बिहारी के काव्य की विशेषताएँ
बिहारी के काव्य की विशेषताएँ(Bihari ke Kavya ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत बिहारी के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।
बिहारी के काव्य की विशेषताएँ
बिहारी सौंदर्य और शृंगार के चितेरे कवि थे। उनकी ख्याति का मूल आधार उनका एक मात्र ग्रंथ ‘बिहारी सतसई’ है। बकौल हजारी प्रसाद द्विवेदी -“बिहारी-सतसई संसार-साहित्य का भूषण है। यह रसिकजनों का कंठहार है।” इसकी प्रसिद्धि इसी से जानी जा सकती है कि हिन्दी में तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ को छोड़कर किसी अन्य ग्रंथ में उतनी टीकाएँ नहीं लिखी गईं, जितनी बिहारी सतसई पर।
अंग्रेजी विश्वकोश (इन साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका) में लिखा है – सतसई काव्यकला की सर्वाधिक प्रतिष्ठित कृति है (The Satsai is perhaps the most celebrated works of poetic art)।
डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार – यूरोप में बिहारी सतसई के समक्ष कोई काव्य नहीं मिलता है। (I know nothing like this verse in any, uropean Languages)
हिन्दी में महारथी आलोचक शुक्ल जी ने भी बिहारी-सतसई की विशिष्टता प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि- “श्रृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान बिहारी सतसई का हुआ, उतना अन्य किसी का नहीं। इनका एक-एक दोहा हिंदी-साहित्य का एक-एक रत्न माना जाता है।”
बिहारी काव्य की विशेषताओं को इस प्रकार देखा जा सकता है –
(1) संयोग-श्रृंगार वर्णन –
शृंगार रस को अमरता का घूँट पिलाने वाले कवि बिहारी ने अपनी कविताओं में श्रृंगार की जो रसधार बहाई है, वह अपूर्व है। बिहारी का संयोग-शृंगार जीवन का एक सुखात्मक अध्याय है, जिसमें नायक-नायिका मिलन, परस्पर केलि-क्रीड़ाएँ, मान-मनुहार, र-दुलार, स्पर्श- र्श-सुख, आलिंगन, चुम्बन, रति, विपरीत रति इत्यादि सब कुछ होता है।
रूप, स्वभाव, मनोविज्ञान, भंगिमा-सबका वर्णन बिहारी ने सतसई में इतना चित्रवत्, यथार्थ और मनोवैज्ञानिक धरातल पर किया है कि उनकी कला की बारीकी और सूझबूझ पर मुग्ध रह जाना पड़ता है। उनके शृंगारिक दोहों में कितनी मादकता, चुटीलापन, व्यंग्य और तीव्र-रसानुभूति है। यथा –
1. कुचगिरी चढ़ि अति थकित हवै चली दीढि मुँह-चाड़।
फिरी न टरि, परिहै रहि, परी चिबुक की गाड़।।
2. उड़ति गुड़ि लखि लाल की अंगना-अंगना माँह।
बौरि लौं दौरि फिरति छुवति छबीली छाँह।।
(2) वियोग-श्रृंगार वर्णन –
बिहारी ने संयोग और वियोग श्रृंगार का चित्रण किया है; किन्तु उन्हें विशेष सफलता संयोग श्रृंगार में मिली है। इसका कारण यह है कि बिहारी ने वियोग वर्णन में काव्यशास्त्रीय परंपराओं का अंधानुकरण किया है और उन्हें अपनी मौलिक उद्भावनाओं के प्रकटीकरण की गुंजाइश नहीं मिल सकी है। इसलिए संयोग श्रृंगार की तुलना में उनका वियोग श्रृंगार कुछ फीका, कृत्रिम एवं ऊहात्मक हो गया है। कितना हास्यास्पद लगता है जब बिहारी की विरह-व्याकुल नायिका वायु के झोंको पर झूले की तरह झूलती है। शुक्ल जी के शब्दों में- “नायिका क्या हुई, घड़ी की पेंडुलम हो गई।”
