर्यादा, कर्तव्यपालन, पराक्रम, मेह, सौहार्द, वसुधैव कुटुम्बकम् इत्यादि भारतीय संस्कृति के प्रोज्ज्वल मणि का सुन्दर दस्तावेज है- गुप्त जी का साहित्य।

6. मानवीय मूल्य –

गुप्त जी का काव्य मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति का अद्भुत काव्य है। गुप्त जी का काव्य युगीन समस्याओं (यथा- राष्ट्रीय मुक्ति, जात-पाँत, छुआछूत, स्त्री सम्मान की समस्या, अनमेल विवाह, किसान-समस्या, बाल-विवाह इत्यादि) का चित्रण कर जहाँ सुधार का संदेश देता है; वहीं राष्ट्र-सम्मान, स्वतंत्रता, स्त्री-सम्मान इत्यादि मूल्यों को भी उच्च मनोभूमि पर प्रतिष्ठित करता है। यथा –

1. अनय राज निर्दय समाज से निर्भय होकर जूझो।

2. न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दंड देना धर्म है।

7. प्रकृति चित्रण –

गुप्त जी की काव्य-प्रवृत्तियों में प्रकृति-चित्रण एक अन्यतम प्रवृत्ति है। साकेत, यशोधरा, पंचवटी इत्यादि रचनाओं में पंत जी ने प्रकृति के बड़े सुंदर, सजीव, जीवंत, मनोरम एवं भाव प्रवण चित्र उकेरे हैं। ‘पंचवटी’ में प्रकृति का आलंबन रूप में यह चित्र अनुपम है –

‘’चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अंबर तल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मंद पवन के झोंकों से।‘’

प्रकृति-चित्रण का निम्नांकित उदाहरण भी बेमिसाल है-

‘’सखी निरख नदी की धारा
ढलढल ढलमल अंचल अंचल झलमल झलमल तारा।‘’

8. कलापक्ष –

कलापक्ष की दृष्टि से गुप्त जी की महनीय देन है— ‘खड़ी बोली को कविता के अनुकूल स्वरूप प्रदान करना’। गुप्त जी पहले ब्रजभाषा में कविता किया करते थे। आरम्भ में उन्होंने ‘रसिकेन्द्र’ उपनाम से एक ब्रजभाषा की कविता ‘सरस्वती’ में प्रकाशनार्थ भेजी थी; जिसे महावीर
प्रसाद द्विवेदी ने यह कहकर लौटा दिया कि आपकी कविता पुरानी भाषा में लिखी गई है।

सरस्वती में हम बोलचाल की भाषा में ही लिखी गई कविताएँ छापना पसंद करते हैं। कुछ समय बाद ‘हेमंत’ शीर्षक से गुप्त जी की खड़ीबोली में (सरस्वती पत्रिका में) प्रथम कविता प्रकाशित हुई और फिर उनकी भाषा निरंतर निखरती हुई परवान चढ़ी।

खड़ी बोली को काव्यभाषा बनाने में गुप्त जी का अभूतपूर्व योगदान रहा। उमाकांत गोयल ने लिखा है कि – खड़ीबोली के स्वरूप-निर्धारण और विकास में गुप्त जी का योगदान अन्यतम है। खड़ीबोली को उसकी प्रकृति के भीतर ही सुन्दर सुघड़ स्वरूप देकर काव्योपयुक्त रूप प्रदान करने का इन्होंने सफल प्रयत्न किया। आज जिस संपन्न भाषा के हम अनायास उत्तराधिकारी हैं, उसे काव्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले यही प्रथम कवि हैं।

अलंकार-छंद की दृष्टि से भी मैथिलीशरण गुप्त उल्लेखनीय हैं। गुप्त जी ने अपनी भाषा-शैली को अर्थालंकारों से सँजोया-सँवारा है; फिर भी शब्दालंकारों के प्रयोग भी उनके काव्य में मिलते हैं। इन्हें ‘अन्त्यानुप्रास का स्वामी’ कहा जाता है। इनके काव्य में छंदों की जितनी विविधता मिलती है, वर्तमान युग में कदाचित् किसी कवि में नहीं। इनके छंद प्रसंगानुकूल हैं।

छंद-मर्मज्ञ गुप्त जी को नंददुलारे वाजपेयी छंद-प्रयोग की विविधता, प्रसंगानुकूलता इत्यादि विविध दृष्टियों से तुलसी के समकक्ष घोषित करते हैं। गुप्त जी का काव्यरूप प्रबंधात्मक (साकेत, जयभारत), खड-काव्य (पंचवटी, द्वापर,नहुष किसान आदि), चंपूकाव्य (यशोधरा), प्रबंधात्मक प्रगीत मुक्तक (भारत-भारती, वैतालिक, हिंदू आदि) एवं मुक्तक (स्वदेश संगीत, झंकार आदि) हैं।

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नकेनवाद क्या है ?

