धूमिल के काव्य की विशेषताएँ

धूमिल के काव्य की विशेषताएँ (Dhumil Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत धूमिल के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

धूमिल के काव्य की विशेषताएँ

धूमिल (1936-1975) साठोत्तरी हिंदी-कविता के एक अविस्मरणीय हस्ताक्षर हैं। धूमिल का पूरा नाम सुदामा पाण्डेय था और इनको धूमिल उपनाम से जाना जाता है। वह समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर हैं। नई कविता के समर्थ और सफल कवियों में धूमिल की शख्सियत महान् एवं उनका स्थान अप्रतिम है। धूमिल जनवादी चेतना के प्रगतिशील कवि हैं। धूमिल का सम्पूर्ण काव्य जनवादी चेतना का परिचायक और हिंदी-साहित्य की अमिट धरोहर है। साठोत्तरी जनवादी कविता के केन्द्रीय कवि के रूप में धूमिल का गौरवपूर्ण स्थान है।

रचनाएँ –

1. बाँसुरी जल गई (काव्य-संग्रह, 1961 ई.)

2. संसद से सड़क तक (1972)

3. कल सुनना मुझे (1976)

4. सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र

5. ‘कल सुनना मुझे’ इनकी साहित्य अकादमी से पुरस्कृत रचनाएँ हैं।

6. ‘चार घोंघे’ इनका व्यंग्यात्मक निबंध-संग्रह है।

‘पटकथा’ इनकी सर्वाधिक लंबी कविता है। ‘भाषा की रात’ इनकी एक अन्य दीर्घ कविता है। मोचीराम, जनतंत्र के सूर्योदय में, प्रजातंत्र के विरुद्ध, कविता श्री काकुलम, मकान, नक्सलबाड़ी, अकाल-दर्शन, किस्सा जनतंत्र, कवि 1970, आज मैं लड़ रहा हूँ इत्यादि धूमिल की बेहद चर्चित कविताएँ हैं।

धूमिल के काव्य की विशेषतायें (Dhumil Ke Kavya Ki Visheshtaen) इस प्रकार हैं –

1. जनवादी चेतना –

धूमिल (dhumil) जनवादी चेतना के अप्रतिम कवि हैं और उनका काव्य जनवादी चेतना का अद्भुत प्रतिबिंब है। जनतंत्र के सूर्योदय में, नक्सलवाड़ी, पटकथा, प्रजातंत्र के विरुद्ध, कविता श्री काकुलम इत्यादि कविताओं में धूमिल ने सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक विसंगतियों को उभारते हुए जनवादी शासन-पद्धति को लोक कल्याणकारी मानते हुए इसकी तरफदारी की है।

‘जनतंत्र के सूर्योदय में’ शीर्षक कविता में अनेक स्वर उभरते हैं। रक्तपात, नौकरशाही, भारतीय संविधान में कमी, मातृभाषा की दुर्दशा, मुर्दा इतिहास का रोमानीपन, अखबारों की साजिशों इत्यादि के साथ-साथ आम आदमी की पीड़ा, छटपटाहट, यातना इत्यादि को धूमिल जनतंत्र का उत्तरदायी ठहराते हैं।

‘नक्सलबाड़ी’ कविता में व्यवस्था के प्रति विद्रोह और विसंगतियों के प्रति आक्रोश है। ‘पटकथा’ में कवि धूमिल ने भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी एवं विद्रूपता की पटकथा लिखी है। ‘प्रजातंत्र के विरुद्ध’ शीर्षक कविता में प्रजातंत्र के विरुद्ध जबर्दस्त प्रहार है। ‘कविता श्रीकाकुलम’ शीर्षक कविता में प्रजातंत्र की बातें नहीं, सीधे-सीधे रक्त-क्रांति की बातें. हैं। धूमिल की जनवादी चेतना को निम्न उदाहरणों में देखा जा सकता है –