इत आवति चलि जाति उत चली, छ सातक हाथ।
चढ़ी हिंडौरें सैं रहै लगी हाथ।
बिहारी की नायिका विरह में इतनी दुबली हो जाती है कि मृत्यु उसे चाहती है; परन्तु अपनी आँखों पर चश्मा लगाने पर भी उसको ढूँढ़ नहीं पाती है। विरह की गर्मी इतनी तीखी है कि विरहिणी के ऊपर गुलाबजल से भरी शीशी उलट दी जाती है, पर सारा गुलाबजल बीच में ही सूख जाता है, उसका एक भी छींटा नायिका के शरीर पर भी नहीं पड़ता है –
औंघाई शीशी सुलखि, विरह बरनि बिललाल।
बींचहि सूखि गुलाब गौ छींटी हुई न गात।।
बिहारी वियोगिनी नायिका के तपन का वर्णन करते एक स्थान पर यह कहते हैं कि “छाती सौं छुवाई दिया बाती क्यों न बारि लैं।” इस प्रकार विरह-ताप से दुःखी नायिका-नायिका न रहकर दियासलाई ही बन जाती है।
(3) भक्ति –
बिहारी की विशिष्टता श्रृंगारेतर -वर्णन में भी देखी जा सकता है। बिहारी की भक्ति-भावना के कैनवस में राधा-कृष्ण के प्रति भक्ति मिलती है। सतसई का प्रारम्भिक दोहा मंगलाचरण मूलक भक्ति से संवलित है –
मेरी भवबाधा हरौ, राधा नागरी सोय।
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय।।
कला को जीवन की स्फूर्ति माननेवाले बिहारी राधाकृष्ण के रूप में अनुराग करना ही तीर्थ, व्रत और जीवन की साधना मानते हैं। ब्रजभूमि राधाकृष्ण की लीलाभूमि होने के नाते तीर्थराज प्रयाग से कम गरिमायुक्त नहीं है। बिहारी कहते हैं कि –
तजि तीरथ हरि राधिका तन दुति करि अनुराग ।
जिहिं ब्रज केलि निकुंज मग, पग-पग होत प्रयाग।।
(4) नीति –
बिहारी ने नीति के दोहे वास्तविक जीवन में पैठकर रचे हैं। एक ओर उन्होंने सज्जनों में वह विशिष्टता पाई थी, जो कभी नहीं घटती –
चटक न छाँड़त घटत हूँ, सज्जन नेह गंभीर।
फीको परै न बरु, फटै रंग्यो चोल रंग चीर।।
ऐसे सज्जन ज्यों-ज्यों उन्नति करते जाते हैं, त्यों-त्यों विनम्र होते जाते हैं –
नल की अरू नलनीर की गति एकै करि जाय।
जेती नीचे हवै चले तेतौ ऊँची होय।।
दूसरी ओर उन्होंने ससुराल में रहकर देखा था कि अधिक दिनों तक पहुनई करने से मान-प्रतिष्ठा दिनोंदिन घटती जाती है और घटते-घटते प्रतिष्ठा पूस के दिनों की तरह हो जाती है। कवि ने धन के नशे में चूर उन व्यक्तियों को भी देखा था और पाया था कि धन का नशा धतूरे के नशे से अधिक होता है।
(5) अन्योक्ति –
बिहारी की निम्नांकित अन्योक्तियाँ – जिनमें भी नीति संबंधी बातें हैं, अत्युत्कृष्ट हैं –
1. नहिं पराग, नहिं कुसुम, नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सों बंध्यो आगे कौन हवाल।।
2. स्वारध सुकृत श्रम न बृधा, देखु विहंग विचारि।
बाज पराये पानी परि तू पंछीनु न मारि।।
(6) ऋतु वर्णन –
