संस्मरण से आप क्या समझते हैं ?

संस्मरण से आप क्या समझते हैं (Sansmaran Se Aap Kya Samajhte Hain): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत संस्मरण पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

संस्मरण से आप क्या समझते हैं ?

‘संस्मरण’ (Sansmaran) शब्द की व्युत्पत्ति स्मृ (धातु) + सम् (उपसर्ग) + ल्युट् (अन्) प्रत्यय के योग से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ है – सम्यक् अर्थात् संपूर्ण रूप से स्मरण करना। डॉ. अमरनाथ ने लिखा है कि – “संस्मरण एक ऐसी स्मृति है, जो वर्तमान को अधिक सार्थक, समृद्ध और संवेदनशील बनाती है।

संस्मरण (Sansmaran) मूलतः अतीत एवं वर्तमान के बीच एक सेतु है। समय सरिता के दो तटों के बीच संवाद का माध्यम है – संस्मरण। यह एक संबंध चेतना है, जो एक तरफ स्मरणीय को आलोकित करती है तो दूसरी तरफ संस्मरणकार को भी अपने मूल्यांकन का अवसर देती है। समय के धुंध में ओझल होती जिंदगी को पुनर्नृजित करने की आंतरिक आकांक्षा में ही संस्मरण के बीज निहित होते हैं। संबंधों की आत्मीयता एवं स्मृति की परस्परता ही संस्मरण की रचना-प्रक्रिया का मूल आधार है।

डॉ. रामचंद्र तिवारी के शब्दों में – “संस्मरण किसी स्मर्यमाण की स्मृति का शब्दांकन है। वस्तुतः, संस्मरण अपने संपर्क में आये किसी व्यक्ति, वस्तु, प्राणी इत्यादि का स्मृति के आधार पर वह चित्रोपम गाथा है, जो संस्मरणकार के रागात्मक लगाव, निजी अनुभूतियों एवं संवेदनाओं के आधार पर कथात्मक रूप में संस्मरण का आकार ग्रहण करती है।

Search Queries:

संस्मरण से आप क्या समझते हैं,संस्मरण किसे कहते हैं,संस्मरण क्या है,संस्मरण क्या है स्पष्ट कीजिए,संस्मरण क्या है समझाइए,संस्मरण,संस्मरण की परिभाषा,संस्मरण क्या होता है,संस्मरण का क्या अर्थ है,संस्मरण से क्या तात्पर्य है,sansmaran se aap kya samajhte hain,sansmaran kise kahate hain,sansmaran kya hai,sansmaran se kya aashay hai,sansmaran kya hota hai,sansmaran ka matlab kya hota hai,sansmaran ki paribhasha,sansmaran kise kahte hain.

रेखाचित्र से आप क्या समझते हैं ?

रेखाचित्र से आप क्या समझते हैं (Rekhachitra Se Aap Kya Samajhte Hain): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत रेखाचित्र पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

रेखाचित्र से आप क्या समझते हैं ?

रेखाचित्र (Rekha Chitra) का अंग्रेजी पर्याय ‘स्केच’ (Sketch) है, जिसका अर्थ चित्रकला से है। ‘चित्रकला में जिस प्रकार रेखाओं के माध्यम से दृश्य या रूप को उभार दिया जाता है, उसी प्रकार जब साहित्य में शब्दों के माध्यम से दृश्य या रूप को उभारा जाता है, उसे रेखाचित्र कहते हैं।” ‘रेखाचित्र’ गद्य की गौण विधा है, जिसे ‘शब्द चित्र’ के नाम से भी जाना जाता है।

रेखाचित्र के प्रमुख तत्त्व –

1. रेखाचित्र शब्दों के माध्यम से चित्र प्रधान लेखन है। अतः ‘चित्रात्मकता’ रेखाचित्र की आत्मा एवं मूलभूत तत्त्व है।

2. रेखा चित्र का थीम या प्लॉट कोई व्यक्ति, वस्तु या घटना हो सकती है। अतः, ‘कस्थावस्तु’ रेखाचित्र का अनिवार्य तत्त्व है।

3. रेखाचित्र व्यक्ति के चरित्र का व्यंजक होता है। अतः, ‘पात्र का चरित्रोद्घाटन’ रेखाचित्र का एक प्रमुख तत्त्व है।

4. रेखाचित्र भाव प्रधान लेखन है, जिसमें वर्णनात्मकता की प्रधानता होती है। भाव-व्यंजना एवं वर्णनात्मक रेखाचित्र का अन्य
मुख्य तत्त्व है।

5. रेखाचित्र में शब्दों के माध्यम से व्यक्ति-विशेष का चरित्र उकेरा जाता है। अतः, कलात्मकता-शब्द-संयोजन, शैली में संक्षिप्तता, सांकेतिकता, जीवंतता, प्रभावोत्पादकता इत्यादि रेखाचित्र का एक अन्य मुख्य तत्त्व है।

6. ‘रेखाचित्र’ सोद्देश्य रचना होती है। अतः, उद्देश्य रेखाचित्र का अन्य तत्त्व है।

Search Queries:

रेखाचित्र से आप क्या समझते हैं,रेखाचित्र किसे कहते हैं,रेखा चित्र से आप क्या समझते हैं,रेखाचित्र क्या है,रेखाचित्र से क्या समझते हैं,रेखाचित्र की परिभाषा,रेखाचित्र,रेखाचित्र क्या है स्पष्ट कीजिए,रेखाचित्र की विशेषताएं,रेखाचित्र का क्या अर्थ होता है,रेखाचित्र के प्रमुख तत्त्व,rekhachitra se aap kya samajhte hain,rekha chitra,rekha chitra se aap kya samajhte hain,rekhachitra kya hai,rekhachitra kise kahate hain,rekhachitra kya hota hai,rekhachitra ki paribhasha,rekha chitra ke pramukh tatva.

रिपोर्ताज क्या है ?

रिपोर्ताज क्या है (reportaj kya hai): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत रिपोर्ताज पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

रिपोर्ताज क्या है ?

‘रिपोर्ताज’ अंग्रेजी शब्द ‘रिपोर्ट’ (Report) का समानार्थी फ्रांसीसी भाषा का शब्द है। ‘रिपोर्ताज'(Reportaj) का संबंध ‘रिपोर्ट’ से है। अमरनाथ के अनुसार – “घटना का यथातथ्य वर्णन रिपोर्ताज का प्रमुख लक्षण है परन्तु रिपोर्ट के कलात्मक और साहित्यिक रूप को ही ‘रिपोर्ताज’ कहते हैं। तात्पर्य यह है कि “रिपोर्ताज’ ऐसी रिपोर्ट है जिसमें साहित्यिकता एवं कलात्मकता का समावेश होता है।” बहुत से साहित्यकारों की यह मान्यता है कि ‘रिपोर्ताज’ में भावना का आवेग होता है, जो मनुष्य के संघर्ष को देखकर जन्म लेता है।

रिपोर्ताज का जन्म 1936 ई. में हुआ। इसके जन्मदाता अमेरिकी लेखक इलिया एहटेनबर्ग हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के अनेक रिपोर्ताज इनके द्वारा लिखे गये, फलस्वरूप रिपोर्ताज का उदय हुआ। हिंदी में रिपोर्ताज का जन्म ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित शिवदान सिंह की ‘लक्ष्मीपुरा में’ (1938) रचना से माना जाता है। तूफानों के बीच (1946, रांगेय राघव), पहाड़ों में प्रेममय संगीत (1955, उपेन्द्रनाथ अश्क), गरीब और अमीर पुस्तकें (1958, रामनारायण उपाध्याय), ऋण जल धन जल (1975, फणीश्वरनाथ रेणु), बाढ़, बाढ़, बाढ़ (विवेकी राय), फाइटर की डायरी (2013, मैत्रेयी पुष्पा) हिंदी के कुछ प्रमुख रिपोर्ताज हैं।

आंचलिक उपन्यास किसे कहते हैं ?