नकेनवाद क्या है ?

बिहार के नलिनविलोचन शर्मा ने अपने दो साथियों नरेश और केशरी कुमार को मिलाकर ‘नकेनवाद’ की स्थापना की थी। नकेनवाद का नाम इन तीन कवियों के नाम के पहले अक्षर से मिलकर बना है। इसकी स्थापना 1956 में की गई। इसका दूसरा नाम ‘प्रपद्यवाद’ भी दिया गया। यह हिन्दी साहित्य की एक प्रयोगवादी शाखा है।

इसमें प्रयोगवाद को स्पष्ट करने के लिए 10 सूत्री सामने रखे गए; जिसका सार यही है कि ‘प्रपद्यवाद’ न सिर्फ शास्त्र या दल- निर्धारित नियमों को, बल्कि महान पूर्ववर्तियों की परिपाटियों को भी गलत मानता है। इसे अपना अनुकरण भी वर्जित है।

प्रपद्यवाद प्रयोग को साध्य मानता है, जबकि प्रयोगवाद इसे साधन। ‘प्रपद्यवाद’ और प्रयोगवाद में यही अंतर है। नकेनवादियों का ‘प्रपद्यवाद’ अज्ञेय के प्रयोगवाद की स्पर्द्धा में खड़ा किया गया आंदोलन था।

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हालावाद से आप क्या समझते हैं ?

हालावाद(Halawad): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत हालावाद पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

हालावाद से आप क्या समझते हैं ?

हालावाद के प्रवर्त्तक हरिवंशराय बच्चन हैं। हालावाद का समयकाल 1933 से 1936 तक माना जाता है। साहित्यिक दृष्टि से छायावाद की वेदना और घनीभूत होकर निराशा में परिणत हो हालावाद का रूप धारण कर लिया। दूसरे शब्दों में – “छायावाद की निराशा ने बच्चन की वाणी से जो एक नई भावधारा को जन्म दिया, उसे ‘हालावाद’ कहते हैं।

वेदना को मधुर बनाकर सहन करने के फलस्वरूप हालावाद का जन्म हुआ था और छायावाद की इस प्रक्षेपित धारा ‘हालावाद’ को भी 1936 ई. में समाप्त कर दिया गया।

मधुशाला (1935), मधुबाला (1936) और मधुकलश (1951) बच्चन की ये तीन कृतियाँ हालावाद की विशिष्ट देन हैं। इन दोनों काव्य- संग्रहों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि हालावाद के नाम से पृथक् काव्यधारा ही प्रवाहित हो गई। फलस्वरूप बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, हृदयेश, भगवतीचरण वर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ इत्यादि कवियों ने मादकता और बेहोशी के गीत गाये।

जीवन के दुःखों और विफलताओं को अनिवार्य समझकर एक विचित्र मस्ती में समस्त पीड़ा को डुबो देना ही हालावाद का लक्ष्य था। इस वाद की सारी विशेषता बच्चन की इस पंक्ति में निहित है – मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षणभर जीवन मेरा परिचय।

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भारतेंदु युगीन काव्य की विशेषताएँ

भारतेंदु युगीन काव्य की विशेषताएँ(Bharatendu Yugin Kavya ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत भारतेंदु युगीन काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

भारतेंदु युगीन काव्य की विशेषताएँ

हिंदी-साहित्येतिहास में 1850 ई. से 1900 ई. तक का काल ‘भारतेन्दु काल’ है। समकालीन साहित्य पर भारतेन्दु की बहुमुखी प्रतिभा की जबरदस्त छाप और साहित्य-क्षेत्र में उनके कुशल नेतृत्व प्रदान करने के कारण 1850 से 1900 ई. तक का युग भारतेन्दु-युग कहलाया, जो उपयुक्त ही था।

भारतेंदु युग के कवि – भारतेन्दु, प्रेमघन, अंबिकादत्त व्यास, राजा लक्ष्मण सिंह, तोताराम, सीताराम भूप, मुरारिदान इत्यादि भारतेन्दु-युग के प्रमुख हस्ताक्षर थे।