काव्य-परम्परा के अनुसार बिहारी ने ऋतुओं का वर्णन किया है; किन्तु उनका प्रकृति वर्णन शुद्ध प्रकृति-वर्णन नहीं है, वह आलंकारिकता से बोझिल है। ‘छकि रसाल सौरभ सेन…. भर-भर अंध’- इस दोहे में जहाँ बिहारी ने बसंत ऋतु का मादक वर्णन किया है; मधु वहीं ग्रीष्मकालीन प्रचंड ऋतु का वर्णन (बैठ रहि अति सघनवन…… छाहीं चाहति छाँह) करते हुए जब वह कहते हैं कि जेठ की दुपहरी इतनी प्रचंड गर्मी से पूर्ण होती है कि छाँह को भी छाँह की आवश्यकता होती है, तो ऐसा लगता है कि उनकी अभिव्यक्ति ने शीर्ष बिन्दु को छू लिया है। अन्यत्र ग्रीष्म ऋतु के प्रभाव का वर्णन वह इस प्रकार करते हैं –
कहलाने एकत बसत, अहि मयूर, मृग, बाघ।
जगत तपोवन सो कियो, दीरघ दाघ निदाघ।।
(7) रूप (नख-शिख ) वर्णन –
बिहारी का रूप और नख – शिख वर्णन अत्यन्त उच्च कोटि का है, यही उनके काव्य का मुख्य विषय भी है। यह शास्त्रीय अवश्य है, पर इसमें बिहारी की निरीक्षण शक्ति और सूक्ष्म- सृष्टि बेजोड़ है। यथा—
1. कहत सबै बेंदी दियै आँक दसगुनों होतु।
तिय लिलार बेंदी दियै, अगिनितु बढ़त उदांतु।।
2. पग-पग मग अमगन परति, चरन अरून दुति झूलि।
ठौर-ठौर लखियत उठे, दुपहरिया सी फूलि।।
(8) नायिका-भेद –
बिहारी ने शास्त्रीय विधि से कई प्रकार की नायिकाओं—स्वकीया, परकीया, सामान्या, मुग्धा, प्रौढ़ा, प्रोषितपतिका, अज्ञात यौवना इत्यादि का वर्णन किया है। स्वकीया का उदाहरण देखें –
स्वेद सलिल, रोमांच कुस, गहि दुलही अरू नाथ।
हियो दियो संग हाथ के, हथलेवा ही हाथ।।
(9) प्रेमनिरूपण –
बिहारी ने ‘प्रेम को चौगान’ का खेल कहा है और इसमें उनका मन काफी रमा है। प्रेम क्रीड़ाओं में चोरमिहीचनी (आँख मिचौली), जलविहार, बहाने का शयन, झूले की क्रीड़ा, फाग के खेल इत्यादि का वर्णन कर बिहारी ने अपनी अद्भुत प्रेम-वृत्ति की परख का परिचय दिया है। यथा-
प्रीतम दृग मींचत तिया पानि परस सुख पाय।
जानि पिछानि अजान लौं नैक न होति लखाय।।
(10) दार्शनिकता –
दार्शनिकता से संबंधित दोहे बिहारी ने कम ही लिखे हैं; किन्तु जितना भी लिखा है, उनमें सरलतम दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति हुई है। यथा –
1. यह जग काँचो काँच सों, मैं समुझयो निरधार।
प्रतिबिंबित लखियत जहाँ एकै रूप अपार।।
2. बुद्धि अनुमान, प्रमाण, स्रुति, किये निठि ठहराया।
सूक्ष्म गति अति ब्रह्म की, अलख लखी नहीं जाय ।।
(11) भाषा –
बिहारी की भाषा ‘ब्रजभाषा’ है, जो सरस, मधुर, प्रांजल, ललित, मंडल और चित्रशेष है। बिहारी की भाषा पर बुंदेलखंडी, संस्कृत, अरबी, फारसी इत्यादि का प्रभूत प्रभाव है। भाषा कसाव (Com pactness), सुष्टुपदावली (Diction), सांकेतिक शब्दावली और नपे- तुले शब्दों से युक्त बिहारी की भाषा अद्भुत है। कहीं-कहीं भाषा में लिंग- विपर्यय (पुल्लिंग का स्त्रीलिंग और स्त्रीलिंग का पुल्लिंग प्रयोग) दोष भी है। बावजूद इसके बिहारी की भाषा अल्पाक्षरा होते हुए भी बृहत् अर्थ को संभाले हुए है। शब्द और वर्ण इनके दोहों में नगों के समान जड़े हुए हैं, जो रत्नों के समान चमकते हैं। एक रमणी के पगतल का वर्णन (सौंदर्य) करते हुए उन्होंने लिखा है कि –
