केशवदास के काव्य की विशेषताएँ

केशवदास के काव्य की विशेषताएँ(Keshav Das Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत केशवदास के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

केशवदास के काव्य की विशेषताएँ

1. केशव की काव्य-दृष्टि –

रीतिबद्ध काव्य के सिरमौर कवि और हिंदी के प्रथम आचार्य महाकवि केशवदास अलंकारवादी थे। उनका मत था कि –

जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस सुवृत्त।।
भूषण बिनुन बिराबाई, कविता वनिता मित्त।।

केशव से पूर्व संस्कृत काव्यशास्त्र में अलंकार के संबंध में दो प्रकार की धारणाएँ प्रचलित थीं। भामह, दंडी, वामन, जयदेव, अप्पय दीक्षित इत्यादि अलंकारवादी आचार्य अलंकार को काव्य की आत्मा मानते थे –

1. न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम्! – भामह

2. काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते। – दण्डी

3. सौन्दर्यमलंकारः। काव्यं ग्राह्ममलंकारात्।। – वामन

4. अंगी करोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती
असौ न मन्यते कस्मादनुश्णा णामनलंकृती।। – जयदेव

तो दूसरी ओर मम्मट, पं विश्वनाथ इत्यादि ने अलंकार को कटक कुण्डलवत् कहा। केशव ने प्रथम धारणा को अपनाते हुए अलंकार को काव्य का सर्वस्व माना। भूषणों के अभाव में उन्हें न कविता में सौंदर्य दिखाई पड़ा और न वनिता में। अलंकारों को अत्यधिक महत्त्व देने के साथ ही केशव ‘काव्यगुण, अर्थ-गौरव और पद-लालित्य को भी आवश्यक माना।

सगुन पदारथ अरथयुत, सुबरनमय सुभ साज,
कंठमाल ज्यों कविप्रिया, कंठ करहु कविराज।।

केशवदास की दृष्टि में काव्य में रंचमात्र दोष भी काव्य-सौंदर्य को विनष्ट कर डालता है –

राजत रंच न दोशयुत, कविता, बनिता मित्र
बुंदक हाल परत ज्यों, गंगा घट अपवित्र।।

केशव ने अन्धदोष, बधिरदोष, पंगुदोष, नग्नदोष इत्यादि अट्ठारह दोषों का विवेचन किया है और काव्योत्कर्ष के लिए इन रस विघातक तत्त्वों से बचने और सतर्क रहने को कहा है।

केशवदास ने शब्द-प्रयोग में औचित्य, छंदों के नियमों में अवहेलना, अलंकारों से रहित काव्य एवं अर्थहीन काव्य के विषय में अपनी मान्यता इस प्रकार प्रतिपादित की है –

अंध बधिर अरू पंगु तनि, नगन मृतक मति सुद्ध।
अंध विरोधी पंथ को बधिर जो सबद विरुद्ध।।

छंद विरोधी पंगु गुनि, नगन जो भूशण हीन।
मृतक कहावै अरथ बिन केसव सुनहु प्रवीन।।

अर्थात् शब्द-प्रयोग में औचित्य का ध्यान न रखने वाला भाग्य बधिर है। छंद के नियमों की अवहेलना करने वाला काव्य पंगु होता है। अलंकारों से रहित काव्य नग्न है और अर्थहीन काव्य मृतकतुल्य है।

केशव ने वाणी को कवि की महती शक्ति माना है। तुलसी ने जिस प्रकार ‘कवहि निज आखर बल सांचा’ कहा है; उसी प्रकार केशवदास वाणी को महत्त्व देते हैं। उनकी दृष्टि में वाणी की सरसता भी काव्य-सौन्दर्य का हेतु है। केशव के अनुसार अभिव्यक्त अनुभूति दृष्टिविहीन विशाल नेत्र के समान है –

ज्यों बिन दीठि न शोभि जं, लोचन लोल विसाल।
त्यों ही केसव सकल कवि, बिन वाणी न रसाल।।