1. यहाँ ऐसा जनतंत्र है जिसमें / जिन्दा रहने के लिए
घोड़े और घास को / एक जैसी छूट है
कैसी बिडंबना है / कैसा झूठ है
दरअसल अपने यहाँ जनतंत्र / एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान मदारी की भाषा है।

2. क्या आजादी तीन सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई खास मतलब होता है।

2. व्यंग्य –

कवि धूमिल की कविताओं में व्यंग्य का स्वर अत्यंत मुखर व्यंग्य-धूमिल और जबर्दस्त है। धूमिल का व्यंग्य देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर ‘संसद से सड़क तक’ तथा ‘सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र’ इत्यादि काव्य- संग्रहों में चित्रित हुआ है। धूमिल की समकालीन राजनीतिक चेतना में व्यंग्य -भाव अत्यन्त प्रबल है। यथा –

1. संसद तेल की वह घानी है, जिसमें आधा तेल
और आधा पानी है।

2. जनतंत्र एक ऐसा तमाशा है।
जिसकी जान मदारी की भाषा है।

3. राजनीतिज्ञों की आत्माएँ बिड़ियों की तरह मरी पड़ी हैं।

4. कचहरी एक ऐसी उपजाऊ जमीन है।
जहाँ लाकर एक काठ डाल दो और कुछ समय बाद
उसमें अंखुए फूट निकलेंगे।

विश्वम्भर मानव ने लिखा है कि- “धूमिल ऐसे रचनाकार हैं, जो दिनकर की तरह यह आह्वान नहीं करते हैं कि सिंहासन खाली करो, जनता आती है; बल्कि जनता की ओर से चुने गये सांसदों से निर्मित संसद को अपने नुकीले हथियार से आहत करते हैं। प्रजातंत्र पर धारदार कविताएँ लिखने की अगुवाई भूमिल ने की।” इंद्रनाथ मदान ‘अँधेरे में’ (मुक्तिबोध) और ‘पटकथा’ (धूमिल) में व्यंग्य के विषय में लिखते है कि – “अँधेरे में कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई की बात है और पटकथा में चुनाव और मतदान की। पहले में परिवेश आजादी के बाद का है और दूसरी में आम चुनाव के बाद का। पहली में व्यंग्य का स्वरूप त्रासदीय है और दूसरी में कामदीय और आयरनीगत।” धूमिल का मार्क्सवादी आक्रोश का स्वर व्यंग्य के तीव्रतम रूप में प्रकट हुआ है।

3. आम आदमी की व्यथा –

सुदामा पाण्डेय धूमिल आम आदमी की व्यथा के कवि हैं। उन्होंने हिंदी-कविता में पहली बार आम आदमी की पीड़ा, अभावों, दुःख-दर्द, मकान की समस्या, आर्थिक विसंगतियों इत्यादि के साथ-साथ उसकी तनहाई, परेशानी, बेकारी, झेंप, बेहयाई, पेचीदगी इत्यादि नाना प्रकार के अनछुए पहलुओं को वाणी दी है। धूमिल की ‘मोचीराम’ कविता में मोचीराम श्रमनिष्ठ, वर्गहीन साम्यवादी चेतना के प्रतीक के रूप में चित्रित हुआ है। इस कविता में वर्ग-भेद के विरुद्ध समतावादी दृष्टिकोण रूपायित हुआ है। देखें –

1. बाबूजी सच कहूँ, मेरी निगाह में
न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है।

2. फिर भी मुझे ख्याल रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे हुए जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं।

3. मेरे गाँव में / वही आलस्य, वही ऊब
वही कलह, वही तटस्थता
हर जगह और हर रोज
और मैं कुछ नहीं कर सकता।

