मीराँबाई की पदावली

मीराँबाई की पदावली – परशुराम चतुर्वेदी | (पद 1-20) Meera Padavali

मीराँबाई की पदावली परशुराम चतुर्वेदी सप्रसंग व्याख्या सहित : मीराबाई की पदावली का संकलन आचार्य परशुराम चतुर्वेदी(Meera ki padawali : Parsuram Chaturwedi) के द्वारा किया गया। इस आर्टिकल में इसके पद 1-20 तक व्याख्या सहित दिए गए है।

मीराँबाई की पदावली – परशुराम चतुर्वेदी | (पद 1-20)

भक्त शिरोमणि मीरांबाई: सामान्य परिचय

मीराबाई का जन्म मारवाड़ परगने के कुड़की नामक गाँव में संवत् 1555 में हुआ था। यह गाँव वर्तमान में पाली जिले में आता है। हालांकि विद्वान इस विषय पर एकमत नहीं हैं। कोई उनका जन्म चौकड़ी में, कोई बाजौली में तो कोई मेड़ता में मानता है। मीरा जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के पुत्र राव दूदा की पौत्री थी। उनके पिता का नाम रतनसिंह था तथा माता का नाम वीर कँवरी था। अपने पिता की इकलौती संतान मीरा के बचपन का नाम पेमल था। उनका लालन-पालन उनके दादा राव दूदा ने किया जो वैष्णव भक्त थे। अतः मीरा का बचपन कृष्ण भक्ति की छाया में व्यतीत हुआ।

इनका विवाह मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर भोजराज से हुआ था। दुर्भाग्यवश युवावस्था में ही भोजराज की मृत्यु हो गई। फलतः मीरा को जीवन में संसारिकता से विरक्ति हो गई। उन्होंने कुल की मर्यादा व रूढ़ियों का त्याग कर अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में समर्पित कर दिया। मीरा के इस व्यवहार से राजमाता कर्मवती व राणा विक्रम ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। कहा जाता है कि परिवारजनों द्वारा सताए जाने एवं भक्ति में बाधा उपस्थित किए जाने पर उन्होंने समकालीन कवि तुलसीदास से मार्गदर्शन माँगा। तब तुलसी ने इस पद के माध्यम से उन्हें मार्गदर्शन प्रदान किया, बतलाया जाता है

‘’जाके प्रिय न राम बैदेही।

तजिए ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही॥‘’

मीरा की उपासना ‘माधुर्य भाव’ की थी। उन्होंने अपने इष्ट श्री कृष्ण को प्रियतम या पति रूप में माना। मीरा पीड़ा व वेदना की कवयित्री हैं। सत्संग के द्वारा भक्ति और भक्ति से ज्ञान द्वारा मुक्ति की कामना उनकी रचनाओं में झलकती है। मीरा के दाम्पत्य भाव में अनन्यता है। उन्होंने लिखा है – ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।’ उनकी रचनाओं में विरह वेदना, आत्मनिवेदन तथा आत्मसर्मपण सर्वत्र झलकता है। मीरा की रचनायें लिखित रूप में प्राप्त नहीं हुई हैं। ऐसा माना जाता है कि उनके पदों को लिपिबद्ध करने का कार्य उनकी सुखी ललिता ने किया था।

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आज उनकी रचनाओं का संकलन मीरा पदावली के नाम से मिलता है। मीरा के कुछ पद गुरू ग्रंथ साहब में भी मिलते हैं। मीरा की मुख्य भाषा राजस्थानी है जिसमें ब्रज, गुजराती, खड़ी बोली, अवधी आदि अनेक भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। परिवार द्वारा प्रताड़ित मीरा मेवाड़ छोड़कर वृंदावन आई लेकिन यहाँ भी उनकी कठिनाईयाँ कम नहीं हुई। ऐसी किवदन्ती है कि मीरा द्वारकाजी गई जहाँ सम्वत् 1603 में वे कृष्ण की मूर्ति में समा गई। कवि सुमित्रानंदन पंत ने मीरा बाई को ‘भक्ति के तपोवन की शकुन्तला’ तथा राजस्थान के मरुस्थल की मंदाकिनी कहा है। भक्तमाल के रचयिता कवि नाभादास ने निम्न पंक्तियों द्वारा मीरा के जीवन पर प्रकाश डाला है –

‘’सदृश्य गोपिका प्रेम प्रगट कलि जुगत दिखायो।

निर अंकुश अति निडर रसिक जन रसना गायो।।

दुष्ट ने दोष विचार मृत्यु को उद्धिम कियो।

बार न बांकों भयो गरल अमृत ज्यों पीयो।

भक्ति निशान बजाय कैं काहुन तें नाहिन लजी।

लोक लाज कुल श्रृंखला तजि मीरा गिरधर भजी।‘’

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मीराँबाई की पदावली – सम्पादक आचार्य परशुराम चतुर्वेदी

 

स्तुति वंदना

नोट : इस पद में राग तिलंग है ।

मन थें परस हरि रे चरण।।

मन थें परस हरि रे चरण।। टेक॥

सुभग सीतल कँवल कोमल, जगत ज्वाला हरण।

जिण चरण प्रहलाद परस्याँ, इन्द्र पदवी धरण।

जिण चरण ध्रुव अटल करस्याँ, सरण असरण सरण।

जिण चरण ब्रह्माण्ड भेट्याँ, नखसिखाँ सिरी धरण।

जिण चरण कालियाँ नाथ्याँ, गोप-लीला करण।

जिण चरण गोबरधन धार्यों, गरब मघवा हरण।

दासि मीराँ लाल गिरधर, अगम तारण तरण।।1।।

शब्दार्थ

परस-स्पर्श/ वंदन, कँवल कोमल-कमल के समान कोमल, सुभग- सुंदर, तरी- उद्धार, मधवा-इन्द्र, अगम-अगम्य, सिरी धरण- श्री की शोभा, तारण-उद्वार।

भावार्थ

इस पद में मीराबाई ने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को प्रस्तुत किया है। वे अपने मन को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे मन तू श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श कर। श्रीकृष्ण के ये सुन्दर शीतल कमल जैसे चरण सभी प्रकार के दैविक, दैहिक तथा भौतिक तापों का नाश करने वाले है। इन चरणों के स्पर्श से भक्त प्रहलाद का उद्धार हुआ और उन्हें इन्द्र की पदवी प्राप्त हुई।

इन्हीं चरणों के आश्रय में आकर भक्त ध्रुव ने अटल पदवी प्राप्त की। इन्हीं चरणों से श्रीकृष्ण ने ब्रह्माण्ड को भी भेद दिया था और यह ब्रह्माण्ड उन्हीं चरणों से नख से शिख तक सौंदर्य और सौभाग्य से मंडित है। इन्हीं चरणों के स्पर्श से गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या बाई का उद्धार हुआ। इन्हीं कृष्ण ने ब्रजवासियों के रक्षार्थ कालिया नाग की 1 का अन्त किया और गोपियों के साथ लीला सम्पन्न इन्हीं श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को धारण कर इन्द्र के गर्व को चकनाचूर कर दिया। मीरा ऐसे प्रभु के चरणों की दासी है और उनसे प्रार्थना करती है कि वे अगम्य संसार से उन्हें पार उतारें।

विशेष

  1. मीरा ने प्रभु कृष्ण के प्रति अपनी भावपूर्ण प्रार्थना प्रस्तुत की है।
  2. इस पद में माधुर्य गुण तथा शांत रस है।
  3. भाषा पर राजस्थानी शब्दों का प्रभाव है।
  4. भगवान के भक्त वत्सल, शरणागत रूप तथा व्यापक स्वरूप का वर्णन किया गया है।

राम ललित

म्हारो परनाम बाँकेबिहारी जी।

म्हारो परनाम बाँकेबिहारी जी।

मोर मुगट माथ्याँ तिलक बिराज्याँ, कुण्डल अलकाँ धारी जी।

अधर मधुर धर वंशी बजावाँ, रीझ रिझावाँ, राधा प्यारी जी।

या छब देख्याँ मोह्याँ मीराँ, मोहन गिरवरधारी जी।।2।।

शब्दार्थ

बाँकेबिहारी – रसिक श्री कृष्ण, अलकां-लटें, अधर – होंठ, अलकाँ धारी – काली अलकावलि धारण करने वाले।

भावार्थ

कवयित्री मीरा बाई ने इस पद में भगवान के अलौकिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए इस मनोहारी छवि को अपने हृदय में बसाने का भाव प्रकट किया है। वे कहतीं है कि मेरा सारा समर्पण श्री बांके बिहारी जी के प्रति है। उनके सिर पर मोर का सुन्दर मुकुट और माथे पर तिलक शोभायमान है। कानों में लटकदार कुण्डल हैं। उनके होठों पर बंशी है, वे सदैव राधा को रिझाते हैं। श्रीकृष्ण की यह सुन्दर छवि देखकर मीरा मोहित हो जाती है। वे कहती है ऐसे सभी को मोहित करने वाले एवं गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले श्रीकृष्ण सदा मेरे हृदय में बसें।

विशेष गिरवरधारी में बहुब्रीहि समास है। रचना में माधुर्य भक्ति प्रदर्शित है।

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राग हमीर

बस्या म्हारे नेणण माँ नंदलाल।

बस्या म्हारे नेणण माँ नंदलाल।

मोर मुगट मकराक्रत कुण्डल अरुण तिलक सोहाँ भाल।

मोहन मूरत साँवराँ रारत नेण बण्या विशाल।

अधर सुधा रस मुरली राजा उर बैजन्ती माल।

मीराँ प्रभु संताँ सुखदायाँ भगत बछल गोपाल ॥13

शब्दार्थ नेणण मां – आँखों में, कटि-कमर, नूपुर-घुंघरू।

भावार्थ

इस पद में कवयित्री मीरा बाई ने श्रीकृष्ण की माधुरी मूर्ति को अपने हृदय में बसाने का निवेदन किया है। कृष्ण का सुंदर रूप बड़े-बड़े नेत्र, अधरों पर अमृत के समान वर्षा करने वाली मुरली और गले में भव्य बैजयंती माला सुशोभित है। कृष्ण की कमर में बंधी सुन्दर घण्टियाँ व उनसे निकलने वाले घुंघरू के मधुर स्वर सभी संतों को सुख देने वाले हैं। कवयित्री निवेदन करती है कि भल वत्सल श्रीकृष्ण मेरे नयनों में निवास करें।

विशेष मोहन मूरत सांवरी सूरत में अनुप्रास अलंकार है।

हरि म्हारा जीवण प्राण आधार।

हरि म्हारा जीवण प्राण आधार।

और असिरो ना म्हारा थें विण, तीनूँ लोक मँझार।

थें विण म्हाणे जग ना सुहावाँ, निख्याँ सब संसार।

मीराँ रे प्रभु दासी रावली, लीज्यो नेक निहार ॥4

शब्दार्थमझार – मझधार, बिण-बिना, थैं-तुम्हारे, निख्याँ-देखा, रावली- आपकी, असिरा-शरण।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य समर्पण को उजागर करते हुए लिखा है कि श्रीकृष्ण मेरे जीवन व प्राणों के आधार हैं। उनके बिना मेरा तीनों लोकों में कोई नहीं है। मीरा कहती हैं कि उन्हें कृष्ण के बिना संसार में कोई भी अच्छा नही लगता। उन्होनें इस मिथ्या जगत को खूब अच्छी तरह देख लिया है। वे निवेदन करती है कि हे श्रीकृष्ण मैं आपकी दासी हूँ। अतः आप मुझे भुला मत देना।

विशेष इस पद में दास्य भाव की भक्ति प्रकट हुई है।

राग कान्हरा

तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर।

तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर।

हम चितवाँ थें चितवो ना हरि, हिवड़ो बड़ो कठोर।

म्हारो आसा चितवणि थारी ओर ना दूजा दोर।

ऊभ्याँ ठाढ़ी अरज करूँ हूँ करताँ करताँ भोर।

मीराँ रे प्रभु हर अविनासी देस्यूँ प्राण अकोर।।5।।

शब्दार्थ तनक-थोड़ा सा, चितवाँ – देखो, म्हारी – हमारी, अकोर – उत्सर्ग, दोर – दौड़/पहुँच।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में भगवान की कृपा दृष्टि अपने ऊपर चाही है। वे निवेदन करती है कि हे श्रीकृष्ण मेरी ओर भी थोड़ी दृष्टि डालो। हमारी दृष्टि सदैव आपकी ओर लगी रहती है। कभी आप अपनी दृष्टि भी हम पर डालें ताकि हमारा भी उद्धार हो। यदि आप ऐसा नहीं करते तो आप हृदय के बड़े कठोर हैं। हमारे जीवन की पूरी आस तुम्हारी चित्वन है। इसके अलावा हमारा कहीं ठिकाना नही है। मेरा इस संसार में तुम्हारे सिवा और कोई नही है। आपके लिए हमारे जैसे लाखों-करोड़ों भक्त हो सकते हैं। मीरा कृष्ण की चित्वन रूपी कृपा की प्रतीक्षा करते-करते ऊब गई है और रात से भोर हो गई लेकिन प्रभु कृष्ण आप फिर भी द्रवित नहीं हुए। हे अविनाशी आप मुझ पर कृपा दृष्टि कीजिये। मैं अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूँगी।

विशेषमीरा की अनन्य भक्ति प्रकट हुई है। हम चितवाँ थें चितवो ना हरि, हिवड़ो बड़ो कठोर। इस पंक्ति में उपालम्भ भाव है।

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 म्हारो गोकुल रो ब्रजवासी।

म्हारो गोकुल रो ब्रजवासी।

ब्रजलीला लख जन सुख पावाँ, ब्रजवनताँ सुखरासी।

नाच्याँ गावाँ ताल बजावाँ, पावाँ आणंद हाँसी।

नन्द जसोदा पुत्र री, प्रगट्याँ प्रभु अविनासी।

पीताम्बर कट उर बैजणताँ, कर सोहाँ री बाँसी।

मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, दरसरण, दीज्यो दासी 116 11

शब्दार्थ ब्रजवनता- ब्रज की स्त्रियाँ, आणंद-आनन्द।

भावार्थ

मीरा श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबी हुई है। वे कहतीं है हमारे श्रीकृष्ण तो ब्रज में निवास करते हैं। उनकी लीलाओं को देखकर ब्रज की स्त्रियाँ सुख प्राप्त करती हैं। वे नाचती हैं, गाती हैं, ताली बजाती हैं और आनंद की हँसी प्राप्त करती है। अविनाशी प्रभु कृष्ण ने नंद व यशोदा के पुत्र के रूप में अवतार लिया है। उनके कमर पर सुन्दर पीले वस्त्र, गले में सुन्दर बैजयंती माला और हाथों में मुरली शोभायमान रहती है। मीरा निवेदन करती है कि उनके तो एक मात्र स्वामी श्रीकृष्ण है। वे श्रीकृष्ण अपनी दासी को दर्शन देकर कृतार्थ करें।