केशव कवि की शक्तिरूप इस बाणी का सच्चा उपयोग हरि-गुणगान में मानते हैं। हरिगुण को ही अपनी वाणी का विषय बनानेवाले कवि को केशवदास उत्तम कवि स्वीकार करते है –

उत्तम मध्यम अधम कवि, उत्तम हरि रसलीन।
माध्यम मानत मानुषि दोषनि अधम प्रवीन।।

केशव की काव्य-दृष्टि में काव्य का आदर्श अथवा उद्देश्य रसाधिपति ब्रजराज श्याम का चित्तरंजन है। जिस काव्य के श्रवण के उपरान्त श्री कृष्ण प्रसन्न नहीं होते, उसे केशव कविता नहीं मानते हैं। केशव की काव्य-दृष्टि में कविता का उद्देश्य ईश्वर-आराधना, ईश-वंदना है –

ताते रुचि सुचि सोचि पचि कीजै सरस कवित्त।
केशव श्याम सुजान को सुनत होइ बस चित्त।।

उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर केशवदास के काव्य-विषयक दृष्टिकोण को निम्नांकित बिन्दुओं में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है –

1. केशव अलंकारवादी आचार्य थे। भामह, दण्डी, वामन, जयदेव की भाँति केशव ने अलंकारहीन कविता को निष्प्राण माना और अलंकार का महत्त्व इस प्रकार प्रतिपादित किया- “भूषण बिनु न बिराबाई कविता, वनिता मित्त।”

2. केशव ने अलंकारों के साथ-साथ काव्य गुण, अर्ध-गौरव, पद- लालित्य इत्यादि को भी काव्य के लिए महत्त्वपूर्ण माना है।

3. केशव ने 18 प्रकार के दोषों की चर्चा करते हुए यह मान्यता प्रतिपादित की है, कि रंचमात्र दोष से भी काव्य का सौंदर्य नष्ट हो जाता है।

4. केशव की काव्य-दृष्टि में काव्य-परम्परा का अनुसरण न करने वाला काव्य अंधा, शब्द-प्रयोग में औचित्य का ध्यान न रखने वाला काव्य बधिर, छंदों के नियमों की अवहेलना करने वाला काव्य पंगु और अर्थहीन काव्य मृतकतुल्य होता है।

5. वाणी कवि की महत्त्वपूर्ण शक्ति होती है; इस शक्ति का सच्चा उपयोग हरि-गुण गान में है।

6. उत्तम कवि वह है, जो अपनी वाणी का उपयोग हरि-गुण के वर्णन में करे।

7. कविता का उद्देश्य भगवत्-आराधना में है।

8. काव्य-रचना एक प्रकार से कवि का पुरुषार्थ है और उसकी सार्थकता ईश-वंदना, आराध्य के चरित्र-चित्रण में है।

2. केशव का आचार्यत्व –

केशवदास उच्चकोटि के आचार्य हैं, जिनका समय भक्तिकाल के अन्तर्गत पड़ता है; पर ये अपनी रचना में पूर्णतः शास्त्रीय तथा रीतिबद्ध हैं। हिन्दी-साहित्य में केशव हिन्दी के प्रथम आचार्य के रूप में मान्य हैं। केशव के पूर्व भी लक्षण-ग्रंथ लिखे गये; पर व्यवस्थित एवं सर्वांगपूर्ण ग्रंथ सबसे पहले केशवदास ने ही प्रणीत किये। केशव विरचित निम्न काव्यशास्त्रीय ग्रंथ हैं-

1. रसिकप्रिया (1628 वि.) – रस विवेचन, नायक-नायिका-भेद से संबंधित।
2. नखशिख (1658 वि.) – राधाजी के नख-शिख वर्णन से सम्बन्धित।
3. कविप्रिया (1658 वि.) – काव्य-रीति, अलंकार एवं कवि-पंथ से सम्बन्धित।
4. छंदमाला – विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित इस रचना में 84 छंदों के लक्षण और उदाहरण दिये गये हैं।

