मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ(maithili sharan gupt ki kavyagat visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।
मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ
1. रामभक्ति –
मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-प्रवृत्तियों में सर्वप्रमुख प्रवृत्ति उनकी ‘रामभक्ति’ है। ‘रंग में भंग’ से लेकर ‘जयभारत’ तक की सभी कृतियों में गुप्त जी ने रामभक्ति का सुन्दर निदर्शन प्रस्तुत किया है। रामभक्ति- काव्यधारा में गुप्त जी की ‘साकेत’ रचना का अक्षुण्ण महत्त्व है। मैथिलीशरण गुप्त जी ने राम की कथा को एक नवीन रूप प्रदान किया। उन्होंने राम को ईश्वर का विश्वव्यापी रूप प्रदान किया है और यह कहा है कि राम से प्रेम करना ईश्वर से प्रेम करना है।
‘’राम तु मानव हो ईश्वर नहीं हो क्या ?
विश्व में रमे हुए नहीं सभी वहीं क्या?
तब मैं निरीश्वर हूँ ईश्वर क्षमा करें
तुम न रमो तो मन में रमा करें।‘’
डॉ. सत्येन्द्र का मत है कि – “गुप्त जी के काव्य में राम के प्रति अटूट भक्ति है। गुप्त जी की कविता व्यक्तिगत हर्ष-विषाद और संयोग-वियोग की अभिव्यक्ति नहीं, एक परम्परागत भारतीय परिवार की गौरवमयी झाँकी है।” डॉ. नगेन्द्र ने ‘मानस’ के बाद साकेत को राम काव्य का दूसरा स्तंभ कहा है।
2. राष्ट्रीयता –
गुप्त जी राष्ट्रीय कवि हैं। विजयेन्द्र स्नातक के शब्दों में “राष्ट्रीय सांस्कृतिक मूल्यों के वैतालिक गुप्त जी थे।” ‘भारत-भारती’ के प्रकाशन के साथ ही गुप्त जी की पहचान राष्ट्रीय भावधारा के प्रतिनिधि कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गई। गुप्त जी की राष्ट्रीयता में अतीत का गौरवगान (भारत-भारती, हिन्दू ), जन्मभूमि से अकाट्य प्रेम, कर्त्तव्य- अकर्त्तव्य का विवेक, सांस्कृतिक जागरण, कर्त्तव्यबोध, स्वतंत्रता के लिए व्याकुल पुकार, जातीय गौरव का अमर दिव्य संदेश है, तो न्यायार्थ अपने बन्धुओं को भी दण्ड देने का अद्भुत भाव है। गुप्त जी की राष्ट्रीयता देखें –
1. हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।
2. फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार में।
जागी यहीं थी जग रही जो ज्योति अब संसार में।
राष्ट्रीय एकता, साम्प्रदायिक सद्भाव और सौहार्द के सम्बन्ध में गुप्त जी ‘मातृवंदना’ शीर्षक कविता में कहते हैं कि –
3. जाति, धर्म या संप्रदाय का, नहीं भेद व्यवधान यहाँ।
सबका स्वागत, सबका आदर, सबका सम-सम्मान यहाँ। विजयेन्द्र स्नातक ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि – “भारतीय संस्कृति की विराट सामाजिकता ही गुप्त जी को इष्ट थी और इसी उदात्त भावना को वह राष्ट्र-भावना के रूप में स्वीकार करते हैं। जिस राष्ट्रीय एकता, अखंडता और साम्प्रदायिक सद्भावना की बात आज देश में की जा रही है, गुप्त जी के काव्य में वह सर्वोपरि है।” गुप्त जी सच्चे अर्थो में राष्ट्रीय कवि हैं। भारत- भारती रचना राष्ट्रीय जागरण का शंखनाद है।
3. उपेक्षितों का उद्धार –
मैथिलीशरण गुप्त का काव्य उपेक्षित पात्रों के उद्धार की दृष्टि से विशिष्ट काव्य है। गुप्त जी ने ‘पंचवटी’ में लक्ष्मण का, ‘साकेत’ में उर्मिला का और ‘यशोधरा’ में यशोधरा का उद्धार किया है। रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि- “साकेत की रचना तो मुख्यतः इस उद्देश्य से हुई है कि उर्मिला काव्य की उपेक्षित पात्र न रह जाये। पूरे दो सर्ग (9 और 10) उसके वियोग वर्गन में खाप गये हैं। जिनके बीच-बीच में अत्यंत उच्च भावों की व्यंजना है।”