विशेष

श्रीकृष्ण के सौन्दर्य के साथ-साथ उनके ब्रह्म रूप का वर्णन किया गया है।

हे मा बड़ी बड़ी अखियन वारो,

हे मा बड़ी बड़ी अखियन वारो,

साँवरी मो तन हेरत हसिके।

भौंह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके।

जतन करो जन्तर लिखि बाँधों, ओखद लाऊँ घसिके।

ज्यों तोकों कछु और बिथा हो, नाहिन मेरो बसिके।

कौन जतन करों मोरी आली, चन्दन लाऊँ घसिके।

जन्तर मन्तर जादू टोना, माधुरी मूरति बसिके।

साँवरी सूरत आन मिलावो ठाढ़ी रहूँ मैं हँसिके।

रेजा रेजा भयो करेजा अन्दर देखो धँसिके।

मीरा तो गिरधर बिन देखे, कैसे रहे घर बसिके॥17

शब्दार्थ

हेरत-देखकर, जन्तर-यंत्र, जतन-प्रयत्न, रेजा-टुकड़े, ओखद-औषध।

 

भावार्थ

मीरा ने कृष्ण के माधुर्य रूप का वर्णन किया है। वे कहती हैं कि बड़ी-बड़ी आँखों वाले साँवले श्रीकृष्ण की मेरी ओर मुस्कराहट भरी दृष्टि और उनकी टेड़ी कमान जैसी भौंहें, सुन्दर नेत्र आदि से मैं उनके वशीभूत हो गई हूँ। मेरी वेदना का कारण कोई और नहीं है। श्रीकृष्ण के जादू-टोने मेरे हृदय में बस गये हैं और श्रीकृष्ण की मनोहर मूर्ति मेरे हृदय में से नहीं निकलती है। मीरा कहती है कि मैं श्रीकृष्ण को अपने हृदय से मिलाने के लिए बेसर्बी से प्रतीक्षा कर रही हूँ। श्रीकृष्ण के बिना मेरा कलेजा टूक-टूक हुआ जाता है। कृष्ण के वियोग में वेदना से मीरा इस प्रकार पीड़ित है कि वे बिना कृष्ण के दर्शन किए घर में कैसे रह सकती है।

विशेष

‘’भौंह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके।

इस पंक्ति में सांगरूपक है। रेजा रेजा भयो करेजा।‘’

– इस पंक्ति में रूढ़ि लक्षणा है।

हेरी मा नन्द को गुमानी म्हाँरे मनड़े बस्यो।

हेरी मा नन्द को गुमानी म्हाँरे मनड़े बस्यो।

गहे द्रुम डार कदम की ठाड़ो मृदु मुसकाय म्हारी और हँस्यो।

पीताम्बर कट काछनी काछे, रतन जटित माथे मुगट कस्यो।

मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, निरख बदन म्हारो मनड़ो फँस्यो।।18।।

शब्दार्थद्रुम-वृक्ष, काछनी-धोती।

भावार्थ

मीरा कहती है कि नंद का गर्वीला पुत्र अर्थात् श्रीकृष्ण मेरे मन में बस गया है। वह कदम की डाल पकड़े हुए मेरी ओर देखकर मुस्करा रहा है। उसके पीले वस्त्र कमर में धोती और मस्तक पर रत्नजड़ित सुशोभित था। मीरा श्रीकृष्ण की इस छवि को हृदयंगम करके कहती है कि यह अपूर्ण छवि बरबस ही मुझे मोहित कर रही है, जिसे देखकर मेरा मन सम्मोहित हो गया है।

विशेष

संयोग श्रृंगार, स्वप्नावस्था, तीव्र उत्कंठा और माधुर्य गुण का प्रयोग हुआ है।

थारो रूप देख्याँ अटकी।

थारो रूप देख्याँ अटकी।

कुल कुटुम्ब सजन सकल बार बार हटकी।

विसरयाँ ना लगन लगाँ मोर मुगट नटकी।

म्हारो मन मगन स्याम लोक कह्याँ भटकी।

मीराँ प्रभु सरण गह्याँ जाण्या घट घट की॥19

शब्दार्थ

थारो – तुम्हारा, सजण – अपने लोग, हटकी – टोका/मनाही, अटकी – स्थिर, भटकी – गई।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में श्रीकृष्ण के रूप सौंदर्य के स्वयं पर असर का वर्णन किया है। वे कहती है कि हे श्रीकृष्ण! तुम्हारे माधुरी रूप को देखकर मेरी आँखे अटक गई हैं। अपने लोगों ने मुझे बार-बार मना किया, लेकिन मैं उनसे दूर होकर भी आपकी शरण की कामना करती हूँ। मोर मुकुट धारण करने वाले श्रीकृष्ण में मेरा मन रम गया है। इसे लोग मेरा भटकना कहते हैं। मीरा कहती है कि यह भटकना नहीं है बल्कि मैंने उस अन्तर्यामी ईश्वर की शरण प्राप्त की है जो प्रत्येक हृदय की बात जानता है।

विशेष

मीरा की कृष्ण के प्रति निष्ठा एवं दृढ़ता प्रकट हुई है। इस पद में मीरा की प्रभु की भक्ति को लोगों द्वारा भटकना की ओर भी संकेत किया गया है। कुल कुटुम्ब में अनुप्रास अलंकार है तथा रचना में ‘ट’ वर्ग के प्रयोग से श्रुतिकटुत्व दोष पैदा हुआ है।

 

राग त्रिवेनी

निपट बंकट छब अटके।

निपट बंकट छब अटके।

देख्याँ रूप मदन मोहन री, पियत पियूख न मटके।

बारिज भवाँ अलक मतवारी, नेण रूप रस अटके।

टेढ्या कट टेढ़े कर मुरली, टेढया पाय लर लटके।

मीराँ प्रभु रे रूप लुभाणी, गिरधर नागर नटके ।।10।।

शब्दार्थ

निपट – नितान्त, बंकट-टेढ़ी, नैणा-नेत्र, पियूख-दूध/अमृत, बारिज कमल।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में कहा है कि श्रीकृष्ण की नितान्त टेढ़ी अर्थात् त्रिभंगी छवि उसके नेत्रों में बस गई है। वे कहती हैं कि मेरे नेत्रों ने श्रीकृष्ण के इस माधुर्य रूप का अमृत तुल्य पान किया है। जिससे वे और मटकने लगी है और ये नेत्र उस रूप माधुरी रूपी रस पर अटक गये है। उनके मुख पर सुन्दर और टेढ़ी अलखें तथा बांसुरी बजाते समय टेढ़ी कमर और ऐसे ही टेढ़े हाथों में पकड़े मुरली तथा पैरों की लटकती टेढ़ी दशा नटवर नागर श्रीकृष्ण के त्रिभंगी रूप में सभी को मोहित करने वाली होती है। उस पर मीरा पूरी तरह मोहित है।

विशेष

  1. कृष्ण की त्रिभंगी छवि का वर्णन किया गया है।
  2. नेत्रों के वर्णन में मानवीकरण अलंकार है।

 म्हा मोहन रो रूप लुभाणी।

म्हा मोहन रो रूप लुभाणी।

सुन्दर बदना कमल दल लोचन, बाँकाँ चितवन नेणाँ समाणी।

जमना किनारे कान्हा धेनु चरावाँ, बंशी बजावाँ मीट्ठाँ वाणी।

तन मन धन गिरधर पर वाराँ, चरण कँवल बिलमाणी।।11।।

शब्दार्थ बदण-मुख (वदन), लुभाणी-मोहित, दल-पत्ता, समाणी – समा गयी, धेनु-गाय, धण-धन, बिलमाणी – रम गई।

भावार्थ

मीरा कहती है कि मैं अपने आराध्य प्रियतम श्रीकृष्ण के रूप पर मोहित हो गई हूँ। उन प्रियतम श्रीकृष्ण का वदन (मुख) सुन्दर है, कमल पत्र के समान उनके नेत्र हैं तथा उनकी दृष्टि बांकी है जो कि मेरे नेत्रों में समा रही है। वह प्रियतम कृष्ण युमना नदी के किनारे गायें चराते रहते हैं और मधुर स्वर-लहरी में बंशी बजाते रहते हैं। मीरा कहती है कि मैं अपना शरीर, मन और धन (अपना सर्वस्व) गिरधर कृष्ण पर न्योछावर करती हूँ तथा उनके चरण-कमलों में रम गई हूँ।

विशेष

स्वर-लहरी में तत्पुरुष तथा चरण-कमल में कर्मधारय समास है।

साँवरा णन्द णंदेन, दीठ पड्याँ माई।

साँवरा णन्द णंदेन, दीठ पड्याँ माई।

डारयाँ सब लोकलाज सुध बुध बिसराई।

मोर चन्द्रमाकिरीट मुगुट छब सोहाई।

केसर री तिलक भाल, लोणण सुखदाई।

कुण्डल झलकाँ कपोल अलकाँ लहराई।

मीणाँ तज सरवर ज्यों मकर मिलण धाई।

नटवर प्रभू भेष धर्यां रूप जग लो भाई।

गिरधर प्रभू अंग अंग मीराँ बल जाई।।12।।

शब्दार्थ

डारयाँ – त्याग दिया/डाल दिया, कपोल – गाल, अलका – बाल, मीणाँ – मछलियाँ, मकर – मगर, नटवर – रसिक/आकर्षक/सजीला, बल -न्योछावर।

भावार्थ

मीरा कहती है कि अरी सखी, नंद जी के पुत्र साँवले श्रीकृष्ण जब से मुझे दिखाई दिये (मेरी दृष्टि में पड़े) तब से मैं सब लोक-लाज का त्याग कर अपनी सुध-बुध खो बैठी हूँ। भाव यह है कि मैं उनकी प्रेम दीवानी हो गई हूँ और लोक मर्यादा को भूलकर उन्मत्त हो गई हूँ। उन प्रियतम श्रीकृष्ण ने मोरपंखों के रंग बिरंगे चन्द्रकों वाला सुन्दर चमकीला मुकुट सिर पर धारण कर रखा है, जो कि अत्यधिक शोभायमान हो रहा है। ललाट पर उन्होंने केसर का तिलक लगा रखा है जो कि देखने वालों की • आँखों को बहुत ही अच्छा लगता है। उनके कानों में कुण्डल झलक रहे हैं और घुंघराले बाल लहरा रहे हैं। • उनकी शोभा ऐसी लग रही है कि मानो मछलियाँ तालाब को छोड़कर मगर से मिलने के लिए दौड़ रही हों। रसिक शिरोमणि प्रभु कृष्ण ने ऐसा भेष धारण कर रखा है, जिसे देखकर सभी लोग ललचा जाते हैं। मीरा कहती हैं कि र प्रभु गिरधर कृष्ण मेरे अंग-अंग में समाये हुए हैं और मैं उन पर न्योछावर होना चाहती हूँ।

विशेष

“मीणाँ तज सरवर ज्यों मकर मिलण धाई।” में हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।

प्रेमासक्ति

राग नीलाम्बरी

श्रीकरण केलि

नेणाँ लोभाँ अटकाँ शक्याँ णा फिर आया।।

नेणाँ लोभाँ अटकाँ शक्याँ णा फिर आया।।

रूँम-रूँम नखसिख लख्याँ, ललक ललक अकुलाय।

म्याँ ठाढ़ी घर आपणे मोहन निकल्याँ आय।

बदन चन्द परगासताँ, मन्द मन्द मुसकाय।

सकल कुटुम्बाँ बरजताँ बोल्या बोल बनाय।

नेणां चंचल अटक ना मान्या; परहथं गयाँ बिकाय।

भलो कह्याँ काँई कह्याँ बुरो री सब लया सीस चढ़ाय।

मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बिना पल रह्याँ ना जाय।।13।।

शब्दार्थ रूँम-रोम, अकुलाय-आकुल-व्याकुल होवे, बरजताँ – मना करने पर, परहथ – पराये हाथ।

भावार्थ

मीरा भक्ति भाव से कहती है कि ये मेरे रूप-माधुरी के लोभी नेत्र एक बार प्रियतम कृष्ण की छवि पर अटक गये, तो फिर वापिस नही आ सके। मेरा रोम-रोम उनके नख – शिख की शोभा देखकर बार-बार देखने के लिए आकुल व्याकुल बना रहता है। एक बार मेरे घर में प्रियतम मोहन अपने आप आ गये, उस समय वे अपने मुख रूपी चन्द्रमा को प्रकाशित करते हुए मंद-मंद मुस्काने लगे। तब मेरे परिवार के सब लोगों के द्वारा मना करने पर भी वे मधुर वचनों में (मधुर बातें बनाकर मुझसे बोलते रहे। मेरे चंचल नेत्र मेरा कहा नहीं मानते हैं, अब तो ये पराये हाथ (प्रियतम कृष्ण के हाथ) उनकी रूप-माधुरी के लालच में बिक गये हैं। इस संसार में अच्छी बात कहने पर भी कोई नहीं मानता है, परन्तु बुरी बात को सब लोग सिर पर चढ़ा लेते हैं अर्थात् सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। मीरा कहती है कि हे चतुर गिरधर प्रियतम! अब मुझसे आपके बिना एक पल भी नहीं रहा जा सकता।

विशेष

“बदन चन्द परगासताँ, मन्द मन्द मुसकाय” में संयोग श्रृंगार है।

राग कामोद

आली री म्हारे नेणाँ बाण पड़ी।

आली री म्हारे नेणाँ बाण पड़ी।

चित्त चढ़ी म्हारे माधुरी मूरत, हिवड़ा अणी गड़ी।

कब री ठाढ़ी पंथ निहारों, अपने भवन खड़ी।

अटक्याँ प्राण साँवरो प्यारो, जीवन मूर जड़ी।

मीराँ गिरधिर हाथ बिकाणी, लोग कह्याँ बिगड़ी।।14।।

शब्दार्थ नैणा-नेत्र, बाण-बान/अभ्यास, आलि-सुखी, हेवड़ा-ह्रदय, जीवन मूर जड़ी- प्राणों के आधारस्वरूप औषध के समान, अणी गड़ी-उनकी आँखों की कोर चुभ गई।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण की माधुरी मूरत को अपने हृदय में बताया है। वे अपनी सखी से कह रही हैं कि सखी मेरे नेत्रों को श्रीकृष्ण की माधुरी झलक के दर्शन की आदत पड़ गई है। मेरे हृदय में श्रीकृष्ण की माधुरी मूर्ति स्थापित हो गई है जो ह्रदय में बहुत गहराई तक चुभ गई है। मैं न जाने कब से अपने आराध्य की प्रतीक्षा में हूँ। मेरे प्राण श्रीकृष्ण में अटके हुए हैं। श्रीकृष्ण के प्रति मेरे इस समर्पण को लोग चाहे भटकना कहें या बिगड़ना, मैं तो श्रीकृष्ण के हाथों में अपना सर्वस्व समर्पित कर चुकी हूँ। इस पद में मीरा का श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण उजागर हुआ है।