‘रसिक प्रिया’ केशव का रीतिशास्त्र पर आधारित एक समादृत ग्रंथ है। ‘रसिक-प्रिया’ रस-ग्रंथ है और परवर्ती आचार्यों और कवियों के लिए यह एक पथ-प्रदर्शक ग्रंथ भी है। मूलतः रस-ग्रंथ होते हुए भी ‘रसिकप्रिया’ एवं ‘कविप्रिया’ में काव्यशास्त्र के सभी अंगों पर प्रकाश डाला गया है।

डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने ‘रसिकप्रिया’ के वर्ण्य-विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला है और उन्होंने कहा है कि ‘रसिकप्रिया’ में श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, वीभत्स, अद्भुत और शांत रसों का वर्णन किया गया है। आचार्य केशवदास ने शृंगार को सभी रसों का नायक माना है और श्रृंगार- मूर्ति भगवान् हरि के व्यक्तित्व में सभी रसों की स्थिति प्रमाणित की है। ‘रसिकप्रिया’ में नायक के चार प्रकार—अनुकूल, दक्ष, शठ एवं धृष्ट एवं जाति के अनुसार नायिका के भी चार प्रकारों-पद्मिनी, चित्रिणी, शंखिनी और हस्तिनि का उल्लेख किया है।

श्रृंगार-रस-निरूपण की दृष्टि से रसिकप्रिया का छठा प्रकाश अत्यंत महत्त्वपूर्ण है; जिसमें भाव, विभाव, अनुभाव, स्थायी भाव, सात्त्विक भाव, व्यभिचारी भाव और हाव इत्यादि का वर्णन लक्षण एवं उदाहरणों सहित किया गया है। हाव के 13 भेदों का उल्लेख केशव की निजी विशेषता है। हास्य रस के अंतर्गत केशव ने मंदहास, कलहास, अतिहास और परिहास 4 भेद किये है।

कलहास, अतिहास और परिहास 4 भेद हैं। 15 वें प्रकाश में कैशिकी, भारती, आरभटी और सात्त्वती वृत्तियों का वर्णन है। सोलहवें एवं अंतिम प्रकाश में अनरस का वर्णन है; जिसके प्रयत्नीक (विरोधी), नीरस दुःसन्धान और पात्रादुष्ट 5 भेद बताए गये हैं। रसिकप्रिया में रस की महत्ता इस प्रकार प्रतिपादित की गई है –

ज्यों बिन डीठि न सोभिर्न, लोचन लोल विसाल।
त्यों ही केशव सकल कवि, बिनु वानी न रसाल।।

संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों-नाट्यशास्त्र, साहित्यदर्पण सुधाकर (भूपाल) का आधार लेते हुए भी केशव के उपर्युक्त विवेच मौलिकता, निजी अनुभव परिलक्षित हैं। केशव ने भरतमुनि, विश्व भूपाल इत्यादि आचायों की परिभाषाओं का रूपान्तरण मात्र प्रस्तुत न कर एक आचार्य की भाँति उन्हें अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। भगीरथ म लिखा है कि-”रसिकप्रिया में रसांगों, वृत्तियों और रस दोषों का वर्णन है इसका उद्देश्य रसिकों की तृमि के लिए है। केशव ने स्पष्ट कहा है कि –

अति रति गति मति एक करि, विविध विवेक विलास!
रसिकन को रसिकप्रिया, कीन्हीं केशवदास।।

