रामधारी सिंह दिनकर के काव्य की विशेषताएँ
रामधारी सिंह दिनकर के काव्य की विशेषताएँ(Ramdhari Singh Dinkar Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत रामधारी सिंह दिनकर के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।
रामधारी सिंह दिनकर के काव्य की विशेषताएँ
दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय चेतना
रामधारी सिंह दिनकर को राष्ट्रकवि कहा जाता है। रामसिंह दिनकर की कविताओं में राष्ट्रीय चेतना समग्र रूप से दिखाई देती है। उनकी कविताओं में भारतीय आदर्शों और मूल्यों की स्थापना होती है। उनकी कविताओं में राष्ट्रीय जागरण उजागर होता है। वह सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक पाखंड के विरुद्ध है। दिनकर की कविताओं में विद्रोह और विप्लव की गूँज भी है।
कुछ प्रसिद्ध पंक्तियाँ है –
“हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।”
सिमरिया (बिहार) के ‘दिनकर’ जो भारत के दिनकर बने, सचमुच में ‘चमन के ऐसे दीदावर’ थे, जिन्हें महादेवी वर्मा ने ‘अग्नि संभव कवि’, एक भारतीय आत्मा ‘माखनलाल चतुर्वेदी’ ने अपने ‘युग की ज्वालमाल’तथा द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने ‘अनल का कवि’ कहा है। उनकी कविताओं में योद्धा का जैसा गंभीर घोष है, अनल का जैसा तीव्र ताप है और सूर्य का जैसा प्रखर तेज है, वह अन्यत्र कहाँ ?
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ शौर्य, वीरत्व, अद्भुत उत्साह, पौरुष एवं क्रांति के कवि हैं। दिनकर के लेखन और सृजनात्मकता में संवेदनाओं और भावों का वैविध्य संसार उपस्थित है। वे अपने साहित्य में कहीं गांधीवाद का समर्थन करते दिखाई देते हैं, तो कहीं प्रकृति और नारी की आकांक्षा प्रकट करते हैं और कहीं वर्ग-संघर्ष और सर्वहारा के उदय की वकालत करते हैं।
इन्हीं तमाम अंतर्विरोधों के बीच यदि दिनकर-साहित्य में गहरे भावों और अहसासों से भरी हुई कोई एक तस्वीर बनायी जाये, तो वह निश्चित रूप से ‘राष्ट्रीयता’ की ही तस्वीर बनेगी, जिसमें दिनकर एक नया रंग, एक नया जोश, एक नयी जागृति इत्यादि भरते दिखाई देते हैं और एक महान् ‘राष्ट्रीय कवि’ के रूप में सर्वसमक्ष आते हैं।
दिनकर और राष्ट्रीयता – राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा है कि – राष्ट्रीयता मेरे व्यक्तित्व के भीतर से नहीं जन्मी; उसने बाहर से आकर मुझे आक्रांत किया। उस समय सारा देश उत्साह से उच्छल और दासता की पीड़ा से बेचैन था। अपने समय की धड़कन सुनने को जब भी मैं देश के हृदय से कान लगाता, मेरे कान में किसी बम की धड़ाके की आवाज उठती; फांसी पर झूलने वाले किसी नौजवान की निर्भीक पुकार आती…. मेरी वैयक्तिक अनुभूतियाँ धरी रह गईं और मेरा सारा अस्तित्व समाज और राष्ट्र अनुभूतियों के अधीन हो गया।”
साहित्य की दुनिया में साल 1934 ई. में ‘रेणुका’ काव्य संग्रह के माध्यम से यह प्रतिष्ठित नाम पहली बार गूँजा था और ऐसा गूँजा कि आज तक गूँजता ही रहा है तथा भविष्य में अनवरत गूँजता ही रहेगा। 30 सितम्बर, 1908 को मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव में जन्मे किशोर दिनकर ने मात्र 11 वर्ष की वय में वर्ष 1919 में ‘बारदोली- सन्देश’ नामक कविता रचकर अपनी साहित्यिक यात्रा का श्रीगणेश किया धा। दिनकर का साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण उस दौर में हुआ था, जब हमारा देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था और वह युग भारतीय परतंत्रता के विरुद्ध जनजागरण और राष्ट्रीय आन्दोलन का युग था।