विशेष दाम्पत्य तथा माधुर्य भाव की अभिव्यक्ति हुई है।

प्रेमाभिलासा

नेणाँ वणज बसवाँ री, म्हारा साँवराँ आवाँ।

नेणाँ वणज बसवाँ री, म्हारा साँवराँ आवाँ।

नेणाँ म्हारा साँवरा राज्याँ, डरता पलक ना लावाँ।

म्हारा हिरदाँ बस्याँ मुरारी, पलपल दरसण पावाँ।

स्याम मिलन सिंगार सजावाँ, सुख री सेज बिछावाँ।

मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलिजावा।।15।।

शब्दार्थ बणज – कमल के समान कोमल।

भावार्थ

मीराबाई ने इस पद में अपनी सखी से कहा है कि मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण को मैं अपने कमल के समान कोमल नेत्र रूपी घर में बसाउँगी। मेरे नेत्रों में मेरे प्रियतम का बास है इसलिए मैं पलक नहीं झपकती हूँ जिससे कहीं श्रीकृष्ण मेरे दर्शन से दूर नहीं हो जाएँ। भाव यह है कि मीरा अपने प्रियतम को सदैव देखते रहना चाहती है इसलिए वे पलक भी नहीं झपकना चाहती। मीरा कहती है कि श्रीकृष्ण मेरे हृदय में है, इसलिए मैं नित्य उनके दर्शन करती हूँ और उनसे मिलन सुख के लिए सदैव श्रृंगार कर सुख रूपी सेज बिछाती हूँ। मीरा आगे कहती है कि चतुर प्रभु श्री कृष्ण ही मेरे प्रियतम हैं। मैं उन पर बार-बार न्योछावर होती हूँ।

विशेष मीरा के इस पद में उनकी कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति तथा संयोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति हुई है।

राग मुल्मानी

असा प्रभु जाण न दीजै हो।

असा प्रभु जाण न दीजै हो।

तन मन धन करि वारणै, हिरदे धरि लीजै हो।

आव सखी मुख देखिये, नैणाँ रस पीजै हो।

जिह जिह बिधि रीझे हीर, सोई विधि कीजै हो।

सन्दर स्याम सुहावणा, मुख देख्याँ जीजै हो।

शब्दार्थ जाण – जाने, बारणें – न्योछावर, असा – ऐसे अनुपम।

भावार्थ

कवयित्री मीरा कहती है कि ऐसे परम मनोहारी भक्त वत्सल प्रभु कृष्ण को मैं जाने नहीं दूंगी। मैं उन्हें तन मन धन समर्पित करके अपने ह्रदय में बसा लूँगी। मीरा अपनी सखी से कहती है कि श्रीकृष्ण के आते ही अपने नेत्रों के द्वारा उनके मुख को देखकर मैं रूप माधुरी का पान करूँगी। जिस-जिस तरीके से श्रीकृष्ण प्रसन्न होंगे वह सब उपाय करूंगी। मैं उनके श्याम सलोने रूप के मुख सौंदर्य को देखकर जीवित हूँ। मीरा कहती है कि मीरा के प्रभु अत्यंत सहज हैं, जो सहजता से मुझ पर रीझते हैं। यह मेरा परम सौभाग्य है।

विशेष मीरा के इस पद में गहन आत्मानुभूति उजागर हुई है।

राग मालकोस

म्हाँ गिरधर आगाँ नाच्या री।

म्हाँ गिरधर आगाँ नाच्या री।

नाच नाच म्हाँ रसिक रिझावाँ, प्रीति पुरातन जाँच्या री।

स्याम प्रीत री बाँध घूँघरयाँ मोहन म्हारो साँच्याँ री।

लोक लाज कुल री मरजादाँ, जग माँ नेक ना राख्याँ री।

प्रीतम पल छन ना बिसरावाँ, मीराँ हरि रँग राच्याँ री।।17।।

शब्दार्थ पुरातन – पुरानी, जाँचा – परखी।

भावार्थ

मीरा कहती है कि मैं अपने गिरधर गोपाल के आगे नृत्य करती रही। इस प्रकार नृत्य कर-कर के मैं अपने आराध्य को रिझाती हूँ। मेरी और कृष्ण की प्रीत पुरानी है। भाव यह है कि यह प्रति जन्म-जन्मान्तर की है। कृष्ण मेरे सच्चे प्रियतम हैं इसलिए अपने कुल और लोक लाज की मर्यादाओं की परवाह न करते हुए मैं पूरी तरह श्रीकृष्ण के रंग में रंग गई हूँ।

विशेष इस पद में मधुर भक्ति तथा कृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण प्रकट हुआ है।

 

राग झिझोटी

म्हाराँ री गिरधर गोपाल दूसहाँ नाँ कूयाँ।

म्हाराँ री गिरधर गोपाल दूसहाँ नाँ कूयाँ।

दूसराँ नाँ कूयाँ साध सकल लोक जूयाँ।

भाया छाँड्याँ, बन्धा छाँड्याँ सगाँ सूयाँ।

साधाँ ढिंग बैठ बैठ, लोक लाज खूयाँ।

भगत देख्याँ राजी ह्याँ, जगत देख्याँ रूयाँ।

अँसुवाँ जल सींच सींच प्रेम बेल बूयाँ।

दधि मथ घृत काढ़ लयाँ डार दया छूयाँ।

राणा विष रो प्यालो भेज्याँ पीय मगन हूयाँ।

मीरा री लगन लग्याँ होणा हो जो हूयाँ।।18।।

शब्दार्थ कूयाँ- कोई, सूयाँ-लोक, सांधा-साधु।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में कृष्ण के प्रति अपने अनन्य समर्पण को प्रकट किया है। वे कहती है कि इस संसार में मेरे केवल श्रीकृष्ण हैं और कोई दूसरा नही हैं। उन्होंने कहा कि मैंने सारा संसार देख लिया है। संसार में सब स्वार्थी हैं। इस बात को जानकर ही मैंने सभी लौकिक बंधन रिश्ते छोड़ दिये हैं। अब मैं सत्संग में बैठकर प्रभु भक्ति में लीन रहती हूँ। इससे मैंने झूठी लोक लाज को छोड़ दिया है। इस जीवन में मुझे भगवान भक्ति से प्रसन्नता होती है लेकिन स्वार्थी संसार द्वारा निंदा की बात सुनकर रोना आता है। मैंने दुःख और वेदना के आंसुओं से श्रीकृष्ण के प्रति अपनी प्रेम रूपी बेल को सींचा है। जिस प्रकार दही में से छाछ को अलग करके घृत को ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार मैंने संसार में सारतत्व को ग्रहण कर लिया है। इस भक्त रूप में बाधा स्वरूप राणा जी ने जो जहर का प्याला भेजा था उसे मैंने श्रीकृष्ण के प्रसाद रूप में ग्रहण किया और कृष्ण में मगन हो गई। मीरा कहती है। कि मेरी पूरी लग्न श्रीकृष्ण के प्रति है और जो कुछ भी होगा वह उनकी इच्छा से ही होगा।

विशेष

इस पद में मीरा की वेदना तथा अनन्य समर्पण के साथ- साथ परिवार वालों द्वारा सताने का भी वर्णन मिलता है।

राग पटमंजरी

माई साँवरे रँग राँची।

माई साँवरे रँग राँची।

साज सिंगार बाँध पग घूँघर, लोकलाज तज नाँची।

गयाँ कुमत लयाँ साधाँ संगम स्याम प्रीत जग साँची।

गायाँ गायाँ हरि गुण निसदिन, काल ब्याल री बाँची।

स्याम विना जग खाराँ लागाँ, जग री बाताँ काँची।

मीराँ सिरि गिरधर नट नागर भगति रसीली जाँची॥19

शब्दार्थ राँची-रंग गई, साँची-सच्ची, व्याल- सर्प, काँची- निरर्थक।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण आस्था एवं समर्पण को व्यक्त किया है। मीरा कहती है कि वह पूरी तरह कृष्ण भक्ति में रम चुकी है। इसलिए सारी लोक लाज की परवाह किये बिना मैं कृष्ण को रिझाने के लिए अपना शृंगार करके घुंघरू बांध के नृत्य करती हूँ। मुझमें सांसारिकता के प्रति लगाव की जो कुमति थी वो अब समाप्त हो चुकी है। मैंने सत्संग को अपना लिया है, जिससे मैं जान गई हूँ कि संसार में कृष्ण ही सच्चे है और उनके प्रति प्रीति सच्ची है। मैंने दिन-रात प्रभु गुण गाकर मृत्यु रूपी दंश से अपना बचाव किया है। मीरा कहती है कि कृष्ण के बिना संसार अप्रिय लगता है और संसार के सारे सुख भी झूठे लगते हैं। मीरा ने श्रीगिरधर गोपाल की रसीली भक्ति को ही उचित माना है।

विशेष इस पद में भगवत भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया है।

राग गुणकली

मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।।

मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।।

गिरधर म्याँरों साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ।।

रैण पड़ै तब ही उठि जाऊँ, ज्यूँ त्यँ वाहि लुभाऊँ

जो पहिरावै सोई पहिरू, जो दे सोई खाऊँ।

मेरी उणरी प्रीत पुराणी, उण विन पल न रहाऊँ।

जहँ बैठावे तितही बैठूं, बेचे तो बिक जाऊँ।

मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ।।20।।

शब्दार्थ प्रीतम – प्रियतम, रैण-रात।

भावार्थ

इस पद में मीरा श्रीकृष्ण के प्रति अपने समर्पण को व्यक्त कर रही है। वे कहती हैं कि मैं तो रात्रि होते ही अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास चली जाती हूँ और सुबह होते ही लौट आती हूँ। मैं रात-दिन उनके साथ खेलती हूँ और उन्हें रिझाती हूँ। मेरे सर्वस्व श्रीकृष्ण हैं वो मुझे जैसे रखेंगे, जो पहनायेंगे, जो खाने को देंगे मैं वही स्वीकार कर लूँगी, क्योंकि मेरा उनका जन्म-जन्मांतर का संबंध है। मीरा कहती है कृष्ण मुझसे जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूंगी। इस प्रकार वे अपने प्रभु श्रीकृष्ण पर अपने आपको न्यौछावर करती है।

विशेष

इस पद में माधुर्य भाव, कांता भाव तथा अनन्य समर्पण का चित्रण हुआ है। इस पद में लौकिक प्रेम में अलौकिक प्रेम झलकता है।

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कैमरे में बंद अपाहिज – पाठ सार व भावार्थ | रघुवीर सहाय

कैमरे में बंद अपाहिज: इस आर्टिकल में रघुवीर सहाय की चर्चित कविता कैमरे में बंद अपाहिज(Camere Mein Band Apahij) को व्याख्या सहित समझाया गया है।

कैमरे में बंद अपाहिज(Camere Mein Band Apahij) : कविता सार

रघुवीर सहाय की ‘कैमरे में बन्द अपाहिज’ कविता उनके ‘लोग भूल गये हैं’ काव्य-संग्रह से संकलित है। इसमें शारीरिक चुनौती को झेलते व्यक्ति से टेलीविजन कैमरे के सामने किस तरह के सवाल पूछे जायेंगे और कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए उससे कैसी भंगिमा की अपेक्षा की जायेगी, इसका सपाट तरीके से बयान करते हुए एक तरह से पीड़ा के साथ दृश्य-संचार माध्यम के सम्बन्ध को निरूपित किया गया है।

वस्तुतः किसी की पीड़ा को बहुत बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँचाने वाले व्यक्ति को उस पीड़ा के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, परन्तु दूरदर्शनकर्मी वैसी संवेदनशीलता नहीं रखते हैं। वे तो उस व्यक्ति के प्रति कठोरता का व्ययहार करते हैं तथा अपने कारोबारी स्वार्थ को ऊपर रखकर कार्यक्रम को आकर्षक एवं बिकाऊ बनाने का प्रयास करते रहते हैं।

दूरदर्शन के सामने आकर जो व्यक्ति अपना दुःख-दर्द और यातना-वेदना को बेचना चाहता है, वह ऐसा अपाहिज बताया गया है, जो लोगों की करुणा का पात्र बनता है। प्रस्तुत कविता में मीडिया-माध्यम की ऐसी व्यावसायिकता एवं संवेदनहीनता पर आक्षेप किया गया है।

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(1)भावार्थ: हम दूरदर्शन पर बोलेंगे

हम दूरदर्शन पर बोलेंगे

हम समर्थ शक्तिवान

हम एक दुर्बल को लाएँगे

एक बंद कमरे में

उससे पूछेंगे तो आप क्या अपाहिज हैं?

तो आप क्यों अपाहिज हैं?

आपका अपाहिजपन तो दुःख देता होगा देता है?

(कैमरा दिखाओ इसे बड़ा बड़ा)

हाँ तो बताइए आपका दुःख क्या है

जल्दी बताइए वह दुःख बताइए।

बता नहीं पाएगा।

कठिन–शब्दार्थ : समर्थ = शक्तिशाली, साधन-सम्पन्न। दुर्बल =कमजोर। अपाहिज=अपंग, जिसका कोई अंग बेकार हो।

भावार्थ – कवि कहता है कि दूरदर्शन के कार्यक्रम संचालक स्वयं को समर्थ और शक्तिमान मानकर चलते हैं। वे अपनी बात को सुदूर तक प्रसारित करने में समर्थ हैं, इस कारण अहंभाव रहता है और दूसरे को कमजोर मानते हैं। दूरदर्शन का कार्यक्रम संचालक कहता है कि हम स्टूडियो के बन्द कमरे में एक कमजोर एवं व्यथित व्यक्ति को बुलायेंगे। उस अपंग व्यक्ति को स्टूडियो के कैमरे के सामने लाकर हम उससे पूछेंगे कि क्या आप अपाहिज हैं? जबकि वह व्यक्ति स्पष्टतया अपंग दिखाई दे रहा है, तो भी पूछेंगे कि आप अपंग क्यों हैं? उससे ऐसा पूछना सर्वथा अनुचित है।

अपाहिज इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दे पायेगा। तब उसके दुःख को कुरेदा जायेगा और उससे अगला प्रश्न पूछा जायेगा कि आपको अपना अपाहिज होना काफी दुःख देता होगा, अर्थात् अपनी अपंगता पर सुख तो कभी नहीं मिलता होगा? इस तरह अपाहिज जब कुछ नहीं कह पायेगा, तो उसे अपाहिज होने से सचमुच दुःखी होने का समर्थन किया जायेगा।

कार्यक्रम संचालक द्वारा इस तरह पूछने के साथ कैमरामैन को निर्देश दिया जायेगा कि इसके चेहरे पर और अधिक बड़ा करके कैमरा दिखाओ, तो कैमरामैन उसके चेहरे को कैमरे के सामने लाकर उसकी अपंगता को स्पष्ट दिखायेगा। फिर संचालक उत्तेजित होकर अपंग व्यक्ति से पूछेगा कि जल्दी से बताइए, आपका दुःख क्या है? आप अपने दुःख के बारे में सभी दर्शकों को बताइए।

परन्तु वह व्यक्ति अपने दुःख के बारे में कुछ नहीं बतायेगा। संचालक को अपंग व्यक्ति की पीड़ा के प्रति कोई संवेदना नहीं है। वह जानता है कि अपंग व्यक्ति ऐसे प्रश्न पर चुप ही रहेगा। इसलिए वह कार्यक्रम को प्रभावी बनाने के लिए ऐसे प्रश्न करना अपना कर्त्तव्य मानता है।

विशेष –

  1. प्रस्तुत कविता रघुवीर सहाय के कविता संग्रह ‘लोग भूल गए हैं’ से उद्धृत है।
  2. इसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हृदयहीनता पर प्रकाश डाला है।
  3. इसकी शैली नाटकीय तथा वार्तालाप की है।

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(2) सोचिए बताइए…

सोचिए

बताइए

आपको अपाहिज होकर कैसा लगता है।

कैसा

यानी कैसा लगता है

(हम खुद इशारे से बताएँगे कि क्या ऐसा?)