रसिकप्रिया के अतिरिक्त ‘कविप्रिया’ रचना के द्वारा केशव ने रीतिशा के आधार पर काव्य-रचना की नवीन पद्धति प्रचलित की है। कविप्रिया में केशव ने कवि शिक्षा की बातें लिखीं। इसके 16 प्रभावों में कवि के लिए काव्य-रचना में उपयोगी अनेक तथ्यों का विवरण दिया गया है। इन्हें त काव्य-दोष, कवि भेद, वर्णन के प्रकार, सामान्यालंकार, राज्यश्री, विशिष्टालंकार (जिसमें वास्तव में अलंकारों के विविध भेदों का वर्णन है।

नखशिख, चित्रालंकार इत्यादि उल्लेखनीय है दोष और अलंकार दण्डी के काव्यादर्श के आधार पर हैं तथा अन्य वर्णन के प्रसंग आचार्य केशव मिश्र के ‘अलंकार शेखर’ तथा अमरचंद की ‘काव्य कल्पलतावृत्ति’ के आधा पर लिखे गये हैं।

डॉ भगीरथ मिश्र के अनुसार ‘कविप्रिया’ में विशेष प्रयत्न अलंक के वर्गीकरण का है। यह वर्गीकरण उक्ति, उपमा, तुलना, शब्दवृत्ति, अनेकार्थता, विद्रोह, कार्य-कारण संबंध इत्यादि के आधार पर किये गये हैं। केशव काव्य में अलंकारों को विशेष महत्त्व देते थे— ‘भूषण बिनु न सोहई, कविता बनिता मित्त।’ केशव अपनी चमत्कारपूर्ण अभिव्यक्ति के फेर में पड़कर अपने विवेचन को गंभीरता प्रदान नहीं कर पाये हैं।

‘नखशिख-वर्णन’ रचना में केशव दास ने राधाजी के नख से लेकर शिख तक का सौंदर्य वर्णन किया है। ‘छंदमाला’ केशव की पिंगलशास्त्र पर रचित रचना है, जिसमें केशव ने 84 प्रकार के छंदों और उसके उदाहरणों पर प्रकाश डाला है।

उपर्युक्त समग्र विवेचनों के उपरान्त केशव को उच्चकोटि का आ माना जा सकता है। वे सचमुच में रीति-प्रवर्तक आचार्य हैं। कवि-शिक्ष संबंधित समस्त पक्षों – अलंकार, रस, नायिका-भेद, गुण-दोष विवेचन, काव्य-नियम (रूढ़ि), छंदों के विविध रूप इत्यादि को इन्होंने मौलिकता एवं अपने ज्ञान के साथ हिन्दी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। हिन्दी-पाठकों के समक्ष काव्यशास्त्रीय सामग्री को व्यापक रूप से प्रस्तुत करने का सराहनीय कार्य केशव ने किया है।

कविप्रिया का वैशिष्ट्य निरूपित करते हुए मिश्रबंधु लिखते हैं कि – केशव ने अपना पूरा आचार्यत्व इस ग्रंथ में समाप्त कर दिया है। कविता के जिज्ञासुओं को काव्य सीखने में यह ग्रंथ बड़ा उपयोगी है। संस्कृत की काव्यशास्त्रीय पद्धति को हिन्दी में प्रचलित करने का श्रेय निर्विवाद रूप से केशवदास को है। हिन्दी की सारी काव्यशास्त्रीय परंपरा को केशवदास ने प्रभावित किया है। काव्यशास्त्र का ज्ञान जनसाधारण को सुलभ करके साहित्यिक अभिरुचि जाग्रत करने में एवं परवर्ती आचार्यों एवं कवियों को प्रेरित करने में आचार्य केशव का योगदान श्लाघनीय है।

3. केशव की संवाद-योजना –

आचार्य एवं महाकवि केशव की अक्षय कीर्ति का आधार ‘रामचंद्रिका’ महाकाव्य है। ‘रामचंद्रिका’ का वैशिष्ट्य सफल एवं उत्कृष्ट संवाद-योजना के कारण निर्विवाद है। रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में – “रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता संवादों में मिली है।”

