मीराँबाई की पदावली – परशुराम चतुर्वेदी | (पद 1-20) Meera Padavali
मीराँबाई की पदावली परशुराम चतुर्वेदी सप्रसंग व्याख्या सहित : मीराबाई की पदावली का संकलन आचार्य परशुराम चतुर्वेदी(Meera ki padawali : Parsuram Chaturwedi) के द्वारा किया गया। इस आर्टिकल में इसके पद 1-20 तक व्याख्या सहित दिए गए है।
मीराँबाई की पदावली – परशुराम चतुर्वेदी | (पद 1-20)
भक्त शिरोमणि मीरांबाई: सामान्य परिचय
मीराबाई का जन्म मारवाड़ परगने के कुड़की नामक गाँव में संवत् 1555 में हुआ था। यह गाँव वर्तमान में पाली जिले में आता है। हालांकि विद्वान इस विषय पर एकमत नहीं हैं। कोई उनका जन्म चौकड़ी में, कोई बाजौली में तो कोई मेड़ता में मानता है। मीरा जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के पुत्र राव दूदा की पौत्री थी। उनके पिता का नाम रतनसिंह था तथा माता का नाम वीर कँवरी था। अपने पिता की इकलौती संतान मीरा के बचपन का नाम पेमल था। उनका लालन-पालन उनके दादा राव दूदा ने किया जो वैष्णव भक्त थे। अतः मीरा का बचपन कृष्ण भक्ति की छाया में व्यतीत हुआ।
इनका विवाह मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर भोजराज से हुआ था। दुर्भाग्यवश युवावस्था में ही भोजराज की मृत्यु हो गई। फलतः मीरा को जीवन में संसारिकता से विरक्ति हो गई। उन्होंने कुल की मर्यादा व रूढ़ियों का त्याग कर अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में समर्पित कर दिया। मीरा के इस व्यवहार से राजमाता कर्मवती व राणा विक्रम ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। कहा जाता है कि परिवारजनों द्वारा सताए जाने एवं भक्ति में बाधा उपस्थित किए जाने पर उन्होंने समकालीन कवि तुलसीदास से मार्गदर्शन माँगा। तब तुलसी ने इस पद के माध्यम से उन्हें मार्गदर्शन प्रदान किया, बतलाया जाता है
‘’जाके प्रिय न राम बैदेही।
तजिए ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही॥‘’
मीरा की उपासना ‘माधुर्य भाव’ की थी। उन्होंने अपने इष्ट श्री कृष्ण को प्रियतम या पति रूप में माना। मीरा पीड़ा व वेदना की कवयित्री हैं। सत्संग के द्वारा भक्ति और भक्ति से ज्ञान द्वारा मुक्ति की कामना उनकी रचनाओं में झलकती है। मीरा के दाम्पत्य भाव में अनन्यता है। उन्होंने लिखा है – ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।’ उनकी रचनाओं में विरह वेदना, आत्मनिवेदन तथा आत्मसर्मपण सर्वत्र झलकता है। मीरा की रचनायें लिखित रूप में प्राप्त नहीं हुई हैं। ऐसा माना जाता है कि उनके पदों को लिपिबद्ध करने का कार्य उनकी सुखी ललिता ने किया था।
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आज उनकी रचनाओं का संकलन मीरा पदावली के नाम से मिलता है। मीरा के कुछ पद गुरू ग्रंथ साहब में भी मिलते हैं। मीरा की मुख्य भाषा राजस्थानी है जिसमें ब्रज, गुजराती, खड़ी बोली, अवधी आदि अनेक भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। परिवार द्वारा प्रताड़ित मीरा मेवाड़ छोड़कर वृंदावन आई लेकिन यहाँ भी उनकी कठिनाईयाँ कम नहीं हुई। ऐसी किवदन्ती है कि मीरा द्वारकाजी गई जहाँ सम्वत् 1603 में वे कृष्ण की मूर्ति में समा गई। कवि सुमित्रानंदन पंत ने मीरा बाई को ‘भक्ति के तपोवन की शकुन्तला’ तथा राजस्थान के मरुस्थल की मंदाकिनी कहा है। भक्तमाल के रचयिता कवि नाभादास ने निम्न पंक्तियों द्वारा मीरा के जीवन पर प्रकाश डाला है –
‘’सदृश्य गोपिका प्रेम प्रगट कलि जुगत दिखायो।
निर अंकुश अति निडर रसिक जन रसना गायो।।
दुष्ट ने दोष विचार मृत्यु को उद्धिम कियो।
बार न बांकों भयो गरल अमृत ज्यों पीयो।
भक्ति निशान बजाय कैं काहुन तें नाहिन लजी।
लोक लाज कुल श्रृंखला तजि मीरा गिरधर भजी।‘’