सोचिए

बताइए

थोड़ी कोशिश करिए

(यह अवसर खो देंगे ?)

आप जानते हैं कि कार्यक्रम रोचक बनाने के वास्ते

हम पूछ-पूछकर उसको रुला देंगे

इंतजार करते हैं आप भी उसके रो पड़ने का

करते हैं?

(यह प्रश्न पूछा नहीं जाएगा)

कठिन-शब्दार्थ : रोचक=दिलचस्प। इन्तजार=प्रतीक्षा।

भावार्थ – कवि के वर्णनानुसार दूरदर्शन कार्यक्रम का संचालक एक अपंग व्यक्ति का साक्षात्कार लेते समय उससे अटपटे प्रश्न करता है। वह उससे पूछता है कि आप सोचकर बताइये कि आपको अपाहिज होकर कैसा लगता है, अर्थात् अपाहिज होने से आपको कितना दुःख होता है। यदि वह अपंग नहीं बता पाता है तो संचालक उसे संकेत करके बताता है, बेहदे इशारे करते हुए कहता है कि क्या आपको इस तरह का दर्द होता है?

थोड़ा कोशिश कीजिए और अपनी पीड़ा से लोगों को परिचित कराइये। आपके सामने लोगों को अपनी पीड़ा बताने का यह अच्छा अवसर है, दूरदर्शन पर सारे लोग आपको देख रहे हैं। अपना दर्द नहीं बताने से आप यह मौका खो देंगे। आपको ऐसा मौका फिर नहीं मिल सकेगा।

कार्यक्रम का संचालक कहता है कि आपको पता है कि हमें अपने इस कार्यक्रम को रोचक बनाना है। इसके लिए यह जरूरी है कि अपाहिज व्यक्ति अपना दुःख-दर्द स्पष्टतया बता दे। इसलिए वे उससे इतने प्रश्न पूछेंगे कि पूछ-पूछकर रुला देंगे। उस समय दर्शक भी उस अपंग व्यक्ति के रोने का पूरा इन्तजार करते हैं; क्योंकि दर्शक भी दूरदर्शन पर अपंग व्यक्ति के दुःख-दर्द को उसके मुख से सुनना चाहते हैं। क्या वे भी रो देंगे, अर्थात् क्या उनकी प्रतिक्रिया मिल सकेगी ?

विशेष-

  1. कवि ने बताया है कि मानवीय संवेदना विक्रय की वस्तु नहीं है।
  2. ‘आपको अपाहिज’ में अनुप्रास अलंकार है।
  3. ‘पूछ-पूछकर’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
  4. ‘आपको… लगता है’ में प्रश्नालंकार है।

(3) फिर हम परदे पर दिखलाएँगे।

फिर हम परदे पर दिखलाएँगे।

फूली हुई आँख की एक बड़ी तसवीर

बहुत बड़ी तसवीर

और उसके होंठों पर एक कसमसाहट भी

(आशा है आप उसे उसकी अपंगता की पीड़ा मानेंगे)

एक और कोशिश

दर्शक

धीरज रखिए

हमें दोनों एक संग रुलाने हैं

आप और वह दोनों

(कैमरा

बस करो

नहीं हुआ

रहने दो

परदे पर वक्त की कीमत है)

अब मुसकुराएँगे हम

आप देख रहे थे सामाजिक उद्देश्य से युक्त कार्यक्रम

(बस थोड़ी ही कसर रह गई)

धन्यवाद।

कठिन-शब्दार्थ : कसमसाहट = छटपटाहट, बेचैनी। अपंगता -अपाहिजपन।

भावार्थ – दूरदर्शन कार्यक्रम संचालक का यह प्रयास रहता है कि उसके बेहूदे प्रश्नों से अपाहिज रोवे और वह उससे सम्बन्धित दृश्य का प्रसारण करे। इसलिए वह अपाहिज की सूजी हुई आँखें बहुत बड़ी करके दिखाता है। इस प्रकार वह उसके दुःख-दर्द को बहुत बड़ा करके दिखाना चाहता है। वह अपाहिज के होठों की बेचैनी एवं लाचारी भी दिखाता है। संचालक कार्यक्रम को रोचक बनाने के प्रयास में सोचता है कि अपाहिज की बेचैनी को देखकर दर्शकों को उसकी अनुभूति हो जायेगी ।

इसलिए वह कोशिश करता है कि अपाहिज के दुःख-दर्द को इस तरह दिखावे कि दर्शक केवल उस अपाहिज को देखें और धैर्यपूर्वक उसके दर्द को आत्मसात् कर सकें। परन्तु कार्यक्रम संचालक जब दर्शकों को रुलाने की चेष्टा में सफल नहीं होता है, तो तब वह कैमरामैन को कैमरा बन्द करने का आदेश देता है तथा कहता है कि अब बस करो, यदि अपाहिज का दर्द पूरी तरह प्रकट न हो सका, तो न सही। परदे का एक-एक क्षण कीमती होता है। समय और धन-व्यय का ध्यान रखना पड़ता है।

आशय यह है कि कार्यक्रम को दूर-दर्शन पर प्रसारित करने में काफी समय एवं धन का व्यय होता है। इसलिए अपाहिज के चेहरे से कैमरा हटवाकर संचालक दर्शकों को सम्बोधित कर कहता है कि अभी आपने सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु दिखाया गया कार्यक्रम प्रत्यक्ष देखा। इसका उद्देश्य अपाहिजों के दुःख-दर्द को पूरी तरह सम्प्रेषित करना था, परन्तु इसमें थोड़ी-सी कमी रह गई, अर्थात् अपाहिज के रोने का दृश्य नहीं आ सका तथा दर्शक भी नहीं रो पाये।

अगर दोनों एक साथ रो देते, तो कार्यक्रम सफल हो जाता। अन्त में कार्यक्रम संचालक दर्शकों को धन्यवाद देता है। यह धन्यवाद मानो उसके संवेदनाहीन व्यवहार पर व्यंग्य है।

विशेष –

  1. कवि ने दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम का व्यंग्यात्मक चित्रण किया है।
  2. मुक्त छंद का प्रयोग तथा वार्तालाप में नाटकीय शैली का प्रयोग किया है।

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UGC NET HINDI UNIT 2 हिंदी साहित्य का इतिहास

UGC NET HINDI UNIT 2 PDF – NTA JRF Hindi Sahitya | इकाई 2 हिंदी साहित्य का इतिहास

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UGC NET HINDI UNIT 2 PDF – हिंदी साहित्य का इतिहास

हिन्दी साहित्य का इतिहास

1. हिंदी साहित्येतिहास दर्शन
2. हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की पद्धतियां
3. हिंदी साहित्य का कालविभाजन और नामकरण
4. हिंदी साहित्य का आदिकाल
5. हिंदी साहित्य का रीतिकाल
6. हिंदी साहित्य का भक्तिकाल
7. हिंदी साहित्य का आधुनिक काल
UGC NET HINDI UNIT 1 हिंदी भाषा और विकास

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UGC NET HINDI UNIT 1 PDF – हिंदी भाषा और विकास

हिन्दी भाषा और उसका विकास

1. हिन्दी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
2. हिन्दी का भौगोलिक विस्तार
3. हिन्दी के विविध रूप
4. हिन्दी का भाषिक स्वरूप
5. हिन्दी भाषा प्रयोग के विविध रूप
6. देवानागरी लिपि
UGC NET HINDI UNIT 5 हिंदी कविता

UGC NET HINDI UNIT 5 PDF – NTA JRF Hindi Sahitya | इकाई 5 हिंदी कविता

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UGC NET HINDI UNIT 5 -NET/JRF

इकाई 5 : हिंदी कविता

पृथ्वीराज रासो रेवा तट
अमीर खुसरो खुसरों की पहेलियाँ और मुकरियाँ
विद्यापति की पदावली (संपादक – डॉ. नरेन्द्र झा) – पद संख्या 1 – 25
कबीर (सं.- हजारी प्रसाद द्विवेदी ) – पद संख्या 160 – 209
जायसी ग्रंथावली (सं. राम चन्द्र शुक्ल ) – नागमती वियोग खण्ड
सूरदास भ्रमरगीत सार (सं. राम चन्द्र शुक्ल) – पद संख्या 21 से 70
तुलसीदास रामचरितमानस, उत्तरकांड
बिहारी सतसई संकलन – जग्गनाथ दास रत्नाकर (दोहा  1-50 तक)
घनानंद कवित्त संकलन – विश्वनाथ मिश्रकवित्त(1-30 तक)
मीरा संकलन  – विश्वनाथ त्रिपाठी(1-20 पद तक)
अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ प्रियप्रवास
मैथिलीशरण गुप्त भारत भारती, साकेत (नवम् सर्ग)
जयशंकर प्रसाद आंसू, कामायनी (श्रद्धा, लज्जा, इड़ा)
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला ‘ जुही की कली, जागो फिर एक बार, सरोजस्मृति, राम की शक्तिपूजा, कुकरमुत्ता, बाँधो न नाव इम ठाँव बंधु
सुमित्रानंदन पंत परिवर्तन, प्रथम रश्मि, द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र
महादेवी वर्मा बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ, मैं नीर भरी दुख की बदली, फिर विकल है प्राण मेरे, यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो
रामधारी सिंह दिनकर उर्वशी (तृतीय अंक), रश्मिरथी
नागार्जुन कालिदास, बादल को घिरते देखा है, अकाल और उसके बाद, खुरदरे पैर, शासन की बंदूक, मनुष्य है।
सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ कलगी बाजरे की, यह दीप अकेला, हरी घास पर क्षण भर, असाध्यवीणा, कितनी नावों में कितनी बार
भवानीप्रसाद मिश्र गीत फरोश, सतपुड़ा के जंगल
गजानंद माधव ‘मुक्तिबोध’ भूल गलती, ब्रह्मराक्षस, अंधेरे में
सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ नक्सलवाड़ी, मोचीराम, अकाल दर्शन, रोटी और संसद
पद्मावती समय

पद्मावती समय – पृथ्वीराज रासो | व्याख्या सहित | प्रश्नोत्तर | Padmavati Samaya

इस आर्टिकल में पृथ्वीराज रासो के ‘पद्मावती समय'(Padmavati Samaya) की व्याख्या समझायी गई है , साथ ही प्रश्नोत्तर दिए गए है।

पद्मावती समय : चंदवरदायी

कवि-परिचय- हिंदी साहित्य के आदिकाल में जो वीरगाथा काव्य लिखा गया, उसमें सबसे अधिक प्रसिद्धि ‘पृथ्वीराज ‘रासो’ को प्राप्त हुई। इसके रचयिता चंद्रवरदायी का जन्म सन् 1168 ई. में लाहौर में हुआ था। ये महाकवि भाट जाति के जगता गोत्र के थे। ये दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सखा और सभा कवि थे। कहते है कि चंदवरदायी और पृथ्वीराज के जन्म तथा मृत्यु की तिथि भी एक ही थी। प्रसिद्धि है कि जब मुहम्मद गोरी सम्राट पृथ्वीराज को बंदी बनाकर गजनी ले गया, तो वहाँ पहुँच कर चंद ने उनकी अद्भुत बाण विद्या की प्रशंसा की। संकेत पाकर पृथ्वीराज ने शब्दबेधी बाण से गोरी को मार गिराया और अपनी स्वातंत्र्य की रक्षा करने के लिए एक-दूसरे को कटार मारकर दोनों ने मृत्यु का वरण किया।

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चंदवरदायी कलम के ही धनी नहीं थे, रणभूमि में पृथ्वीराज के साथ ही अन्य सामंतों की तरह तलवार भी चलाते थे। वे स्वयं वीररस की साकार प्रतिमा थे। उनका ‘पृथ्वीराज रासो हिंदी का आदिकाव्य है। इसमें सम्राट पृथ्वीराज के पराक्रम और वीरता का सजीव वर्णन है। इसमें 69 समय (सर्ग या अध्याय) हैं। कहा जाता है चंद इसे अधूरा ही छोड़कर गजनी चले गए थे जिसे उनके पुत्र जल्हण ने बाद में पूरा किया I

काव्य – परिचय

‘पृथ्वीराज रासो’ जिस रूप में मिलता वह प्रामाणिक नहीं है क्योंकि उसमें वर्णित पात्र, स्थान, नाम, तिथि और घटनाओं में से अधिकतर की प्रामाणिकता संदिग्ध है परंतु इतना अवश्य है कि मूल रूप में यह ग्रंथ इतना विशाल नहीं था। इसमें पृथ्वीराज के अनेक युदधो, आखेटों और विवाहों का वर्णन है। कवि ने अपने चरितनायक को सभी श्रेष्ठ गुणों से युक्त चित्रित किया है। पृथ्वीराज के व्यक्तित्व में अदभुत सौंदर्य, शक्ति और शील का सन्निवेश है।

‘पृथ्वीराज रासो’ वीर रस प्रधान काव्य है। इसमें ओज गुण की दीप्ति आदि से अंत तक विद्यमान है। रौद्र, भयानक, वीभत्स आदि रसों का वर्णन युद्ध के प्रसंग में और श्रृंगार का वर्णन विविध विवाहों के प्रसंग में मिलता है। शशिव्रता, इंछिनी, संयोगिता, पद्मावती आदि के रूप-सौंदर्य का मोहक वर्णन चंद ने किया है।

चंद की भाषा में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, अरबी आदि की शब्दावली का सशक्त प्रयोग हुआ है। परंपरा से चले आते हुए संस्कृत तथा प्राकृत छंदों का प्रयोग रासो में हुआ ही है, युद्ध वर्णन के लिए सबसे अधिक उपयुक्त छप्पय छंद की छटा देखते ही बनती है।

श्रेष्ट जीवन-पद्धति, पराक्रम एवं वीरता का जो आदर्श भारतीय जनता के लिए अपने चित्त में प्रतिष्ठित कर रखा है, पृथ्वीराज उसके प्रतिनिधि रूप में चित्रित हुए है। इसलिए पराजित होने पर भी वे जन-मानस के अजेय योद्धा के रूप में विराजमान है। चंद ने उनके रूप में भारतीय वीर-भावना का चरमोत्कर्ष दिखाया है, अतएव अप्रमाणिक माना जाने वाला ‘पृथ्वीराज रासो’ हमारा उत्कृष्ट महाकाव्य है। इससे प्रेरणा लेकर डिंगल में अनेक रासो काव्यों की रचना की गई है।