आंचलिक उपन्यास किसे कहते हैं (Anchalik Upanyas Kise Kahate Hain): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत आंचलिक उपन्यास पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

आंचलिक उपन्यास किसे कहते हैं ?

अंचल विशेष को लेकर लिखा गया उपन्यास ‘आंचलिक उपन्यास’ (Anchalik Upanyas) है। आंचलिक उपन्यास अंचल के समग्र जीवन का वह उपन्यास है, जिसमें अंचल विशेष के लोगों के रहन-सहन, खान-पान, भाषा-लहजा, पहनावा- ओढ़ावा, मनोवृत्ति, रोमांस, धर्म, आधिदैविक चेतना, झाड़-फूँक, तंत्र- मंत्र, जादू-टोना में विश्वास, आंचलिक बोली-भाषा तथा लोकगीत का अद्भुत पुट रहता है।

आंचलिक उपन्यास में अंचल का समग्र जीवन ही उपन्यास का नायक होता है और इसमें उपन्यास के पात्रों के साथ-साथ परिवेश भी बोलता है। आंचलिक उपन्यास का उद्देश्य स्थिर स्थान पर गतिमान समय में जीते हुए अंचल के व्यक्तित्व के समग्र पहलुओं का उद्घाटन करना होता है।

आंचलिक उपन्यास के जन्मदाता फणीश्वरनाथ रेणु हैं। 1954 ई. में रचित उनकी रचना ‘मैला आँचल’ आंचलिक उपन्यासों की सृजन-यात्रा का प्रारम्भ है। ‘मैला आँचल’ पूर्णिया जिले (बिहार) के ‘मेरीगंज’ अंचल की मैली जिंदगी का वह दस्तावेज है, जिसमें फूल भी हैं, शूल भी हैं, धूल भी हैं, गुलाल भी, कीचड़ भी, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरुपता भी। अपने दूसरे आंचलिक उपन्यास ‘परती परिकथा’ में रेणु जी ने बिहार के ‘परानपुर’ गाँव की समग्रता एवं मुख्यतः भूमि की समस्या (लैंड सर्वे, चकबंदी, जमींदारी प्रथा इत्यादि) को कथानक बनाया है।

हिंदी के अन्य आंचलिक उपन्यासों में लोक-परलोक (उदयशंकर भट्ट), नेपाल की बेटी (बलभद्र ठाकुर), कब तक पुकारूँ (रांगेय राघव), सती मैया का चौरा (भैरव प्र. गुप्त), आधा गाँव (राही मासूम रजा), कोहबर की शर्त (केशव प्र. मिश्र), बोरीबाला से बोरीबंदर तक (शैलेश मटियानी), जंगल के फूल (राजेन्द्र अवस्थी) इत्यादि प्रमुख हैं।

Search Queries:

आंचलिक उपन्यास किसे कहते हैं,आंचलिक उपन्यास किसे कहते हैं?,आंचलिक उपन्यास,आंचलिक उपन्यास क्या है,आंचलिक उपन्यास के बारे में,हिंदी साहित्य में आंचलिक उपन्यास,हिंदी के आंचलिक उपन्यासकार और उनके उपन्यास,आंचलिक उपन्यासों की विशेषतायें,आंचलिक उपन्यास एवम उनके रचनाकार,Anchalik upanyas kise kahate hain,aanchalik upanyas kise kahate hain,anchalik upanyas kya hota hai,anchalik upanyas kya hai,anchalik upanyas ka arth,anchalik upanyas ki visheshta.

उपन्यास के तत्त्व

उपन्यास के तत्त्व(Upanyas Ke Tatva): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में उपन्यास के तत्त्व पर जानकारी शेयर करेंगे।

उपन्यास के तत्त्व – Upanyas Ke Tatva

उपन्यास के प्रमुख तत्त्व (Upanyas Ke Tatva) कथावस्तु, पात्र और चरित्र- चित्रण, संवाद या कथोपकथन, देशकाल और वातावरण, शैली और उद्देश्य होते है। उपन्यास के मुख्यत: छ: तत्त्व होते है।

उपन्यास की परिभाषा –

अंग्रेजी के ‘नॉवेल’ को गुजराती में ‘नवलकथा’, मराठी में ‘कादम्बरी’ और बंगला तथा हिंदी में ‘उपन्यास’ कहते हैं। उपन्यास का अर्थ है – वाक्योक्रम, विचार, वक्तव्य, प्रस्ताव, भूमिका, प्रस्तावना, निकट रखना इत्यादि। नाट्यशास्त्र में उल्लिखित प्रतिमुख संधि का एक उपभेद भी ‘उपन्यास’ (Upanyas) कहलाता है परन्तु उपन्यास ‘नॉवेल’ के लिए इतना रूढ़ हो गया है कि इसके अन्य शाब्दिक अर्थ तथा नाट्यशास्त्रीय अर्थ लुप्तप्राय हो गये हैं और ‘निकट रखना’ अर्थ आज के उपन्यास पर प्रक्षेपित कर दिया गया है। अर्थात् “वह वस्तु या कृति जिसे पढ़कर ऐसा लगे कि यह हमारी ही है, इसमें हमारे ही जीवन का प्रतिबिम्ब है; उसमें हमारी ही कथा हमारी ही भाषा में कही गई है, उपन्यास है।”

उपन्यास के निम्नांकित छ: तत्त्व माने गये हैं –

  1. कथावस्तु
  2. पात्र और चरित्र- चित्रण
  3. संवाद या कथोपकथन
  4. देशकाल और वातावरण
  5. शैली
  6. उद्देश्य

1. कथावस्तु –

सम्पूर्ण उपन्यास की कहानी जिन उपकरणों से मिलकर बनती है, वे ‘कथावस्तु’ कहलाते हैं। ये उपकरण कथासूत्र (थीम), मुख्य कथानक (प्लाट), प्रासंगिक कथाएँ या अर्न्तकथाएँ (एपिसोड), उपकथानक (अंडर प्लांट), पत्र, समाचार, प्रमाणिक लेख (डॉक्यूमेंट्स), डायरी के पन्ने इत्यादि होते हैं, जिनका उपन्यास लेखक आवश्यकतानुसार प्रयोग करता है। जीवन में नाना प्रकार की घटनाएँ नित्य घटा करती हैं। उपन्यासकार अपने उद्देश्य के अनुसार घटना का चुनाव करता है और अपनी कल्पना के सहारे अपने कथानक और कथावस्तु का निर्माण करता है।

भय और विस्मय अथवा प्रेम और घृणा के आधार पर ही इन कथानकों की कल्पना की जाती है। कथानक संघटन और वस्तु-विन्यास में सत्याभास, विश्वसनीयता, कार्य-करण-संबंध, मनोवैज्ञानिक क्षण, उत्कंठा, रोचकता, संघर्ष ‘भविष्य- संकेत’ और ‘चरमोत्कर्ष’ का होना साधारणतया आवश्यक है।

