कैमरे में बंद अपाहिज – पाठ सार व भावार्थ | रघुवीर सहाय

कैमरे में बंद अपाहिज: इस आर्टिकल में रघुवीर सहाय की चर्चित कविता कैमरे में बंद अपाहिज(Camere Mein Band Apahij) को व्याख्या सहित समझाया गया है।

कैमरे में बंद अपाहिज(Camere Mein Band Apahij) : कविता सार

रघुवीर सहाय की ‘कैमरे में बन्द अपाहिज’ कविता उनके ‘लोग भूल गये हैं’ काव्य-संग्रह से संकलित है। इसमें शारीरिक चुनौती को झेलते व्यक्ति से टेलीविजन कैमरे के सामने किस तरह के सवाल पूछे जायेंगे और कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए उससे कैसी भंगिमा की अपेक्षा की जायेगी, इसका सपाट तरीके से बयान करते हुए एक तरह से पीड़ा के साथ दृश्य-संचार माध्यम के सम्बन्ध को निरूपित किया गया है।

वस्तुतः किसी की पीड़ा को बहुत बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँचाने वाले व्यक्ति को उस पीड़ा के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, परन्तु दूरदर्शनकर्मी वैसी संवेदनशीलता नहीं रखते हैं। वे तो उस व्यक्ति के प्रति कठोरता का व्ययहार करते हैं तथा अपने कारोबारी स्वार्थ को ऊपर रखकर कार्यक्रम को आकर्षक एवं बिकाऊ बनाने का प्रयास करते रहते हैं।

दूरदर्शन के सामने आकर जो व्यक्ति अपना दुःख-दर्द और यातना-वेदना को बेचना चाहता है, वह ऐसा अपाहिज बताया गया है, जो लोगों की करुणा का पात्र बनता है। प्रस्तुत कविता में मीडिया-माध्यम की ऐसी व्यावसायिकता एवं संवेदनहीनता पर आक्षेप किया गया है।

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(1)भावार्थ: हम दूरदर्शन पर बोलेंगे

हम दूरदर्शन पर बोलेंगे

हम समर्थ शक्तिवान

हम एक दुर्बल को लाएँगे

एक बंद कमरे में

उससे पूछेंगे तो आप क्या अपाहिज हैं?

तो आप क्यों अपाहिज हैं?

आपका अपाहिजपन तो दुःख देता होगा देता है?

(कैमरा दिखाओ इसे बड़ा बड़ा)

हाँ तो बताइए आपका दुःख क्या है

जल्दी बताइए वह दुःख बताइए।

बता नहीं पाएगा।

कठिन–शब्दार्थ : समर्थ = शक्तिशाली, साधन-सम्पन्न। दुर्बल =कमजोर। अपाहिज=अपंग, जिसका कोई अंग बेकार हो।

भावार्थ – कवि कहता है कि दूरदर्शन के कार्यक्रम संचालक स्वयं को समर्थ और शक्तिमान मानकर चलते हैं। वे अपनी बात को सुदूर तक प्रसारित करने में समर्थ हैं, इस कारण अहंभाव रहता है और दूसरे को कमजोर मानते हैं। दूरदर्शन का कार्यक्रम संचालक कहता है कि हम स्टूडियो के बन्द कमरे में एक कमजोर एवं व्यथित व्यक्ति को बुलायेंगे। उस अपंग व्यक्ति को स्टूडियो के कैमरे के सामने लाकर हम उससे पूछेंगे कि क्या आप अपाहिज हैं? जबकि वह व्यक्ति स्पष्टतया अपंग दिखाई दे रहा है, तो भी पूछेंगे कि आप अपंग क्यों हैं? उससे ऐसा पूछना सर्वथा अनुचित है।

अपाहिज इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दे पायेगा। तब उसके दुःख को कुरेदा जायेगा और उससे अगला प्रश्न पूछा जायेगा कि आपको अपना अपाहिज होना काफी दुःख देता होगा, अर्थात् अपनी अपंगता पर सुख तो कभी नहीं मिलता होगा? इस तरह अपाहिज जब कुछ नहीं कह पायेगा, तो उसे अपाहिज होने से सचमुच दुःखी होने का समर्थन किया जायेगा।