पाठ-परिचय

प्रस्तुत संकलन में ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय’ में से कतिपय छंद उद्घृत किए गए हैं। समुद्र शिखर दुर्ग के गढ़पति की राजकुमारी पद्मावती अद्वितीय सुंदरी है। एक तोता उससे पृथ्वीराज के सौंन्दर्य और पराक्रम का वर्णन करता है जिसे सुनकर वह पृथ्वीराज के प्रति अनुराग रखने लगती है। जब राजा उसका विवाह कुमाऊँ के राजा कुमोदमणि के साथ करना चाहते हैं, तो वह तोते को संदेशवाहक बनाकर पृथ्वीराज के पास भेजती है। वे शुक की बात सुनकर पद्मावती का वरण करने के लिए चल देते है। उधर पद्मावती शिव मंदिर में पूजा करने आती है। वहीं से पृथ्वीराज रुक्मिणी की भाँति उसका हरण करके घोड़े पर बिठाकर दिल्ली की ओर चल देते है। राजा की सेना युद्ध करके हार जाती है। इसी बीच अवसर पाकर शहाबुद्दीन गोरी पृथ्वीराज पर आक्रमण करता है और घोर युद्ध होता है। अंत में गोरी को परास्त करके पकड़ लिया जाता है। दिल्ली आकर शुभ लग्न में पद्मावती के साथ पृथ्वीराज विवाह कर लेते हैं।

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पद्मावती समय : व्याख्या सहित

                               (1-2)

पूरब दिस गढ़ गढ़नपति। समुद्र सिषर अति दुग्ग।

पूरब दिस गढ़ गढ़नपति। समुद्र सिषर अति दुग्ग।

तहँ सु विजय सुर राज पति। जादू कुलह अभंग।।1।।

धुनि निसान बहु साद। नाद सुरपंच बजत दीन।

दस हजार हय चढ़त। हेम नग जटित साज तिन।।

गज असंष गजपतिय। मुहर सेना तिय संषह।।

इक नायक कर धरी। पिनाक धरभर रज रष्षह।।

दस पुत्र पुत्रिय एक सम। रथ सुरड्ग अम्मर डमर।।

भंडार लछिय अगनित पदम। सो पदम सेन कुँवर सुघर।।2।।

कठिन–शब्दार्थ : पूरब दिसि – पूर्व दिशा में। गढ़नपति – गढ़ों का स्वामी,श्रेष्ठ दुर्ग या गढ़। समुंद शिखर – समुद्रशिखर, दुर्ग का नाम। यति – अत्यन्त विशाल। दुग्रा – दुर्ग। तहँ वहाँ। सु – श्रेष्ठ। सुरराजपति इंद्र। कूलह – यादव वंश का, यदुकुल का। अभग्ग अभग्न, अभेद्य, अजेय। धुनि ध्वनि। निसान – नगाड़े। नाद – गूँज,शब्द। सुरपंच – पंचम स्वर (मृदंग, तंत्री, मुरली, ताल, वेला या झाँझ और दुंदुभि आदि वाद्यों के स्वर)। हूय् चंढत – घुड़सवार। हेम – स्वर्ण। नग – रत्न। जटित – जड़े हुए। साज – घोड़ों की सज्जा। तिन- उसकी। करधरी पिनाक – हाथ में धनुष धारण करके। पुत्र-पुत्रिय सम – समान गुणों से युक्त पुत्र-पुत्री सुरंग – सुंदर। अम्मर – आकाश डमर – फहराती थी। लछिय – लक्ष्मी । अगनित असंख्य। पदम संख्या विशेष (दस नील से आगे) सुघर – सुन्दर।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश कवि चन्दवरदायी के ‘पृथ्वीराज रासो’ ‘महाकाव्य’ के ‘पद्मावती समय‘ से उद्धृत है। यहाँ पद्मावती के पिता राजा विजयपाल के समुद्रशिखर नामक दुर्ग, सेनाओं, वैभव और सुन्दर पत्नी का वर्णन हुआ है।

व्याख्या – कवि कहता है कि पूर्व दिशा में दुर्गों में श्रेष्ठ समुद्रशिखर नामक अति दुर्गम एवं विशाल दुर्ग है। वहाँ इन्द्र के समान यदुवंश श्रेष्ठ राजा विजयपाल निष्कंटक रूप से राज्य करता था। उसके नगाड़ों की भयंकर ध्वनि गूँजती थी। उसके राज्य में नित्य प्रति पंचम स्वर करती हुई रणभेरियाँ या नगाड़े बजा करते थे। उसके दस हजार थे जिनके स्वर्ण और रत्नों से जड़े हुए वस्त्र घुड़सवार शोभा पाते थे। असंख्य हाथी और हाथियों पर सवार सैनिक जो आगे चलते थे, संख्या में तीन शंख थे। राजा स्वयं सेना का नेतृत्व करता था, जिसके हाथ में शिवजी के पिनाक के समान धनुष रहता था। ऐसा वह राजा पृथ्वीभर के राजाओं की रक्षा करने में स्वयं राजपूती आन रखता था। उसके दस पुत्र और एक पुत्री थी। वे सब रूप, गुण में एक समान थे। उसके सुन्दर रथ की पताकाएँ आकाश में फहराती थीं। उसके खजाने में अगणित पद्म धन भरा पड़ा था। उस राजा की ‘पद्मसेन कॅवर’ नाम की सुन्दर रानी थी।

विशेष –

(1) प्रस्तुत पक्तियों में कवि ने राजा विजयपाल, उसके दुर्ग, सेना और खजाने का वर्णन किया है।

(2) पद्यांश की भाषा प्रारंभिक हिन्दी है।

(3) यहाँ अतिशयोक्ति, यमक, अनुप्रास आदि अलंकार है।

(4) वर्णन में कल्पना का अतिशय प्रयोग किया गया है।

(5) वर्णन में चित्रात्मकता है।

(6) ‘कुँवर’ शब्द का प्रयोग कवि ने विजयपाल की रानी के लिये किया है। इस शब्द का अर्थ होता है ‘कुमार’ । राजपूतों में रानी के नाम के साथ ‘कँवर’ शब्द का प्रयोग सम्मान के रूप में होता था। कवि ने उसी परम्परा के अनुसार ‘कॅवर’ शब्द का प्रयोग किया है; वैसे ‘कुँवर’ शब्द का प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध है।

(3)

मनहुँ कला ससिभान। कला सोलह सो बन्निय।।

मनहुँ कला ससिभान। कला सोलह सो बन्निय।।

बाल बैस ससिता समीप। अम्रित रस पिन्निय।।

बिगसि कमल मिग्र भमर। वैन षंजन मृग लुट्टिय।।

हीर कीर अरू बिंब। मोति नष सिष अहि घुट्टिय।।

छप्पति गंयद हरि हंस गति। विह बनाय संचै सचिय।।

पद्मिनिय रूप पद्मावतिय। मनहु काम कामिनि रचिय।।3।।

कठिन-शब्दार्थ : कला सोलह- चन्द्रमा की सोलह कलाओं से। सो – वह । बन्निय – बनी थी। बाल बैस बाल। वयस – बचपन। ससिता-शिशुता – शैशवावस्था। ससि – चन्द्रमा। ता – उसके । अंम्रित – अमृत। पिन्निय – पीया है, पान किया है। विंगसि कमल म्रिग – मुख विकसित कमल की श्रेणी को भी लज्जित करता है। बेनु वंशी । मृग – हरिण । लुट्टिय – लूट लिया है, श्रीहीन कर दिया है। छप्पति – छिपाती है। हरि – सिंह। बिह बनाय – विधि ने बनाकर। संचै सचिय – साँचे में ढालकर। मनहूँ मानो। काम-कामिनी – कामदेव की पत्नी, रति। रचिय – रचना की है।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश कवि चन्दवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ महाकाव्य के ‘पद्मावती समय से उद्धृत है। इसमें कवि ने परम्परायुक्त उपमानों द्वारा पद्मावती के अपूर्व सौन्दर्य का अत्यन्त कलापूर्ण चित्रण किया है।

व्याख्या-  वह कहता है कि राजा विजयपाल की पदमसेन कुँवर रानी से उत्पन्न पुत्री पद्मवती इतनी सुन्दर है मानो वह साक्षात् चन्द्रमा की कला हो तथा उसका निर्माण चन्द्रमा की सम्पूर्ण सोलह कलाओं से किया गया हो। अभी उसकी बाल्यावस्था है। उसके पावन और शान्तिप्रदायक रूप को देखकर ऐसा लगता है कि मानो चन्द्रमा ने उसी से अमृत का पान किया हो। कहने का भाव यह है कि उसके सौन्दर्य को देखकर नेत्रों को उसी प्रकार शीतलता प्राप्त होती है जिस प्रकार चन्द्रमा को देखकर नेत्र शीतल होते हैं। कवि वर्णन करते हुए कहता है कि पद्मावती के मुख, नेत्र, हाथ, चरणों के सौन्दर्य ने विकसित कमलों के सौन्दर्य को, उसके केशों के श्याम रंग ने भ्रमरों के श्यामल सौन्दर्य को, उसकी मधुर वाणी ने वंशी के मधुर स्वर को, उसके चंचल नेत्रों ने खजन पक्षी की चंचलता के सौन्दर्य का, नेत्रों की विशालता एवं भोलेपन ने मृगों के नेत्रों के इन्हीं गुणों को छीन लिया हो। तात्पर्य यह है कि पद्मावती के शरीर के अंग-प्रत्यंग इतने अधिक सुन्दर हैं कि उनके सामने, उनके लिए प्रयुक्त होने वाले सारे उपमान फीके जान पड़ते हैं।

कवि कह रहा है कि पद्मावती का गौरवर्ण शरीर हीरे के समान चमकता है। उसकी नासिका को देखकर तोते की चोंच का आभास होता है, उसके अधर बिम्बाफल की तरह लाल और मोहक हैं। उसकी अंगुलियों के नाखून मोती के समान सुन्दर और सुडौल हैं और शिखा सर्प को लज्जित करने वाली है। उसकी गति को देखकर हाथी, हंस और सिंह भ लज्जित हो दूर जाकर छिप जाते हैं। अर्थात् उसकी चाल में हाथी की सी मस्ती, सिंह का सा गर्व और हंस की सी मंथरता है। उसका सम्पूर्ण शरीर इतना सुडौल और सुगठित है कि मानो विधाता ने उसे साँचे में ढालकर गढ़ा हो, अथवा ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे ब्रह्मा ने इन्द्र की पत्नी शची का सौन्दर्य लेकर उसे बनाया हो। ऐसी उस पद्मावती का रूप पद्मिनी नारी (नारियों का एक भेद) के समान सुन्दर और मोहक है। उसके रूप को देखकर ऐसा लगता है कि मानो विधाता ने उसके रूप में कामदेव की पत्नी रति का ही दूसरा रूप खड़ा कर दिया हो।

विशेष

(1) कवि ने पद्मावती को अतिशय सुन्दर बतलाया है। सौंदर्य के जितने भी सुन्दर उपमान होते हैं उनका प्रयोग किया है।

(2) यहाँ अतिशयोक्ति, अनुप्रास, उत्प्रेक्षा और व्यतिरेक अलंकार हैं।

(3) यह वर्णन नारी के नख-शिख वर्णन की परम्परा के अनुसार हैं।

(4) सुन्दरी नारियों के चार प्रकार बताये जाते हैं – 1. पद्मिनी 2. चित्रिणी 3. शंखिनी 4. हस्तिनी। इनमें से पद्मिनी सर्वोत्तम जाति की स्त्री मानी जाती गयी है।

                                   (4)                   

सामुद्रिक लच्छन सकल। चौसठि कला सुजान ।।

जानि चतुर दस अंग षट। रति बसंत परमान।।4।।

कठिन-शब्दार्थ – सामुद्रिक हस्त एवं पद तथा मुखाकृति से शुभाशुभ बताने की विद्या। लच्छन – लक्षण। सकल-समस्त। चौंसठ कला – चौंसठ कलाएँ। सुजान अच्छी प्रकार जानकारी रखने वाली चतुर्दश – चौदह विद्याएँ। षट – छह शास्त्र वेद के अंग। रति बसन्त परमान – रति और वसंत के अनुरूप। परमार – प्रमाण।

प्रसंग-प्रस्तुत पद्यांश चन्दवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती के समय’ से उद्धृत है। इसमें कवि ने (सामुद्रिकशास्त्र की दृष्टि से पद्मावती के शरीरांगों के सौन्दर्य का महत्त्व वर्णित किया है।

व्याख्या – कवि कहता है कि पद्मावती के शरीर के सभी अंगों में सामुद्रिकशास्त्र के सभी शुभ लक्षण विद्यमान थे। वह चौंसठ कलाओं में पारंगत थी। वह चौदहों विद्याओं तथा छहों दर्शनों तथा वेद के छह अंगों में पारंगत थी। वह कामदेव की पत्नी रति तथा वसंत के समान सुन्दर थी।

विशेष –

(1) कवि ने पद्मावती को सब प्रकार से सुन्दर और गुणवती बतलाना चाहा है।

(2) कवि चंद की सामुद्रिकशास्त्र, कलाओं, विद्याओ आदि की जानकारी का भी पता चलता है।

(3) यहाँ अतिशयोक्ति, अनुप्रास तथा उपमा अलंकार हैं।

(4) यहाँ अंग षट से तात्पर्य वेद के छः अंग और दर्शनशास्त्र के छः प्रकार से है। वेद के छह अंग हैं – शिक्षा, कल्प, निरुक्त, ज्योतिष और छन्दशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र के छह प्रकार हैं – सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, वेदान्त और न्यास।

                                   (5)

सषियन संग खेलत फिरत। महलनि बाग निवास।।

कीर इक्क दिष्षिय नयन। तब मन भयौ हुलास।।5।।

कठिन शब्दार्थ– सवियन संग सखियों के साथ में। महलनि – महलों में। बग्ग – बाग में, उद्यान में। कीर – तोता। इक्क – एक। दिष्षिय – देखा। हुलास – प्रसन्न।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश कवि चन्दवरदायी के ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय’ शीर्षक से लिया गया है।

व्याख्या – यहाँ पद्मावती की क्रीड़ाओं का सौन्दर्यपूर्ण वर्णन करते हुए कवि कहता है – पद्मावती अपनी सखियों के साथ महलों, निवास-स्थान और बागों में खेलती रहती थी, एक दिन खेलते समय ही उसे एक तोता दिखाई दिया। उस तोते को देखकर उसके मन में बड़ी प्रसन्नता हुई ।

विशेष –

(1) कवि ने यहाँ पद्मावती की क्रीड़ा तथा तोते को देखकर हुई उसकी प्रतिक्रिया के बारे में वर्णन किया है।

(2) यहाँ प्रकृति का भी थोड़ा-सा वर्णन हो गया है।

(3) दोहा छन्द है।

(4) प्रारम्भिक हिन्दी पर अपभ्रंश का प्रभाव होने से ‘ख’ की जगह ‘ष’ का ही अधिकतर प्रयोग हुआ है। ‘दिष्षिय’ आदि इसके उदाहरण हैं।

                                      (6)