2. पात्र और चरित्र-चित्रण –

उपन्यास में नायक, नायिका, सहनायक, सहनायिका, ढेर सारे गीण पात्रों की नियोजना की जाती है। उपन्यास में कथावस्तु के संघटन और विन्यास से भी अधिक महत्त्वपूर्ण चरित्र-चित्रण की कुशलता है। उपन्यास के पात्रों के क्रियाकलाप से हो कथावस्तु का निर्माण होता है, अतः पात्र जितने अधिक सजीव होंगे कथानक में उतना ही आकर्षण लाया जा सकेगा। पात्र ऐसे होने चाहिए कि उनके संसर्ग में आते ही पाठकों को यह विश्वास हो जाना चाहिए कि वे सत्य हैं, कपोल कल्पित नहीं। प्रेमचंद ने लिखा है – “कल्पना के गढ़े हुए आदमियों में मुझे विश्वास नहीं। मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्र मात्र मानता हूँ।

पात्रों को सजीव और यथार्थ बनाने के लिए उपन्यासकार की कल्पनाशक्ति, मानव मन के सूक्ष्म अध्ययन और उसकी कलात्मक योजना की परीक्षा होती है। चरित्र-चित्रण के द्वारा कथानक में वे समस्त खूबियाँ लायी जा सकती हैं जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है। चरित्र- चित्रण की यह विशेषता होनी चाहिए कि पाठक विभिन्न पात्रों को सरलता से पहचान सके और उनके साथ यथावश्यक तादात्म्य स्थापित कर सके। मनुष्य प्रकृति के विभिन्न पक्षों और स्तरों के सूक्ष्म अध्ययन और कम-से- कम शब्दों में चित्र उपस्थित कर सकने की योग्यता ही सफल चरित्र-चित्रण की कसौटी है।

3. संवाद –

संवाद या कथोपकथन का चरित्र-चित्रण में बहुत – के महत्त्व है। पात्रों के संवाद के द्वारा ही हम उनसे परिचित होते हैं। संवाद पात्रों को सजीव बना देते हैं और कथानक में नाटकीयता का समावेश करके उसके प्रभाव को तीव्र कर देते हैं। संवाद के द्वारा कथावस्तु का विकास और पात्रों का चरित्र-चित्रण अभीष्ट रहता है।

अतः इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसका उपयोग होना चाहिए। उसमें देशकाल और पात्र के अनुकूल स्वाभाविकता, मनोविज्ञान की उपयुक्तता, उपन्यास की रोचकता और आकर्षण को बढ़ाने वाली अभिनयात्मकता और सरसता आवश्यक है।

4. देशकाल और वातावरण –

उपन्यास में पात्रों की तरह देशकाल का भी अपना अलग वैशिष्ट्य है। देशकाल से तात्पर्य यह है कि उपन्यास की घटनाएँ जिस स्थान और समय की हों उसका ज्यों-का-त्यों चित्र उपस्थित किया जाये। वह समसामयिक और ऐतिहासिक दोनों हो सकता है। लेखक को उसका घनिष्ठ परिचय आवश्यक है, जिससे कि वह भौगोलिक, विवरण, सामाजिक रीति-नीति, शिष्टाचार, इत्यादि को उपन्यास में शामिल कर उसकी घटनाओं में सजीवता ला सके परन्तु आँचलिक और स्थानीय रंग वाले उपन्यासों को छोड़कर साधारणतया उपन्यासों में देशकाल अथवा वातावरण का काल्पनिक वर्णन होता है।

यह कोई दोष नहीं है, शर्त केवल यह है कि जो भी देशकाल का विवरण हो, वह विश्वसनीय, देशविरुद्ध और काल-विरुद्ध न हो। देशकाल का चित्रण का उद्देश्य – कथानक और चरित्र का स्पष्टीकरण है।

5. शैली –

उपन्यास समग्र जीवन का संश्लिष्ट चित्र है और उसके अनेक आकार-प्रकार हैं। अतः, उपन्यास में शैली का विशेष उल्लेख होता है। शैली के द्वारा उपन्यास के विभिन्न तत्त्वों को नियोजित किया जाता है। शैली की विविधता का आकलन असंभव है क्योंकि प्रत्येक लेखक की अपनी अलग शैली होती है, जिससे वह अपने व्यक्तित्व को प्रकाशित करता है। कोई लेखक व्याख्यात्मक शैली पसंद करते हैं, कोई विश्लेषणात्मक कोई अभिनयात्मक तो कोई व्यंग्यात्मक इत्यादि। शैली में स्वाभाविकता और प्रवाह होना चाहिए।

6. उद्देश्य –

विश्व का कोई काम निष्प्रयोजन नहीं होता है, मूर्ख भी निष्प्रयोजन नहीं हँसता है—ऐसी कहावत है। प्रत्येक रचना के पीछे सर्जक का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होता है, जिससे प्रेरित होकर वह रचना करता है। उपन्यासकार कलाकार होने के साथ-साथ एक सामाजिक प्राणी भी होता है। अब वह किसी कथा को उपन्यास के रूप में कहने का निश्चय करता है, तभी उसके मन में कथासूत्र के साथ वह जीवन दृष्टि मूर्त्त होने लगती है जो उसने अपने सांसारिक जीवन में अनुभवस्वरूप प्राप्त की है।

कला की दृष्टि से वही उपन्यास श्रेष्ठ है, जिसका लेखक पाठकों पर सफलतापूर्वक यह प्रभाव डाल सके कि उसकी रचना से जिस जीवन-दर्शन का संकेत मिलता है, वह उसने बाहर से नहीं आरोपित किया है, वही सामयिक अथवा शाश्वत् सत्य है।

Search Queries:

उपन्यास के तत्त्व,उपन्यास के तत्त्व कितने होते हैं,उपन्यास के तत्व,उपन्यास के तत्व के नाम,उपन्यास के तत्व को लिखिए,
उपन्यास के तत्व के नाम लिखिए,उपन्यास के तत्व कितने होते हैं,उपन्यास के तत्व के बारे में लिखिए,उपन्यास के कितने तत्व माने गए हैं,उपन्यास,उपन्यास के संपूर्ण तत्व,उपन्यास का अर्थ,उपन्यास क्या है,upanyas ke tatva,upanyas ke tatva bataiye,upanyas ke tatvon ke naam,upanyas ke tatva ke naam likhiyeupanyas ke tatva kitne hote hain,upanyas ke tatva ka varnan kijiye,upanyas kya hai,upanyas ke pramukh tatva,upanyas ki paribhasha.

नवगीत से आप क्या समझते हैं ?

नवगीत से आप क्या समझते हैं (Navgeet Se Aap Kya Samajhte Hain): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नवगीत पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नवगीत से आप क्या समझते हैं ?

‘नई कविता’ के नाम के आधार पर ‘नवगीत’ (Navgeet) का नामकरण हुआ। छायावादी कविता की प्रणय भावना, काल्पनिकता, राष्ट्रीयता, रहस्यवादिता, मांसलता एवं संगीतात्मकता की प्रतिक्रिया स्वरूप ‘नवगीत’ का उदय हुआ।

नवगीत के प्रमुख कवि

  • ठाकुर प्रसाद सिंह
  • पुष्पा राही
  • हरीश भादानी
  • देवेन्द्र कुमार
  • महेन्द्र भटनागर
  • वीर सक्सेना

इन नवगीतकारों ने नवगीत काव्यधारा के विकास एवं प्रवर्तन में अमूल्य योगदान दिया।

नवगीत की विशेषताएँ –

1. प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति, भावुकता इत्यादि प्रमुख वर्ण्य-विषय।
2. लोकजीवन की अनुभूति।
3. यथार्थ से साक्षात्कार।
4. अंतरंग अनुभूति।
5. सामाजिक, राजनीतिक चेतना।
6. महानगरीय संत्रास की अभिव्यक्ति।
7. नवीन शिल्प।
8. गेयता

Search Queries:

नवगीत क्या है,नवगीत,नवगीत शब्द का क्या अर्थ है,नवगीत का वस्तु विन्यास,हिंदी साहित्य में नवगीत,नवगीत के महत्वपूर्ण तथ्य,नवगीत की परिभाषा,नवगीत की विशेषताएं,नवगीत के प्रमुख कवि,navgeet se aap kya samajhte hain,hindi sahitya me navgeet,navgeet ki paribhaasha,navgeet dhara,navgeet ki visheshta,navgeet ke kavi,navgeet ke pramukh kavi.