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मीराँबाई की पदावली – सम्पादक आचार्य परशुराम चतुर्वेदी
स्तुति वंदना
नोट : इस पद में राग तिलंग है ।
मन थें परस हरि रे चरण।।
मन थें परस हरि रे चरण।। टेक॥
सुभग सीतल कँवल कोमल, जगत ज्वाला हरण।
जिण चरण प्रहलाद परस्याँ, इन्द्र पदवी धरण।
जिण चरण ध्रुव अटल करस्याँ, सरण असरण सरण।
जिण चरण ब्रह्माण्ड भेट्याँ, नखसिखाँ सिरी धरण।
जिण चरण कालियाँ नाथ्याँ, गोप-लीला करण।
जिण चरण गोबरधन धार्यों, गरब मघवा हरण।
दासि मीराँ लाल गिरधर, अगम तारण तरण।।1।।
शब्दार्थ –
परस-स्पर्श/ वंदन, कँवल कोमल-कमल के समान कोमल, सुभग- सुंदर, तरी- उद्धार, मधवा-इन्द्र, अगम-अगम्य, सिरी धरण- श्री की शोभा, तारण-उद्वार।
भावार्थ –
इस पद में मीराबाई ने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को प्रस्तुत किया है। वे अपने मन को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे मन तू श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श कर। श्रीकृष्ण के ये सुन्दर शीतल कमल जैसे चरण सभी प्रकार के दैविक, दैहिक तथा भौतिक तापों का नाश करने वाले है। इन चरणों के स्पर्श से भक्त प्रहलाद का उद्धार हुआ और उन्हें इन्द्र की पदवी प्राप्त हुई।
इन्हीं चरणों के आश्रय में आकर भक्त ध्रुव ने अटल पदवी प्राप्त की। इन्हीं चरणों से श्रीकृष्ण ने ब्रह्माण्ड को भी भेद दिया था और यह ब्रह्माण्ड उन्हीं चरणों से नख से शिख तक सौंदर्य और सौभाग्य से मंडित है। इन्हीं चरणों के स्पर्श से गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या बाई का उद्धार हुआ। इन्हीं कृष्ण ने ब्रजवासियों के रक्षार्थ कालिया नाग की 1 का अन्त किया और गोपियों के साथ लीला सम्पन्न इन्हीं श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को धारण कर इन्द्र के गर्व को चकनाचूर कर दिया। मीरा ऐसे प्रभु के चरणों की दासी है और उनसे प्रार्थना करती है कि वे अगम्य संसार से उन्हें पार उतारें।
विशेष –
- मीरा ने प्रभु कृष्ण के प्रति अपनी भावपूर्ण प्रार्थना प्रस्तुत की है।
- इस पद में माधुर्य गुण तथा शांत रस है।
- भाषा पर राजस्थानी शब्दों का प्रभाव है।
- भगवान के भक्त वत्सल, शरणागत रूप तथा व्यापक स्वरूप का वर्णन किया गया है।
राम ललित
म्हारो परनाम बाँकेबिहारी जी।
म्हारो परनाम बाँकेबिहारी जी।
मोर मुगट माथ्याँ तिलक बिराज्याँ, कुण्डल अलकाँ धारी जी।
अधर मधुर धर वंशी बजावाँ, रीझ रिझावाँ, राधा प्यारी जी।
या छब देख्याँ मोह्याँ मीराँ, मोहन गिरवरधारी जी।।2।।
शब्दार्थ –
बाँकेबिहारी – रसिक श्री कृष्ण, अलकां-लटें, अधर – होंठ, अलकाँ धारी – काली अलकावलि धारण करने वाले।
भावार्थ –
कवयित्री मीरा बाई ने इस पद में भगवान के अलौकिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए इस मनोहारी छवि को अपने हृदय में बसाने का भाव प्रकट किया है। वे कहतीं है कि मेरा सारा समर्पण श्री बांके बिहारी जी के प्रति है। उनके सिर पर मोर का सुन्दर मुकुट और माथे पर तिलक शोभायमान है। कानों में लटकदार कुण्डल हैं। उनके होठों पर बंशी है, वे सदैव राधा को रिझाते हैं। श्रीकृष्ण की यह सुन्दर छवि देखकर मीरा मोहित हो जाती है। वे कहती है ऐसे सभी को मोहित करने वाले एवं गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले श्रीकृष्ण सदा मेरे हृदय में बसें।
विशेष – गिरवरधारी में बहुब्रीहि समास है। रचना में माधुर्य भक्ति प्रदर्शित है।
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राग हमीर
बस्या म्हारे नेणण माँ नंदलाल।
बस्या म्हारे नेणण माँ नंदलाल।
मोर मुगट मकराक्रत कुण्डल अरुण तिलक सोहाँ भाल।
मोहन मूरत साँवराँ रारत नेण बण्या विशाल।
अधर सुधा रस मुरली राजा उर बैजन्ती माल।