कार्यक्रम संचालक द्वारा इस तरह पूछने के साथ कैमरामैन को निर्देश दिया जायेगा कि इसके चेहरे पर और अधिक बड़ा करके कैमरा दिखाओ, तो कैमरामैन उसके चेहरे को कैमरे के सामने लाकर उसकी अपंगता को स्पष्ट दिखायेगा। फिर संचालक उत्तेजित होकर अपंग व्यक्ति से पूछेगा कि जल्दी से बताइए, आपका दुःख क्या है? आप अपने दुःख के बारे में सभी दर्शकों को बताइए।

परन्तु वह व्यक्ति अपने दुःख के बारे में कुछ नहीं बतायेगा। संचालक को अपंग व्यक्ति की पीड़ा के प्रति कोई संवेदना नहीं है। वह जानता है कि अपंग व्यक्ति ऐसे प्रश्न पर चुप ही रहेगा। इसलिए वह कार्यक्रम को प्रभावी बनाने के लिए ऐसे प्रश्न करना अपना कर्त्तव्य मानता है।

विशेष –

  1. प्रस्तुत कविता रघुवीर सहाय के कविता संग्रह ‘लोग भूल गए हैं’ से उद्धृत है।
  2. इसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हृदयहीनता पर प्रकाश डाला है।
  3. इसकी शैली नाटकीय तथा वार्तालाप की है।

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(2) सोचिए बताइए…

सोचिए

बताइए

आपको अपाहिज होकर कैसा लगता है।

कैसा

यानी कैसा लगता है

(हम खुद इशारे से बताएँगे कि क्या ऐसा?)

सोचिए

बताइए

थोड़ी कोशिश करिए

(यह अवसर खो देंगे ?)

आप जानते हैं कि कार्यक्रम रोचक बनाने के वास्ते

हम पूछ-पूछकर उसको रुला देंगे

इंतजार करते हैं आप भी उसके रो पड़ने का

करते हैं?

(यह प्रश्न पूछा नहीं जाएगा)

कठिन-शब्दार्थ : रोचक=दिलचस्प। इन्तजार=प्रतीक्षा।

भावार्थ – कवि के वर्णनानुसार दूरदर्शन कार्यक्रम का संचालक एक अपंग व्यक्ति का साक्षात्कार लेते समय उससे अटपटे प्रश्न करता है। वह उससे पूछता है कि आप सोचकर बताइये कि आपको अपाहिज होकर कैसा लगता है, अर्थात् अपाहिज होने से आपको कितना दुःख होता है। यदि वह अपंग नहीं बता पाता है तो संचालक उसे संकेत करके बताता है, बेहदे इशारे करते हुए कहता है कि क्या आपको इस तरह का दर्द होता है?

थोड़ा कोशिश कीजिए और अपनी पीड़ा से लोगों को परिचित कराइये। आपके सामने लोगों को अपनी पीड़ा बताने का यह अच्छा अवसर है, दूरदर्शन पर सारे लोग आपको देख रहे हैं। अपना दर्द नहीं बताने से आप यह मौका खो देंगे। आपको ऐसा मौका फिर नहीं मिल सकेगा।

कार्यक्रम का संचालक कहता है कि आपको पता है कि हमें अपने इस कार्यक्रम को रोचक बनाना है। इसके लिए यह जरूरी है कि अपाहिज व्यक्ति अपना दुःख-दर्द स्पष्टतया बता दे। इसलिए वे उससे इतने प्रश्न पूछेंगे कि पूछ-पूछकर रुला देंगे। उस समय दर्शक भी उस अपंग व्यक्ति के रोने का पूरा इन्तजार करते हैं; क्योंकि दर्शक भी दूरदर्शन पर अपंग व्यक्ति के दुःख-दर्द को उसके मुख से सुनना चाहते हैं। क्या वे भी रो देंगे, अर्थात् क्या उनकी प्रतिक्रिया मिल सकेगी ?