समानांतर कहानी क्या है ?

समानांतर कहानी क्या है (Samanantar Kahani Kya Hai): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत समानांतर कहानी पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

समानांतर कहानी क्या है ?

अकहानी आंदोलन की प्रतिक्रियास्वरूप सन् 1971 में कमलेश्वर के द्वारा समानांतर कहानी आंदोलन का प्रवर्तन हुआ। उन्होंने अकहानीकारों की ‘अय्याश प्रेतों का विद्रोह’ शीर्षक लेखमाला में तीव्र आलोचना की। ‘समानांतर’ से कमलेश्वर जी का अभिप्राय कहानी को आम आदमी के जीवन की परिस्थितियों एवं समस्याओं के समानांतर प्रतिष्ठापन से है। समानांतर कहानीकारों में कमलेश्वर के अतिरिक्त जितेन्द्र भाटिया, धमेन्द्र गुप्त, मणिमधुकर, मृदुला गर्ग, हिमांशु जोशी इत्यादि मुख्य हैं।

समानांतर कहानी की विशेषताएँ –

1. समानांतर कहानी में मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय समाज की विभिन्न स्थितियों, विषमताओं एवं समस्याओं का अंकन सूक्ष्मतापूर्वक हुआ।

2. इसमे पुरुष-नारी के संबंधों का स्वरूप एवं संतुलित चित्रण किया गया।

3. समानान्तर कहानी में शासन और राजनीति के दुर्बल पक्षों का भी उद्घाटन हुआ।

Search Queries:

समानांतर कहानी क्या है,समानांतर कहानी आंदोलन,समानांतर कहानी,समांतर कहानी के प्रवर्तक,समानान्तर कहानी क्या है,समानान्तर कहानी की विशेषताएँ,samanantar kahani kya hai,samanantar kahani ki visheshtaen,samanantar kahani ke pravartak,samantar kahani in hindi,samanantar kahani,samanantar kahani ke lekhak,samanantar kahani andolan,samanantar kahani ke pravartak kaun hai.

नई कविता की विशेषताएँ

नई कविता की विशेषताएँ (Nai Kavita Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नई कविता की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नई कविता की विशेषताएँ

सन् 1943 ई. में अज्ञेय के नेतृत्व में हिंदी-कविता के क्षेत्र में एक नये आंदोलन का प्रवर्तन हुआ, जिसे प्रयोगवाद, प्रपद्यवाद, नई कविता इत्यादि विभिन्न संज्ञाओं से विभूषित किया गया। छठा दशक नई कविता (Nai Kavita) का दशक है। नई कविता वस्तुतः 1953 ई. में ‘नये पत्ते’ के प्रकाशन के साथ विकसित हुई।

1952 ई. में अज्ञेय ने आकाशवाणी पटना की भेंटवार्ता में ‘नई ‘कविता’ शब्द का प्रयोग किया था। जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा संपादित संकलन ‘नयी कविता’ (1954) में यह सर्वप्रथम अपने समस्त प्रतिमानों के साथ सामने आई। कई विद्वानों ने भारतीय स्वतंत्रता- प्राप्ति के पश्चात् लिखी गई कविता को ‘नई कविता’ कहा है।

नई कविता की विशेषताएँ (Nai Kavita Ki Visheshtaen) इस प्रकार हैं –

1. सभी वादों से मुक्ति –

नई कविता (Nai Kavita) का कोई वाद नहीं है, जो अपने कथ्य एवं दृष्टि से सीमित हो। कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता है। द्वितीय सप्तक (1951) की भूमिका में अज्ञेय जी ने लिखा है कि –“प्रयोग कोई वाद नहीं है। हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं।”

2. घोर वैयक्तिकता –

नई कविता का प्रमुख लक्ष्य निजी मान्यताओं, विचारधाराओं और अनुभूति का प्रकाशन करना था। यथा –

साधारण नगर के, एक साधारण घर में, मेरा जन्म हुआ।
बचपन बीता अति साधारण, खान-पान, साधारण वस्त्र वास। (भारत भूषण)

3. दूषित वृत्तियों का नग्न रूप में चित्रण –

जिन वृत्तियों को अश्लील, असामाजिक एवं अस्वस्थ कहकर समाज और साहित्य में अब तक दमन किया जाता रहा था, नई कविताओं में उसकी निःसंकोच प्रस्तुति हुई। उदाहरणार्थ –

मेरे मन की अंधियारी कोठरी में,
अतृप्त आकांक्षा की वेश्या बुरी तरह खाँस रही है। (अनंत कुमार पाषाण)

4. भदेस का चित्रण –

नई कविता के कवियों ने भदेस (असुंदर, कुरूप, भद्दा) का चित्रण भी खूब किया है, जैसे –

मूत्र सिंचित मृत्तिका के वृत्त में,
तीन टाँगों पर खड़ा नत ग्रीव, धैर्यधन गदहा। – (अज्ञेय)

5. अन्य विशेषताएँ –

लघुमानव की प्रतिष्ठा, क्षणवादी समसामयिकता साधारण विषयों (जैसे – चूड़ी का टुकड़ा, चाय की प्याली, बाटा की चप्पल, कुत्ता, पेंटिंग रूम, दाल, तेल, इत्यादि) का चयन, व्यक्ति स्वातंत्र्य रूप इत्यादि नई कविता की अन्यतम विशेषताएँ थीं।

6. शैलीगत प्रवृत्तियाँ –

नये कवियों ने नये प्रतीक, उपमान, बिंब, नयी शब्दावली इत्यादि का प्रचुर प्रयोग किया था –
(i) नये प्रतीक – प्यार का बल्ब फ्यूज हो गया।
(ii) नये उपमान – आपरेशन थियेटर सी, जो हर काम करते हुए भी चुप है।
(ii) नई शब्दावली – फफूंद, बिटिया, ठहराव, अस्मिता, पारमिता इत्यादि।

नई कविता का अपना मिजाज और तेवर है। जो लोग इसे बकवास या शब्दों का जाल कहते हैं उनके विषय में केशरी कुमार का कथन है कि – “नई कविता कोई बउआ जी का झुनझुना नहीं है, जिसे जो चाहे जब चाहे बजा ले।”

Search Queries:

नई कविता की विशेषताएँ,नई कविता की विशेषताएं,नई कविता की विशेषताएँ,नई कविता की प्रमुख विशेषताएँ,नई कविता की विशेषताएं लिखिए,नई कविता की विशेषताएं बताइए,नयी कविता की विशेषता,नई कविता की विशेषता,nai kavita ki visheshtaen,nai kavita ki visheshta,nai kavita ki visheshtaen,nai kavita ki visheshta likhiye,nai kavita ki do visheshtaen,nai kavita ki visheshtayen,nai kavita ki visheshta bataiye,nayi kavita ki visheshta,nai kavita,nai kavita ki pramukh visheshtaen.

रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताएँ

रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताएँ (Raghuvir Sahay Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताएँ

रघुवीर सहाय (1929-1990) एक प्रभावशाली कवि होने के साथ- साथ कथाकार, निबंध-लेखक और आलोचक थे। पत्रकार, संपादक और अनुवादक के रूप में उनकी विशिष्टता निर्विवाद है। ये नभाटा (नवभारत टाइम्स, दिल्ली) में संवाददाता और मशहूर पत्रिका दिनमान के 1969 से 1982 तक प्रधान संपादक रहे। रघुवीर सहाय 1982 ई. में ‘लोग भूल गये हैं’ कृति के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजे गये।

रघुवीर सहाय (Raghuvir Sahay) ‘द्वितीय सप्तक’ (1951 ई.) के प्रकाशन के साथ ही एक कवि के रूप में हिंदी काव्य-संसार में छा गये। नये कवियों में प्रसिद्ध रघुवीर सहाय प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रतिनिधि कवि हैं; जिनका काव्य स्वातंत्र्योत्तर भारत के यथार्थ का अद्भुत् दस्तावेज है।

‘सीढ़ियों पर धूप में’ (1960 ई.), आत्महत्या के विरुद्ध (1967 ई.), हँसो-हँसो जल्दी हँसो (1975 ई.), लोग भूल गये हैं (1982 ई.), कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ (1989 ई.) तथा एक समय था (1994 ई., मरणोपरान्त प्रकाशित) उनकी 6 काव्य-कृतियाँ हैं। दिल्ली मेरा परदेस; लिखने का कारण; ऊबे हुए सुखी; वे और नहीं होंगे जो मारे जायेंगे; भँवर लहरें और तरंग रघुवीर सहाय के निबंध-संग्रह हैं। इनके 2 कहानी-संग्रह भी बेहद चर्चित हैं- 1. रास्ता इधर से है और 2. जो आदमी हम बना रहे हैं।

रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताएँ (Raghuvir Sahay Ke Kavya Ki Visheshtaen) इस प्रकार हैं –

1. जन-यथार्थ –

रघुवीर सहाय की कविता का केन्द्रीय बिन्दु समकालीन साधारण जन का यथार्थ है। उनकी कविताओं में स्वातंत्र्योत्तर भारत में बदली हुई परिस्थितियों, बदले हुए प्रशासन, लोकतंत्र के नाम पर विडम्बना और विसंगतिपूर्ण स्थितियों का पर्दाफाश है तो गरीबी, ऊब, उदासी, अभावग्रस्त अकेलेपन का कच्चा चिट्ठा इत्यादि का वर्णन जो देश की आबादी की 80% जनता के जनजीवन का कड़वा भयावह सत्य है। इनकी दुनिया लोकतंत्र की विसंगतियों को झेल रहे आम आदमी की दुनिया है। यथार्थ पर बल देने की प्रक्रिया में वह अतिशय भावुकता पर प्रहार करते हुए लिखते हैं कि –

कितना अच्छा था छायावादी कवि
एक दुःख लेकर वह एक गान देता था
कितना कुशल था प्रगतिवादी
हर दुःख का कारण पहचान लेता था
कितना महान था गीतकार
जो दुःख के मारे अपनी जान लेता था
कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में। – कोई एक और मतदाता

रघुवीर सहाय की ‘रामदास’ शीर्षक प्रसिद्ध कविता समकालीन परिवेश की भयावहता, शासनतंत्र के निठल्लेपन, वर्तमान काल का यथार्थ, समकालीन सामयिक परिवेश में व्याप्त संवेदनहीनता, स्वार्थरता एवं व्यक्ति के अकेलेपन की बेजोड़ कविता है।

रामदास उस दिन उदास था, अंत समय आ गया पास था,
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी।
धीरे-धीरे चला अकेले, सोचा साथ किसी को ले लें,
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे, सभी निहत्थे ……….
निकल गली से तब हत्यारा……. भीड़ ढेलकर लौट गया वह मरा पड़ा है रामदास यह ! – रामदास

2. राजनीतिक चेतना –

रघुवीर सहाय हिन्दी – साहित्य में एक राजनीतिक कवि के रूप में अपनी पहचान, अपनी अस्मिता, अपना अस्तित्व रखते हैं। मुक्तिबोध, धूमिल, श्रीकांत वर्मा, चंद्रकांत देवताले, लीलाधर जगूड़ी की कड़ी में रघुवीर सहाय ने राजनैतिक संदर्भों को व्यापक फलक पर रूपायित किया है।

रघुवीर सहाय की माइल स्टोन रचना ‘आत्महत्या के ‘विरुद्ध’ में राजनीतिज्ञों के छल, उनके झूठे आश्वासनों, कोरे कायों, सांसद, नेताओं की अवसरवादिता, दलबंदी, सत्तालोलुपता इत्यादि का पूरा का पूरा चित्र विडम्बना और विसंगतिपूर्ण रूप में साकार होता है।

स्वर्ण शिखर से आकर आत्मा के स्वर्णखंड
किये जाये/गोल शब्दों में अमोल बोल तुतलाते
भीमकाय भाषाविद् हाँफते डकारते हँकाते!
अंगरेजी का अवध्य गाय
घंटा घनघनाते पुजारी जय-जयकार
सरकार से करार जारी हजार शब्द रोज/कैद।

नेहरू युग के खोखलेपन को आत्महत्या के विरुद्ध कविता बखूबी साकार करती है। निम्न पंक्तियों में कवि का मानवीय-बोध, समाज-बोध एवं व्यंग्य की धार दर्शनीय है –

गया वाजपेयी जी से पूछ आया देश का हाल
पर उढा नहीं सका नंगी औरत को कंबल
रेलगाड़ी में बीस अजनबियों के सामने (आत्महत्या के विरुद्ध)

3. आक्रोश का स्वर –

रघुवीर सहाय की कविता में एक ओर समकालीन अवाम की पीड़ा, दुःख-दर्द, अभाव, बेबसी, बेचारगी इत्यादि का चित्रण है, तो दूसरी ओर राजनीति जगत् में व्याप्त भ्रष्टाचार, राजनीति के विकृत और भयावह रूप का निदर्शन है। रघुवीर सहाय की ‘आत्मा के ‘विरुद्ध’ और ‘हंस हंसे और हंस’ शीर्षक काव्य-संग्रह की अनेक कविताओं में व्यवस्था के प्रति कहीं क्षोभ, कहीं विरोध, कहीं व्यंग्य और कहीं आक्रोश का स्वर गंभीरतापूर्वक प्रकट हुआ है। उदाहरण –

हर संकट में भारत में एक गाय है
होता है
ठीक समय ठीक बहस नहीं कर सकती
राजनीति
बाद में जहाँ कहीं से भी शुरू करो
बीच सड़क पर गोबर कर देता है विचार।

4. व्यंग्यात्मकता –

रघुवीर सहाय चूँकि राजनीति के कवि हैं और उनके काव्य का मूल स्वर जहाँ एक ओर विद्रोह एवं आक्रोश से भरा है. वहीं दूसरी ओर उनके व्यंग्य की पैनी धार भी है। आत्महत्या के विरुद्ध, नेता क्षमा करें, मतदाता, अधिनायक इत्यादि कविताओं में रघुवीर सहाय की व्यंग्यात्मकता देखते ही बनती है। ‘अधिनायक’ शीर्षक कविता में रघुवीर सहाय ने हमारे देश के राष्ट्रगीत ‘जन-गण-मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता’ हमारे देश के मूल में सत्ताहीन नेताओं की स्वार्थपरता, होंग, दिखावे की प्रवृत्ति पर तंज इस प्रकार कसा है –