मीराँ प्रभु संताँ सुखदायाँ भगत बछल गोपाल ॥13॥
शब्दार्थ – नेणण मां – आँखों में, कटि-कमर, नूपुर-घुंघरू।
भावार्थ –
इस पद में कवयित्री मीरा बाई ने श्रीकृष्ण की माधुरी मूर्ति को अपने हृदय में बसाने का निवेदन किया है। कृष्ण का सुंदर रूप बड़े-बड़े नेत्र, अधरों पर अमृत के समान वर्षा करने वाली मुरली और गले में भव्य बैजयंती माला सुशोभित है। कृष्ण की कमर में बंधी सुन्दर घण्टियाँ व उनसे निकलने वाले घुंघरू के मधुर स्वर सभी संतों को सुख देने वाले हैं। कवयित्री निवेदन करती है कि भल वत्सल श्रीकृष्ण मेरे नयनों में निवास करें।
विशेष – मोहन मूरत सांवरी सूरत में अनुप्रास अलंकार है।
हरि म्हारा जीवण प्राण आधार।
हरि म्हारा जीवण प्राण आधार।
और असिरो ना म्हारा थें विण, तीनूँ लोक मँझार।
थें विण म्हाणे जग ना सुहावाँ, निख्याँ सब संसार।
मीराँ रे प्रभु दासी रावली, लीज्यो नेक निहार ॥4॥
शब्दार्थ – मझार – मझधार, बिण-बिना, थैं-तुम्हारे, निख्याँ-देखा, रावली- आपकी, असिरा-शरण।
भावार्थ –
मीरा ने इस पद में श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य समर्पण को उजागर करते हुए लिखा है कि श्रीकृष्ण मेरे जीवन व प्राणों के आधार हैं। उनके बिना मेरा तीनों लोकों में कोई नहीं है। मीरा कहती हैं कि उन्हें कृष्ण के बिना संसार में कोई भी अच्छा नही लगता। उन्होनें इस मिथ्या जगत को खूब अच्छी तरह देख लिया है। वे निवेदन करती है कि हे श्रीकृष्ण मैं आपकी दासी हूँ। अतः आप मुझे भुला मत देना।
विशेष – इस पद में दास्य भाव की भक्ति प्रकट हुई है।
राग कान्हरा
तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर।
तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर।
हम चितवाँ थें चितवो ना हरि, हिवड़ो बड़ो कठोर।
म्हारो आसा चितवणि थारी ओर ना दूजा दोर।
ऊभ्याँ ठाढ़ी अरज करूँ हूँ करताँ करताँ भोर।
मीराँ रे प्रभु हर अविनासी देस्यूँ प्राण अकोर।।5।।
शब्दार्थ – तनक-थोड़ा सा, चितवाँ – देखो, म्हारी – हमारी, अकोर – उत्सर्ग, दोर – दौड़/पहुँच।
भावार्थ –
मीरा ने इस पद में भगवान की कृपा दृष्टि अपने ऊपर चाही है। वे निवेदन करती है कि हे श्रीकृष्ण मेरी ओर भी थोड़ी दृष्टि डालो। हमारी दृष्टि सदैव आपकी ओर लगी रहती है। कभी आप अपनी दृष्टि भी हम पर डालें ताकि हमारा भी उद्धार हो। यदि आप ऐसा नहीं करते तो आप हृदय के बड़े कठोर हैं। हमारे जीवन की पूरी आस तुम्हारी चित्वन है। इसके अलावा हमारा कहीं ठिकाना नही है। मेरा इस संसार में तुम्हारे सिवा और कोई नही है। आपके लिए हमारे जैसे लाखों-करोड़ों भक्त हो सकते हैं। मीरा कृष्ण की चित्वन रूपी कृपा की प्रतीक्षा करते-करते ऊब गई है और रात से भोर हो गई लेकिन प्रभु कृष्ण आप फिर भी द्रवित नहीं हुए। हे अविनाशी आप मुझ पर कृपा दृष्टि कीजिये। मैं अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूँगी।
विशेष – मीरा की अनन्य भक्ति प्रकट हुई है। हम चितवाँ थें चितवो ना हरि, हिवड़ो बड़ो कठोर। इस पंक्ति में उपालम्भ भाव है।
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म्हारो गोकुल रो ब्रजवासी।
म्हारो गोकुल रो ब्रजवासी।
ब्रजलीला लख जन सुख पावाँ, ब्रजवनताँ सुखरासी।
नाच्याँ गावाँ ताल बजावाँ, पावाँ आणंद हाँसी।
नन्द जसोदा पुत्र री, प्रगट्याँ प्रभु अविनासी।
पीताम्बर कट उर बैजणताँ, कर सोहाँ री बाँसी।
मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, दरसरण, दीज्यो दासी 116 11
शब्दार्थ – ब्रजवनता- ब्रज की स्त्रियाँ, आणंद-आनन्द।
भावार्थ –
