रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ
रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ(Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavyagat Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।
रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ
रामधारी सिंह दिनकर के काव्य में सांस्कृतिक चेतना
भारतीय संस्कृति महान् है; जिसे रामधारी सिंह दिनकर सरीखे अनेक साहित्यकारों ने उसे अपने साहित्य में पिरोया ही नहीं है, अपनी लेखनी और कला की बदौलत उसे भव्य रूप देकर अनुकरणीय एवं विश्वव्यापी बना दिया है। ‘संस्कृति’ का अर्थ ‘संस्कार संपन्न जीवन’ है। संस्कृति मानव-जीवन को विकृति से बचाकर सुकृति की ओर अग्रसर करने वाला एक ऐसा रचनात्मक प्रत्यय है जो अतीत से प्रेरित, वर्तमान से प्रतिबद्ध और भविष्य के प्रति उन्मुख है।
दिनकर ने अपने साहित्य में न सिर्फ काव्य में बल्कि गद्य-साहित्य (जैसे- संस्कृति के चार अध्याय (1956), हमारी सांस्कृतिक एकता (1954), रेती के फूल (1954 ई.) में भारतीय सांस्कृतिक एकता को भव्य रूप में प्रस्तुत किया है, जिनसे वह आगामी पीढ़ियों का मार्गदर्शन कर सके हैं।
मानवतावादी भावना, गरीबों के प्रति पक्षधरता, लोककल्याण, विश्वप्रेम, विश्वशांति कर्म की महत्ता, आशावादिता, भाग्यवाद एवं पुनर्जन्म पर विश्वास, नारी सम्मान, गाँधीवादी विचारधारा इत्यादि सांस्कृतिक वृत्तियाँ, जो सांस्कृतिक चेतना के आकार हैं, दिनकर-साहित्य में मूल्यों, उच्चादर्शों के साथ अभिव्यक्त हुए हैं। भारतीय आदर्शों के गायक, भारतीय संस्कृति के आख्याता दिनकर के काव्य में सांस्कृतिक चेतना का निरूपण निम्न रूपों में द्रष्टव्य है –
1. मानवतावादी भावना –
महान् मानवता की भावनात्मकता की प्रतीक एक व्यक्तिवाचक संज्ञा का नाम है- ‘रामधारी सिंह दिनकर’। मानव के कवि, मानव-मन और मानव-समस्याओं के कवि दिनकर का दृष्टिकोण मानवतावादी है; जो भारतीय सभ्यता संस्कृति का दृष्टिकोण अति प्राचीनकाल से रहा है। दिनकर की मानवतावादी भावनाओं में मानव- समानता, लोक-सेवा का आदर्श, सर्वहित की कामना, त्याग तप, परदुखकातरता, शोषितों के प्रति सहानुभूति, शोषण और बंधनमुक्त समाज की स्थापना इत्यादि के उच्चादर्श सन्निहित हैं। कवि का मानवतावादी दृष्टिकोण इन पंक्तियों में बखूबी साकार हुआ है –
मैं भी सोचता हूँ, जगत से कैसे उठे जिज्ञासा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर करुणा, प्रेम, अहिंसा,
जियें मनुज किस भाँति परस्पर, होकर भाई-भाई।
जब तक मनुज-मनुज का यह, सुख भाग नहीं सम होगा,
शमित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा।
श्रेय होगा मनुज का समता विधायक ज्ञान,
स्नेह सिंचित न्याय पर नव-विश्व का निर्माण।”
2. विश्वप्रेम और लोककल्याण –
अपने देश के दु:ख दैन्य, संघर्ष, पीड़ा से ऊपर उठकर दिनकर की दृष्टि विश्वप्रेम और लोककल्याण की भावना की ओर भी गई है। सांसारिक दुःखों को देखकर दिनकर जहाँ दुःखी होते हैं; आँसू बहाते हैं; वहीं दुःख के कारणों की पड़ताल भी करते हैं। वह कहते हैं कि –
है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार।
भोग-लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम,
बह रही असहाय नर की भावना निष्काम।
दिनकर की कविताओं में लोककल्याण, लोकमंगल की भावना इस प्रकार साकार हुई है –
हटो स्वर्ग के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं।
दूध-दूध ओ वत्स ! तुम्हारा दूध खोजने हम आते हैं।
3. गरीबों के प्रति पक्षधरता –
राष्ट्रकवि दिनकर की सांस्कृतिक चेतना दुःखी, गरीब, असहाय, शोषित, पीड़ित वर्ग पर बार-बार गयी है और उन्होंने इन वर्गों की यथार्थ स्थिति का अंकन कर जहाँ एक ओर इस वर्ग के देशवासियों को अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करने की प्रेरणा दी है, वहीं अन्यायियों, अत्याचारियों एवं शोषकों को सचेत करते हुए चेतावनी भी दी है –
1. जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
वसन कहाँ ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।
2. श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।”
दिनकर ने जहाँ कहीं अन्याय, शोषण इत्यादि का दृश्य देखा, उसे मिटाने के लिए उन्हें इन्क्लाब की शिद्दत से आवश्यकता महसूस हुई। इन दृश्यों को देखकर उनका खून खौल उठता है और वह ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में कह उठते है कि हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है।
4. आशा, भाग्यवाद और पुनर्जन्म पर विश्वास –
आशावादिता, भाग्यवाद एवं पुनर्जन्म भारतीय संस्कृति के प्रमुख आयाम हैं। राष्ट्रकवि दिनकर आशावादी कवि हैं; जिन्होंने एक ओर पराधीन देश, तड़पती दासता, और पिसती हुई मानवता के बीच नई आशा जाग्रत करने का स्तुत्य प्रयास किया है; वहीं मानव-समाज को आशावाद का दिव्य सन्देश देते हुए निराशा को कभी पास फटकने न देने का निवेदन किया है। कवि का आशावादी दृष्टिकोण देखें –
धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसायेगी
दिन की कराल दाहकता पर चाँदनी सुशीतल छायेगी
फूलों से भरा भुवन होगा।
भारतीय संस्कृति के अनुरूप दिनकर की ‘भाग्यवाद’ एवं ‘पुनर्जन्म’ पर गहरी आस्था है। देखें –
किंतु भाग्य है चली, कौन किससे कितना पाता है।
यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।
5. नारी सम्मान –
भारतीय संस्कृति में नारी को ‘देवी’ के रूप में देखा गया है। ऐसा कहा भी गया है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।’ भारतीय संस्कृति के पोषक दिनकर ने नारी को अपार श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखा है। रेणुका, उर्वशी, द्वापर आदि काव्य ग्रंथों में दिनकर ने नारी के त्याग, सहिष्णुता, आत्मसमर्पण, आत्मदान, करुणा, क्षमा इत्यादि गुणों का गुणगान किया है, वहीं यह भी बताया है कि नारी के जीवन में रुदन ही रुदन है और उसे सान्त्वना देने वाला कोई नहीं है। नारी के प्रति दिनकर का दृष्टिकोण देखें –
1. नारी क्रिया नहीं; वह केवल क्षमा, शांति, करुणा है।
2. पुरुष बसंत है और स्त्री वर्षा
राजा बसंत, वर्षा ऋतुओं की रानी।
6. गाँधीवादी विचारधारा –
दिनकर ने गाँधीवादी विचारधारा, यथा – अहिंसा, अस्पृश्यता निवारण, अस्पृश्यों के मंदिर-प्रवेश, ग्राम-सुधार, स्त्री-जीवन में सुधार, कर्मयोग, लोक-संग्रह की भावना इत्यादि का उल्लेख करके युगीन-परिवेश का सुंदर परिचय दिया है। देखें –
1. मैं भी सोचता हूँ…
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर करुणा, प्रेम, अहिंसा। (अहिंसा)
2. बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हो यदि काम ?
नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं वंश, धन, धाम। (अस्पृश्यता)
7. सांस्कृतिक चेतना के कुछ अन्य पहलू –
दिनकर-काव्य में ‘सांस्कृतिक चेतना के कुछ अन्य पहलू’ भी दिखाई देते हैं। मसलन-आस्तिकता, शिष्टाचार, अतिथि सत्कार, आत्मनिग्रह इत्यादि-इत्यादि। आस्तिकता भारतीय संस्कृति का प्रधान गुण है, जिससे दिनकर अछूते नहीं रहे हैं। ताण्डव, विपथगा, अर्द्धनारीश्वर सरीखी कविताएँ इसके प्रमाण हैं।
दिनकर को भगवान की अटूट शक्ति पर विश्वास होने के कारण ही ऐसी आस्था है कि भगवान एक न एक दिन अवश्य पीड़ित, व्याकुल, दुःखी, गरीब एवं शोषित भारतीय अवाम का उद्धार करेंगे। स्त्री की लज्जा लूटते देख उन्होंने दुर्गा माता, भगवान शंकर इत्यादि देव-देवियों से अपना रूप प्रकट करने के लिए प्रार्थना भी की हैं। यथा –
एक हाथ में डमरू, एक में वीणा मधुर
बालचंद्र दोपित त्रिपुण्ड पर बलिहारी ! बलिहारी !
दिनकर-साहित्य में अतिथि-सत्कार, शिष्टाचार के उदाहरण भी भरे पड़े हैं। ‘अतिथि देवो भवः’ भारतीय संस्कृति की प्रधान विशेषता है। दिनकर की कालजयी रचना ‘उर्वशी’ में ‘पुरूरवा’ सुकन्या तापसी के आगमन पर कह उठते हैं कि –
सती सुकन्या ! कीर्तिमयी भामिनी महर्षि च्यवन की ?