‘मोचीराम’ कविता की कड़ी में ‘मकान’ शीर्षक कविता धूमिल की एक प्रमुख काव्यात्मक उपलब्धि है; जिसमें उन्होंने आम आदमी की गरीबी, घुटन, विवशता, पीड़ा के साथ-साथ उसके टूटते हुए स्वप्न और उसे तार- तार होते हुए दिखाया है। धूमिल ने कई कविताओं में अकाल, अन्न के अभाव, रोटी की समस्या इत्यादि (जो आम आदमी की बुनियादी समस्या है) को उघाड़ा है। रामकृपाल पाण्डेय ने धूमिल के काव्य को स्वाधीन भारत की हिंदी कविता की नक्सलबाड़ी कहा है।

4. अन्य विशेषताएँ –

धूमिल के काव्य में जनवादी चेतना, आम- आदमी की व्यथा-कथा, व्यंग्यात्मकता के साथ-साथ सामाजिक चेतना, जिजीविषा का भाव, ग्रामीण बोध, मानवीय आस्था एवं भावुकता, अन्याय- अत्याचार के विरोध इत्यादि का स्वर भी प्रकट हुआ है। उदाहरणार्थ-

1. भूख ने उन्हें जानवर बना दिया है।
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है।
फिर भी वह अपने हैं / अपने हैं, अपने हैं
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं।

2. तनों / अकड़ो / अमरबेलि की तरह मत जियो
जड़ पकड़ो / बदलो अपने-आपको बदलो।

धूमिल की एक अन्यतम विशिष्टता है- कविता का समकालीन संदर्भों में पुनः परिभाषित करना। इस दृष्टि से धूमिल की निम्नांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य है –

1. कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है।
2. कविता घेराव में किसी बौखलाये हुए आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।
3. कविता में शब्दों के जरिये एक कवि अपने वर्ग के आदमी को साहसिकता से भरता है।
4. एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है।
5. मेरी कविता इस तरह अकेले को सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता।
6. हर लड़की गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है और कविता हर तीसरे पाठ के बाद।
7. कविता शब्दों की अदालत में कटघरे में खड़े निर्दोष आदमी का हलफनामा है।

5. शिल्प वैशिष्ट्य –

धूमिल की कविता की शक्ति उनके शिल्प- वैशिष्ट्य में निहित है। धूमिल ने पुरानी और पेशेवर भाषा को व्यर्थ बताया है। उनकी भाषा अनुभव की आँच से तपकर निकली भाषा है; उनकी भाषा की चालू भाषा है, जिसमें साफगोई सपाटवयानी और व्यंग्य की तीव्र धार है, तो शैली, प्रखर शैली; जिसका प्रभाव अत्यन्त पैना व्यापक एवं तीव्र होता है। एक उदाहरण देखें –

करछुल / बटलोही से बतियाती है और चिमटा /
तवे से मचलता है / चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है ओर जलता रहता है। – किस्सा जनतंत्र

धूमिल ने अपनी भाषा को खरापन प्रदान किया है; जिससे काव्य में एक नये ढंग का श्रीगणेश हुआ। धूमिल के काव्य में मुहावरों का नवीन रूप दर्शनीय है; तभी नामवार सिंह का मत है कि धूमिल के मुहावरों पर शोध की आवश्यकता है। महुए के फूल पर मूतना, भाषा को हींकना, घास की सट्टी में छोड़ना, फटे हुए दूध-सा सेना इत्यादि अनेक नवीन मुहावरों को धूमिल ने गढ़ा है। तमाम उमर गुजर जाती है मगर गाँड़ /सिर्फ बायाँ हाथ धोता है। जैसे भोजपुरी गालियों को मुहावरों में प्रस्तुत करना धूमिल की निजी विशेषता है।

काशीनाथ सिंह का मत है कि – “शब्दों के प्रयोग, सटीक मुहावरे, सही और अनिवार्य तुक, सार्थक वाक्य-विन्यास पर इतनी मेहनत करने वाला धूमिल जैसा आदमी मैंने नहीं देखा।” परमानंद श्रीवास्तव भी कहते हैं कि – ‘धूमिल के बाद कोई दूसरा कवि उस अर्थ में अपना स्वतंत्र काव्य-मुहावरा विकसित करने में सफल नहीं हो सका है, जिस अर्थ में धूमिल उग्रता, असहमति, आक्रोश या विद्रोह को अपना स्वाभाविक अनिवार्य मुहावरे बनाने वाले प्रतिपक्षधर्मी अथवा प्रतिबद्ध युवा कविता के लगभग प्रतीक या प्रतिनिधि हो चले थे।”