मीरा श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबी हुई है। वे कहतीं है हमारे श्रीकृष्ण तो ब्रज में निवास करते हैं। उनकी लीलाओं को देखकर ब्रज की स्त्रियाँ सुख प्राप्त करती हैं। वे नाचती हैं, गाती हैं, ताली बजाती हैं और आनंद की हँसी प्राप्त करती है। अविनाशी प्रभु कृष्ण ने नंद व यशोदा के पुत्र के रूप में अवतार लिया है। उनके कमर पर सुन्दर पीले वस्त्र, गले में सुन्दर बैजयंती माला और हाथों में मुरली शोभायमान रहती है। मीरा निवेदन करती है कि उनके तो एक मात्र स्वामी श्रीकृष्ण है। वे श्रीकृष्ण अपनी दासी को दर्शन देकर कृतार्थ करें।
विशेष –
श्रीकृष्ण के सौन्दर्य के साथ-साथ उनके ब्रह्म रूप का वर्णन किया गया है।
हे मा बड़ी बड़ी अखियन वारो,
हे मा बड़ी बड़ी अखियन वारो,
साँवरी मो तन हेरत हसिके।
भौंह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके।
जतन करो जन्तर लिखि बाँधों, ओखद लाऊँ घसिके।
ज्यों तोकों कछु और बिथा हो, नाहिन मेरो बसिके।
कौन जतन करों मोरी आली, चन्दन लाऊँ घसिके।
जन्तर मन्तर जादू टोना, माधुरी मूरति बसिके।
साँवरी सूरत आन मिलावो ठाढ़ी रहूँ मैं हँसिके।
रेजा रेजा भयो करेजा अन्दर देखो धँसिके।
मीरा तो गिरधर बिन देखे, कैसे रहे घर बसिके॥17॥
शब्दार्थ –
हेरत-देखकर, जन्तर-यंत्र, जतन-प्रयत्न, रेजा-टुकड़े, ओखद-औषध।
भावार्थ –
मीरा ने कृष्ण के माधुर्य रूप का वर्णन किया है। वे कहती हैं कि बड़ी-बड़ी आँखों वाले साँवले श्रीकृष्ण की मेरी ओर मुस्कराहट भरी दृष्टि और उनकी टेड़ी कमान जैसी भौंहें, सुन्दर नेत्र आदि से मैं उनके वशीभूत हो गई हूँ। मेरी वेदना का कारण कोई और नहीं है। श्रीकृष्ण के जादू-टोने मेरे हृदय में बस गये हैं और श्रीकृष्ण की मनोहर मूर्ति मेरे हृदय में से नहीं निकलती है। मीरा कहती है कि मैं श्रीकृष्ण को अपने हृदय से मिलाने के लिए बेसर्बी से प्रतीक्षा कर रही हूँ। श्रीकृष्ण के बिना मेरा कलेजा टूक-टूक हुआ जाता है। कृष्ण के वियोग में वेदना से मीरा इस प्रकार पीड़ित है कि वे बिना कृष्ण के दर्शन किए घर में कैसे रह सकती है।
विशेष –
‘’भौंह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके।
इस पंक्ति में सांगरूपक है। रेजा रेजा भयो करेजा।‘’
– इस पंक्ति में रूढ़ि लक्षणा है।
हेरी मा नन्द को गुमानी म्हाँरे मनड़े बस्यो।
हेरी मा नन्द को गुमानी म्हाँरे मनड़े बस्यो।
गहे द्रुम डार कदम की ठाड़ो मृदु मुसकाय म्हारी और हँस्यो।
पीताम्बर कट काछनी काछे, रतन जटित माथे मुगट कस्यो।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, निरख बदन म्हारो मनड़ो फँस्यो।।18।।
शब्दार्थ – द्रुम-वृक्ष, काछनी-धोती।
भावार्थ –
मीरा कहती है कि नंद का गर्वीला पुत्र अर्थात् श्रीकृष्ण मेरे मन में बस गया है। वह कदम की डाल पकड़े हुए मेरी ओर देखकर मुस्करा रहा है। उसके पीले वस्त्र कमर में धोती और मस्तक पर रत्नजड़ित सुशोभित था। मीरा श्रीकृष्ण की इस छवि को हृदयंगम करके कहती है कि यह अपूर्ण छवि बरबस ही मुझे मोहित कर रही है, जिसे देखकर मेरा मन सम्मोहित हो गया है।
विशेष –
संयोग श्रृंगार, स्वप्नावस्था, तीव्र उत्कंठा और माधुर्य गुण का प्रयोग हुआ है।
थारो रूप देख्याँ अटकी।
थारो रूप देख्याँ अटकी।
कुल कुटुम्ब सजन सकल बार बार हटकी।
विसरयाँ ना लगन लगाँ मोर मुगट नटकी।
म्हारो मन मगन स्याम लोक कह्याँ भटकी।
मीराँ प्रभु सरण गह्याँ जाण्या घट घट की॥19॥
शब्दार्थ –
थारो – तुम्हारा, सजण – अपने लोग, हटकी – टोका/मनाही, अटकी – स्थिर, भटकी – गई।
भावार्थ –
मीरा ने इस पद में श्रीकृष्ण के रूप सौंदर्य के स्वयं पर असर का वर्णन किया है। वे कहती है कि हे श्रीकृष्ण! तुम्हारे माधुरी रूप को देखकर मेरी आँखे अटक गई हैं। अपने लोगों ने मुझे बार-बार मना किया, लेकिन मैं उनसे दूर होकर भी आपकी शरण की कामना करती हूँ। मोर मुकुट धारण करने वाले श्रीकृष्ण में मेरा मन रम गया है। इसे लोग मेरा भटकना कहते हैं। मीरा कहती है कि यह भटकना नहीं है बल्कि मैंने उस अन्तर्यामी ईश्वर की शरण प्राप्त की है जो प्रत्येक हृदय की बात जानता है।