राष्ट्रगीत में भला कौन वह, भारत भाग्य विधाता है,
फटा सुथन्ना पहने जिसका, गुन हर चरना गाता है।
मखमल, टमटम, बल्लम, तुरी, पगड़ी, छत्र, तँवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर, जय-जय कौन कराता है। – अधिनायक

5. अन्य विशेषताएँ –

रघुवीर सहाय के काव्य-फलक में जनजीवन का यथार्थ, राजनीति, आक्रोश, व्यंग्य इत्यादि के साथ-साथ रोमानी प्रेम की अभिव्यक्ति, बौद्धिकता, प्रकृति के प्रति नया नजरिया, अनाहत जिजीविष व मुक्ति के स्वर इत्यादि की अभिव्यंजना है। रघुवीर सहाय की अनेक कविताएँ (यथा-नारी, चढ़ती स्त्री, अकेली औरत, पागल औरत, हकीम और औरत, औरत का सीना, नंगी औरत, नन्हीं लड़की) स्त्री-जगत् से संबंधित हैं; जिनमें स्त्रियों की समाज में दयनीय दशा, स्त्रियों के प्रति सामंती दृष्टिकोण, स्त्रियों के भविष्य को जानने की पड़ताल है, तो सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य स्त्री-पुरुष की समानता का प्रबल भाव है।

बंधु हम दोनों थके हैं,
और थकते ही रहे तो साथ चलते भी रहेंगे,
वह नहीं है साथ जिसमें तुम थको तो हम तुम्हें
लादे फिरें
और हम थके तो दम तुम्हारा फूल जाय हाय।

6. कलापक्ष विषयक विशेषताएँ –

भाषा – रघुवीर सहाय के दौर में तीन नाम शीर्ष पर थे गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ फंतासी के लिए जाने जाते थे; शमशेर बहादुर सिंह शायरी के लिए पहचान रखते थे; जबकि रघुवीर सहाय अपनी भाषा और शिल्प के लिए लोकप्रिय थे। रघुवीर सहाय की भाषा जनता-जनार्दन की जनभाषा है; जो उन करोड़ों लोगों के अनुभव और विचारों के ठोस जमीन पर खड़ी है तथा जो उनसे ही आकार ग्रहण करती है।

रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि – “रघुवीर सहाय की एक बड़ी विशेषता है कि उनकी काव्य-भाषा की सिद्धि शब्दों के सन्दर्भ, उनकी ध्वनियाँ तथा भाव चित्र कवि ने अच्छी तरह से समझे हैं। विद्रूपों के चित्रण में उनकी भाषा की मुहल्लेदारी प्रवृत्ति बहुत स्वाभाविक लगती है, जो नयी कविता विशिष्ट उपलब्धि है।”

रघुवीर सहाय की कविता शब्द के हर अर्थ में क्रमशः गद्य की ओर उन्मुख हुई है। इसलिए रामस्वरूप चतुर्वेदी ने रघुवीर सहाय की कविता को ‘गद्य-कविता’ शीर्षक से नया नामकरण किया है। कविता को गद्य की बनावट में ढालना रघुवीर सहाय के कलापक्ष की निजी विशेषता है।

शिल्प की दृष्टि से भी रघुवीर सहाय ने नये प्रयोग किये हैं। इनमें आंतरिक समीकरण तो हैं ही, साथ ही साथ नाटकीय होने से उसका प्रभाव- क्षेत्र भी अत्यन्त प्रभावोत्पादक है। ‘हमारी हिन्दी’ शीर्षक कविता का उदाहरण –

हमारी हिंदी एक दुहाजू की बीबी है,
बहुत बोलनेवाली, बहुत खानेवाली, बहुत सोनेवाली।

‘आत्महत्या के विरुद्ध’ शीर्षक कविता का एक और उदाहरण –

हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है,
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे।

रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि रचनात्मक स्तर पर बिंब-विधान कुछ नये रूप रघुवीर सहाय की कविताओं में विकसित हुए हैं। अपनी भाषा के रचाव में उन्होंने वर्णन और बिंब के भेद को क्रमशः मिटाया है।

रघुवीर सहाय की कविताओं में वर्णन-बिंब का अभेद कैसे संभव होता है, इसे निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है –

सिंहासन ऊँचा है सभाध्यक्ष छोटा है
अगणित पिताओं के
एक परिवार के
मुँह बाये बैठे हैं लड़के सरकार के लूले, काने, बहरे विविध प्रकार के।
हल्की सी दुर्गंध से भर गया है सभाकक्ष। – मेरा प्रतिनिधि

इस उद्धरण में किसी सामान्य सभाकक्ष का वर्णन है और विशिष्ट सभाकक्ष का बिंब भी। वर्णन मूलतः प्रस्तुत कथन है, बिंब अप्रस्तुत विधान। उन्हीं पंक्तियों में वर्णन और बिंब के स्तरों की टकराहट अर्थ को असाधारण विस्तार देती है।

समग्रतः कहा जा सकता है कि नई कविता के प्रमुख हस्ताक्षर रघुवीर सहाय का काव्य संवेदना और शिल्प दोनों धरातलों पर बेजोड़ हैं। राजनीतिक परिदृश्य, जन-यथार्थ, आक्रोश, व्यंग्य, विद्रोही दृष्टिकोण, प्रणय-भावना इत्यादि भावपक्ष विशेषताओं के कारण रघुवीर सहाय राजनीतिक चेतना के प्रति जागरुक, यथार्थ के पक्षधर एवं मानवीय दृष्टिकोण के कवि के रूप में अपनी विशिष्ट रचनात्मक पहचान बनाते हैं; वहीं उनकी सपाटबयानी, व्यंग्यात्मकता, सरल शब्दों में भावाभिव्यक्ति, गद्य कविता की निरूपत्ति उन्हें समकालीन कवियों में विशिष्ट स्थान निर्धारित कराती है।

Search Queries:

रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताएँ,रघुवीर सहाय,रघुवीर सहाय की काव्य विशेषताएं,रघुवीर सहाय के साहित्य की काव्यगत विशेषताएँ,रघुवीर सहाय की काव्य विशेषता,रघुवीर सहाय की काव्यगत विशेषताएँ लिखिए।,raghuvir sahay ke kavya ki visheshtaen,raghuvir sahay ke kavya ki visheshtayen,raghuvir sahay ki kavya visheshta,raghuvir sahay ki kavyagat visheshta,raghuvir sahay ke sahitya ki kavyagat visheshtaen,raghuvir sahay ki kavya bhasha ki visheshta likhiye.

धूमिल के काव्य की विशेषताएँ

धूमिल के काव्य की विशेषताएँ (Dhumil Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत धूमिल के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

धूमिल के काव्य की विशेषताएँ

धूमिल (1936-1975) साठोत्तरी हिंदी-कविता के एक अविस्मरणीय हस्ताक्षर हैं। धूमिल का पूरा नाम सुदामा पाण्डेय था और इनको धूमिल उपनाम से जाना जाता है। वह समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर हैं। नई कविता के समर्थ और सफल कवियों में धूमिल की शख्सियत महान् एवं उनका स्थान अप्रतिम है। धूमिल जनवादी चेतना के प्रगतिशील कवि हैं। धूमिल का सम्पूर्ण काव्य जनवादी चेतना का परिचायक और हिंदी-साहित्य की अमिट धरोहर है। साठोत्तरी जनवादी कविता के केन्द्रीय कवि के रूप में धूमिल का गौरवपूर्ण स्थान है।

रचनाएँ –

1. बाँसुरी जल गई (काव्य-संग्रह, 1961 ई.)

