रीतिकाल का प्रवर्तक किसे कहा जाता है ?

रीतिकाल का प्रवर्तक किसे कहा जाता है (Ritikal Ka Pravartak Kise Kaha Jata Hai): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के अन्तर्गत रीतिकाल के प्रवर्तक के बारे में जानकारी शेयर करेंगे।

रीतिकाल का प्रवर्तक किसे कहा जाता है ?

रीतिकाल का प्रवर्तक चिंतामणि त्रिपाठी को कहा जाता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने रीतिकाव्य का प्रवर्तक चिंतामणि त्रिपाठी को स्वीकार किया है, केशवदास को नहीं। शुक्ल जी ने केशवदास को रीतिकाव्य का प्रवर्तक न मानने के दो कारण बताए हैं –

1. केशव की कविप्रिया के बाद काव्य-रीति की परंपरा का समाप्त हो जाना और फिर 50 वर्षों के उपरांत चिंतामणि त्रिपाठी द्वारा अखण्ड रूप से इस परंपरा का चलना।

2. आदर्श की भिन्नता – केशवदास अलंकारवादी कवि थे, जो अलंकार और चमत्कार पर बल देते थे।

शुक्ल जी की इन मान्यताओं का डॉ. श्यामसुन्दर दास, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. गुलाबराय इत्यादि ने खंडन कर रीतिकाव्य की परंपरा के प्रवर्तन का श्रेय केशवदास को ही दिया है। इन विद्वानों का मत यह है कि यह एक संयोग मात्र ही था कि केशवदास के बाद रीतिकाव्य की अविच्छिन्न परंपरा नहीं चली। फिर चिंतामणि त्रिपाठी द्वारा चल पड़ी। सिर्फ इस कारण से चिंतामणि त्रिपाठी रीतिकाव्य के प्रवर्तक नहीं ठहरते हैं।

वस्तुतः केशवदास ने ही सर्वप्रथम लक्षण-ग्रंथ लिखकर हिंदी के आचार्यों के लिए रीति का मार्ग प्रशस्त किया। केशव चमत्कारी कवि थे और सिर्फ वे अलंकारों पर बल देते थे। शुक्ल जी की दूसरी मान्यता के संबंध में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने ’कविप्रिया’ में जहाँ अलंकारों का विवेचन किया, वहीं ’रसिकप्रिया’ में रस-सिद्धान्त के सभी अंगों और भेदों का सम्यक् प्रतिपादन किया। निःसंदेह, केशवदास ही रीतिकाव्य के प्रवर्तक हैं।

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गीतिकाव्य से आप क्या समझते हैं ?

गीतिकाव्य से आप क्या समझते हैं (Geeti Kavya Se Aap Kya Samajhte Hain): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत गीतिकाव्य पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

गीतिकाव्य से आप क्या समझते हैं ?

अंग्रेजी के लिरिक (Lyric) शब्द के लिए हिंदी में गीत, प्रगीत या ‘गीतिकाव्य (Geeti Kavya)’ शब्द प्रयुक्त होते हैं। ग्रीस में ‘लायर’ नामक वाद्ययंत्र पर गाये जाने वाले गीतों को ‘लिरिक’ कहा जाता था परन्तु कालांतर में संपूर्ण गेय काव्य को ‘लिरिक’ (Lyric) कहा जाने लगा। गीतिकाव्य गेय काव्य है, जिसमें गेयता, भाव-प्रवणता, आत्माभिव्यक्ति, रागात्मक अन्विति, कोमलकांत पदावली, सौंदर्यमयी कल्पना इत्यादि तत्त्व प्रमुखता से विद्यमान होते हैं।

यह भावावेशमयी स्थिति से उत्पन्न होती है। वर्ड्सवर्थ जब कविता को Spontaneous overflow of powerfull feelings कहते हैं, तो उनका संकेत ‘गीति’ की ओर होता है। ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान’ यह पंक्ति देखें या अंग्रेजी कवि शैले की पंक्ति (Our sweetest songs are those that tell us the saddest thought) तो स्पष्ट होता है कि गीति का आधार कोमल संवेग या भाव है, जो हर्ष- विषाद के आवेश से संबंध रखता है।