राजगुरु धुरेन्द्र शास्त्री से इन्हें राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभाषा प्रेम, स्वदेशानुराग की विकणारी प्राप्त हुई थी और भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी एवं बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ सरीखे तत्कालीन कवियों से प्रेरणा प्राप्त कर दिनकर ने स्वतंत्रता- प्राप्ति के लिए जिस क्रांति और विद्रोह का सिंहनाद किया, जन-जागरण के लिए जो रणभेरी बजाई, जनता की राष्ट्रीय चेतना की नब्ज को जिस प्रकार टटोला, वह स्तुत्य है, जिससे सारा देश अंगड़ाई लेता हुआ जाग उठा।
डॉ. श्रीनिवास शर्मा के शब्दों में – सच्चे अर्थों में भारतीय युवा वर्ग के निराश हृदय में देशभक्ति की उमंग लहराने वाले एकमात्र कवि उन दिनों रामधारी सिंह दिनकर ही थे। अनुभूति की तीव्रता, भावों की गतिशीलता और क्रांति की पुकार दिनकर की कविता में निरंतर गूँजती रही।
‘राग और आग के कवि’ दिनकर की काव्यकृति ‘रेणुका’ में क्रांति का उद्घोष है, तो ‘हुंकार’ में वैतालिक का जागरण गान और विप्लव के गीतों का गान है। रसवंती, द्वंद्वगीत, सामधेनी, इतिहास के आँसू, धूप और धुआँ इत्यादि काव्य-संग्रहों की विभिन्न कविताएँ कवि के राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत ऐसी कविताएँ हैं; जिनमें विप्लव और विद्रोह की आग की लपटें मशाल बनकर जन-जागरण को दिव्य सन्देश देती हुई अवाम में प्राण फूँकने का कार्य करती हैं। कवि दिनकर ‘कुरुक्षेत्र’ में समाज एवं राष्ट्र से भी ऊपर उठकर ‘युद्ध एवं शांति’ की अंतरराष्ट्रीय समस्या और उसके समाधान में व्यग्र एवं चैचेन दिखाई पड़ते हैं।
दिनकर ‘रश्मिरथी ‘चैल कुसुम प्रभृति रचनाओं में ‘मानवतावाद’ का तो ‘उर्वशी’ में कामाध्यात्म जगत् का प्रत्याख्यान करते दिखाई देते हैं। दिल्ली, नीम के पत्ते, चक्रवाल, कविश्री, सीपी और शंख, नये सुभाषित, परशुराम की प्रतीक्षा इत्यादि रचनाओं में कवि का स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देशप्रेम कहीं आक्रोश में, कहीं तीव्र व्यंग्य के रूप में, कहीं आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक विषमताओं के विरुद्ध विद्रोह एवं क्रांति के रूप में प्रकट हुआ है। देखें –
सकल देश में हलाहल है, दिल्ली में हाला है।
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अँधियारा है।
मखमल के परदों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट-सा संसार।
रामवृक्ष बेनीपुरी ने अक्षरश: सत्य लिखा है कि- हमारे क्रांतियुग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में इस समय दिनकर कर रहा है। क्रांतिकारी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, दिनकर की कविता उसकी सच्ची तस्वीर है।” “हिमालय के प्रति’ (रेणुका) शीर्षक कविता ‘दिनकर’ की राष्ट्रीय चेतना का ‘प्रारंभिक उन्मेष’ एवं ‘प्रथम द्वार’ माना जाता है-
मेरे नगपति मेरे विशाल
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत सीमापति! तूने की पुकार!