सादर लाओ उन्हें, स्वप्न अब फलित हुआ लगता है।
‘भीष्म’ को तात, पितामह कहना; पति को आर्यपुत्र; मित्र को बंधु; गुरु को गुरुवर; गुरु-शिष्य को ब्राह्मणकुमार; पत्नी को देवी इत्यादि कहना दिनकर-काव्य में शिष्टाचार के द्योतक हैं। भारतीय संस्कृति में निग्रह- अपरिग्रह का महत्त्व काफी है। दिनकर ने कर्ण की निलभिता और दानशीलता (रश्मिरथी) तथा स्त्रियों के पातिव्रत्य धर्मपालन पर बल देकर अपनी भारतीय सांस्कृतिक चेतना का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है।
उपर्युक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि दिनकर का काव्य राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना का अद्भुत दस्तावेज है। आज बिहार, झारखण्ड, पश्चिमी बंगाल समेत भारत के कई राज्य जिस नक्सली-समस्या से जूझ रहे हैं, उसे लेकर दिनकर ने 5 दशक पूर्व ही सजग करते हुए लिख दिया था कि – ‘कहीं भूख बेताब हुई तो आबादी की खैर नहीं।’ राष्ट्रकवि दिनकर की दूरदृष्टि एवं समष्टि-चेतना के मूल में राष्ट्रीयता है –
भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भूमण्डल भर का है।
दिनकर की राष्ट्रीय चेतना का परीक्षण करने पर स्पष्ट होता है कि उनकी राष्ट्रीय चेतना स्वतंत्रता – पूर्व और स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् इन 2 सोपानों में विकसित हुई है। ‘बारदोली विजय’ (1932 ई.) से लेकर ‘हुंकार’ (1939 ई.) तक की दिनकर की राष्ट्रीय चेतना में विद्रोह एवं क्रांति का पुट विद्यमान है। दिनकर की दृष्टि में विद्रोह, इन्क्लाब एवं क्रांति की पहली और शर्त है- जनजागृति।
इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम पराधीनता, शोषक-वर्ग, शोषण-सत्ता के अस्तित्व को मटियामेट, नेस्तनाबूद करने के लिए अवाम को जनजागृति का सन्देश देते हुए नई हुंकार भरने का आग्रह किया है। दिनकर की राष्ट्रीय चेतना सामधेनी (1947 ई.) में साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्ध उठ खड़ा होने का शंखनाद फूँकती है। इसमें कवि ने स्वयं को ‘अमर विभा का दूत’ और ‘धरणी का अमृत कलशवाही’ कहा गया है।
स्वतंत्रता के पश्चात् दिनकर की राष्ट्रीय चेतना लोकमंगल, मानववादिता, पंचशील, अंतरराष्ट्रीय समस्या इत्यादि की ओर अग्रसर होती है; किंतु चीनी-आक्रमण (1962 ई.) के पश्चात् पुनः राष्ट्रीयता की ओर ही केन्द्रित हो जाती है। राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ दिनकर ने अपने काव्य में आशावादिता, भाग्य एवं पुनर्जन्म पर विश्वास, कर्म की महत्ता अध्यात्म, त्याग एवं संयम, सहिष्णुता, नारी सम्मान, विश्व-बंधुत्व, विश्वमंत्री, विश्वप्रेम, वसुधैव कुटुम्बकम् इत्यादि भारतीय संस्कृति का आख्यान प्रस्तुत कर अपनी सांस्कृतिक चेतना का अन्यतम उदाहरण प्रस्तुत किया है।
लगभग 44 साल पहले 24 अप्रैल, 1974 का वह मनहूस दिन, वस्तुतः काले ‘सूरज का दिन था; जब ‘दिनकर’ की असामयिक मौत से वे जहाँ सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गये, वहीं साहित्य की दुनिया सूनी हो गई और राष्ट्रकवि की लेखनी सदा के लिए खामोश हो गई। ‘कल्कि’ नामक काव्य लिखने अथवा गाँधी और उनके दर्शन पर विश्वकाव्य रचने या फिर बुद्ध एवं सीता पर विस्तारपूर्वक साहित्य-सर्जन करने की उनकी सारी इच्छाएँ और योजनाएँ धरी की धरी रह गईं।
सचमुच शताब्दियों बाद दिनकर जैसी महान् और विरल प्रतिभाएँ जन्म लिया करती हैं; जिनका व्यक्तित्व, जिनकी शख्सियत, जिनका लेखकीय संघर्ष, जिनकी लेखनी, जिनकी सृजनक्षमता, जिनकी गुणवत्ता और जिनका अवदान अपने आप में एक शाश्वत् और चिरंतन कहानी बन जाती है।
सदियों बाद जिस प्रकार कवि वाल्मीकि, महर्षि व्यास, लोकनायक तुलसीदास, महाकवि सूरदास, संत कबीर आज भी अमर हैं; उसी प्रकार राष्ट्रकवि दिनकर और उनकी ‘राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना’ युगों-युगों तक जीवित एवं अमर रहेंगी। उनका नाम हिंदी साहित्य के स्वर्णिम अध्याय में युगों-युगों तक जिंदा रहेगा। राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना से सम्पृक्त दिनकर- साहित्य, वस्तुतः : हिंदी-साहित्य की एक ऐसी अमूल्य थाती है, जिस पर पूरे राष्ट्र को गौरव है।
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