महादेवी वर्मा ने लिखा है कि – “सुख- दुःख की भावावेशमयी अवस्था विशेषकर गिने हुए शब्दों में स्वर-साधना के उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीत है।”

गीतिकाव्य के तत्त्व –

1. वैयक्तिकता – गीति आत्माभिव्यक्ति अथवा वैयक्तिक अनुभूतियों का सहज स्वाभाविक प्रकाशन है।

2. भाव प्रवणता – यह गीति काव्य की आत्मा है।

3. गीति स्वतः पूर्ण रचना है। अतः, भावान्विति गीति काव्य का प्रधान तत्त्व है।

4. गीति अनिवार्यतः गेय होती है। अतः, ‘गेयता’ इसका एक अनिवार्य तत्त्व है। गेय होने के कारण ही उसे गीति कहा जाता है।

5. गीति का भाव लालित्य और भावातिरेक उसकी शैली पर निर्भर करता है। अतः, कोमल सरस पदावली गीतिकाव्य का एक मुख्य तत्त्व है।

6. अन्य तत्त्व – संक्षिप्तता, प्रवाहमयता, अनुकूल भाषा-शैली इत्यादि।

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नायक कितने प्रकार के होते हैं ?

नायक कितने प्रकार के होते हैं (Nayak Kitne Prakar Ke Hote Hai): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नायक के प्रकार के बारे में सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नायक कितने प्रकार के होते हैं ?

नायक के 4 प्रकार होते हैं –

1. धीरोदात्त

2. धीरललित

3. धीर प्रशांत

4. धीरोद्धत्त

(1) धीरोदात्त – वह नायक जिसका अंतःकरण शोक, क्रोध इत्यादि से अविचलित रहता है। वह गंभीर, क्षमावान, अहंकारशून्य, वचनपालक, विनयी, उदारचरित वाला होता है। जैसे—राम, युधिष्ठिर।

(2) धीरललित – कला आसक्त, सुखान्वेषी, कोमल एवं निश्चित स्वभाव वाला नायक। जैसे—उदयन (स्वप्नवासवदत्तम्) श्रीकृष्ण (चंद्रावली नाटक)।

(3) धीर प्रशांत – शांत स्वभाव वाला, सामान्य गुणों से युक्त ब्राह्मण अथवा वैश्यादिक नायक। जैसे—मृच्छकटिक का नायक चारुदत्त।

(4) धीरोद्धत्त – मायावी, अहंकारी, उग्र, चपल, धोखेबाज, आत्म प्रशंसक। जैसे—रावण, मेघनाद, मेघनाद, परशुराम।

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नाटक और गीति नाटक में अंतर बताइए ?

नाटक और गीति नाटक में अंतर बताइए (Natak Aur Geeti Natak Mein Antar Bataiye): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नाटक और गीति नाटक में अंतर के बारे में सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नाटक और गीति नाटक में अंतर बताइए ?

नाटक और गीति नाट्य में मुख्य अंतर संवाद का होता है। नाटक के संवाद गद्य में और गीति नाट्य के संवाद पद्य में या लयात्मक कविता के रूप में होते हैं। काव्य के प्रयोग से गीति नाट्यों में भावावेग की तीव्रता और कल्पना की झंकार का वातावरण उत्पन्न होता है। उस काव्यात्मक विशेषता के अतिरिक्त गीति नाट्य का रूपबंध और रचना रूढ़ियाँ नाटक की होती हैं।

गीति नाट्य के कुछ उदाहरण हैं –

अंधायुग-धर्मवीर भारती। मत्स्यगंधा-उदयशंकर भट्ट।
एक कंठ विषपायी-दुष्यंत कुमार। स्वर्णश्री-गिरिजा कुमार माथुर।

हिंदी में गीति नाट्य-परंपरा का श्रीगणेश जयशंकर प्रसाद के ‘करुणालय’ से हुआ। यह हिंदी गीति नाट्य की प्रथम रचना है तो मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘अनघ’ द्वितीय गीति नाट्य है।

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नाटक एवं एकांकी में अंतर बताइए ?