1. देशभक्ति

अंग्रेजी राज्य के अधीन रहते हुए भी भारतेन्दुयुगीन कवियों ने देश और जाति के अतीत का गौरवगान, वर्तमान हीनावस्था पर क्षोभ, उज्ज्वल भविष्य के लिए उद्बोधन जो उस समय देशभक्ति भावना के अन्तर्गत आते थे, का बड़ी प्रमुखता के साथ चित्रण किया।

(i) कहाँ करुणानिधि केशव सोए
जागत नाहि अनेक जतन करि भारतवासी रोए।

(ii) हाय पंचनद! हा पानीपत! अजहुँ रहे तुम धरनि बिराजत
हाय चित्तौड़, निलज तू भारी, अजहुँ खरौ भारतहिं मंझारी।।

2. राजभक्ति

‘देशभक्ति के साथ राजभक्ति का प्रकाशन’ भारतेन्दुयुगीन काव्य की मुख्य विशेषता थी। सन् 1885 ई. में महारानी विक्टोरिया के घोषणा पत्रों द्वारा देश में आमूल सुधार हुए तो तयुगीन साहित्यकारों ने तत्कालीन शासकों के प्रति अभिव्यक्ति की।

यथा –

(क) अंगरेज राज सुख साज सब भारी। (भारतेन्दु)
(ख) राजभक्ति भारत सरिस और ठौर कहुँ नाहिं। (अंबिकादत्त व्यास)
(ग) जयति राजेश्वरी जय-जय परमेश।

3. जन साहित्य

भारतेन्दुयुगीन कवियों ने पहली बार निर्धनता, बुभक्षा, अकाल, महंगाई, टैक्स, आलस्य, बालविवाह, बहुविवाह, विधवा-विवाह निषेध, अशिक्षा, अज्ञानता, पुलिस, अत्याचार, बुराई इत्यादि का चित्रण कर जन साहित्य प्रस्तुत किया। भारतेन्दु-युग के साहित्यकार यथार्थवादी थे जिनका उद्देश्य सुधारवाद से प्रेरित था।

‘’डफ बाज्यो भरत भिखारी को।
बिन धन अन्न लोग सब व्याकुल भई कठिन विपत नर नारी को।‘’

4. अन्य विशेषताएँ

मातृभाषा हिन्दी का उत्थान (निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति के मूल), हास्य-व्यंग्य (चूरन पुलिसवाले खाते, कानून सब हजम कर जाते) काव्यानुवाद (रघुवंश, मेघदूत, हरमिट, डिजरटेंड विलेज इत्यादि ग्रंथों का अनुवाद) इत्यादि भारतेन्दुयुगीन काव्य की अन्य मुख्य विशेषताएँ थीं। भारतेन्दुयुगीन कवियों की भाषा ब्रजभाषा थी किंतु खड़ीबोली का प्रयोग भी प्रारंभ हुआ।

भारतेन्दुयुगीन काव्य का स्वरूप मुक्तक था। आल्हा, लावनी, कजली, ठुमरी इत्यादि नए छंदों का प्रयोग हुआ। लोकगीत भी लिखे गये।

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द्विवेदी युगीन काव्य की विशेषताएँ

द्विवेदी युगीन काव्य की विशेषताएँ (Dwivedi Yugin Kavya ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत द्विवेदी युगीन काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

द्विवेदी युगीन काव्य की विशेषताएँ

हिंदी-साहित्येतिहास में 1900 से 1918-20 ई. तक का काल द्विवेदी काल है। समकालीन साहित्य पर महावीर प्रसाद द्विवेदी की बहुमुखी प्रतिभा और प्रभावशाली व्यक्तित्व की इतनी गहन व प्रभावशाली छाप पड़ी कि उनका युग (1900-1918) ‘द्विवेदी युग’ कहलाया। जागरण और सुधार की दृष्टि से यह काल ‘जागरण सुधार काल’ भी कहा जाता है। द्विवेदी जी के अतिरिक्त मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, रायदेवी प्रसाद पूर्ण, नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ इत्यादि द्विवेदीयुग के प्रधान कवि थे।