‘साकेत’ के नवम् सर्ग में उर्मिला का चरित्रोत्कर्ष देखते ही बनता है। वह अपने त्याग और पवित्र प्रेम के बल पर अविस्मरणीय चरित्र बनकर उभरती है। काव्य की उपेक्षिताओं के सन्दर्भ में ‘यशोधरा’ कृति की ‘यशोधरा’ नारी चरित्र भी गुप्त जी की एक अविस्मरणीय सृष्टि है यशोधरा के प्रथम पृष्ठ पर ही गुप्त जी ने लिखा है कि-
‘’अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में है पानी।‘’
गुप्त जी ने यशोधरा के चरित्र के द्वारा भारतीय नारी को उसके स्वाभाविक गुणों के साथ प्रतिष्ठित किया है; जो पुरुष को बाँधती नहीं मुक्त करती है। और उसे कर्मण्यता सिखाती है। गुम जी की ‘विष्णुप्रिया’ रचना भी यशोधरा के समान है। चैतन्य महाप्रभु की गृहिणी ‘विष्णुप्रिया’ का दुःख भी यशोधरा से मिलता-जुलता है। विष्णुप्रिया को भी चैतन्य निद्रामग्न छोड़ गृह-त्याग करते हैं।
गुप्त जी एक स्थान पर चैतन्य के माध्यम से कहते हैं कि – “पुरुष क्या करेगा त्याग करती है नारी ही।” उर्मिला, यशोधरा, विष्णुप्रिया इत्यादि उपेक्षिता नारी पात्रों को सर्वप्रथम गुप्त जी ने ऐसी प्रतिष्ठा प्रदान की है कि ये अमर नारी चरित्र के रूप में प्रतिष्ठित हो गईं। हिन्दी-कविता के इतिहास में गुप्त जी पहले कवि हैं, जिन्होंने उपेक्षित नारियों का उद्धार कर इनका परिष्कृत आदर्श रूप समाज के समक्ष रखा।
4. मानवतावाद –
सांस्कृतिक पुनर्जागरण के पुरोधा और भारतीय सभ्यता, संस्कृति और परंपरा के पोषक मैथिलीशरण गुप्त सच्चे अर्थों में मानवतावाद के पोषक और समर्थक थे। गुप्त जी ने ‘काबा और कर्बला’ लिखकर मुसलमानों के प्रति उदारता बरती, तो ‘गुरुकुल’ लिखकर सिक्खों के धर्म गुरुओं के प्रति सहिष्णुता का अद्भुत परिचय दिया। आशावादी कवि गुप्त जी मानवतावाद के पक्षधर हैं जो विषम स्थिति में भी स्वर्णिम स्वरूप को साकार करने एवं आशा का महत् संदेश देते हैं। यथा-
”भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया,
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल ही को स्वर्ग बनाने आया।।”
5. भारतीय संस्कृति –
गुप्त जी भारतीय संस्कृति के अनन्य प्रस्तोता हैं और उनका काव्य भारतीय संस्कृति का आख्यान है। गुप्त जी की समस्त रचनाओं में भारतीय संस्कृति की पुरजोर अभिव्यक्ति होने के साथ-साथ भारतीय समाज के उद्बोधन की दिशा में स्तुत्य एवं सार्थक प्रयास व्यक्त हुआ है। डॉ उमाकांत गोयल ने गुप्त जी को भारतीय संस्कृति का आख्याता सही कहा है। गुप्त जी गार्गी, मैत्रेयी, अहल्या, लक्ष्मी, पद्मिनी, भारती जैसी स्त्रियों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि “इससे हमारी संस्कृति और जातीय इतिहास जगमगा रहे हैं।”
वहीं दूसरी ओर पूरे विश्वास के साथ यह लिखते हैं कि “पाती स्त्रियाँ आदर जहाँ रहतीं वहीं सब सिद्धियाँ”। परिवार के केन्द्र में स्थित नारी को विशिष्टता प्रदान कर गुप्त जी ने भारतीय संस्कृति के उज्वल पक्ष को रूपावित किया है। मर्यादा, कर्तव्यपालन, पराक्रम, मेह, सौहार्द, वसुधैव कुटुम्बकम् इत्यादि भारतीय संस्कृति के प्रोज्ज्वल मणि का सुन्दर दस्तावेज है- गुप्त जी का साहित्य।
6. मानवीय मूल्य –