पग-पग मग अगमन परित, चरन अरुन दुति झूलि।
ठौर-ठौर लखियत उठे, दुपहरिया सी फूलि।।
बिहारी की रचना में ब्रजभाषा इठलाती और अठखेलियाँ करती हुई चलती है। कहीं-कहीं उसकी मस्त गति में संगीत की झमक एक विलक्षण मिठास प्रदान करती है। यथा –
अंग-अंग नग जगमगति, दीप सिखा सी देह।
दिया बुझाये छू रहे, बड़ो उजेरो गेह।।
(12) शैली –
बिहारी की शैली ‘समासोक्ति’ है। गागर में सागर भरना इस शैली की मुख्य विशेषता है। बिहारी का दो पंक्तियों का छोटा- सा दोहा हमारे अंतस को स्पर्श करता है और आँखों के सामने एक सौंदर्यपूर्ण, प्रेमक्रीड़ा से भरा संसार प्रत्यक्ष कर देता है। यथा –
लरिका लैबु कै मिसनु, लंगरू मो ठिग जाई।
गयौ अचानक आंगुरी, छतिया छैलु छुवाइ।।
(13) काव्यरूप –
काव्यरूप की दृष्टि से बिहारी का काव्य ‘मुक्तक काव्य’ की श्रेणी में आता है। बिहारी सर्वश्रेष्ठ मुक्तककार हैं। कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति की दृष्टि से उनका काव्य चरमोत्कर्ष पर पहुँचा हुआ है। गाथा सप्तशती, आर्यासप्तशती एवं अमरुकशतक इत्यादि मुक्तक ग्रंथों से प्रेरणा लेकर बिहारी ने एक विविध रत्नमाला तैयार की है; जिसकी आभा के सामने कोई मुक्तक काव्य ठहर नहीं पाता है। बिहारी के दोहों के विषय में यह कथन प्रसिद्ध है-
सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटन लगै, घाव करैं गंभीर।।
(14) अलंकार –
भाषा की अलंकारिक छटा बिहारी में दर्शनीय है। अनुप्रास, चमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, असंगति, विरोधाभास, अन्योक्ति, तद्गुण इत्यादि अलंकारों के प्रयोग से उन्होंने अपने भावों को जो उत्कर्षता प्रदान की है, वह अन्यत्र कम देखने को मिलती है। उदाहरणार्थ –
1. चिरजीवी जोरी जुरै क्यों न सनेह गंभीर…. हलधर के बीर। (श्लेष)
2. अधर-धरत हरि के परत होठ डीठि पट जोति… इंद्रधनुष रंग होति। (अनुप्रास)
(15) छंद –
बिहारी ने सतसई में ‘दोहा’ छंद अपनाया है। बिहारी दोहे जैसे छोटे छंद में पर्याप्त रस भर सके हैं। उनके दोहे क्या हैं? रस की छोटी-छोटी पिचकारियाँ हैं, जो मुँह से छूटते ही श्रोता को रस से सराबोर कर देते हैं। यथा –
बिनती रति विपरीत रति की, करी परसि पिय पाइ ।
हँसी अनबोले ही दियौ ऊतरु दियो बताई।।
(16) रस –
रस की दृष्टि से बिहारी ने ‘श्रृंगार रस’ को विशेष महत्त्व दिया है। रस-परिपाक की दृष्टि से उनका प्रत्येक दोहा बेजोड़ है। भाव, अनुभाव, विभाव, संचारीभाव इत्यादि से उनकी सतसई श्रृंगार रस की मंजूषा बन गई है। भक्ति और विनय के दोहों में शांत रस का परिपाक हुआ है। कुछ दोहे ‘वीर’ और ‘अद्भुत रस’ के भी मिलते हैं।
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