हिन्दी-साहित्य में केशवदास अपनी उत्कृष्ट संवाद-योजना के कारण मशहूर है। केशव ने रामचंद्रिका में कुल 9 प्रकार के संवादों की योजना की है –

1. सुमति विमति संवाद,
2. रावण-बाणासुर संवाद,
3. राम- परशुराम संवाद,
4. राम जानकी संवाद,
5. राम-लक्ष्मण संवाद,
6. राम- शूर्पणखां संवाद,
7. सीता-रावण संवाद,
8. सीता-हनुमान संवाद और
9. रावण-अंगद संवाद।

केशव की संवाद योजना के वैशिष्ट्य को निम्नांकित शीर्षकों में देखा जा सकता है –

1. पात्रानुकूलता एवं व्यक्तित्व प्रकाशन –

किसी भी काव्य में संवाद-योजना का एक प्रमुख कार्य चरित्र चित्रण होता है। केशव के संवादों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता पात्रानुकूलता एवं व्यक्तित्व का प्रकाशन है। रावण-बाणासुर के संवादों में पात्रानुकूलता एवं व्यक्तित्व प्रकाशन के गुणों की सुन्दर व्यंजना हुई है। देखें-

रावण शम्भु कोदण्ड दे राजपुत्री किते टूक है तीन के बहु लंकाहि लै।
वाणासुर – जपु जिय जोर, तजौ सब सोर। सरासन तोरि, लहौ सुख कोरि।।

इस संवाद में रावण और बाणासुर दोनों पराक्रमी योद्धाओं के अनुकूल संवादों की योजना हुई है और दोनों योद्धाओं के दर्प, गर्व, अभिमान, अहंकार, ऐश्वर्य, पराक्रम इत्यादि का व्यक्तित्व-प्रकाशन हुआ है। केशव के ये चरित्रोदघाटक संवाद सफल बन पड़े हैं।

2. कथा-विकास में सहायक संवाद –

कथोपकथन या संवादों की सफलता इस तथ्य में निहित होती है कि वह कथा-विकास में सहायक सिद्ध हो। इस दृष्टि से ‘रामचंद्रिका’ के संवाद जहाँ चरित्रोद्घाटक हैं, वहीं कथा- विकास में भी सहायक सिद्ध हुए हैं। रामचन्द्रिका के अयोध्याकाण्ड का ‘भरत-कैकेयी के संवाद से सम्बन्धित निम्न छंद को देखें, जो कथा-विकास में पूर्णतः सहायक सिद्ध हुआ है –

मातु! कहाँ नृप? तात्। गये सुर लोकहिं क्यों? सुत शोक लये।
सुत कौन? सुराम कहाँ है अबै? बन लक्ष्मण सीय समेत गये

बन काज कहा अही? केवल मो सुख, ताकों कहा सुख यामै भये
तुमको प्रभुता धिक तोकों कहा अपराध बिना सिगरेई हये?

3. नाटकीयता –

रामचंद्रिका के संवादों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता ‘नाटकीयता’ है। केशवदास ने रामचंद्रिका के संवादों में अद्भुत नाटकीयता का समावेश किया है। बाण-रावण संवाद, रावण-अंगद संवाद, राम- परशुराम संवाद इत्यादि रामचंद्रिका के संवाद अभिनेयता की दृष्टि से बेजोड़ हैं। देखें एक उदाहरण –

परशुराम-तोरि सरासन संकट को सुभ सीय स्वयंवर मांझ बरी।
ताते बढयो अभिमान महा मन मेरीयो नेक न संक करी।

राम-सो अपराध भी हम सों अब क्यों सुधरै तुमहूँ धौं कहौ।
परशुराम-बाहु दै दोउ कुठारहिं केशव आपने धाम को पंथ गहौ।।