1. राष्ट्रीयता

राष्ट्रीयता द्विवेदीयुगीन कव्य की प्रधान भावधारा थी। द्विवेदीयुगीन कवियों ने देश की वर्तमान हीन दशा पर क्षोभ प्रकट किया और आलस, फूट, मिथ्या, कुलीनता इत्यादि को उसका कारण बताया। उन्होंने परतंत्रता को सबसे बड़ा अभिशाप मानते हुए स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए क्रांति और आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा दी।

‘’देशभक्त वीरों मरने से नहीं नेक डरना होगा।
प्राणों का बलिदान देश की बलिवेदी पर करना होगा।।‘’

2. जागृति

द्विवेदीकाल ‘जागरण काल’ है। यह राष्ट्रीय जागृति का वह काल है, जब सारा देश अंगड़ाई लेता हुआ जागता है। ब्रिटिश हुकूमत के प्रति जेहाद के रूप में उभरता हुआ आक्रोश द्विवेदी युग में देखते ही बनता है। वस्तुतः भाषा, विषय, राष्ट्रीयता इत्यादि विभिन्न आधारों पर द्विवेदी युग समस्त देश को एकता के सूत्र में पिरोने का काल है।

3. काव्यफलक का विस्तार

‘सब विषय काव्योपयुक्त हैं, कविता के क्षेत्र में द्विवेदीयुग में यह मार्ग प्रशस्त हुआ। चींटी से लेकर हाथी तक, भिक्षुक से लेकर राजा तक, बिंदु से लेकर समुद्र तक, अनंत आकाश, अनंतपृथ्वी, अनंतपर्वत इत्यादि सभी को काव्य का उपयुक्त विषय माना गया।

4. मानवतावाद

द्विवेदीयुग में सामान्य मानव की प्रतिष्ठा पहली बार हुई। छायावाद-युग में जो सामान्य मानव आता है, वह द्विवेदीयुग से ही चलकर आता है। द्विवेदी जी की कविता में ‘कल्लू अल्हैत’ काव्य का विषय बना, तो अविद्यानंद के व्याख्यान में विदेशीयता का रसिक शंकर जी के व्यंग्य बाण का लक्ष्य बना। द्विवेदी युग में साकेत, द्वापर, यशोधरा में उपेक्षित नारियों का चित्रण ‘सामान्य मानव की प्रतिष्ठा’ का सूचक है।

5. अन्य विशेषताएँ

बौद्धिकता, हास्य की अपेक्षा व्यंग्य की प्रधानता (शिवशंभु का चिट्ठा में बालमुकुंद गुप्त ने व्यंग्य लिखे, नाथूराम शर्मा शंकर ने गर्भरंडा रहस्य लिखा), आदर्शवादिता और नैतिकता द्विवेदीयुगीन काव्य की अन्य मुख्य विशेषताएँ थीं। भाषा की दृष्टि से द्विवेदी युग इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि इसने भविष्य की कविता के लिए एक वाणी दी जिसे हम ‘खड़ीबोली’ कहते हैं।

कतिपय आलोचकों ने द्विवेदीयुगीन काव्य पर नीरसता, इतिवृत्तात्मकता, उपदेशात्मकता, कविता में अपेक्षित गहराई एवं कलात्मक समृद्धि की न्यूनता इत्यादि के आरोप लागाए। यह स्थिति प्रारम्भिक वर्षों में अवश्य रही; परन्तु प्रियप्रवास (हरिऔध), साकेत (गुप्त), जयद्रथवध (गुप्त), भारत-भारती (गुप्त) इत्यादि रचनाओं को देखते हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता है।

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छायावाद की विशेषताएं

छायावाद की विशेषताएं – अर्थ, परिभाषा और प्रवृत्तियां

छायावाद (Ekanki Ke Tatva Bataiye): छायावाद आधुनिक हिंदी-कविता की उस धारा का नाम है, जो सन् 1918 ई. से 1936 ई. तक हिंदी-काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति रही। वैयक्तिकता, भावुकता, काल्पनिकता, नवीन सौंदर्य बोध, प्रकृति का सूक्ष्म चित्रण, गीतात्मकता इत्यादि छायावाद की मुख्य विशेषताएँ थीं। छायावाद के नामकरण एवं परिभाषा के संबंध में बड़ा ऊहापोह है।

छायावाद का क्या अर्थ है ?