विशेष –
मीरा की कृष्ण के प्रति निष्ठा एवं दृढ़ता प्रकट हुई है। इस पद में मीरा की प्रभु की भक्ति को लोगों द्वारा भटकना की ओर भी संकेत किया गया है। कुल कुटुम्ब में अनुप्रास अलंकार है तथा रचना में ‘ट’ वर्ग के प्रयोग से श्रुतिकटुत्व दोष पैदा हुआ है।
राग त्रिवेनी
निपट बंकट छब अटके।
निपट बंकट छब अटके।
देख्याँ रूप मदन मोहन री, पियत पियूख न मटके।
बारिज भवाँ अलक मतवारी, नेण रूप रस अटके।
टेढ्या कट टेढ़े कर मुरली, टेढया पाय लर लटके।
मीराँ प्रभु रे रूप लुभाणी, गिरधर नागर नटके ।।10।।
शब्दार्थ –
निपट – नितान्त, बंकट-टेढ़ी, नैणा-नेत्र, पियूख-दूध/अमृत, बारिज कमल।
भावार्थ –
मीरा ने इस पद में कहा है कि श्रीकृष्ण की नितान्त टेढ़ी अर्थात् त्रिभंगी छवि उसके नेत्रों में बस गई है। वे कहती हैं कि मेरे नेत्रों ने श्रीकृष्ण के इस माधुर्य रूप का अमृत तुल्य पान किया है। जिससे वे और मटकने लगी है और ये नेत्र उस रूप माधुरी रूपी रस पर अटक गये है। उनके मुख पर सुन्दर और टेढ़ी अलखें तथा बांसुरी बजाते समय टेढ़ी कमर और ऐसे ही टेढ़े हाथों में पकड़े मुरली तथा पैरों की लटकती टेढ़ी दशा नटवर नागर श्रीकृष्ण के त्रिभंगी रूप में सभी को मोहित करने वाली होती है। उस पर मीरा पूरी तरह मोहित है।
विशेष –
- कृष्ण की त्रिभंगी छवि का वर्णन किया गया है।
- नेत्रों के वर्णन में मानवीकरण अलंकार है।
म्हा मोहन रो रूप लुभाणी।
म्हा मोहन रो रूप लुभाणी।
सुन्दर बदना कमल दल लोचन, बाँकाँ चितवन नेणाँ समाणी।
जमना किनारे कान्हा धेनु चरावाँ, बंशी बजावाँ मीट्ठाँ वाणी।
तन मन धन गिरधर पर वाराँ, चरण कँवल बिलमाणी।।11।।
शब्दार्थ – बदण-मुख (वदन), लुभाणी-मोहित, दल-पत्ता, समाणी – समा गयी, धेनु-गाय, धण-धन, बिलमाणी – रम गई।
भावार्थ –
मीरा कहती है कि मैं अपने आराध्य प्रियतम श्रीकृष्ण के रूप पर मोहित हो गई हूँ। उन प्रियतम श्रीकृष्ण का वदन (मुख) सुन्दर है, कमल पत्र के समान उनके नेत्र हैं तथा उनकी दृष्टि बांकी है जो कि मेरे नेत्रों में समा रही है। वह प्रियतम कृष्ण युमना नदी के किनारे गायें चराते रहते हैं और मधुर स्वर-लहरी में बंशी बजाते रहते हैं। मीरा कहती है कि मैं अपना शरीर, मन और धन (अपना सर्वस्व) गिरधर कृष्ण पर न्योछावर करती हूँ तथा उनके चरण-कमलों में रम गई हूँ।
विशेष –
स्वर-लहरी में तत्पुरुष तथा चरण-कमल में कर्मधारय समास है।
साँवरा णन्द णंदेन, दीठ पड्याँ माई।
साँवरा णन्द णंदेन, दीठ पड्याँ माई।
डारयाँ सब लोकलाज सुध बुध बिसराई।
मोर चन्द्रमाकिरीट मुगुट छब सोहाई।
केसर री तिलक भाल, लोणण सुखदाई।
कुण्डल झलकाँ कपोल अलकाँ लहराई।
मीणाँ तज सरवर ज्यों मकर मिलण धाई।
नटवर प्रभू भेष धर्यां रूप जग लो भाई।
गिरधर प्रभू अंग अंग मीराँ बल जाई।।12।।
शब्दार्थ –
डारयाँ – त्याग दिया/डाल दिया, कपोल – गाल, अलका – बाल, मीणाँ – मछलियाँ, मकर – मगर, नटवर – रसिक/आकर्षक/सजीला, बल -न्योछावर।
भावार्थ –
मीरा कहती है कि अरी सखी, नंद जी के पुत्र साँवले श्रीकृष्ण जब से मुझे दिखाई दिये (मेरी दृष्टि में पड़े) तब से मैं सब लोक-लाज का त्याग कर अपनी सुध-बुध खो बैठी हूँ। भाव यह है कि मैं उनकी प्रेम दीवानी हो गई हूँ और लोक मर्यादा को भूलकर उन्मत्त हो गई हूँ। उन प्रियतम श्रीकृष्ण ने मोरपंखों के रंग बिरंगे चन्द्रकों वाला सुन्दर चमकीला मुकुट सिर पर धारण कर रखा है, जो कि अत्यधिक शोभायमान हो रहा है। ललाट पर उन्होंने केसर का तिलक लगा रखा है जो कि देखने वालों की • आँखों को बहुत ही अच्छा लगता है। उनके कानों में कुण्डल झलक रहे हैं और घुंघराले बाल लहरा रहे हैं। • उनकी शोभा ऐसी लग रही है कि मानो मछलियाँ तालाब को छोड़कर मगर से मिलने के लिए दौड़ रही हों। रसिक शिरोमणि प्रभु कृष्ण ने ऐसा भेष धारण कर रखा है, जिसे देखकर सभी लोग ललचा जाते हैं। मीरा कहती हैं कि र प्रभु गिरधर कृष्ण मेरे अंग-अंग में समाये हुए हैं और मैं उन पर न्योछावर होना चाहती हूँ।