मन अति भयो हुलास। विगसि जनु कोक किरण रवि।।

मन अति भयो हुलास। विगसि जनु कोक किरण रवि।।

अरुण अधर तिय सुधर। बिंब फल जानि कीर छबि।।

यह चाहत चष चकित। उहजु तक्किय झरप्पि झर।।

चंच चहुट्टिय लोभ। लियौ तब गहित अप्प कर।।

हरषत अनंद मन महि हुलस। लै जु महल भीतर गइय।।

पंजर अनूप नग मनि जटित। सो तिहि मँह रष्षत भइय।।6।।

कठिन-शब्दार्थ – हुलास -प्रसन्नता, आनन्द। बिगसि – खिला हो, प्रसन्न हुआ हो। चष – नेत्र। जनु – मानो। कोक – चकवा। रवि – सूर्य। अरुन – लाल रंग के। तिय – नारी। सुधर – सुन्दर। बिंब फल – बिंबाफल, फल विशेषं जो अन्दर से लाल होता है। चक्रित – चकित आश्चर्ययुक्त। उहजु – वह भी जैसे। तक्किय – देखा। झरप्पि – झपटकर। चंच – चोंच। गहित – ग्रहण कर लिया, पकड़ लिया। अप्प कर – अपने हाथ में। अनंद – आनंद। महि – में। लै – लेकर। रष्षत भइय – रख दिया।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश चन्दवरदायी के ‘पद्मावती समय’ से उद्धृत है। कवि ने पद्मावती के सौन्दर्य एवं गुणों का वर्णन किया है। यहाँ कवि वाटिका में विचरण करती हुई पद्मावती द्वारा तोते के पकड़े जाने के बारे में वर्णन कर रहा है।

व्याख्या – कवि कहता है कि तोते को देखकर पद्मावती के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। वह इस प्रकार प्रसन्न हो उठी मानों रात भर चकवी से वियुक्त रहा चकवा प्रभाव होते हुए सूर्य की किरणें देखकर खुश हो उठा हो। उस प्रसन्न पद्मावती के लाल होठ देखकर तोते को उनमें सुन्दर बिम्बाफल का भ्रम हुआ। उसने होठों को बिम्बाफल समझकर लेना चाहा। पद्मावती तोते को वहाँ आया देखकर चकित थी, उधर तोता भी होठों को बिम्बाफल समझकर उन पर झपटा। उसने उन्हें प्राप्त करने के लोभ में अपनी चोंच चलाई। पद्मावती ने उसे हाथ से पकड़ लिया। वह मन में प्रसन्न होकर उसे अपने महल में ले गई। उसने वहाँ उसे नगों और मणियों से जड़े हुए पिंजरे में सँभाल कर रख लिया।

विशेष –

(1) यहाँ वाटिका में विचरण करती पद्मावती के लाल रंग के सुन्दर होठों का और तोते को उनमें बिम्बाफल का भ्रम होने का वर्णन हुआ है।

(2) सूर्य उदय होने पर चक्रवाक को इस बात की अनुभूति हो जाती है कि अब बिछुड़ी हुई चकवी से मिलने का समय आ गया है, इसलिएय वह प्रसन्न होता है। क्योंकि इन दोनों के सम्बन्ध में ऐसी मान्यता है कि रात्रि के समय ये दोनों एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं और प्रातः होते ही एक-दूसरे से मिल जाते हैं।

(3) इस पद्यांश में उत्प्रेक्षा, भ्रान्तिमान और अनुप्रास अलंकारों का प्रयोग हुआ है।

                         (7-9)

सवालष्ण उत्तर सयल। कमऊँ गड्ड दूरंग।।

सवालष्ण उत्तर सयल। कमऊँ गड्ड दूरंग।।

राजत राज कुमोदमनि। हय गय द्रिब्ब अभंग।।7।।

नारिकेल फल परठि दुज। चौक पूरि मनि मुत्ति।।

दई जु कन्यसा बचन बर। अति अनंद करि जुत्ति।।8।।

पदमावति विलषि बर बाल बेली। कही कीर सोबात तब हो अकेली॥

झटं जाहु तुम्ह कीर दिल्ली सुदेस। बरं चाहुवांन जु आनौ नरेस॥9

कठिन-शब्दार्थ – सवालष्ष – सपादलक्ष। सयल – शैल, पर्वत। दूरंग – दुर्गम । राजत – सुशोभित होता है। हय – घोड़े। गय – गज, हाथी। ट्रिब्ब – द्रव्य अभंग – परिपूर्ण। नारिकेल – नारियल परठि – स्थापित किया। दुज – द्विज। मनि-मुक्ति – मणि-मोतियों से। जुत्ति – युक्ति, विधिपूर्वक। झटं – शीघ्र। बालबेली – नवयुवती, अर्धविकसित लता। विलषि – व्याकुलतापूर्वक। आनौ – ले आओ ।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश चन्दबरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय से उद्धृत है। इसमें पद्मावती के लिए योग्य वर खोजे जाने की घोषणा के बाद कवि ने राजपुरोहित द्वारा पद्मावती के लिए वर खोजे जाने के प्रयत्न के बारे में वर्णन किया है। उसकी कुमोदमणि के साथ सगाई की गई किन्तु पद्मावती के मन में कुछ और ही था।

व्याख्या – कवि कहता है कि सपादलक्ष के उत्तर में दुर्गम कुमायूँ गढ़ था। उसमें कुमोदमणि राजा सुशोभित होता था। उसके पास घोड़े, हाथी आदि अपार सम्पदा थी। ब्राह्मण ने मोती-मणियों से चौक पूर कर, उस पर नारियल स्थापित किया और आन्दपूर्ण विधि-विधान से राजा से पद्मावती की सगाई तय कर दी। नई लता के समान विकसित युवती पद्मावती ने दुःखी होकर तोते से कहा कि तुम शीघ्र दिल्ली जाकर श्रेष्ठ प्रतापी राजा पृथ्वीराज चौहान को ले आओ।

विशेष –

(1) कवि ने पद्मावती के पृथ्वीराज के प्रति अनुराग को व्यक्त किया है।

(2) यहाँ उपमा व अनुप्रास अलंकार है ।

(3) काव्य-परम्परा में तोता, कौआ, भौंरा आदि को दूत बनाकर भेजने की परम्परा रही है। उसी परम्परा के अन्तर्गत पद्मावती ने तोता द्वारा पृथ्वीराज चौहान को संदेश भेजा है।

                                 (10-12)

आँनो तुम्ह चाहुवांन बर। अरु कहि इहै संदेस।।

आँनो तुम्ह चाहुवांन बर। अरु कहि इहै संदेस।।

सांस सरीरहि जो रहै। प्रिय प्रथिराज नरेस।।10।।

लै पत्री सुक यों चल्यौ। उड्यौ गगनि गहि बाव।।

जहँ दिल्ली प्रथिराज नर। अट्ठ जाम में जाव।।11।।

दिय कग्गर नृप राज कर। बुलि बंचिय प्रथिराम ।।

सुक देखत मन में हँसे। कियौ चलन कौ साज।।

कठिन-शब्दार्थ – अरु – और। कहि – कहकर। इहै – यह। समीरहिं – वायु से। प्रथिराज – पृथ्वीराज। सुक – तोता। पत्री – पत्र। गगनि – आकाश में। गहि बाव- वायु का आधार लेकर। अट्ठ जाम – आठ याम। कग्गर – कागज, पत्र। षुलि बंचिय – खोलकर बाँचा, पढ़ा।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश चन्दवरदायी के ‘पृथ्वीराज रासो’ महाकाव्य के ‘पद्मावती समय से उद्धृत है। पद्मावती की कुमायूँ के राजा से सगाई कर दी गई, किन्तु दुःखी पद्मावती ने तोते से कहा कि तू शीघ्र पृथ्वीराज चौहान को लेकर आ। इसी क्रम में यह वर्णन है।

व्याख्या – पद्मावती ने कहा कि हे तोते! तुम पृथ्वीराज को यहाँ ले आओ और उनसे मेरा यह सन्देश कहो कि जब तक मेरे शरीर में श्वास- समीर रहेगा तब तक मेरे लिए राजा पृथ्वीराज ही प्रिय रहेगा। दूसरे शब्दों में, मेरे पति पृथ्वीराज ही रहेंगे। इस प्रकार पद्मावती का पत्र लेकर तोता वहाँ से चला और हवा के सहारे वह आकाश में उड़ने लगा। पृथ्वीराज जहाँ विराजमान थे, वहाँ वह आठ याम या प्रहर में पहुँच गया। उसने पद्मावती का पत्र पृथ्वीराज के हाथों में दे दिया। पृथ्वीराज ने उस कागज या पत्र को खोलकर पढ़ा। वह तोते को देखकर मन ही मन हँसा और फिर उसने पद्मावती के पास चलने की तैयारी की।

विशेष –

(1) पद्मावती ने राजा पृथ्वीराज के पास संदेश तोते के माध्यम से पहुँचाया।

(2) यहाँ रूपक व अनुप्रास अलंकार हैं।

(3) नाटकीयतायुक्त शैली है।

                                            (13-15)

कर पकरि पीठ हय परि चढ़ाय। लै चल्यौ नृपति दिल्ली सुराय।।

कर पकरि पीठ हय परि चढ़ाय। लै चल्यौ नृपति दिल्ली सुराय।।

भइ षबरि नगर बाहिर सुनाय। पदमावतीय हरि लीय जाय।।13।।

कम्मान बांन छुट्टहि अपार। लागंत लोह इम सारि धार।।

घमसान घाँन सब बीर घेत। घन श्रोन बहत अरु रकत रेत।14।।

पदमावति इम लै चल्यौ। हरषि राज प्रिथिराज।।

एतें परि पतिसाह की। भई जु आनि अवाज।।15।।

कठिन-शब्दार्थ – हय – घोड़ा। सुराय – श्रेष्ठ राजा। षबरि – खबर। हरि लीय जाय – अपहरण किया जा रहा है, हर कर ले जा रहा है। कम्मान – कमान, धनुष। लागत = लगते हैं। इसि – इस प्रकार। सारि धार – तलवार की धार। घॉन- युद्ध। षेत – खेत रहना, मारे जाना। श्रौन – श्रोणित, खून। रुकत – लाल। एतें – इतने में, इस बीच । पतिसाह – बादशाह आनि – आने की। अवाज – आवाज।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश कवि चन्दवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय’ से उद्धृत है। तोते द्वारा दिये गये पत्र में समाचार जानकर पृथ्वीराज पद्मावती के पास आया। यहाँ पद्मावती को ले जाये जाने के बारे में वर्णन है।

व्याख्या – कवि वर्णन करता है कि पद्मावती का हाथ पकड़कर उसे घोड़े की पीठ पर चढ़ाकर दिल्लीपति श्रेष्ठ राजा पृथ्वीराज उसे लेकर दिल्ली गढ़ की ओर चल पड़ा। नगर के बाहर से आने वाले लोगों से सुनकर यह बात फैल गई कि राजा पद्मावती का अपहरण करके ले जा रहा है। तब विजयपाल और कुमोदमणि की सेनाओं से पृथ्वीराज का युद्ध हुआ। उस युद्ध में धनुषों से छूटे हुए बहुत से बाण कवचों से ढँके हुए शरीर में घुस रहे थे। ये बाण तलवार की धार की तरह पैने प्रतीत होते थे। इस प्रकार बड़ा घमासान युद्ध हुआ और बहुत से वीर खेत रहे,। मारे गये। बहुत-सा खून बहने से युद्ध क्षेत्र का रेत लाल हो गया। पृथ्वीराज युद्ध जीतकर हर्षित होता हुआ दिल्ली की ओर चल पड़ा। इसी बीच बादशाह शहाबुद्दीन गोरी के चढ़ आने की सूचना मिली।

विशेष –

(1) कवि ने यहां श्रीकृष्ण द्वारा रूक्मिणी हरण का अनुकरणात्मक वर्णन किया है।

(2) उपमा, अनुप्रास और अतिशयोक्ति अलंकार प्रयुक्त हुए हैं।

(3) कवि की कल्पना शक्ति का सुन्दर प्रयोग हुआ है।

(16)

भई जु आँनि अवाज। आय साहबदीन सुर।।

भई जु आँनि अवाज। आय साहबदीन सुर।।

आज गहौं प्रथिराज। बोल बुल्लंत गजत धुर।।

क्रोध जोध जोधा अनंद। करिय पती अनि गज्जिय।।

बांन नालि हथनालि। तुपक तीरह स्स्रव सज्जिय।।

पव्वै पहार मनों सार के। भिरि भुजांन गजनेस बल।।

आये हकरि हकार करि। षुरासान सुलतान दल।।16।।

कठिन-शब्दार्थ – गहौं – पकडूँगा। बोल बुलंत – बोल बोलता हुआ, हुंकार करता हुआ। अनंत – अंतरहित, बहुत से । करिय पंती पंक्तिबद्ध किया। गज्जिय गर्जना की। नालि – नाल, बन्दूक। हथनालि – तोप। स्रब – सब। सज्जिय – सुसज्जित थी। सार के – लोहे के। पब्बै – पड़ना, गिरना, वज्र गजनेस – गजनीपति गोरी। हकारि – गर्जकर बुलाये गए। करि – कर। तुपक – छोटी तोप।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश चन्दवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज ‘रासो’ नामक महाकाव्य के ‘पद्मावती समय’ से लिया गया है। जब पृथ्वीराज युद्ध जीतकर पद्मावती को लेकर दिल्ली की ओर चल पड़ा तभी गजनी के बादशाह गोरी ने उस पर आक्रमण कर दिया। गोरी ने किस प्रकार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया, इसी सम्बन्ध में प्रस्तुत वर्णन है।

व्याख्या – सेना सहित शूर शहाबुद्दीन के आने पर बड़ी आवाज, बड़ा शोर हुआ। वह गर्जकर कहने लगा कि मैं आज पृथ्वीराज को पकडूंगा। उसके साथ असंख्य क्रोधपूर्ण योद्धा थे। उसकी पंक्तिबद्ध सेना गर्जना कर रही थी। वह सेना धनुष-बाण, तोप, नाल, तीर आदि हथियारों से सुसज्जित थी। उसके सुसज्जित सैनिकों का समूह ऐसा लगता था। मानो लोहे का पहाड़ टूटकर गिर रहा हो। गजनीपति गोरी के वे सैनिक अपनी भुजाओं के बल पर युद्ध में जूझ रहे थे। खुरासान सुल्तान का वह दल हुकार करता हुआ बढ़ रहा था।

विशेष –

(1) कवि ने गजनीपति की विशाल सुसज्जित सेना के बारे में वर्णन किया है। सेना के युद्ध-प्रयाण का वर्णन परम्परागत है।

(2) वर्णन से लगता है कि कवि को युद्ध क्षेत्र की जानकारी है। आदिकाल के कवि स्वयं भी तलवार लेकर युद्ध करते थे, इस कारण उनका युद्ध सम्बन्धी वर्णन यथार्थ प्रतीत होता है।

(3) वर्णन वीररसपूर्ण है। भाषा ओजपूर्ण है। भाषा में चित्रात्मकता है।

(4) यहाँ उत्प्रेक्षा और अनुप्रास अलंकार है।

                                                (17)

तिनं घेरियं राज प्रथिराज राज। चिहौ ओर घन घोर निसान बाजं।।

तिनं घेरियं राज प्रथिराज राज। चिहौ ओर घन घोर निसान बाजं।।

गही तेग चहुंवान हिंदवानं रानं। गजं जूथ परि कोप केहरि समानं।।17।।

कठिन-शब्दार्थ – तिनं – उसने। घेरियं – घेर लिया। चिहौं ओर – चारों ओर। घनघोर -भयानक, बहुत अधिक। निसानं – नगाड़े। गही – पकड़ी, ग्रहण की। तेन – उस गंज जूथ – हाथियों के समूह। केहरि – शेर। हिंदवान रान हिंदुओं के राजा।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश चन्दवरदायी के ‘पृथ्वीराज रासो’ महाकाव्य के ‘पदमावती समय से उद्धत है। इसमें शहाबुद्दीन गोरी की सेना द्वारा पृथ्वीराज चौहान को घेर लिये जाने और फिर पृथ्वीराज द्वारा किये गये शत्रु-सेना के संहार के बारे में वर्णन है।