शुक्ल जी ने छायावाद का संबंध अंग्रेजी के ‘फैंटसमेटा’ (Phantasmata) से जोड़ा, नंददुलारे वाजपेयी ने इसका संबंध ‘युगबोध से जोड़ते हुए इसे आध्यात्मिक छाया का भान’ कहा। मुकुटधर पाण्डेय ने इसे कविता न मानकर उसकी छाया माना। इसी प्रकार सुशील कुमार ने इसे कोरे काग़ज की भाँति अस्पष्ट, निर्मल ब्रह्म की विशद छाया, वाणी की नीरवता इत्यादि-इत्यादि कहा।

सांकेतिक सूक्ष्म अभिव्यक्ति के कारण आज छायावाद उस सशक्त काव्यधारा के लिए प्रयुक्त होता है, जिसकी अवधि महज 18- 20 वर्ष है; पर जो जीवन और काव्य के प्रति नई दृष्टि अपनाने तथा विषय, भाव, भाषा, शिल्प के क्षेत्र में क्रांति लाने के कारण एक सशक्त आन्दोलन सिद्ध हुआ।

छायावाद की परिभाषा

(1) रामचंद्र शुक्ल – छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिये। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में और दूसरा काव्य शैली या विशेष के व्यापक अर्थ में।

(2) डॉ. रामकुमार वर्मा – ‘जब परमात्मा की छाया आत्मा पर पड़ने लगे और आत्मा की छाया परमात्मा पर तो यही छायावाद है।’

(3) नंददुलारे वाजपेयी – ‘छायावाद मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान है।’

(4) जयशंकर प्रसाद – कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगे, तब हिंदी में उसे छायावाद से अभिहित किया गया।

छायावाद की विशेषताएं

हिंदी साहित्य के अंतर्गत हम छायावाद की विशेषताएं टॉपिक पर जानकारी शेयर कर रहें है

1. वैयक्तिकता –

छायावाद युग में कवियों का विषय हो गया था- ‘आत्मकथा’ और शैली ‘मैं’। पंत का ‘उच्छ्वास’, प्रसाद का आँसू, निराला के ‘विप्लवी बादल’ और ‘सरोज स्मृति’ इसी वैयक्तिकता के अग्रदूत हैं। छायावादी कविता में जिस ढंग से निजी बातें एकदम खरे रूप में कही गईं, पहले कभी नहीं।

‘मैं तो अबाध गति मरुत सदृश हूँ चाह रहा अपने मन की।’

2. नवीन सौंदर्य बोध –

छायावादी कवियों ने नारी सौंदर्य के रीतिकालीन प्रतिमानों को ध्वस्त करते हुए नारी को अपमान के पंक और वासना के पर्यंक से उठाकर देवी, प्राण और सहचरी के उच्च आसन पर प्रतिष्ठित किया। पंत ने नारी को ‘देवी, माँ, सहचरी प्राण’ कहा तो निराला ने विधवा को ‘इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी’ कहा। प्रसाद ने नारी को आदर्श श्रद्धा में देखा।

“नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघवन बीच गुलाबी रंग।‘’ (कामायनी)

छायावादी कवियों का नवीन सौंदर्य बोध प्रकृति-चित्रण में भी परिलक्षित हुआ। पंत अपने चित्रण के लिए विशेष प्रसिद्ध हुए।

3. स्वछंद कल्पना –

यह छायावादी कवियों के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थी। कल्पना छायावादी कवियों के ‘मन की पाँख’ थी, वह उसकी स्वतंत्रता, मुक्ति, विद्रोह, आनंद इत्यादि आकांक्षाओं की प्रतीक थी। कल्पना छायावादी कवियों की ‘राग शक्ति’ थी, तो ‘बोध शक्ति’ भी।

4. अन्य विशेषताएँ –

भावुकता (यह छायावाद का पर्याय हो गई), जिज्ञासा (प्रथम रश्मि का आना रंगिणि तूने कैसे पहचाना), रहस्यात्मकता (निमंत्रण देता मुझको कौन?), वेदना की अभिव्यक्ति (मैं नीर भरी दुःख की बदली – महादेवी), दुःख ही जीवन की कथा रही (निराला) इत्यादि छायावाद की अन्य विशेषताएँ थीं।

5. कोमलकांत पदावली, संगीतात्मकता, चित्रात्मकता, अनूठी उपमाओं और प्रतीकों का प्रयोग छायावाद की शिल्पगत प्रवृत्तियाँ थीं। इसके अतिरिक्त छंद के क्षेत्र में मुक्तछंद का प्रयोग (जैसे-जूही की कली), अलंकार के क्षेत्र में मानवीकरण एवं विशेषण-विपर्यय इन दो नए अलंकारों का प्रयोग छायावाद की मुख्य विशेषताएँ थीं।

यथा –

1. मेघमय आसमान से उतर रही वह, संध्यासुंदरी परी सी धीरे-धीरे। (मानवीकरण)
2. तुम्हारी आँखों का बचपन ! खेलता जब अल्हड़ खेल (विशेषण विपर्यय)।

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प्रयोगवाद किसे कहते हैं ?