विशेष –
“मीणाँ तज सरवर ज्यों मकर मिलण धाई।” में हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।
प्रेमासक्ति
राग नीलाम्बरी
श्रीकरण केलि
नेणाँ लोभाँ अटकाँ शक्याँ णा फिर आया।।
नेणाँ लोभाँ अटकाँ शक्याँ णा फिर आया।।
रूँम-रूँम नखसिख लख्याँ, ललक ललक अकुलाय।
म्याँ ठाढ़ी घर आपणे मोहन निकल्याँ आय।
बदन चन्द परगासताँ, मन्द मन्द मुसकाय।
सकल कुटुम्बाँ बरजताँ बोल्या बोल बनाय।
नेणां चंचल अटक ना मान्या; परहथं गयाँ बिकाय।
भलो कह्याँ काँई कह्याँ बुरो री सब लया सीस चढ़ाय।
मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बिना पल रह्याँ ना जाय।।13।।
शब्दार्थ – रूँम-रोम, अकुलाय-आकुल-व्याकुल होवे, बरजताँ – मना करने पर, परहथ – पराये हाथ।
भावार्थ –
मीरा भक्ति भाव से कहती है कि ये मेरे रूप-माधुरी के लोभी नेत्र एक बार प्रियतम कृष्ण की छवि पर अटक गये, तो फिर वापिस नही आ सके। मेरा रोम-रोम उनके नख – शिख की शोभा देखकर बार-बार देखने के लिए आकुल व्याकुल बना रहता है। एक बार मेरे घर में प्रियतम मोहन अपने आप आ गये, उस समय वे अपने मुख रूपी चन्द्रमा को प्रकाशित करते हुए मंद-मंद मुस्काने लगे। तब मेरे परिवार के सब लोगों के द्वारा मना करने पर भी वे मधुर वचनों में (मधुर बातें बनाकर मुझसे बोलते रहे। मेरे चंचल नेत्र मेरा कहा नहीं मानते हैं, अब तो ये पराये हाथ (प्रियतम कृष्ण के हाथ) उनकी रूप-माधुरी के लालच में बिक गये हैं। इस संसार में अच्छी बात कहने पर भी कोई नहीं मानता है, परन्तु बुरी बात को सब लोग सिर पर चढ़ा लेते हैं अर्थात् सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। मीरा कहती है कि हे चतुर गिरधर प्रियतम! अब मुझसे आपके बिना एक पल भी नहीं रहा जा सकता।
विशेष –
“बदन चन्द परगासताँ, मन्द मन्द मुसकाय” में संयोग श्रृंगार है।
राग कामोद
आली री म्हारे नेणाँ बाण पड़ी।
आली री म्हारे नेणाँ बाण पड़ी।
चित्त चढ़ी म्हारे माधुरी मूरत, हिवड़ा अणी गड़ी।
कब री ठाढ़ी पंथ निहारों, अपने भवन खड़ी।
अटक्याँ प्राण साँवरो प्यारो, जीवन मूर जड़ी।
मीराँ गिरधिर हाथ बिकाणी, लोग कह्याँ बिगड़ी।।14।।
शब्दार्थ – नैणा-नेत्र, बाण-बान/अभ्यास, आलि-सुखी, हेवड़ा-ह्रदय, जीवन मूर जड़ी- प्राणों के आधारस्वरूप औषध के समान, अणी गड़ी-उनकी आँखों की कोर चुभ गई।
भावार्थ –
मीरा ने इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण की माधुरी मूरत को अपने हृदय में बताया है। वे अपनी सखी से कह रही हैं कि सखी मेरे नेत्रों को श्रीकृष्ण की माधुरी झलक के दर्शन की आदत पड़ गई है। मेरे हृदय में श्रीकृष्ण की माधुरी मूर्ति स्थापित हो गई है जो ह्रदय में बहुत गहराई तक चुभ गई है। मैं न जाने कब से अपने आराध्य की प्रतीक्षा में हूँ। मेरे प्राण श्रीकृष्ण में अटके हुए हैं। श्रीकृष्ण के प्रति मेरे इस समर्पण को लोग चाहे भटकना कहें या बिगड़ना, मैं तो श्रीकृष्ण के हाथों में अपना सर्वस्व समर्पित कर चुकी हूँ। इस पद में मीरा का श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण उजागर हुआ है।
विशेष – दाम्पत्य तथा माधुर्य भाव की अभिव्यक्ति हुई है।
प्रेमाभिलासा
नेणाँ वणज बसवाँ री, म्हारा साँवराँ आवाँ।
नेणाँ वणज बसवाँ री, म्हारा साँवराँ आवाँ।
नेणाँ म्हारा साँवरा राज्याँ, डरता पलक ना लावाँ।
म्हारा हिरदाँ बस्याँ मुरारी, पलपल दरसण पावाँ।
स्याम मिलन सिंगार सजावाँ, सुख री सेज बिछावाँ।
मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलिजावा।।15।।