2. संसद से सड़क तक (1972)

3. कल सुनना मुझे (1976)

4. सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र

5. ‘कल सुनना मुझे’ इनकी साहित्य अकादमी से पुरस्कृत रचनाएँ हैं।

6. ‘चार घोंघे’ इनका व्यंग्यात्मक निबंध-संग्रह है।

‘पटकथा’ इनकी सर्वाधिक लंबी कविता है। ‘भाषा की रात’ इनकी एक अन्य दीर्घ कविता है। मोचीराम, जनतंत्र के सूर्योदय में, प्रजातंत्र के विरुद्ध, कविता श्री काकुलम, मकान, नक्सलबाड़ी, अकाल-दर्शन, किस्सा जनतंत्र, कवि 1970, आज मैं लड़ रहा हूँ इत्यादि धूमिल की बेहद चर्चित कविताएँ हैं।

धूमिल के काव्य की विशेषतायें (Dhumil Ke Kavya Ki Visheshtaen) इस प्रकार हैं –

1. जनवादी चेतना –

धूमिल (dhumil) जनवादी चेतना के अप्रतिम कवि हैं और उनका काव्य जनवादी चेतना का अद्भुत प्रतिबिंब है। जनतंत्र के सूर्योदय में, नक्सलवाड़ी, पटकथा, प्रजातंत्र के विरुद्ध, कविता श्री काकुलम इत्यादि कविताओं में धूमिल ने सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक विसंगतियों को उभारते हुए जनवादी शासन-पद्धति को लोक कल्याणकारी मानते हुए इसकी तरफदारी की है।

‘जनतंत्र के सूर्योदय में’ शीर्षक कविता में अनेक स्वर उभरते हैं। रक्तपात, नौकरशाही, भारतीय संविधान में कमी, मातृभाषा की दुर्दशा, मुर्दा इतिहास का रोमानीपन, अखबारों की साजिशों इत्यादि के साथ-साथ आम आदमी की पीड़ा, छटपटाहट, यातना इत्यादि को धूमिल जनतंत्र का उत्तरदायी ठहराते हैं।

‘नक्सलबाड़ी’ कविता में व्यवस्था के प्रति विद्रोह और विसंगतियों के प्रति आक्रोश है। ‘पटकथा’ में कवि धूमिल ने भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी एवं विद्रूपता की पटकथा लिखी है। ‘प्रजातंत्र के विरुद्ध’ शीर्षक कविता में प्रजातंत्र के विरुद्ध जबर्दस्त प्रहार है। ‘कविता श्रीकाकुलम’ शीर्षक कविता में प्रजातंत्र की बातें नहीं, सीधे-सीधे रक्त-क्रांति की बातें. हैं। धूमिल की जनवादी चेतना को निम्न उदाहरणों में देखा जा सकता है –

1. यहाँ ऐसा जनतंत्र है जिसमें / जिन्दा रहने के लिए
घोड़े और घास को / एक जैसी छूट है
कैसी बिडंबना है / कैसा झूठ है
दरअसल अपने यहाँ जनतंत्र / एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान मदारी की भाषा है।

2. क्या आजादी तीन सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई खास मतलब होता है।

2. व्यंग्य –

कवि धूमिल की कविताओं में व्यंग्य का स्वर अत्यंत मुखर व्यंग्य-धूमिल और जबर्दस्त है। धूमिल का व्यंग्य देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर ‘संसद से सड़क तक’ तथा ‘सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र’ इत्यादि काव्य- संग्रहों में चित्रित हुआ है। धूमिल की समकालीन राजनीतिक चेतना में व्यंग्य -भाव अत्यन्त प्रबल है। यथा –

1. संसद तेल की वह घानी है, जिसमें आधा तेल
और आधा पानी है।

2. जनतंत्र एक ऐसा तमाशा है।
जिसकी जान मदारी की भाषा है।

3. राजनीतिज्ञों की आत्माएँ बिड़ियों की तरह मरी पड़ी हैं।

4. कचहरी एक ऐसी उपजाऊ जमीन है।
जहाँ लाकर एक काठ डाल दो और कुछ समय बाद
उसमें अंखुए फूट निकलेंगे।

विश्वम्भर मानव ने लिखा है कि- “धूमिल ऐसे रचनाकार हैं, जो दिनकर की तरह यह आह्वान नहीं करते हैं कि सिंहासन खाली करो, जनता आती है; बल्कि जनता की ओर से चुने गये सांसदों से निर्मित संसद को अपने नुकीले हथियार से आहत करते हैं। प्रजातंत्र पर धारदार कविताएँ लिखने की अगुवाई भूमिल ने की।” इंद्रनाथ मदान ‘अँधेरे में’ (मुक्तिबोध) और ‘पटकथा’ (धूमिल) में व्यंग्य के विषय में लिखते है कि – “अँधेरे में कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई की बात है और पटकथा में चुनाव और मतदान की। पहले में परिवेश आजादी के बाद का है और दूसरी में आम चुनाव के बाद का। पहली में व्यंग्य का स्वरूप त्रासदीय है और दूसरी में कामदीय और आयरनीगत।” धूमिल का मार्क्सवादी आक्रोश का स्वर व्यंग्य के तीव्रतम रूप में प्रकट हुआ है।

3. आम आदमी की व्यथा –

सुदामा पाण्डेय धूमिल आम आदमी की व्यथा के कवि हैं। उन्होंने हिंदी-कविता में पहली बार आम आदमी की पीड़ा, अभावों, दुःख-दर्द, मकान की समस्या, आर्थिक विसंगतियों इत्यादि के साथ-साथ उसकी तनहाई, परेशानी, बेकारी, झेंप, बेहयाई, पेचीदगी इत्यादि नाना प्रकार के अनछुए पहलुओं को वाणी दी है। धूमिल की ‘मोचीराम’ कविता में मोचीराम श्रमनिष्ठ, वर्गहीन साम्यवादी चेतना के प्रतीक के रूप में चित्रित हुआ है। इस कविता में वर्ग-भेद के विरुद्ध समतावादी दृष्टिकोण रूपायित हुआ है। देखें –

1. बाबूजी सच कहूँ, मेरी निगाह में
न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है।

2. फिर भी मुझे ख्याल रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे हुए जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं।

3. मेरे गाँव में / वही आलस्य, वही ऊब
वही कलह, वही तटस्थता
हर जगह और हर रोज
और मैं कुछ नहीं कर सकता।

‘मोचीराम’ कविता की कड़ी में ‘मकान’ शीर्षक कविता धूमिल की एक प्रमुख काव्यात्मक उपलब्धि है; जिसमें उन्होंने आम आदमी की गरीबी, घुटन, विवशता, पीड़ा के साथ-साथ उसके टूटते हुए स्वप्न और उसे तार- तार होते हुए दिखाया है। धूमिल ने कई कविताओं में अकाल, अन्न के अभाव, रोटी की समस्या इत्यादि (जो आम आदमी की बुनियादी समस्या है) को उघाड़ा है। रामकृपाल पाण्डेय ने धूमिल के काव्य को स्वाधीन भारत की हिंदी कविता की नक्सलबाड़ी कहा है।

4. अन्य विशेषताएँ –

धूमिल के काव्य में जनवादी चेतना, आम- आदमी की व्यथा-कथा, व्यंग्यात्मकता के साथ-साथ सामाजिक चेतना, जिजीविषा का भाव, ग्रामीण बोध, मानवीय आस्था एवं भावुकता, अन्याय- अत्याचार के विरोध इत्यादि का स्वर भी प्रकट हुआ है। उदाहरणार्थ-