नाटक एवं एकांकी में अंतर बताइए (Natak Avn Ekanki Mein Antar Bataiye): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नाटक एवं एकांकी में अंतर के बारे में सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नाटक एवं एकांकी में अंतर बताइए ?

1. नाटक में जीवन का विस्तार, लंबाई और परिधि का विस्तार होता है; जबकि एकांकी में जीवन की किसी एक घटना, प्रसंग या पहलू को चित्रित किया जाता है। एकांकी की परिधि सीमित तथा क्षेत्र भी सीमित होता है।

2. नाटक में संकलन-त्रय का निर्वाह आवश्यक नहीं किन्तु एकांकी में संकलनत्रय का निर्वाह होना महत्त्वपूर्ण है।

3. नाटक में 5 से 10 तक अंक होते हैं जबकि एकांकी में मात्र 1 अंक।

4. एकांकी प्राय: संघर्ष स्थल से प्रारम्भ होता है, जो शीघ्र गति पकड़कर लक्ष्य की ओर दौड़ता है अर्थात् एकांकी में वेग संपन्न प्रवाह का महत्त्व होता है जबकि नाटक की गति धीमी होती है और वह धीरे-धीरे चरम सीमा (Climax) की ओर अग्रसर होता है।

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संस्मरण से आप क्या समझते हैं ?

संस्मरण से आप क्या समझते हैं (Sansmaran Se Aap Kya Samajhte Hain): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत संस्मरण पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

संस्मरण से आप क्या समझते हैं ?

‘संस्मरण’ (Sansmaran) शब्द की व्युत्पत्ति स्मृ (धातु) + सम् (उपसर्ग) + ल्युट् (अन्) प्रत्यय के योग से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ है – सम्यक् अर्थात् संपूर्ण रूप से स्मरण करना। डॉ. अमरनाथ ने लिखा है कि – “संस्मरण एक ऐसी स्मृति है, जो वर्तमान को अधिक सार्थक, समृद्ध और संवेदनशील बनाती है।

संस्मरण (Sansmaran) मूलतः अतीत एवं वर्तमान के बीच एक सेतु है। समय सरिता के दो तटों के बीच संवाद का माध्यम है – संस्मरण। यह एक संबंध चेतना है, जो एक तरफ स्मरणीय को आलोकित करती है तो दूसरी तरफ संस्मरणकार को भी अपने मूल्यांकन का अवसर देती है। समय के धुंध में ओझल होती जिंदगी को पुनर्नृजित करने की आंतरिक आकांक्षा में ही संस्मरण के बीज निहित होते हैं। संबंधों की आत्मीयता एवं स्मृति की परस्परता ही संस्मरण की रचना-प्रक्रिया का मूल आधार है।

डॉ. रामचंद्र तिवारी के शब्दों में – “संस्मरण किसी स्मर्यमाण की स्मृति का शब्दांकन है। वस्तुतः, संस्मरण अपने संपर्क में आये किसी व्यक्ति, वस्तु, प्राणी इत्यादि का स्मृति के आधार पर वह चित्रोपम गाथा है, जो संस्मरणकार के रागात्मक लगाव, निजी अनुभूतियों एवं संवेदनाओं के आधार पर कथात्मक रूप में संस्मरण का आकार ग्रहण करती है।

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रेखाचित्र से आप क्या समझते हैं ?

रेखाचित्र से आप क्या समझते हैं (Rekhachitra Se Aap Kya Samajhte Hain): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत रेखाचित्र पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

रेखाचित्र से आप क्या समझते हैं ?