शब्दार्थ – बणज – कमल के समान कोमल।
भावार्थ –
मीराबाई ने इस पद में अपनी सखी से कहा है कि मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण को मैं अपने कमल के समान कोमल नेत्र रूपी घर में बसाउँगी। मेरे नेत्रों में मेरे प्रियतम का बास है इसलिए मैं पलक नहीं झपकती हूँ जिससे कहीं श्रीकृष्ण मेरे दर्शन से दूर नहीं हो जाएँ। भाव यह है कि मीरा अपने प्रियतम को सदैव देखते रहना चाहती है इसलिए वे पलक भी नहीं झपकना चाहती। मीरा कहती है कि श्रीकृष्ण मेरे हृदय में है, इसलिए मैं नित्य उनके दर्शन करती हूँ और उनसे मिलन सुख के लिए सदैव श्रृंगार कर सुख रूपी सेज बिछाती हूँ। मीरा आगे कहती है कि चतुर प्रभु श्री कृष्ण ही मेरे प्रियतम हैं। मैं उन पर बार-बार न्योछावर होती हूँ।
विशेष – मीरा के इस पद में उनकी कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति तथा संयोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति हुई है।
राग मुल्मानी
असा प्रभु जाण न दीजै हो।
असा प्रभु जाण न दीजै हो।
तन मन धन करि वारणै, हिरदे धरि लीजै हो।
आव सखी मुख देखिये, नैणाँ रस पीजै हो।
जिह जिह बिधि रीझे हीर, सोई विधि कीजै हो।
सन्दर स्याम सुहावणा, मुख देख्याँ जीजै हो।
शब्दार्थ – जाण – जाने, बारणें – न्योछावर, असा – ऐसे अनुपम।
भावार्थ –
कवयित्री मीरा कहती है कि ऐसे परम मनोहारी भक्त वत्सल प्रभु कृष्ण को मैं जाने नहीं दूंगी। मैं उन्हें तन मन धन समर्पित करके अपने ह्रदय में बसा लूँगी। मीरा अपनी सखी से कहती है कि श्रीकृष्ण के आते ही अपने नेत्रों के द्वारा उनके मुख को देखकर मैं रूप माधुरी का पान करूँगी। जिस-जिस तरीके से श्रीकृष्ण प्रसन्न होंगे वह सब उपाय करूंगी। मैं उनके श्याम सलोने रूप के मुख सौंदर्य को देखकर जीवित हूँ। मीरा कहती है कि मीरा के प्रभु अत्यंत सहज हैं, जो सहजता से मुझ पर रीझते हैं। यह मेरा परम सौभाग्य है।
विशेष – मीरा के इस पद में गहन आत्मानुभूति उजागर हुई है।
राग मालकोस
म्हाँ गिरधर आगाँ नाच्या री।
म्हाँ गिरधर आगाँ नाच्या री।
नाच नाच म्हाँ रसिक रिझावाँ, प्रीति पुरातन जाँच्या री।
स्याम प्रीत री बाँध घूँघरयाँ मोहन म्हारो साँच्याँ री।
लोक लाज कुल री मरजादाँ, जग माँ नेक ना राख्याँ री।
प्रीतम पल छन ना बिसरावाँ, मीराँ हरि रँग राच्याँ री।।17।।
शब्दार्थ – पुरातन – पुरानी, जाँचा – परखी।
भावार्थ –
मीरा कहती है कि मैं अपने गिरधर गोपाल के आगे नृत्य करती रही। इस प्रकार नृत्य कर-कर के मैं अपने आराध्य को रिझाती हूँ। मेरी और कृष्ण की प्रीत पुरानी है। भाव यह है कि यह प्रति जन्म-जन्मान्तर की है। कृष्ण मेरे सच्चे प्रियतम हैं इसलिए अपने कुल और लोक लाज की मर्यादाओं की परवाह न करते हुए मैं पूरी तरह श्रीकृष्ण के रंग में रंग गई हूँ।
विशेष – इस पद में मधुर भक्ति तथा कृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण प्रकट हुआ है।
राग झिझोटी
म्हाराँ री गिरधर गोपाल दूसहाँ नाँ कूयाँ।
म्हाराँ री गिरधर गोपाल दूसहाँ नाँ कूयाँ।
दूसराँ नाँ कूयाँ साध सकल लोक जूयाँ।
भाया छाँड्याँ, बन्धा छाँड्याँ सगाँ सूयाँ।
साधाँ ढिंग बैठ बैठ, लोक लाज खूयाँ।
भगत देख्याँ राजी ह्याँ, जगत देख्याँ रूयाँ।
अँसुवाँ जल सींच सींच प्रेम बेल बूयाँ।
दधि मथ घृत काढ़ लयाँ डार दया छूयाँ।
राणा विष रो प्यालो भेज्याँ पीय मगन हूयाँ।
मीरा री लगन लग्याँ होणा हो जो हूयाँ।।18।।
शब्दार्थ – कूयाँ- कोई, सूयाँ-लोक, सांधा-साधु।
भावार्थ –