विश्वम्भर मानव ने उचित ही लिखा है कि “1970 के बाद हिंदी कविता के क्षेत्र में अपनी तल्ख आवाज एवं नये मुहावरों के साथ जो कवि धूमिल की तरह उभरा उसका नाम धूमिल है।”

धूमिल का शब्द-चयन अनूठा है। धूमिल ने लिखा है कि “छायावाद के कवि शब्दों को तोलकर रखते हैं; प्रयोगवाद के कवि शब्दों को टटोलकर रखते हैं; नयी कविता के कवि शब्दों को गोलकर रखते हैं; सन् साठ के बाद के नये कवि शब्दों को खोलकर रखते हैं। धूमिल की कविता के शब्द-चयन का कैनवास अत्यधिक विस्तृत है। उनका शब्द-चयन आमजीवन, राजनीति, लोकजीवन इत्यादि से सम्बद्ध रखता है। धूमिल में लोकभाषा के तिरस्कृत उपेक्षित शब्दों की क्षमता की पहचान है।

विश्वम्भर मानव ने लिखा है कि – “शब्दों का चयन करते समय धूमिल श्लील और अश्लील का ध्यान नहीं रखते। उनकी भाषा ऐसी गंवार औरत की भाषा है, जो गुस्से में आकर मुहावरेदार गालियाँ बकने लगती है। जिस तरह मुक्तिबोध फैंटेसी का प्रयोग करने में सिद्धहस्त हैं; उसी तरह धूमिल भाषा के भदेसपन में भी गंभीर सत्य को प्रत्यक्ष कर देने की कला में सिद्धहस्त हैं। धूमिल की कविताओं में शब्दों का कोशीय अर्थ उतना महत्त्व नहीं रखता है, जितना सामाजिक अर्थ महत्त्वपूर्ण है।

हिंदी-कविता के इतिहास में बिंब के लिए अज्ञेय और शमशेर, नाटकीयता के लिए धर्मवीर अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं; तो धूमिल आम आदमी और आम आदमी की भाषा के लिए अपनी अस्मिता रखते हैं। धूमिल की मारक भाषा में बिंबों का प्रयोग प्रभावोत्पादक ढंग से हुआ है। उदाहरणार्थ –

1. हाँ हाँ मैं कवि हूँ / कवि याने भाषा में भदेस हूँ
इस कदर कायर हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँ। – पतझड़

2. तुम्हारी मातृभाषा / उस महरी की तरह है जो /
महाजन के साथ रात भर / सोने के लिए /
एक साड़ी पर राजी है। – जनतंत्र के सूर्योदय में

चंद्रकांत वांदिवड़ेकर का मत है कि – “अगर बिंब को ही काव्य का यथार्थ समझा जाये, तो धूमिल की कविता में प्रयुक्त बिंबों के आधार पर उन्हें महाकवि भी कहा जा सकता है।”

इस प्रकार जनवादी चेतना, आम आदमी, आम आदमी की पीड़ा-संघर्ष, समाज और युग की सारी विसंगतियाँ, तीखा व्यंग्य, सड़ी-गली लोकतंत्र और भ्रष्ट राजनीति का प्रबल विरोध, नाटकीय कौशल, भाषा का नयापन, नये मुहावरों का गठन, अद्भुत शब्द चयन और प्रखर शैली इत्यादि के कारण धूमिल साठोत्तरी हिंदी-कविता के इतिहास में अपनी विशिष्ट पहचान जहाँ बनाते हैं; वहीं साठोत्तरी हिंदी-कविता में अत्यन्त गौरवपूर्ण एवं मूर्द्धन्य स्थान रखते हैं।

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