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उपन्यास के तत्त्व

उपन्यास के तत्त्व(Upanyas Ke Tatva): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में उपन्यास के तत्त्व पर जानकारी शेयर करेंगे।

उपन्यास के तत्त्व – Upanyas Ke Tatva

उपन्यास के प्रमुख तत्त्व (Upanyas Ke Tatva) कथावस्तु, पात्र और चरित्र- चित्रण, संवाद या कथोपकथन, देशकाल और वातावरण, शैली और उद्देश्य होते है। उपन्यास के मुख्यत: छ: तत्त्व होते है।

उपन्यास की परिभाषा –

अंग्रेजी के ‘नॉवेल’ को गुजराती में ‘नवलकथा’, मराठी में ‘कादम्बरी’ और बंगला तथा हिंदी में ‘उपन्यास’ कहते हैं। उपन्यास का अर्थ है – वाक्योक्रम, विचार, वक्तव्य, प्रस्ताव, भूमिका, प्रस्तावना, निकट रखना इत्यादि। नाट्यशास्त्र में उल्लिखित प्रतिमुख संधि का एक उपभेद भी ‘उपन्यास’ (Upanyas) कहलाता है परन्तु उपन्यास ‘नॉवेल’ के लिए इतना रूढ़ हो गया है कि इसके अन्य शाब्दिक अर्थ तथा नाट्यशास्त्रीय अर्थ लुप्तप्राय हो गये हैं और ‘निकट रखना’ अर्थ आज के उपन्यास पर प्रक्षेपित कर दिया गया है। अर्थात् “वह वस्तु या कृति जिसे पढ़कर ऐसा लगे कि यह हमारी ही है, इसमें हमारे ही जीवन का प्रतिबिम्ब है; उसमें हमारी ही कथा हमारी ही भाषा में कही गई है, उपन्यास है।”

उपन्यास के निम्नांकित छ: तत्त्व माने गये हैं –

  1. कथावस्तु
  2. पात्र और चरित्र- चित्रण
  3. संवाद या कथोपकथन
  4. देशकाल और वातावरण
  5. शैली
  6. उद्देश्य

1. कथावस्तु –

सम्पूर्ण उपन्यास की कहानी जिन उपकरणों से मिलकर बनती है, वे ‘कथावस्तु’ कहलाते हैं। ये उपकरण कथासूत्र (थीम), मुख्य कथानक (प्लाट), प्रासंगिक कथाएँ या अर्न्तकथाएँ (एपिसोड), उपकथानक (अंडर प्लांट), पत्र, समाचार, प्रमाणिक लेख (डॉक्यूमेंट्स), डायरी के पन्ने इत्यादि होते हैं, जिनका उपन्यास लेखक आवश्यकतानुसार प्रयोग करता है। जीवन में नाना प्रकार की घटनाएँ नित्य घटा करती हैं। उपन्यासकार अपने उद्देश्य के अनुसार घटना का चुनाव करता है और अपनी कल्पना के सहारे अपने कथानक और कथावस्तु का निर्माण करता है।

भय और विस्मय अथवा प्रेम और घृणा के आधार पर ही इन कथानकों की कल्पना की जाती है। कथानक संघटन और वस्तु-विन्यास में सत्याभास, विश्वसनीयता, कार्य-करण-संबंध, मनोवैज्ञानिक क्षण, उत्कंठा, रोचकता, संघर्ष ‘भविष्य- संकेत’ और ‘चरमोत्कर्ष’ का होना साधारणतया आवश्यक है।

2. पात्र और चरित्र-चित्रण –

उपन्यास में नायक, नायिका, सहनायक, सहनायिका, ढेर सारे गीण पात्रों की नियोजना की जाती है। उपन्यास में कथावस्तु के संघटन और विन्यास से भी अधिक महत्त्वपूर्ण चरित्र-चित्रण की कुशलता है। उपन्यास के पात्रों के क्रियाकलाप से हो कथावस्तु का निर्माण होता है, अतः पात्र जितने अधिक सजीव होंगे कथानक में उतना ही आकर्षण लाया जा सकेगा। पात्र ऐसे होने चाहिए कि उनके संसर्ग में आते ही पाठकों को यह विश्वास हो जाना चाहिए कि वे सत्य हैं, कपोल कल्पित नहीं। प्रेमचंद ने लिखा है – “कल्पना के गढ़े हुए आदमियों में मुझे विश्वास नहीं। मैं उपन्यास को मानव जीवन का चित्र मात्र मानता हूँ।