मीरा ने इस पद में कृष्ण के प्रति अपने अनन्य समर्पण को प्रकट किया है। वे कहती है कि इस संसार में मेरे केवल श्रीकृष्ण हैं और कोई दूसरा नही हैं। उन्होंने कहा कि मैंने सारा संसार देख लिया है। संसार में सब स्वार्थी हैं। इस बात को जानकर ही मैंने सभी लौकिक बंधन रिश्ते छोड़ दिये हैं। अब मैं सत्संग में बैठकर प्रभु भक्ति में लीन रहती हूँ। इससे मैंने झूठी लोक लाज को छोड़ दिया है। इस जीवन में मुझे भगवान भक्ति से प्रसन्नता होती है लेकिन स्वार्थी संसार द्वारा निंदा की बात सुनकर रोना आता है। मैंने दुःख और वेदना के आंसुओं से श्रीकृष्ण के प्रति अपनी प्रेम रूपी बेल को सींचा है। जिस प्रकार दही में से छाछ को अलग करके घृत को ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार मैंने संसार में सारतत्व को ग्रहण कर लिया है। इस भक्त रूप में बाधा स्वरूप राणा जी ने जो जहर का प्याला भेजा था उसे मैंने श्रीकृष्ण के प्रसाद रूप में ग्रहण किया और कृष्ण में मगन हो गई। मीरा कहती है। कि मेरी पूरी लग्न श्रीकृष्ण के प्रति है और जो कुछ भी होगा वह उनकी इच्छा से ही होगा।
विशेष –
इस पद में मीरा की वेदना तथा अनन्य समर्पण के साथ- साथ परिवार वालों द्वारा सताने का भी वर्णन मिलता है।
राग पटमंजरी
माई साँवरे रँग राँची।
माई साँवरे रँग राँची।
साज सिंगार बाँध पग घूँघर, लोकलाज तज नाँची।
गयाँ कुमत लयाँ साधाँ संगम स्याम प्रीत जग साँची।
गायाँ गायाँ हरि गुण निसदिन, काल ब्याल री बाँची।
स्याम विना जग खाराँ लागाँ, जग री बाताँ काँची।
मीराँ सिरि गिरधर नट नागर भगति रसीली जाँची॥19॥
शब्दार्थ – राँची-रंग गई, साँची-सच्ची, व्याल- सर्प, काँची- निरर्थक।
भावार्थ –
मीरा ने इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण आस्था एवं समर्पण को व्यक्त किया है। मीरा कहती है कि वह पूरी तरह कृष्ण भक्ति में रम चुकी है। इसलिए सारी लोक लाज की परवाह किये बिना मैं कृष्ण को रिझाने के लिए अपना शृंगार करके घुंघरू बांध के नृत्य करती हूँ। मुझमें सांसारिकता के प्रति लगाव की जो कुमति थी वो अब समाप्त हो चुकी है। मैंने सत्संग को अपना लिया है, जिससे मैं जान गई हूँ कि संसार में कृष्ण ही सच्चे है और उनके प्रति प्रीति सच्ची है। मैंने दिन-रात प्रभु गुण गाकर मृत्यु रूपी दंश से अपना बचाव किया है। मीरा कहती है कि कृष्ण के बिना संसार अप्रिय लगता है और संसार के सारे सुख भी झूठे लगते हैं। मीरा ने श्रीगिरधर गोपाल की रसीली भक्ति को ही उचित माना है।
विशेष – इस पद में भगवत भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया है।
राग गुणकली
मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।।
मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।।
गिरधर म्याँरों साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ।।
रैण पड़ै तब ही उठि जाऊँ, ज्यूँ त्यँ वाहि लुभाऊँ
जो पहिरावै सोई पहिरू, जो दे सोई खाऊँ।
मेरी उणरी प्रीत पुराणी, उण विन पल न रहाऊँ।
जहँ बैठावे तितही बैठूं, बेचे तो बिक जाऊँ।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ।।20।।
शब्दार्थ – प्रीतम – प्रियतम, रैण-रात।
भावार्थ –
इस पद में मीरा श्रीकृष्ण के प्रति अपने समर्पण को व्यक्त कर रही है। वे कहती हैं कि मैं तो रात्रि होते ही अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास चली जाती हूँ और सुबह होते ही लौट आती हूँ। मैं रात-दिन उनके साथ खेलती हूँ और उन्हें रिझाती हूँ। मेरे सर्वस्व श्रीकृष्ण हैं वो मुझे जैसे रखेंगे, जो पहनायेंगे, जो खाने को देंगे मैं वही स्वीकार कर लूँगी, क्योंकि मेरा उनका जन्म-जन्मांतर का संबंध है। मीरा कहती है कृष्ण मुझसे जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूंगी। इस प्रकार वे अपने प्रभु श्रीकृष्ण पर अपने आपको न्यौछावर करती है।
विशेष –
इस पद में माधुर्य भाव, कांता भाव तथा अनन्य समर्पण का चित्रण हुआ है। इस पद में लौकिक प्रेम में अलौकिक प्रेम झलकता है।
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