‘हिमालय के प्रति’ से लेकर ‘हारे के हरिनाम’ (अंतिम रचना) तक के रचनात्मक यात्रा के पड़ाव में ‘राष्ट्रीयता’ ही दिनकर के काव्य का मूल स्वर है। उदय आक्रोश एवं क्रांति भरे राष्ट्रीय ओजस्वी गान ही दिनकर की कविताओं की पहचान हैं। सम्पूर्ण दिनकर काव्य में उनकी राष्ट्रीय-चेतना के विविध पहलू एवं विशिष्टताएं इस प्रकार दृष्टिगोचर होती है –
1. अतीत का गौरवगान –
दिनकर की ‘राष्ट्रीयता’ का एक प्रमुख पक्ष है- ‘अतीत का गौरवगान’। दिनकर के हृदय में अतीत का इतना प्रबल आग्रह है कि उन्होंने बार-बार और पग-पग पर पीछे मुड़कर राष्ट्रीयता का दिग्दर्शन किया है। इस संबंध में ‘रेणुका’ में उनका उद्देश्य इस प्रकार व्यक्त हुआ है –
“प्रिय दर्शन इतिहास कंठ में, आज ध्वनित हो काव्य बने,
वर्तमान की चित्रपटी पर, भूतकाल संभाव्य बने।”
हिमालय, खंडहर, गंगा, मगध, वैशाली, मिथिला इत्यादि से जुड़े भारतवर्ष के स्वर्णिम अतीत का गौरवगान कर दिनकर ने राष्ट्रीयता का अद्भुत परिचय दिया है; जिससे भारतीय विशेषत: बिहार- प्रदेश की संस्कृति, प्राकृतिक सौन्दर्य, ऐतिहासिक गरिमा, भौगोलिक इत्यादि महत्त्व जीवित हो उठे हैं।
राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत ‘पाटलिपुत्र गंगा’ शीर्षक कविता में कवि गंगा से प्रश्न करता है कि भारत चन्द्रगुप्त, समुद्रगुप्त और अशोक महान् जैसे प्रतापी महावीरों की धरा रही है। जिसके गौरव गीतों को तूने भी सुना है, क्या वे सारी बातें अब भी उसे स्मरण हैं –
आता है क्या याद मगध का, सुरसरि! वह अशोक सम्राट।
गंगे! गौतम के उपदेश, ध्वनित हो रहे इन लहरों में
देवि! अहिंसा के संदेश।
दिनकर ने ‘हिमालय’ को साकार, दिव्य, गौरव, पौरुष के पूंजीभूत ज्वाल जननी के हिमकिरीट और भारत के दिव्य भाल के रूप में देखते हुए यह बताया है कि हिमालय सदा से अजय, निर्बन्ध, युग-युग से गर्वोन्नत और महान् रहा है। ‘मिथिला’ के गौरवशाली अतीत का स्मरण करते हुए दिनकर जी कहते हैं कि कल की वैभवशालिनी मिथिला आज किस प्रकार भिखारिणी-वेश में पड़ी हुई है ?
कवि जानना चाहता है कि उसने अपनी सारी अनन्तनिधियाँ कहाँ खो दी हैं? जिस सीता ने संसार की रमणियों को आदर्श का दान दिया, वह अब कहाँ है ? भारत के पथ-प्रदर्शक गौतम बुद्ध कहाँ हैं; जिनके संदेशों ने तिब्बत, ईरान, चीन तक पहुँचकर भारत की ख्याति में चार चाँद लगाया था। कवि दिनकर को ‘वैशाली’ के उस लिच्छवी शासक की सख्त आवश्यकता महसूस होती है, जिसने गणतंत्र की पवित्र परंपरा को अक्षुण्ण और जाग्रत बनाये रखा था –
वैशाली के भग्नावशेष से पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
अरी ओ उदास गंडकी ! बता विद्यापति के गान कहाँ ?