रेखाचित्र (Rekha Chitra) का अंग्रेजी पर्याय ‘स्केच’ (Sketch) है, जिसका अर्थ चित्रकला से है। ‘चित्रकला में जिस प्रकार रेखाओं के माध्यम से दृश्य या रूप को उभार दिया जाता है, उसी प्रकार जब साहित्य में शब्दों के माध्यम से दृश्य या रूप को उभारा जाता है, उसे रेखाचित्र कहते हैं।” ‘रेखाचित्र’ गद्य की गौण विधा है, जिसे ‘शब्द चित्र’ के नाम से भी जाना जाता है।

रेखाचित्र के प्रमुख तत्त्व –

1. रेखाचित्र शब्दों के माध्यम से चित्र प्रधान लेखन है। अतः ‘चित्रात्मकता’ रेखाचित्र की आत्मा एवं मूलभूत तत्त्व है।

2. रेखा चित्र का थीम या प्लॉट कोई व्यक्ति, वस्तु या घटना हो सकती है। अतः, ‘कस्थावस्तु’ रेखाचित्र का अनिवार्य तत्त्व है।

3. रेखाचित्र व्यक्ति के चरित्र का व्यंजक होता है। अतः, ‘पात्र का चरित्रोद्घाटन’ रेखाचित्र का एक प्रमुख तत्त्व है।

4. रेखाचित्र भाव प्रधान लेखन है, जिसमें वर्णनात्मकता की प्रधानता होती है। भाव-व्यंजना एवं वर्णनात्मक रेखाचित्र का अन्य
मुख्य तत्त्व है।

5. रेखाचित्र में शब्दों के माध्यम से व्यक्ति-विशेष का चरित्र उकेरा जाता है। अतः, कलात्मकता-शब्द-संयोजन, शैली में संक्षिप्तता, सांकेतिकता, जीवंतता, प्रभावोत्पादकता इत्यादि रेखाचित्र का एक अन्य मुख्य तत्त्व है।

6. ‘रेखाचित्र’ सोद्देश्य रचना होती है। अतः, उद्देश्य रेखाचित्र का अन्य तत्त्व है।

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रिपोर्ताज क्या है ?

रिपोर्ताज क्या है (reportaj kya hai): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत रिपोर्ताज पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

रिपोर्ताज क्या है ?

‘रिपोर्ताज’ अंग्रेजी शब्द ‘रिपोर्ट’ (Report) का समानार्थी फ्रांसीसी भाषा का शब्द है। ‘रिपोर्ताज'(Reportaj) का संबंध ‘रिपोर्ट’ से है। अमरनाथ के अनुसार – “घटना का यथातथ्य वर्णन रिपोर्ताज का प्रमुख लक्षण है परन्तु रिपोर्ट के कलात्मक और साहित्यिक रूप को ही ‘रिपोर्ताज’ कहते हैं। तात्पर्य यह है कि “रिपोर्ताज’ ऐसी रिपोर्ट है जिसमें साहित्यिकता एवं कलात्मकता का समावेश होता है।” बहुत से साहित्यकारों की यह मान्यता है कि ‘रिपोर्ताज’ में भावना का आवेग होता है, जो मनुष्य के संघर्ष को देखकर जन्म लेता है।

रिपोर्ताज का जन्म 1936 ई. में हुआ। इसके जन्मदाता अमेरिकी लेखक इलिया एहटेनबर्ग हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका के अनेक रिपोर्ताज इनके द्वारा लिखे गये, फलस्वरूप रिपोर्ताज का उदय हुआ। हिंदी में रिपोर्ताज का जन्म ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित शिवदान सिंह की ‘लक्ष्मीपुरा में’ (1938) रचना से माना जाता है। तूफानों के बीच (1946, रांगेय राघव), पहाड़ों में प्रेममय संगीत (1955, उपेन्द्रनाथ अश्क), गरीब और अमीर पुस्तकें (1958, रामनारायण उपाध्याय), ऋण जल धन जल (1975, फणीश्वरनाथ रेणु), बाढ़, बाढ़, बाढ़ (विवेकी राय), फाइटर की डायरी (2013, मैत्रेयी पुष्पा) हिंदी के कुछ प्रमुख रिपोर्ताज हैं।

आंचलिक उपन्यास किसे कहते हैं ?