व्याख्या – कवि वर्णन करता है कि गोरी की सेना ने पृथ्वीराज को घेर लिया। चारों ओर सेना में नगाड़ों को बजाये जाने का तुमुल नाद हो रहा था। तब हिन्दुओं के राजा पृथ्वीराज चौहान ने तलवान उठाई। वह शत्रु-सेना पर उसी प्रकार प्रहार करने लगा जिस प्रकार शेर हाथियों के समूह पर टूटकर उन्हें आघात पहुँचाता है।

विशेष –

(1) कवि ने शत्रु-सेना के भारी जमावड़े का दृश्य प्रस्तुत किया है।

(2) पृथ्वीराज के रण कौशल का वर्णन किया है।

(3) पृथ्वीराज के पराक्रम को स्पष्ट करने के लिए उसने हाथियों के समूह पर टूट पड़ते शेर का उदाहरण देकर अपनी कल्पना-शक्ति का सुंदर प्रयोग किया है।

(4) वर्णन में चित्रात्मकता है।

(5) अनुप्रास एवं उपमा अलंकार हैं।

                                             (18)

गिरद्दं उड़ी भाँन अंधार रैनं। गई सूधि सुज्झै नहीं मज्झि नैनं।।

सिरं नाय कम्मान प्रथिराज राजं। पकरियै साहि जिम कुलिंगबाजं।।18।।

कठिन-शब्दार्थ – गिरंद्द – गर्द, धूल। भाँन – सूर्य। अँधार – अँधेरा। रैनं – रात। नाय – रखकर। जिम – जैसे। मज्झि – बीच में। कुलिंग – पक्षी ।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय’ से लिया गया है। पृथ्वीराज पर शहाबुद्दीन गोरी ने भारी सेना लेकर आक्रमण कर दिया था। पृथ्वीराज अपने. हाथ में तलवार लेकर शत्रु-सेना पर इस प्रकार टूट पड़े जैसे हाथियों के समूह पर शेर टूट पड़ता है। इसी क्रम में प्रस्तुत वर्णन है।

व्याख्या – उस युद्ध में सेना की हलचल और हाथियों की भगदड़ से इतनी धूल उड़ी कि सूर्य धूल से ढ़क गया। अंधकार छा जाने से रात-सी हो गई। उस अँधेरे में दिशाओं को पहचानना असंभव हो गया। नेत्रों को कुछ दिखाई न देता था। राजा पृथ्वीराज ने शहाबुद्दीन गोरी की गर्दन में अपना धनुष डालकर उसे इस प्रकार पकड़ लिया जिस तरह बाज किसी पक्षी को पकड़ लेता है।

विशेष –

(1) वीरगाथा काल के कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा की है। यहाँ पृथ्वीराज चौहान द्वारा गोरी के बंदी बनाये जाने पर वर्णन है।

(2) अनुप्रास और उपमा अलंकारों का प्रयोग किया गया है।

(3) आदिकालीन हिन्दी की यह विशेषता यहाँ द्रष्टव्य है कि उसमें शब्दों पर अनुस्वार लगाकर संस्कृत शब्दों

का भ्रम पैदा किया गया है।

(4) वर्णन में चित्रात्मकता की विशेषता है।

(5) वर्णन वीररसमूर्ण है।

(6) भाषा ओजगुणयुक्त है।

(19-20)

जीति भई प्रथिराज की। पकरि साह लै संग।।

जीति भई प्रथिराज की। पकरि साह लै संग।।

दिल्ली दिंसी मारगि लगौ। उतरि घाट गिर गंग।।19।।

बोलि विप्र सोधे लगन्न। सुभ घरी परट्ठिय।।

हर बांसह मंडप बनाय। करि भांवरि गंठिय।।

ब्रह्म वेद उच्चरहिं। होम चौरी जुप्रति वर।।

पद्मावती दुलहिन अनूप। दुल्लह प्रथिराज राज नर।।

डंडयौँ साह साहाबदी। अट्ठ सहस हे वर सुघर।।

दै दाँन माँन षट भेष कौ। चढे राज द्रूग्गा हुजर।।20।।

कठिन-शब्दार्थ – लगौ – चल पड़ा। गिरि-गंग – पर्वत से निकलती हुई गंगा। लगन्न – लगन। परट्ठिय – पूछी, तय की गई। हर बांसह – हरे-हरे बांस। भांवरि गठिय – भांवरे पड़ीं। चौरी – वेदी। जु – जहाँ। प्रति-प्राप्ति। दुल्लह- दूल्हा। साहाबदी – शहाबुद्दीन। अट्ठ – आठ । माँन – मान, सम्मान। द्रूग्गा – दुर्गा। हुजर – सामने।

प्रसंग – प्रस्तुत पद्यांश कवि चन्दवरदायी द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ के ‘पद्मावती समय’ से उद्धृत है। कवि ने पृथ्वीराज द्वारा शहाबुद्दीन गोरी के पकड़े जाने का वर्णन किया है। पृथ्वीराज उसे पकड़कर दिल्ली ले गया और वहाँ हुए पृथ्वीराज और पद्मावती के विवाह का वर्णन किया गया है।

व्याख्या – कवि वर्णन करता है कि उस युद्ध में पृथ्वीराज की विजय हुई। गोरी को उसने बंदी बनाकर अपने साथ ले लिया और गंगानदी को पार कर वह दिल्ली की ओर चल पड़ा। वहाँ पृथ्वीराज ने ब्राह्मणों को बुलवाकर विवाह की लग्न पूछी। ब्राह्मणों ने लग्न की शुभ घड़ी तय की। हरे बाँसों द्वारा विवाह मण्डप बनाया गया तथा भाँवरें पड़ने • और दूल्हा-दुलहिन के गठबंधन का कार्यक्रम किया गया। ब्राह्मणों ने विवाह के समय के वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया और पृथ्वीराज को होम की वेदी के सामने बिठाया। पृथ्वीराज सुन्दर दूल्हे थे और पद्मावती अनुपम दुलहिन थी। दिल्लीपति पृथ्वीराज ने शहाबुद्दीन गोरी को दण्डित किया अर्थात् उससे दण्ड के रूप में आठ हजार सुन्दर स्वस्थ घोड़े लिये । पृथ्वीराज ने दुर्गा के मंदिर में विवाह करके योगियों, संन्यासियों आदि को बहुत प्रकार से दान देकर सम्मानित किया।

विशेष –

(1) कवि ने पृथ्वीराज की विजय, उसके विवाह की पद्धति का वर्णन किया है।

(2) विवाह का वर्णन वैदिक रीति-रिवाजों के ही अनुसार है।

(3) हिन्दू राजा सामान्यतया दुर्गा और शिव की पूजा करते थे।

(4) अनुप्रास अलंकार का प्रयोग हुआ है।

महत्वपूर्ण प्रश्न  – पद्मावती समय

(1483-1563)

  1. “तहँ सु विजय सुर राजपति। जाहू कुलह अभंग। – पंक्ति में ‘ सुर राजपति’ किसे कहा गया है?

– राजा विजयपाल

  1. ‘सो पदमसेन ‘कँवर सुघर’। “पंक्ति में पद्मसेन कुँवर सुधर – किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?

– राजा विजयपाल की रानी पद्मसेन कँवर

  1. ‘’मनहुँ कला सासिभान। कला सोलह सो बन्निय।”

पंक्ति में किसके रूप सौन्दर्य का वर्णन किया है?

– पद्मावती

  1. राजा विजयपाल ने अपनी पुत्री पद्मावती की सगाई कहाँ के राजा के साथ निशचित (तय) कर दी थी?

– कुमाऊँ के राजा कुमोदमणि के साथ

  1. “झटं जाहु तुम्ह कीर दिल्ली सुदेस।‘’ वह कथन किसने किसके प्रति कहा है?

– पद्मावती ने तोते से

  1. पद्मावती ने दिल्ली के राजा पृथ्वीराज के पास अपना प्रेम संदेश किसके माध्यम से पहुँचाया?

– तोते के

  1. “घमासान घाँन सब वीर खेत। धन श्रोन बहत अरु रक्त रेत। “पंक्ति में कौन से रर्स की व्यंजना हुई है?

– वीभत्स रस की

  1. “एतें परि पतिसाह की।‘’ पंक्ति में ‘पतिसाह’ शब्द किसके लिये प्रयुक्त हुआ है?

– शहाबुद्दीन गौरी

  1. ‘कम्मान बान छुट्टहि अपार। लागत लोग इमि सरिधार।‘ – पंक्ति में किनके मध्य हुए युद्ध का चित्रण किया गया है? – पृथ्वी तथा विजयपाल कुमोदमाणि
  2. “गिरद्द उदी भॉन अंधार रैन। गई सूचि सूज्जै नहिं मज्झि नैंन। पंक्तियों में किनके मध्य हुए युद्ध दृश्य का चित्रित है।
  3. ‘पृथ्वीराज रासों’ का प्रधान रस कौन सा है?

– वीर रस

  1. काव्य रूप की दृष्टि से ‘पृथ्वीराज रासो’ किस काव्य की श्रेणी में आता है?

– महाकाव्य

  1. पृथ्वीराज रासो में किस गुण की दीप्ति आदि से अंत तक विद्यामान है?

– ओज गुण

  1. चंदबरदायी किस राजा के सभा कवि थे ?

– पृथ्वीराज चौहान

  1. पूर्व दिशा में स्थित गढ़ का क्या नाम था ?

– समुद्र शिखर

  1. “सिरं नाय कम्मानं पृथ्वीराज राजं। पकरियै साहि निमि कुलिंगबाज।” पंक्ति में प्रयुक्त अलंकार है?

– उपमा और अनुप्रास

  1. “अरून अधर तिय सुघर बिम्बफल जानि कीर छवि।” पंक्ति में प्रयुक्त अंलकार है?

– भ्रांतिमान

  1. शहाबुद्दीन को पकड़ने वाले पृथ्वीराज की तुलना किससे की गयी है?

– बाज पक्षी से

  1. ‘गही तेग चहुंवान हिंदबांन राजं। गंज जूथ परिकोप केहरि समान । “पंक्ति में रेखांकित पद किसका प्रतीकार्थ लिये है?

– गजंजूथ – शाहाबुद्दीन की सेना । केहरि – पृथ्वीराज

  1. पाठ्यपुस्तक में संकलित अंश चंदबरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’ के कौनसे ‘समय’ से संबंधित है?

– पद्मावती समय से

कवि देव सवैया व्याख्या 

  • पद्मावती समय पृथ्वीराज रासो
  • पद्मावती समय की कथावस्तु
  • पद्मावती समय की व्याख्या
Dev ka jivan parichay

Dev ka jivan parichay | कवि देव का जीवन परिचय

देव का परिचय – Dev ka jivan parichay

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रीतिकालीन कवि देव का पूरा नाम देवदत्त द्विवेदी था। उनका जन्म सन् 1673 ई., इटावा, उत्तर प्रदेश में हुआ। रीतिकालीन कवियों में देव बड़े ही प्रतिभाषाली कवि थे। ये किसी एक आश्रयदाता के पास नहीं रहे। इनकी चित्तवृत्ति किसी एक स्थान पर नहीं लग सकी। अनेक आश्रयदाताओं के पास रहने का अवसर इन्हें मिला और इसी कारण राजदरबारों का आडम्बरपूर्ण और चाटुकारिता भरा जीवन जीने से इन्हें अपने जीवन से ही वितृष्णा हो गई।

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कवि देव की रचनाएँ – Dev ki rachna

देव द्वारा रचे गए ग्रन्थों की संख्या 52 से 72 तक  मानी जाती है। उनमें रस-विलास, भवानी-विलास, ‘भाव-विलास’ जाति-विलास, कुशल-विलास, अष्टयाम, सुजान विनोद, काव्य रसायन, प्रेम दीपिका आदि प्रमुख हैं। इनके कवित्त-सवैयों में प्रेम और सौंदर्य के इंद्रधनुषी चित्र मिलते हैं, संकलित सवैयों और कवित्तों में जहाँ एक ओर रूप सौंदर्य का अलंकारिक चित्रण हुआ है, वहीं रागात्मक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी संवेदनशीलता के साथ हुई है।

कवि देव कुछ समय तक औरंगजेब के पुत्र आलमशाह के दरबार में भी रहे थे, किन्तु उन्हें सबसे अधिक संतुष्टि भोगीलाल नामक सहृदय आश्रयदाता के यहाँ ही प्राप्त हुई, जिसने उनके काव्य से प्रसन्न होकर उन्हें लाखों की सम्पत्ति दान की थी।

देव की भाषा प्रांजल और कोमल ब्रजभाषा है। इस भाषा में अनुप्रास और यमक के प्रति देव का आकर्षण दिखाई देता है। उनकी कविता में जीवन के विविध दृश्य नहीं मिलते, किन्तु प्रेम और सौंदर्य के मार्मिक चित्रों की प्रस्तुति मिलती है।

कवि देव की भाषा शैली

साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नर गयो ढरि।

साँसनि ही सौं समीर गयो अरु, आँसुन ही सब नर गयो ढरि।

तेज गयो गुन लै अपनो, अरु भूमि गई तन की तनुता करि।।

‘देव’ जियै मिलिबेहि की आस कि, आसहू पास अकास रह्यो भरि,

जा दिन तै मुख फेरि हरै हँसि, हेरि हियो जु लियो हरि जू हरि।।

कठिन – शब्दार्थ- सॉसनि – साँसों में, समीर = हवा। आँसुन = आँसू। नीर = पानी। ढरि = दुलकना, बहना। गुन = गुण। तन = शरीर। तनुता = कृशता, दुबलापन। आसहू = आशा में अकास = आकाश हेरि = देखकर। हियो = हृदय।  हरि = कृष्ण, हरना ।

भावार्थ – इन पंक्तियों में कवि ने एक ऐसी गोपिका का वर्णन किया है जो कृष्ण की हँसी की चोट की शिकार होकर विरह-वियोग की चरम दशा में पहुँच गई है। एक बार श्रीकृष्ण ने एक गोपी की तरफ मुस्कुरा करके देखा तो गोपी भाव-विभोर होकर उन्हीं की मुस्कुराहट में खो गई, किन्तु थोड़ी देर बार कृष्ण ने उसकी तरफ से मुँह फेर लिया तो उस गोपी की खुशी अचानक से ही गायब हो गई और अब वह उसी समय से वियोगावस्था में जी रही है। वह दिन-प्रतिदिन दुर्बल होती जा रही है। विरह अवस्था में वह तेज-तेज साँसें छोड़ती है, इससे उसका वायु तत्त्व  समाप्त होता जा रहा है।