गुप्त जी का काव्य मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति का अद्भुत काव्य है। गुप्त जी का काव्य युगीन समस्याओं (यथा- राष्ट्रीय मुक्ति, जात-पाँत, छुआछूत, स्त्री सम्मान की समस्या, अनमेल विवाह, किसान-समस्या, बाल-विवाह इत्यादि) का चित्रण कर जहाँ सुधार का संदेश देता है; वहीं राष्ट्र-सम्मान, स्वतंत्रता, स्त्री-सम्मान इत्यादि मूल्यों को भी उच्च मनोभूमि पर प्रतिष्ठित करता है। यथा –
1. अनय राज निर्दय समाज से निर्भय होकर जूझो।
2. न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दंड देना धर्म है।
7. प्रकृति चित्रण –
गुप्त जी की काव्य-प्रवृत्तियों में प्रकृति-चित्रण एक अन्यतम प्रवृत्ति है। साकेत, यशोधरा, पंचवटी इत्यादि रचनाओं में पंत जी ने प्रकृति के बड़े सुंदर, सजीव, जीवंत, मनोरम एवं भाव प्रवण चित्र उकेरे हैं। ‘पंचवटी’ में प्रकृति का आलंबन रूप में यह चित्र अनुपम है –
‘’चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अंबर तल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मंद पवन के झोंकों से।‘’
प्रकृति-चित्रण का निम्नांकित उदाहरण भी बेमिसाल है-
‘’सखी निरख नदी की धारा
ढलढल ढलमल अंचल अंचल झलमल झलमल तारा।‘’
8. कलापक्ष –
कलापक्ष की दृष्टि से गुप्त जी की महनीय देन है— ‘खड़ी बोली को कविता के अनुकूल स्वरूप प्रदान करना’। गुप्त जी पहले ब्रजभाषा में कविता किया करते थे। आरम्भ में उन्होंने ‘रसिकेन्द्र’ उपनाम से एक ब्रजभाषा की कविता ‘सरस्वती’ में प्रकाशनार्थ भेजी थी; जिसे महावीर
प्रसाद द्विवेदी ने यह कहकर लौटा दिया कि आपकी कविता पुरानी भाषा में लिखी गई है।
सरस्वती में हम बोलचाल की भाषा में ही लिखी गई कविताएँ छापना पसंद करते हैं। कुछ समय बाद ‘हेमंत’ शीर्षक से गुप्त जी की खड़ीबोली में (सरस्वती पत्रिका में) प्रथम कविता प्रकाशित हुई और फिर उनकी भाषा निरंतर निखरती हुई परवान चढ़ी।
खड़ी बोली को काव्यभाषा बनाने में गुप्त जी का अभूतपूर्व योगदान रहा। उमाकांत गोयल ने लिखा है कि – खड़ीबोली के स्वरूप-निर्धारण और विकास में गुप्त जी का योगदान अन्यतम है। खड़ीबोली को उसकी प्रकृति के भीतर ही सुन्दर सुघड़ स्वरूप देकर काव्योपयुक्त रूप प्रदान करने का इन्होंने सफल प्रयत्न किया। आज जिस संपन्न भाषा के हम अनायास उत्तराधिकारी हैं, उसे काव्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले यही प्रथम कवि हैं।
अलंकार-छंद की दृष्टि से भी मैथिलीशरण गुप्त उल्लेखनीय हैं। गुप्त जी ने अपनी भाषा-शैली को अर्थालंकारों से सँजोया-सँवारा है; फिर भी शब्दालंकारों के प्रयोग भी उनके काव्य में मिलते हैं। इन्हें ‘अन्त्यानुप्रास का स्वामी’ कहा जाता है। इनके काव्य में छंदों की जितनी विविधता मिलती है, वर्तमान युग में कदाचित् किसी कवि में नहीं। इनके छंद प्रसंगानुकूल हैं।
छंद-मर्मज्ञ गुप्त जी को नंददुलारे वाजपेयी छंद-प्रयोग की विविधता, प्रसंगानुकूलता इत्यादि विविध दृष्टियों से तुलसी के समकक्ष घोषित करते हैं। गुप्त जी का काव्यरूप प्रबंधात्मक (साकेत, जयभारत), खड-काव्य (पंचवटी, द्वापर,नहुष किसान आदि), चंपूकाव्य (यशोधरा), प्रबंधात्मक प्रगीत मुक्तक (भारत-भारती, वैतालिक, हिंदू आदि) एवं मुक्तक (स्वदेश संगीत, झंकार आदि) हैं।
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