वस्तुत:, दिनकर ने हिमालय, खंडहर, गंगा, वैशाली, बोधिसत्व, लिच्छवी शासक, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, गौतम बुद्ध, सीता इत्यादि के स्वर्णिम अतीत के पृष्ठों द्वारा एक ओर राष्ट्र के अतीतादर्श, ऐश्वर्य इत्यादि के विषय में चिंता प्रकट की है; तो दूसरी ओर जनमानस में नये प्राण फूँकने का संचार किया है। दिनकर की कविता में अतीत ‘मृत’ नहीं, बल्कि ‘उज्ज्वल भविष्य के संदेशवाहक’ के रूप में प्रकट हुआ है।
2. वर्तमान की पीड़ा, दु:ख-दैन्य एवं संघर्ष का चित्रण –
वर्तमान की जय, अभीत हो खुलकर मन की पीर बजे
एक राग मेरा भी रण में, बंदी की जंजीर बजे।
कवि दिनकर की आँखें परतंत्र भारत की दुर्दशा देखकर मर्माहत हो उठती हैं। कृषक वर्ग के शोषण, श्रमिक वर्ग के उत्पीड़न, सामाजिक असमानता, सर्वत्र दु:ख-दैन्य का साम्राज्य, विदेशियों द्वारा प्रजा के शोषण के भाँति-भाँति चित्र देखकर दिनकर की राष्ट्रीय चेतना इस प्रकार व्यक्त होती है –
उस पुण्यभूमि पर आज तपी, रे आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे, हँस रहे चतुर्दिक् विविध व्याल।
कवि दिनकर वर्तमान भारतीय जीवन में सर्वत्र खुशहाली का बसंत देखना चाहते हैं। इस क्रम में उसे मेवाड़ के वीर महाराणा प्रताप का स्मरण हो उठता है; जिन्होंने देश की रक्षा के निमित्त वन-वन की खाक छानी थी। कवि शिद्दत से महसूस करता है कि आज पुनः अतीतकालिक मेवाड़ के पौरुष की आवश्यकता है, ताकि वह तमाम प्रकार के जीवन-संघर्षों से लोहा ले सके।
कवि दिनकर ने स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत ‘दिल्ली’ शीर्षक कविता के माध्यम से वर्तमान-कालीन राष्ट्रीय समस्या को इस प्रकार वाणी दी है –
सकल देश में हलाहल है, दिल्ली में हाला है।
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अँधियारा है।
3. जनजागरण का उद्घोष –
‘जनजागरण का उद्घोष’ युगकवि दिनकर की राष्ट्रीय-चेतना का केन्द्रीय तत्त्व है। जागृति की हुंकार ही दिनकर का समूचा काव्य है। स्वतंत्रता चाहे व्यक्ति की हो, राष्ट्र की हो अथवा फिर सारी मानवता की, दिनकर की दृष्टि में वह सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। दिनकर-काव्य में जनजागरण का उद्घोष देखें –
अनाचार की तीव्र आँच में अपमानित अकुलाते हैं,
जागो बोधि सत्व ! भारत के हरिजन तुम्हें बुलाते हैं।
जागो विप्लव के वाक् ! दंभियों के इन अत्याचारों से,
जागो, हे जागो, तप निधान ! दलितों के हाहाकारों से।
वस्तुतः, उदग्र आक्रोश एवं क्रांति से भरे राष्ट्रीय ओजस्वी और जागृति गान दिनकर की कविताओं की पहचान है। द्वारिका प्रसाद सक्सेना के शब्दों में कहा जा सकता है कि- दिनकर की कविता जन-जीवन को शौर्य, पराक्रम एवं वीरता से परिपूर्ण करके कर्मण्यता की ओर उन्मुख करने वाली है, जो रंग-रग में तृप्त अनल धधकाकर मानवों को त्याग और बलिदान के पथ पर ले जाकर, हृदयों में जोश एवं उमंग के शोले जलाकर अन्याय और अनाचार के विरुद्ध विद्रोह एवं क्रांति की प्ररेणा देती है।”
4. प्रतिशोध एवं शक्ति के महत्त्व का प्रतिपादन –
राष्ट्रकवि दिनकर का काव्य प्रतिशोध एवं शक्ति का अद्भुत दस्तावेज है। दिनकर की दृष्टि में सौन्दर्य में शक्ति विद्यमान होती है। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि –
हे सौंदर्य शक्ति का अनुचर जो है बली वही है सुन्दर,
सुन्दरता निस्सार वस्तु है, हो न साथ में शक्ति अगर।’
दिनकर विवेक की अपेक्षा ‘बल’ को अधिक महत्त्व देते हैं। युद्ध एवं शांति के काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ में दिनकर प्रतिशोध एवं शक्ति के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं कि –
प्रतिशोध से हैं होती शौर्य की शिखाएँ दीप्त
प्रतिशोध-हीनता नरों में महापाप है।
5. क्रांति का आह्वान –
दिनकर अनल के कवि है, जिनका अधिकांश काव्य बलिदान और वीरता का राग है; अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध क्रांति और विद्रोह करनेवाला सिंहनाद है; अकर्मण्यता और आलस की रात्रि को नष्ट करके जन-जन में कर्मण्यता, शूरता एवं पराक्रमशीलता के प्रभात को लाने वाला दिवस मणि का दिव्यालोक है। दिनकर लोगों की सोयी चेतना को जगाते हुए क्रांति, लाल क्रांति, हिंसात्मक क्रांति तक का आह्वान करते हैं –
1. गिराओ बम, गोली दागो
गाँधी की रक्षा करने को गाँधी से आगे भागो।
2. उठा खड्ग, यह और किसी पर नहीं
स्वयं गाँधी, गंगा, गौतम पर ही संकट है।
6. हिंसात्मक मार्ग की स्वीकृति –
दिनकर की राष्ट्रीयता हिंसक क्रांति की समर्थक है। दिनकर न सिर्फ राष्ट्रीय चेतना के अंतर्गत अतीत का गौरव गान गाते हैं; न सिर्फ देश की वर्तमान दशा पर क्षोभ व्यक्त करते हैं; न सिर्फ जागरण का संदेश देते हैं, बल्कि क्रांति का आह्वान करते हुए हिंसात्मक मार्ग की स्वीकृति भी प्रदान करते हैं। दिनकर की राष्ट्रीयता का यह एक प्रमुख पहलू है, जिन्हें बतौर उदाहरण स्वरूप इस प्रकार देखा जा सकता है –
1. रे! रोक न युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने उनको स्वर्ग धीर
पर, फिर, हमें गांडीव-गदा लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
तड़प रही घायल स्वदेश की शान है, सीमा पर संकट में हिन्दुस्तान है।
तिलक चढ़ा मत और हृदय में हूक दो, दे सकते हो तो गोली-बंदूक दो।।
2. क्रान्तिधात्री कविते ! जागे उठ, आडम्बर में आग लगा दे….
जग में ऐसी आग सुलगा दे।”
7. शांति के विषय में दिनकर की धारणा –
दिनकर नाम के अनुरूप ही सूर्य की तपन और प्रकाश के अनन्य कवि हैं। दो महायुद्धों की भीषण विकरालता और भावी महायुद्ध की त्रासद आशंका से भयाक्रांत विश्व के बुद्धिजीवियों के समक्ष दिनकर ने ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘सामधेनी’ में राष्ट्रीय ही नहीं एक अंतरराष्ट्रीय समस्या-युद्ध एवं शांति की समस्या पर विचार किया है। दिनकर की स्पष्ट मान्यता है कि शांति ! शांति !!और शांति !!! सिर्फ चिल्लाने या राग अलापने से कतई नहीं मिल सकती है, क्योंकि –
जब शांतिवादियों ने कपोत छोड़े थे
किसने आशा से नहीं हाथ जोड़े थे ?
पर हाय धर्म यह भी धोखा है, छल है
उजले कबूतरों में भी छिपा अनल है।
कवि दिनकर भारतीय अवाम को ‘शांति’ की बजाय कठोर बनने का संदेश देते हुए कहते हैं कि –
एकही पंथ तुम भी आघात हनो रे।
मेषत्व छोड़ मेषों ! तुम व्याघ्र बनो रे।
कवि दिनकर की राष्ट्रीय चेतना में नवयुग की चेतना, व्यक्ति की महत्ता, लोकमंगल, लोककल्याण इत्यादि की भावनाएँ भी सन्निहित हैं।
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