विशेष-

  1. कवि ने बताया है कि मानवीय संवेदना विक्रय की वस्तु नहीं है।
  2. ‘आपको अपाहिज’ में अनुप्रास अलंकार है।
  3. ‘पूछ-पूछकर’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
  4. ‘आपको… लगता है’ में प्रश्नालंकार है।

(3) फिर हम परदे पर दिखलाएँगे।

फिर हम परदे पर दिखलाएँगे।

फूली हुई आँख की एक बड़ी तसवीर

बहुत बड़ी तसवीर

और उसके होंठों पर एक कसमसाहट भी

(आशा है आप उसे उसकी अपंगता की पीड़ा मानेंगे)

एक और कोशिश

दर्शक

धीरज रखिए

हमें दोनों एक संग रुलाने हैं

आप और वह दोनों

(कैमरा

बस करो

नहीं हुआ

रहने दो

परदे पर वक्त की कीमत है)

अब मुसकुराएँगे हम

आप देख रहे थे सामाजिक उद्देश्य से युक्त कार्यक्रम

(बस थोड़ी ही कसर रह गई)

धन्यवाद।

कठिन-शब्दार्थ : कसमसाहट = छटपटाहट, बेचैनी। अपंगता -अपाहिजपन।

भावार्थ – दूरदर्शन कार्यक्रम संचालक का यह प्रयास रहता है कि उसके बेहूदे प्रश्नों से अपाहिज रोवे और वह उससे सम्बन्धित दृश्य का प्रसारण करे। इसलिए वह अपाहिज की सूजी हुई आँखें बहुत बड़ी करके दिखाता है। इस प्रकार वह उसके दुःख-दर्द को बहुत बड़ा करके दिखाना चाहता है। वह अपाहिज के होठों की बेचैनी एवं लाचारी भी दिखाता है। संचालक कार्यक्रम को रोचक बनाने के प्रयास में सोचता है कि अपाहिज की बेचैनी को देखकर दर्शकों को उसकी अनुभूति हो जायेगी ।

इसलिए वह कोशिश करता है कि अपाहिज के दुःख-दर्द को इस तरह दिखावे कि दर्शक केवल उस अपाहिज को देखें और धैर्यपूर्वक उसके दर्द को आत्मसात् कर सकें। परन्तु कार्यक्रम संचालक जब दर्शकों को रुलाने की चेष्टा में सफल नहीं होता है, तो तब वह कैमरामैन को कैमरा बन्द करने का आदेश देता है तथा कहता है कि अब बस करो, यदि अपाहिज का दर्द पूरी तरह प्रकट न हो सका, तो न सही। परदे का एक-एक क्षण कीमती होता है। समय और धन-व्यय का ध्यान रखना पड़ता है।

आशय यह है कि कार्यक्रम को दूर-दर्शन पर प्रसारित करने में काफी समय एवं धन का व्यय होता है। इसलिए अपाहिज के चेहरे से कैमरा हटवाकर संचालक दर्शकों को सम्बोधित कर कहता है कि अभी आपने सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु दिखाया गया कार्यक्रम प्रत्यक्ष देखा। इसका उद्देश्य अपाहिजों के दुःख-दर्द को पूरी तरह सम्प्रेषित करना था, परन्तु इसमें थोड़ी-सी कमी रह गई, अर्थात् अपाहिज के रोने का दृश्य नहीं आ सका तथा दर्शक भी नहीं रो पाये।

अगर दोनों एक साथ रो देते, तो कार्यक्रम सफल हो जाता। अन्त में कार्यक्रम संचालक दर्शकों को धन्यवाद देता है। यह धन्यवाद मानो उसके संवेदनाहीन व्यवहार पर व्यंग्य है।

विशेष –

  1. कवि ने दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम का व्यंग्यात्मक चित्रण किया है।
  2. मुक्त छंद का प्रयोग तथा वार्तालाप में नाटकीय शैली का प्रयोग किया है।

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