कृष्ण के वियोग में रोते रहने से उसके आँसुओं में उसका जल तत्त्व बहकर समाप्त हो रहा है। गोपी के शरीर का तेज अर्थात् गर्मी भी अपना गुण खो चुकी है। इस प्रकार तेज तत्त्व (अग्नि) का प्रभाव भी समाप्त हो गया है। विरह व्यथा में उसका शरीर अत्यन्त कमजोर हो गया है। इस कमजोरी में उसका शरीर अर्थात् भूमि तत्त्व भी चला गया है। इस प्रकार विरही गोपी के शरीर के पाँच तत्वों (भूमि, जल, वायु अग्नि और आकाश) में से केवल आकाश तत्त्व ही बचा है। वह गोपी अकेले आकाश तत्त्व के बलबूते पर ही मन में कृष्ण से मिलने की आशा लगाए हुए है अर्थात् उसका मिलन आशा पर ही जीवित है।

अन्त में कवि देव लिखते हैं कि जिस दिन से श्रीकृष्ण ने गोपी की ओर से मुँह फेर लिया है तभी से उसका दिल तो कृष्ण के पास चला गया है और मुख से हँसी गायब हो गई है। वह कृष्ण को ढूंढ-ढूंढ कर थक गई है।

विशेष –

1. ब्रज भाषा में सवैया छंद का सुंदर प्रयोग है।

2. वियोग श्रृंगार का मार्मिक चित्रण है।

3. हरि जू हरि में यमक अलंकार है।

4. ‘तनु की तनुता’, ‘हरै हँसि’, ‘हेरि हियो’ आदि शब्दों में अनुप्रास अलंकार है।

5. ‘मुख फेर लेना मुहावरे का प्रयोग है।

6. मानव शरीर पाँच तत्त्वों से निर्मित है। कवि ने यहाँ उन्हीं का वर्णन किया है।

7. अतिशयोक्ति अलंकार का प्रयोग है।

(2)

झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,

झहरि-झहरि झीनी बूँद हैं परति मानो,

घहरि-घहरि घटा घेरी है गगन में।

आनि कहयो स्याम मो सौं ‘चलो झूलिबे को आज’

फूली न समानी भई ऐसी हौं मगन मैं ।।

चाहत उठ्योई उठि गई सो निगोड़ी नींद,

सोए गए भाग मेरे जानि वा जगन में।

आँख खोलि देखौं तो न घन हैं, न घनश्याम,

वेई छाई बूँदें मेरे आँसू हवे दृगन में।।

कठिन शब्दार्थ – झहरि = वर्षा की बूंदों की झड़ी लगाना। झीनी = गगन या आसमान। आनि = आकर। मगन = खुश होना। निगोड़ी = निर्दय। जगन = जगना। घन = बादल | घनश्याम = कृष्ण। दृगन = आँखों में। हवे = है।

भावार्थ – इस कवित्त में एक गोपी की स्वप्नावस्था का चित्रण है। वर्षा तु है और सावन का महीना है, बूँद पड़ रही है व झूला झूलने का समय है। जिसे कवि ने इस प्रकार प्रस्तुतु किया है – वर्षा तु में झीनी अर्थात् बारीक-बारीक बूँदें झर रही है। अर्थात् झर-झर करके बारीक-बारीक बूँद पड़ रही हैं। आसमान में घने बादलों की घटाएँ घिर आई हैं। ऐसे मनमोहक वातावरण में एक गोपी निद्रामग्न है। वह स्वप्न देख रही है और स्वप्न में कृष्ण को देखती है। कृष्ण उसके पास आते हैं और कहते हैं कि हे गोपी! चलो, आज साथ-साथ झूला झूलेंगे। यह सुनते ही गोपी फूली नहीं समाती अर्थात् उसे अत्यधिक प्रसन्नता होती है।

वह ऐसा स्वप्न देखकर मग्न हो गई और उसने कृष्ण के प्रस्ताव पर उठने का प्रयोग किया तो उसकी निगोड़ी नींद उड़ गई अर्थात् उसने जैसे ही कृष्ण के साथ चलने का प्रयास किया तो उसकी आँख खुल गई और वह जाग गई। उसका यह जागना ही उसके भाग्य को सुला गया अर्थात् जैसे ही उसकी नींद खुली वैसे ही कृष्ण मिलन का सुख गायब हो गया। गोपी का जागना उसे बहुत ही कष्टप्रद लगा। गोपी कहती है कि जब मैंने आँख खोल कर देखा तब न तो घन अर्थात् बादल ही थे और न ही घनश्याम अर्थात् कृष्ण ही थे।

गोपी की आँखों में स्वप्न में देखी बादल की बूँदें आँसू बन कर छा गई। भाव यह है कि जो गोपी स्वप्न में कृष्ण मिलन के साथ संयोगावस्था में थी वह नींद खुलने पर वियोग अवस्था में आ गई, यह जागना उसे अत्यधिक कष्टप्रद लग रहा है।

विशेष –

1. इस कवित्त में शृंगार रस के संयोग और वियोग पक्षों का चित्रण हुआ है।

2. ‘झहरि झहरि’ तथा ‘घहरि-घहरि’ में पुनरुक्ति प्रकाश व ‘निगोड़ी नींद’, ‘घहरि घहरि घटा घेरी’ में अनुप्रास का प्रयोग है।

3. “सोए गए भाग मेरे जानि व जगन में’’ पंक्ति में विरोधाभास अलंकार है।

4. ब्रजभाषा एवं कवित्त छंद का प्रयोग है।

साहिब अंघ, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।

साहिब अंघ, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।

साहिब अंघ, मुसाहिब मूक, सभा बहिरी, रंग रीझ को माच्यो।

भूल्यो तहाँ भटक्यो घट औघट बूढ़िबे को काहू कर्म न बाच्यो।

भेष न सूझ्यो, कह्यो न, बतायो सुन्यो न, कहा रुचि राच्यो।।

‘देव’ तहाँ निबरे नट की बिगरी मति को सगरी निसि नाच्यो।।

कठिन-शब्दार्थ – साहिब = स्वामी, राजा। मुसाहिब = मुँह लगे कर्मचारी, दरबारी। मूक = गूँगा। बहिरी = न सुनने वाली। काहू = किसी। मति = बुद्धि। सगरी = सारी। निसि = राता। नाच्यौ = नाचा।

भावार्थ – इन पंक्तियों में अपने युग के दरबारी वातावरण पर कटाक्ष करते हुए कवि देव कहते हैं कि, दरबार में राजा, मंत्री, दरबारी से लेकर सारी सभा गूँगी, बहरी व अँधी बनी रहती है। ये सभी राग-रंग में मस्त हुए रहते हैं। ऐसे वातावरण में राजा को कुछ भी दिखाई नहीं देता अथवा वह देख कर भी अंजान बना रहता है।

दरबार का वातावरण सौंदर्य व कला से विहीन हो गया है। कोई भी कला की गहराई में जाना नहीं चाहता। अर्थात् ये लोग भोग-विलास में डूबकर अकर्मण्य बन चुके हैं। यहाँ न कोई किसी की कुछ सुनता है और न ही कोई कुछ समझता है। जिसकी जिसमें रुचि है वह उसी में मग्न है।

कवि कहता है कि भोग-विलास के कारण इन लोगों की मति अर्थात् बुद्धि मारी गई है। वे तो नट की तरह दिन-रात नाचते हैं और भोग-विलास में पागल हैं। ऐसे वातावरण में काव्य कला की पहचान और अनुभूति भला कैसे हो सकती है।

विशेष –

1. कवि ने अपने युग की पतनशील एवं निष्क्रिय परिस्थितियों के प्रति असंतोष व्यक्त किया है। रीतिकालीन दरबारी वातावरण का यथार्थ चित्रण किया है।

2. ‘रुचि राच्यो’, ‘निसि नाच्यौ’, ‘निबरे नट’ आदि शब्दों में अनुप्रास अलंकार है।

3. ब्रजभाषा व सवैया छंद का प्रयोग हैं।

भावार्थ

कवि देव के सवैया

पाँयनि नूपुर मंजु बजैं, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई।

पाँयनि नूपुर मंजु बजैं, कटि किंकिनि कै धुनि की मधुराई।

साँवरे अंग लसै पट पीत, हिये हुलसै बनमाल सुहाई।

माथे किरीट बड़े दृग चंचल, मंद हँसी मुखचंद जुन्हाई।

जै जग-मंदिर-दीपक सुंदर, श्रीब्रजदूलह ‘देव’ सहाई ।।

कठिन-शब्दार्थ – पाँयनि = पैरों में। मंजु = सुन्दर। बजैं = बजना। किंकिनि = घुँघरूओं की आवाज। मधुराई – मधुरता। साँवरे = कृष्ण । लसै = सुशोभित होना। पीत = पीला। हुलसै = आनन्दित हो रहा है। सुहाई = सुशोभित  है। किरीट = मुकुट। मुखचंद = चन्द्रमा जैसा मुख। जुन्हाई = चाँदनी। ब्रजदूलह = ब्रज के दूल्हे। सहाई = सहायक।

भावार्थ – कवि देव कृष्ण के रूप-सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि श्रीकृष्ण के पैरों में सुन्दर नूपुर हैं, जो बजते हुए मधुर ध्वनि कर रहे हैं। उनकी कमर में करधनी शोभायमान हो रही है जिसकी ध्वनि अति मधुर है।

कृष्ण के श्यामल शरीर पर पीले वस्त्र अत्यन्त शोभायमान हैं। उनके गले में वनमाल अर्थात् फूलों की माला शोभित हो रही है। उनके मस्तक पर मुकुट विराजमान है और उनके नेत्र बड़े-बड़े और चंचल हैं तथा उनके मुख पर मधुर मुस्कानरूपी चाँदनी शोभित है। आज ब्रज के दूल्हे कृष्ण विश्वरूपी मंदिर के सुन्दर प्रज्वलित दीपक के समान शोभाशाली प्रतीत हो रहे हैं। कृष्ण अपने इस रूप में सदा बने रहें । कवि देव की यह कामना है कि वे सदा सबके सहायक बनें।

विशेष –

1. ‘मुख चंद तथा जग-मंदिर’ में रूपक अलंकार है।

2. सवैया छंद ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है।

3. कृष्ण की मनोहारी चेष्टाओं का वर्णन हुआ है।

डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,

डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के,

सुमन झिंगूला सोह्रै तन छबि भारी दै।

पवन झूलावै, केकी-कीर बतरावैं ‘देव’,

कोकिल हलावै – हुलसावै कर तारी दै ।।

पूरित पराग सों उतारो करै राई नोन,

कंजकली नायिका लतान सिर सारी दै।

मदन महीप जू को बालक बसंत ताहि,

प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै।।

कठिन – शब्दार्थ-डार द्रुम = पेड़ की डाल । पलना = पालना। नव पल्लव = नए पत्ते झिंगूला = झबला, ढीला = ढाला वस्त्र । केकी = मोर। कीर = तोता। उतारौ करै राई नोन = नजर उतारना। कंजकली = कमल की कली। लतान = लताओं की सारी = साड़ी। मदन = कामदेव । मदीप = राजा। चटकारी = चुटकी।

भावार्थ – कवि देव बसन्त को बालक के रूप में चित्रित करते हुए कहते हैं कि पेड़ और उसकी डालें बसंत रूपी शिशु के लिए पालना है। वृक्षों में आई नई कोंपलें (पत्ते) उस पालने पर बिछा हुआ बिछौना है। उस बालक ने फूलों से लदा हुआ झिंगूला पहन रखा है, जो उसके तन को बहुत अधिक शोभा दे रहा है।

इस बसन्त रूपी बालक के पालने को स्वयं हवा आकर झुला रही है। मोर और तोते मधुर स्वर में उससे बातें कर रहे हैं। कोयल आ-आकर उसे हिलाती है तथा तालियाँ बजा-बजाकर उसे खुश करती है। बालक को नजर लगने से बचाने के लिए फूलों के पराग से ऐसी क्रिया की जाती है मानो उस पर से राई-नोन उतारा जा रहा हो।

कोमल की कली रूपी नायिका बेलों रूपी साड़ी को सिर पर ओढ़कर नजर उतारने का काम कर रही हो। इस प्रकार बसंत मानो कामदेवजी का नन्हा बालक है, जिसे जगाने के लिए प्रात प्रतिदिन रूपी चुटकी बजाकर जगाता है।

विशेष –

1. कवित्त छंद का प्रयोग हुआ है।

2. “मदन महीप, बालक बसन्त’ में रूपक अलंकार है। 3. अनुप्रास अलंकार का है।

4. बसन्त तु का प्राकृतिक सौंदर्य वर्णित है।

फटिक सिलानि सौं सुधा सुधा मंदिर,

फटिक सिलानि सौं सुधा सुधा मंदिर,

उदधि दधि को सो अधिकाइ उमगे अमंद।

बाहर ते भीतर लौं भीति न दिखैए ‘देव’,

दूध को सो फेन फैल्यो आँगन फरसबंद।

तारा सी तरुनि तामें ठाढ़ी झिलमिलि होति,

मोतिन की जोति मिल्यो मल्लिका को मकरंद।

आरसी से अंबर में आभा सी उजारी लगै,

प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद।।

कठिन-शब्दार्थ – फटिक = स्फटिक। सिलानि = शिलाओं पर। सुधार्यौ = सॅवारा, बनाया। सुधा = अमृत, चाँदनी। उदधिं = समुद्र। दधि = दही। उमगे = उमड़े। अमंद = जो मंद न पड़े। भीति = दीवार । फेन = झाग। फरसबंद = फर्श के रूप में बना हुआ ऊँचा स्थान। तरुनि = जवान स्त्री। मल्लिका बेले की जाति का एक सफेद फूल। आरसी = दर्पण। आभा = ज्योति। प्रतिबिम्ब = परछाई।

भावार्थ – कवि पूर्णिमा की रात में चाँद-तारों से भरे आकाश की आभा का वर्णन करता हुआ कहता है कि चाँदनी रात बहुत ही उज्ज्वल और शोभायमान है। आकाश को देखकर ऐसा लगता है कि मानो स्फटिक की साफ शिलाओं से एक चाँदनी का मन्दिर बनाया गया हो। उसमें  दही के सागर के समान चाँदनी की शोभा अधिक गति के साथ उमड़ रही हो। इस मंदिर में बाहर से भीतर तक कहीं भी दीवार दिखाई नहीं दे रही है।

आशय यह है कि सारा मंदिर पारदर्शी है। मंदिर के आँगन में दूध के झाग के समान चाँदनी का विशाल फर्श बना हुआ है। उस फर्श पर खड़ी राधा की सजी-धजी सखियाँ अपने सौन्दर्य से जगमगा रही हैं। उनकी मोतियों की माला से निकलने वाली चमक मल्लिका के मकरंद-सी मनमोहक प्रतीत हो रही है।

सुन्दर चाँदनी के कारण आकाश काँच की तरह साफ, स्वच्छ और उजला लग रहा है। उसमें शुशोभित राधिका ज्योति पुंज के समान उज्ज्वल प्रतीत हो रही है और चाँद तो उसे प्यारी राधिका की परछाई-सा जान पड़ रहा है।

विशेष –

1. कवित्त छंद का प्रयोग

2. अनुप्रास अलंकार का प्रयोग

3. ‘प्यारी राधिका को प्रतिबिंब सो लगत चंद’ में व्यतिरेक अलंकार है।

4. उपमा तथा उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग।

5. कवि ने आकाश में एक विशाल दर्पण की कल्पना की है।

6. ब्रजभाषा का प्रयोग है।

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