पात्रों को सजीव और यथार्थ बनाने के लिए उपन्यासकार की कल्पनाशक्ति, मानव मन के सूक्ष्म अध्ययन और उसकी कलात्मक योजना की परीक्षा होती है। चरित्र-चित्रण के द्वारा कथानक में वे समस्त खूबियाँ लायी जा सकती हैं जिनका ऊपर उल्लेख किया गया है। चरित्र- चित्रण की यह विशेषता होनी चाहिए कि पाठक विभिन्न पात्रों को सरलता से पहचान सके और उनके साथ यथावश्यक तादात्म्य स्थापित कर सके। मनुष्य प्रकृति के विभिन्न पक्षों और स्तरों के सूक्ष्म अध्ययन और कम-से- कम शब्दों में चित्र उपस्थित कर सकने की योग्यता ही सफल चरित्र-चित्रण की कसौटी है।

3. संवाद –

संवाद या कथोपकथन का चरित्र-चित्रण में बहुत – के महत्त्व है। पात्रों के संवाद के द्वारा ही हम उनसे परिचित होते हैं। संवाद पात्रों को सजीव बना देते हैं और कथानक में नाटकीयता का समावेश करके उसके प्रभाव को तीव्र कर देते हैं। संवाद के द्वारा कथावस्तु का विकास और पात्रों का चरित्र-चित्रण अभीष्ट रहता है।

अतः इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उसका उपयोग होना चाहिए। उसमें देशकाल और पात्र के अनुकूल स्वाभाविकता, मनोविज्ञान की उपयुक्तता, उपन्यास की रोचकता और आकर्षण को बढ़ाने वाली अभिनयात्मकता और सरसता आवश्यक है।

4. देशकाल और वातावरण –

उपन्यास में पात्रों की तरह देशकाल का भी अपना अलग वैशिष्ट्य है। देशकाल से तात्पर्य यह है कि उपन्यास की घटनाएँ जिस स्थान और समय की हों उसका ज्यों-का-त्यों चित्र उपस्थित किया जाये। वह समसामयिक और ऐतिहासिक दोनों हो सकता है। लेखक को उसका घनिष्ठ परिचय आवश्यक है, जिससे कि वह भौगोलिक, विवरण, सामाजिक रीति-नीति, शिष्टाचार, इत्यादि को उपन्यास में शामिल कर उसकी घटनाओं में सजीवता ला सके परन्तु आँचलिक और स्थानीय रंग वाले उपन्यासों को छोड़कर साधारणतया उपन्यासों में देशकाल अथवा वातावरण का काल्पनिक वर्णन होता है।

यह कोई दोष नहीं है, शर्त केवल यह है कि जो भी देशकाल का विवरण हो, वह विश्वसनीय, देशविरुद्ध और काल-विरुद्ध न हो। देशकाल का चित्रण का उद्देश्य – कथानक और चरित्र का स्पष्टीकरण है।

5. शैली –

उपन्यास समग्र जीवन का संश्लिष्ट चित्र है और उसके अनेक आकार-प्रकार हैं। अतः, उपन्यास में शैली का विशेष उल्लेख होता है। शैली के द्वारा उपन्यास के विभिन्न तत्त्वों को नियोजित किया जाता है। शैली की विविधता का आकलन असंभव है क्योंकि प्रत्येक लेखक की अपनी अलग शैली होती है, जिससे वह अपने व्यक्तित्व को प्रकाशित करता है। कोई लेखक व्याख्यात्मक शैली पसंद करते हैं, कोई विश्लेषणात्मक कोई अभिनयात्मक तो कोई व्यंग्यात्मक इत्यादि। शैली में स्वाभाविकता और प्रवाह होना चाहिए।

6. उद्देश्य –

विश्व का कोई काम निष्प्रयोजन नहीं होता है, मूर्ख भी निष्प्रयोजन नहीं हँसता है—ऐसी कहावत है। प्रत्येक रचना के पीछे सर्जक का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होता है, जिससे प्रेरित होकर वह रचना करता है। उपन्यासकार कलाकार होने के साथ-साथ एक सामाजिक प्राणी भी होता है। अब वह किसी कथा को उपन्यास के रूप में कहने का निश्चय करता है, तभी उसके मन में कथासूत्र के साथ वह जीवन दृष्टि मूर्त्त होने लगती है जो उसने अपने सांसारिक जीवन में अनुभवस्वरूप प्राप्त की है।

कला की दृष्टि से वही उपन्यास श्रेष्ठ है, जिसका लेखक पाठकों पर सफलतापूर्वक यह प्रभाव डाल सके कि उसकी रचना से जिस जीवन-दर्शन का संकेत मिलता है, वह उसने बाहर से नहीं आरोपित किया है, वही सामयिक अथवा शाश्वत् सत्य है।

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