आंचलिक उपन्यास किसे कहते हैं (Anchalik Upanyas Kise Kahate Hain): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत आंचलिक उपन्यास पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

आंचलिक उपन्यास किसे कहते हैं ?

अंचल विशेष को लेकर लिखा गया उपन्यास ‘आंचलिक उपन्यास’ (Anchalik Upanyas) है। आंचलिक उपन्यास अंचल के समग्र जीवन का वह उपन्यास है, जिसमें अंचल विशेष के लोगों के रहन-सहन, खान-पान, भाषा-लहजा, पहनावा- ओढ़ावा, मनोवृत्ति, रोमांस, धर्म, आधिदैविक चेतना, झाड़-फूँक, तंत्र- मंत्र, जादू-टोना में विश्वास, आंचलिक बोली-भाषा तथा लोकगीत का अद्भुत पुट रहता है।

आंचलिक उपन्यास में अंचल का समग्र जीवन ही उपन्यास का नायक होता है और इसमें उपन्यास के पात्रों के साथ-साथ परिवेश भी बोलता है। आंचलिक उपन्यास का उद्देश्य स्थिर स्थान पर गतिमान समय में जीते हुए अंचल के व्यक्तित्व के समग्र पहलुओं का उद्घाटन करना होता है।

आंचलिक उपन्यास के जन्मदाता फणीश्वरनाथ रेणु हैं। 1954 ई. में रचित उनकी रचना ‘मैला आँचल’ आंचलिक उपन्यासों की सृजन-यात्रा का प्रारम्भ है। ‘मैला आँचल’ पूर्णिया जिले (बिहार) के ‘मेरीगंज’ अंचल की मैली जिंदगी का वह दस्तावेज है, जिसमें फूल भी हैं, शूल भी हैं, धूल भी हैं, गुलाल भी, कीचड़ भी, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरुपता भी। अपने दूसरे आंचलिक उपन्यास ‘परती परिकथा’ में रेणु जी ने बिहार के ‘परानपुर’ गाँव की समग्रता एवं मुख्यतः भूमि की समस्या (लैंड सर्वे, चकबंदी, जमींदारी प्रथा इत्यादि) को कथानक बनाया है।

हिंदी के अन्य आंचलिक उपन्यासों में लोक-परलोक (उदयशंकर भट्ट), नेपाल की बेटी (बलभद्र ठाकुर), कब तक पुकारूँ (रांगेय राघव), सती मैया का चौरा (भैरव प्र. गुप्त), आधा गाँव (राही मासूम रजा), कोहबर की शर्त (केशव प्र. मिश्र), बोरीबाला से बोरीबंदर तक (शैलेश मटियानी), जंगल के फूल (राजेन्द्र अवस्थी) इत्यादि प्रमुख हैं।

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उपन्यास के तत्त्व

उपन्यास के तत्त्व(Upanyas Ke Tatva): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में उपन्यास के तत्त्व पर जानकारी शेयर करेंगे।

उपन्यास के तत्त्व – Upanyas Ke Tatva

उपन्यास के प्रमुख तत्त्व (Upanyas Ke Tatva) कथावस्तु, पात्र और चरित्र- चित्रण, संवाद या कथोपकथन, देशकाल और वातावरण, शैली और उद्देश्य होते है। उपन्यास के मुख्यत: छ: तत्त्व होते है।