4. व्यंग्य एवं वाग्वैदग्ध्य –

केशव के संवादों में व्यंग्य के साथ-साथ वाग्विदग्धता का अद्भुत गुण मिलता है। इस दृष्टि से रावण-अंगद संवाद का क्या कहना है? रावण ने जब अंगद से उसका और उसके पिता का परिचय जानना चाहा, तो अंगद का यह व्यंग्य एवं विदग्धतापूर्ण उत्तर हंसी से लोटपोट कर देता है –
रावण – कौन के सुत?
अंगद – बालि के।
रावण – वह कौन बालि?
अंगद – न जानिये? काँख चांपि तुम्हें जो सागर सात न्हात बखानिये। ‘रावण-हनुमान संवाद’ भी केशव के वाग्वैदग्ध्य एवं व्यंग्य का अनूठा उदाहरण है। देखें –

सागर कैसे तरयो? जैसे ‘गो पद’, काज कहा? सिय चोरहि देखौं।
कैसे बधायो? जो सुंदरि तेरी हुई दृग सोबत, पातक लैखों।।

5. औचित्य तथा शालीनतापूर्ण संवाद –

संवादों की महत्ता इस तथ्य में निहित होती है कि उनमें वाग्वैदग्ध्य, नाटकीयता इत्यादि के गुणों के समावेश के साथ-साथ मर्यादा एवं शालीनता का अतिक्रमण न हो। केशव के संवादों में पात्रोचित शिष्टाचार, शालीनता का पूर्ण निर्वाह हुआ है। इस दृष्टि से ‘हनुमान -सीता संवाद’ शील, मर्यादा एवं शिष्टाचार का अद्भुत आख्यान है। देखें-

कर जोरि कह्यौ, हौं पवनदूत! जिय जननि जानु रघुनाथ दूत!
रघुनाथ कौन? दशरथ नंद। दशरथ कौन? अज तनय चंद।

हनुमान सीता संवाद में शालीनता और मर्यादा का पूरी तरह से निर्वाह हुआ है। यहाँ जननी, रघुनाथ, दशरथनंद, अजयतनयचंद इत्यादि शब्दों के प्रयोग में शील, शिष्टाचार एवं मर्यादा की पूर्ण रक्षा हुई है।

6. मनोवैज्ञानिकता –

केशव की रामचंद्रिका के संवादों में मनोवैज्ञानिकता के अदभुत गुणों का भी समावेश हुआ है। रामचंद्रिका में पात्रों के अनुरूप उनके मनोभावों की सुन्दर व्यंजना हुई है। जैसे रावण के चरित्र में क्रूरता, कठोरता, निष्ठुरता, निर्ममता, कूटनीति इत्यादि मनोभावों की व्यंजना मिलती है, तो राम के चरित्र में धीरता, गंभीरता, उदात्तता इत्यादि मनोभावों की व्याख्या सीता के चरित्र में पति राम के प्रति दृढ़ अनुरक्ति, तो पर पुरुष रावण के प्रति उत्कट घृणा-रोष इत्यादि मनोभावों की अभिव्यक्ति हुई है।

अति तनु धनुरेख नेक नाकी न जाकी।
खल सर खर धार क्यों सहै तिक्ष ताकी।
बिड़कन धन घूरे भक्षि क्यों बाज जीवै।
शिव सिर ससि-श्री कों राहु कैसे सु घीवै।।

कितनी गहरी कूटनीति है – रावण की इस उक्ति में राजनीति के चारों भेदों-साम, दाम, दण्ड, भेद की दृष्टि से रावण-अंगद संवाद केशव की मौलिक सूझ-बूझ का अद्भुत निदर्शन है।

7. कूटनीतिज्ञता –

कूटनीति भेद नीति अथवा राजनीतिक दाँव-पेच से संबंधित संवाद केशव के रामचंद्रिका के संवादों की एक अन्यतम विशेषता है। रावण अंगद संवाद कूटनीति का एक सुन्दर उदाहरण है। शत्रु पक्ष के अंगद को अपने पक्ष में करने के लिए रावण-अंगद संवाद में व्यवहारकुशल नीतिनिपुणता के साथ-साथ कूटनीतिज्ञता का अद्भुत संगम मिलता है। देखें –