1. भूख ने उन्हें जानवर बना दिया है।
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है।
फिर भी वह अपने हैं / अपने हैं, अपने हैं
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं।

2. तनों / अकड़ो / अमरबेलि की तरह मत जियो
जड़ पकड़ो / बदलो अपने-आपको बदलो।

धूमिल की एक अन्यतम विशिष्टता है- कविता का समकालीन संदर्भों में पुनः परिभाषित करना। इस दृष्टि से धूमिल की निम्नांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य है –

1. कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है।
2. कविता घेराव में किसी बौखलाये हुए आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।
3. कविता में शब्दों के जरिये एक कवि अपने वर्ग के आदमी को साहसिकता से भरता है।
4. एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है।
5. मेरी कविता इस तरह अकेले को सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता।
6. हर लड़की गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है और कविता हर तीसरे पाठ के बाद।
7. कविता शब्दों की अदालत में कटघरे में खड़े निर्दोष आदमी का हलफनामा है।

5. शिल्प वैशिष्ट्य –

धूमिल की कविता की शक्ति उनके शिल्प- वैशिष्ट्य में निहित है। धूमिल ने पुरानी और पेशेवर भाषा को व्यर्थ बताया है। उनकी भाषा अनुभव की आँच से तपकर निकली भाषा है; उनकी भाषा की चालू भाषा है, जिसमें साफगोई सपाटवयानी और व्यंग्य की तीव्र धार है, तो शैली, प्रखर शैली; जिसका प्रभाव अत्यन्त पैना व्यापक एवं तीव्र होता है। एक उदाहरण देखें –

करछुल / बटलोही से बतियाती है और चिमटा /
तवे से मचलता है / चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है ओर जलता रहता है। – किस्सा जनतंत्र

धूमिल ने अपनी भाषा को खरापन प्रदान किया है; जिससे काव्य में एक नये ढंग का श्रीगणेश हुआ। धूमिल के काव्य में मुहावरों का नवीन रूप दर्शनीय है; तभी नामवार सिंह का मत है कि धूमिल के मुहावरों पर शोध की आवश्यकता है। महुए के फूल पर मूतना, भाषा को हींकना, घास की सट्टी में छोड़ना, फटे हुए दूध-सा सेना इत्यादि अनेक नवीन मुहावरों को धूमिल ने गढ़ा है। तमाम उमर गुजर जाती है मगर गाँड़ /सिर्फ बायाँ हाथ धोता है। जैसे भोजपुरी गालियों को मुहावरों में प्रस्तुत करना धूमिल की निजी विशेषता है।

काशीनाथ सिंह का मत है कि – “शब्दों के प्रयोग, सटीक मुहावरे, सही और अनिवार्य तुक, सार्थक वाक्य-विन्यास पर इतनी मेहनत करने वाला धूमिल जैसा आदमी मैंने नहीं देखा।” परमानंद श्रीवास्तव भी कहते हैं कि – ‘धूमिल के बाद कोई दूसरा कवि उस अर्थ में अपना स्वतंत्र काव्य-मुहावरा विकसित करने में सफल नहीं हो सका है, जिस अर्थ में धूमिल उग्रता, असहमति, आक्रोश या विद्रोह को अपना स्वाभाविक अनिवार्य मुहावरे बनाने वाले प्रतिपक्षधर्मी अथवा प्रतिबद्ध युवा कविता के लगभग प्रतीक या प्रतिनिधि हो चले थे।”

विश्वम्भर मानव ने उचित ही लिखा है कि “1970 के बाद हिंदी कविता के क्षेत्र में अपनी तल्ख आवाज एवं नये मुहावरों के साथ जो कवि धूमिल की तरह उभरा उसका नाम धूमिल है।”

धूमिल का शब्द-चयन अनूठा है। धूमिल ने लिखा है कि “छायावाद के कवि शब्दों को तोलकर रखते हैं; प्रयोगवाद के कवि शब्दों को टटोलकर रखते हैं; नयी कविता के कवि शब्दों को गोलकर रखते हैं; सन् साठ के बाद के नये कवि शब्दों को खोलकर रखते हैं। धूमिल की कविता के शब्द-चयन का कैनवास अत्यधिक विस्तृत है। उनका शब्द-चयन आमजीवन, राजनीति, लोकजीवन इत्यादि से सम्बद्ध रखता है। धूमिल में लोकभाषा के तिरस्कृत उपेक्षित शब्दों की क्षमता की पहचान है।

विश्वम्भर मानव ने लिखा है कि – “शब्दों का चयन करते समय धूमिल श्लील और अश्लील का ध्यान नहीं रखते। उनकी भाषा ऐसी गंवार औरत की भाषा है, जो गुस्से में आकर मुहावरेदार गालियाँ बकने लगती है। जिस तरह मुक्तिबोध फैंटेसी का प्रयोग करने में सिद्धहस्त हैं; उसी तरह धूमिल भाषा के भदेसपन में भी गंभीर सत्य को प्रत्यक्ष कर देने की कला में सिद्धहस्त हैं। धूमिल की कविताओं में शब्दों का कोशीय अर्थ उतना महत्त्व नहीं रखता है, जितना सामाजिक अर्थ महत्त्वपूर्ण है।

हिंदी-कविता के इतिहास में बिंब के लिए अज्ञेय और शमशेर, नाटकीयता के लिए धर्मवीर अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं; तो धूमिल आम आदमी और आम आदमी की भाषा के लिए अपनी अस्मिता रखते हैं। धूमिल की मारक भाषा में बिंबों का प्रयोग प्रभावोत्पादक ढंग से हुआ है। उदाहरणार्थ –

1. हाँ हाँ मैं कवि हूँ / कवि याने भाषा में भदेस हूँ
इस कदर कायर हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँ। – पतझड़

2. तुम्हारी मातृभाषा / उस महरी की तरह है जो /
महाजन के साथ रात भर / सोने के लिए /
एक साड़ी पर राजी है। – जनतंत्र के सूर्योदय में

चंद्रकांत वांदिवड़ेकर का मत है कि – “अगर बिंब को ही काव्य का यथार्थ समझा जाये, तो धूमिल की कविता में प्रयुक्त बिंबों के आधार पर उन्हें महाकवि भी कहा जा सकता है।”

इस प्रकार जनवादी चेतना, आम आदमी, आम आदमी की पीड़ा-संघर्ष, समाज और युग की सारी विसंगतियाँ, तीखा व्यंग्य, सड़ी-गली लोकतंत्र और भ्रष्ट राजनीति का प्रबल विरोध, नाटकीय कौशल, भाषा का नयापन, नये मुहावरों का गठन, अद्भुत शब्द चयन और प्रखर शैली इत्यादि के कारण धूमिल साठोत्तरी हिंदी-कविता के इतिहास में अपनी विशिष्ट पहचान जहाँ बनाते हैं; वहीं साठोत्तरी हिंदी-कविता में अत्यन्त गौरवपूर्ण एवं मूर्द्धन्य स्थान रखते हैं।

Search Queries:

धूमिल के काव्य की विशेषताएँ,धूमिल की काव्य विशेषताएँ,सुदामा पाण्डेय धूमिल की काव्यगत विशेषताएं,
सुदामा पाण्डेय धूमिल,धूमिल के काव्य की विशेषता,धूमिल की काव्यगत विशेषताएँ,धूमिल की काव्यगत विशेषताएं,धूमिल के काव्य की विशेषता,धूमिल कवि के काव्य की विशेषताएँ,dhumil ke kavya ki visheshtaen,dhumil ke kavya ki visheshtayen,dhumil ki kavya visheshta,dhumil ki kavyagat visheshta,dhumil.