उपन्यास की परिभाषा –

अंग्रेजी के ‘नॉवेल’ को गुजराती में ‘नवलकथा’, मराठी में ‘कादम्बरी’ और बंगला तथा हिंदी में ‘उपन्यास’ कहते हैं। उपन्यास का अर्थ है – वाक्योक्रम, विचार, वक्तव्य, प्रस्ताव, भूमिका, प्रस्तावना, निकट रखना इत्यादि। नाट्यशास्त्र में उल्लिखित प्रतिमुख संधि का एक उपभेद भी ‘उपन्यास’ (Upanyas) कहलाता है परन्तु उपन्यास ‘नॉवेल’ के लिए इतना रूढ़ हो गया है कि इसके अन्य शाब्दिक अर्थ तथा नाट्यशास्त्रीय अर्थ लुप्तप्राय हो गये हैं और ‘निकट रखना’ अर्थ आज के उपन्यास पर प्रक्षेपित कर दिया गया है। अर्थात् “वह वस्तु या कृति जिसे पढ़कर ऐसा लगे कि यह हमारी ही है, इसमें हमारे ही जीवन का प्रतिबिम्ब है; उसमें हमारी ही कथा हमारी ही भाषा में कही गई है, उपन्यास है।”

उपन्यास के निम्नांकित छ: तत्त्व माने गये हैं –

  1. कथावस्तु
  2. पात्र और चरित्र- चित्रण
  3. संवाद या कथोपकथन
  4. देशकाल और वातावरण
  5. शैली
  6. उद्देश्य

1. कथावस्तु –

सम्पूर्ण उपन्यास की कहानी जिन उपकरणों से मिलकर बनती है, वे ‘कथावस्तु’ कहलाते हैं। ये उपकरण कथासूत्र (थीम), मुख्य कथानक (प्लाट), प्रासंगिक कथाएँ या अर्न्तकथाएँ (एपिसोड), उपकथानक (अंडर प्लांट), पत्र, समाचार, प्रमाणिक लेख (डॉक्यूमेंट्स), डायरी के पन्ने इत्यादि होते हैं, जिनका उपन्यास लेखक आवश्यकतानुसार प्रयोग करता है। जीवन में नाना प्रकार की घटनाएँ नित्य घटा करती हैं। उपन्यासकार अपने उद्देश्य के अनुसार घटना का चुनाव करता है और अपनी कल्पना के सहारे अपने कथानक और कथावस्तु का निर्माण करता है।

भय और विस्मय अथवा प्रेम और घृणा के आधार पर ही इन कथानकों की कल्पना की जाती है। कथानक संघटन और वस्तु-विन्यास में सत्याभास, विश्वसनीयता, कार्य-करण-संबंध, मनोवैज्ञानिक क्षण, उत्कंठा, रोचकता, संघर्ष ‘भविष्य- संकेत’ और ‘चरमोत्कर्ष’ का होना साधारणतया आवश्यक है।

2. पात्र और चरित्र-चित्रण –

उपन्यास में नायक, नायिका, सहनायक, सहनायिका, ढेर सारे गीण पात्रों की नियोजना की जाती है। उपन्यास में कथावस्तु के संघटन और विन्यास से भी अधिक महत्त्वपूर्ण चरित्र-चित्रण की कुशलता है। उपन्यास के पात्रों के क्रियाकलाप से हो कथावस्तु का निर्माण होता है, अतः पात्र जितने अधिक सजीव होंगे कथानक में उतना ही आकर्षण लाया जा सकेगा। पात्र ऐसे होने चाहिए कि उनके संसर्ग में आते ही पाठकों को यह विश्वास हो जाना चाहिए कि वे सत्य हैं, कपोल कल्पित नहीं। प्रेमचंद ने लिखा है – “कल्पना के गढ़े हुए आदमियों में मुझे विश्वास नहीं। मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्र मात्र मानता हूँ।

पात्रों को सजीव और यथार्थ बनाने के लिए उपन्यासकार की कल्पनाशक्ति, मानव मन के सूक्ष्म अध्ययन और उसकी कलात्मक योजना की परीक्षा होती है। चरित्र-चित्रण के द्वारा कथानक में वे समस्त खूबियाँ लायी जा सकती हैं जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है। चरित्र- चित्रण की यह विशेषता होनी चाहिए कि पाठक विभिन्न पात्रों को सरलता से पहचान सके और उनके साथ यथावश्यक तादात्म्य स्थापित कर सके। मनुष्य प्रकृति के विभिन्न पक्षों और स्तरों के सूक्ष्म अध्ययन और कम-से- कम शब्दों में चित्र उपस्थित कर सकने की योग्यता ही सफल चरित्र-चित्रण की कसौटी है।