देहि अंगद राज तोक मारि बानर राज को।
बाँधि देहिं विभीषणों अरू फोरि सेतु समाज को।
पूंछ जारहिं अच्छरिपु की, पांइ लागे रूद्र के।
सीय को तब देहु रामहिं, पार जाइ समुद्र के।

8. अन्य विशेषताएँ –

केशव की रामचंद्रिका के संवादों में उपर्युक्त महत्त्वपूर्ण विशेषताओं के अतिरिक्त कुछ अन्य विशेषताएँ भी देखने को मिलती हैं, जिन्हें निम्नांकित शीर्षकों में सोदाहरण इस प्रकार देखा जा सकता है—

(i) गत्यात्मक संवाद –
मारीच-रामहि मानुष कै जाति जानौ। पूरन चौदह लोक बखानौ।
रावण-तू अब मोहि सिखावत है सठ। मैं बस लोक करे अपनी हठ।।

(ii) प्रश्नोत्तर मूलक संवाद –
लंकानायक को? विभीषण, देव-दूषण को दहै।
मोहि जीवित होहि क्यों? जग तोहि जीवित को कहै?

(iii) परिचयात्मक संवाद –
रे कपि कौन तू अच्छ को घातक? दूत बलि रघुनंदन जी को।
को रघुनंदन रे? त्रिसिरा खरदूषन-दूषण-भूषन भू कौ।।

(iv) ध्वनि-सौंदर्यात्मक संवाद –
रावण – कैसे बँधायो ?
हनुमान – जो सुन्दरि तेरी छुई दृग सोवत पातक लेखौ ।

(v) संक्षिप्त, चुस्त-दुरुस्त संवाद –
रावण – कौन हो, पठसे सो कौने, हयाँ तुम्हें कह काम है?
अंगद – जाति वानर, लंकानायक, दूत अंगद नाम है।

कहा जा सकता है कि ‘रामचंद्रिका’ में केशव की संवाद-योजना अनूठी है। केशव की संवाद-योजना ‘रामचंद्रिका’ में अत्युत्कृष्ट बन पड़ी है। केशव के संवाद कथा-विकास में सहायक और चरित्रोद्घाटक के साथ- साथ संक्षिप्त, सजीव, रोचक, औत्सुक्यपूर्ण एवं मनोरंजक बन पड़े हैं। वैदग्ध्यपूर्ण, व्यंग्ययुक्त, नाटकीयता के साथ-साथ शालीनता और मर्यादा का उत्तम निर्वाह केशव के संवादों की प्रमुख विशेषताएँ हैं। केशव के संवादों में बोलचाल की भाषा का बड़ा सफल प्रयोग हुआ है; जिसके कारण संवादों में स्वाभाविकता, सजीवता, सरलता एवं अर्थगांभीर्य के अद्भुत गुणों का समावेश हो गया है। रामचंद्रिका में प्रश्नोत्तर-शैली के संवाद लाजवाब बन पड़े हैं।

वस्तु-ध्वनि, अलंकार-ध्वनि आदि का सौन्दर्य केशव के संवादों की विलक्षण विशेषताएँ हैं। मनोवैज्ञानिकता, राजनीतिज्ञता, व्यवहारकुशलता, वाक्पटुता, भाषा-प्रवीणता एवं शैली की मधुरता इत्यादि सभी दृष्टियों से केशव की संवाद-योजना सौष्ठवपूर्ण है। हिंदी-साहित्य में केशव ऐसे विरले महाकवि हैं, जिन्हें संवाद-लेखन में जैसी बेजाड़ सफलता मिली, अन्य किसी को नहीं। वस्तुतः केशव की संवाद-योजना सम्पूर्ण हिंदी-साहित्य में अद्वितीय है।

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