प्रयोगवाद(Prayogvad): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत प्रयोगवाद पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

प्रयोगवाद किसे कहते हैं – Prayogvad Kise Kahte Hai

1943 ई. में प्रगतिवाद की अतिशय ‘सपाटबयानी’ और सीधे जीवन समस्याओं के चित्रण की एकरसता के विपरीत नये प्रयोगों का आंदोलन चला और प्रयोगवाद का सूत्रपात यहीं से हुआ। 1943 ई. में ‘अज्ञेय’ के संपादन में ‘तारसप्तक प्रथम’ के प्रकाशन के साथ ही नए प्रयोग की ओर कवि विशेष रूप से उन्मुख हुए। प्रयोगवाद का समय 1943 से 1951 ई. तक माना जाता है।

इन कवियों का काव्य के प्रति एक अन्वेषी का दृष्टिकोण था। इन्होंने नूतनता की खोज के लिए केवल की घोषणा की थी इसलिए इसे ‘प्रयोगवाद’ कहा गया। हालांकि इसका विरोध भी होता रहा।

दूसरा सप्तक (1951 ई.) में प्रकाशन के साथ ही ‘अज्ञेय’ ने उस समय की कविता को प्रयोगवाद न कहकर ‘नई कविता’ कहा – “प्रयोग का कोई वाद नहीं है, हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं।” इस प्रकार प्रयोगवाद ही संतुलन की खोज में नई कविता हो जाता है। दूसरे शब्दों में प्रयोगवादी कविता का स्वाभाविक विकास नई कविता है।

प्रयोगवाद के कवि और उनकी रचनाएँ

कवि रचनाएँ
अज्ञेय भग्नदूत, चिंता, इत्यलम् ‘हरी घास पर क्षणभर, बावरा, अहेरी
भवानी प्रसाद मिश्र गीतफरोश
गिरिजा कुमार माथुर मंजीर, नाश और निर्माण, धूप के धान
धर्मवीर भारती ठंडा लोहा, अंधा युग।
नरेश कुमार मेहता संशय की एक रात।

इसके अतिरिक्त अन्य कवि नेमिचंद्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, शमशेर बहादुर सिंह इत्यादि है।

प्रयोगवाद की विशेषताएँ

1. अहंवाद – किंतु हम हैं नदी के द्वीप,
हम धारा नहीं हैं। (अज्ञेय)

2. दुःख का महत्त्व स्वीकार्य – दुःख सबको माँजता है।
चाहे वह स्वयं को मुक्ति देना न जाने किंतु जिनको माँजता है उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें। (अज्ञेय)

3. यथार्थ का आग्रह (प्रकृति – चाँदनी)
वंचना है चाँदनी
झूठ वह आकाश का निरवधि गहन विस्तार (अज्ञेय)।

4. निराशावादिता –
मैं रथ का टूटा हुआ पहिया हूँ, लेकिन मुझे फेंको मत। (धर्मवीर भारती)

5. कलापक्ष – प्रयोगवादी कवियों की भाषा-शैली हिंदीनिष्ठ थी, जिनमें आंचलिक शब्दों का प्रयोग भी समाहित है। छायावादी काव्य प्रायः छंदोबद्ध है; प्रयोगवादी काव्य निर्बंध। छायावाद तुकांत है; प्रयोगवाद अतुकांत। छायावाद शब्दलय का आग्रही है; प्रयोगवाद अर्थलय का। प्रयोगवाद में प्रगीत तत्त्व है। प्रयोगवाद में 2 पंक्तियों तक की कविता लिखी गई – घंटारव। घंटारव (शमशेर बहादुर)।
प्रयोगवादी कविता पर ‘साधारणीकरण के अभाव (डॉ. नगेन्द्र, नंददुलारे वाजपेयी इत्यादि) का आरोप लगाया जाता है। शिवदानसिंह ने प्रयोगवाद को पाश्चात्य साहित्य के प्रतीकवाद का अनुकरण मात्र कहा है।

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