3. संवाद –

संवाद या कथोपकथन का चरित्र-चित्रण में बहुत – के महत्त्व है। पात्रों के संवाद के द्वारा ही हम उनसे परिचित होते हैं। संवाद पात्रों को सजीव बना देते हैं और कथानक में नाटकीयता का समावेश करके उसके प्रभाव को तीव्र कर देते हैं। संवाद के द्वारा कथावस्तु का विकास और पात्रों का चरित्र-चित्रण अभीष्ट रहता है।

अतः इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसका उपयोग होना चाहिए। उसमें देशकाल और पात्र के अनुकूल स्वाभाविकता, मनोविज्ञान की उपयुक्तता, उपन्यास की रोचकता और आकर्षण को बढ़ाने वाली अभिनयात्मकता और सरसता आवश्यक है।

4. देशकाल और वातावरण –

उपन्यास में पात्रों की तरह देशकाल का भी अपना अलग वैशिष्ट्य है। देशकाल से तात्पर्य यह है कि उपन्यास की घटनाएँ जिस स्थान और समय की हों उसका ज्यों-का-त्यों चित्र उपस्थित किया जाये। वह समसामयिक और ऐतिहासिक दोनों हो सकता है। लेखक को उसका घनिष्ठ परिचय आवश्यक है, जिससे कि वह भौगोलिक, विवरण, सामाजिक रीति-नीति, शिष्टाचार, इत्यादि को उपन्यास में शामिल कर उसकी घटनाओं में सजीवता ला सके परन्तु आँचलिक और स्थानीय रंग वाले उपन्यासों को छोड़कर साधारणतया उपन्यासों में देशकाल अथवा वातावरण का काल्पनिक वर्णन होता है।

यह कोई दोष नहीं है, शर्त केवल यह है कि जो भी देशकाल का विवरण हो, वह विश्वसनीय, देशविरुद्ध और काल-विरुद्ध न हो। देशकाल का चित्रण का उद्देश्य – कथानक और चरित्र का स्पष्टीकरण है।

5. शैली –

उपन्यास समग्र जीवन का संश्लिष्ट चित्र है और उसके अनेक आकार-प्रकार हैं। अतः, उपन्यास में शैली का विशेष उल्लेख होता है। शैली के द्वारा उपन्यास के विभिन्न तत्त्वों को नियोजित किया जाता है। शैली की विविधता का आकलन असंभव है क्योंकि प्रत्येक लेखक की अपनी अलग शैली होती है, जिससे वह अपने व्यक्तित्व को प्रकाशित करता है। कोई लेखक व्याख्यात्मक शैली पसंद करते हैं, कोई विश्लेषणात्मक कोई अभिनयात्मक तो कोई व्यंग्यात्मक इत्यादि। शैली में स्वाभाविकता और प्रवाह होना चाहिए।

6. उद्देश्य –

विश्व का कोई काम निष्प्रयोजन नहीं होता है, मूर्ख भी निष्प्रयोजन नहीं हँसता है—ऐसी कहावत है। प्रत्येक रचना के पीछे सर्जक का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होता है, जिससे प्रेरित होकर वह रचना करता है। उपन्यासकार कलाकार होने के साथ-साथ एक सामाजिक प्राणी भी होता है। अब वह किसी कथा को उपन्यास के रूप में कहने का निश्चय करता है, तभी उसके मन में कथासूत्र के साथ वह जीवन दृष्टि मूर्त्त होने लगती है जो उसने अपने सांसारिक जीवन में अनुभवस्वरूप प्राप्त की है।

कला की दृष्टि से वही उपन्यास श्रेष्ठ है, जिसका लेखक पाठकों पर सफलतापूर्वक यह प्रभाव डाल सके कि उसकी रचना से जिस जीवन-दर्शन का संकेत मिलता है, वह उसने बाहर से नहीं आरोपित किया है, वही सामयिक अथवा शाश्वत् सत्य है।

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