हालावाद(Halawad): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत हालावाद पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।
हालावाद से आप क्या समझते हैं ?
हालावाद के प्रवर्त्तक हरिवंशराय बच्चन हैं। हालावाद का समयकाल 1933 से 1936 तक माना जाता है। साहित्यिक दृष्टि से छायावाद की वेदना और घनीभूत होकर निराशा में परिणत हो हालावाद का रूप धारण कर लिया। दूसरे शब्दों में – “छायावाद की निराशा ने बच्चन की वाणी से जो एक नई भावधारा को जन्म दिया, उसे ‘हालावाद’ कहते हैं।
वेदना को मधुर बनाकर सहन करने के फलस्वरूप हालावाद का जन्म हुआ था और छायावाद की इस प्रक्षेपित धारा ‘हालावाद’ को भी 1936 ई. में समाप्त कर दिया गया।
मधुशाला (1935), मधुबाला (1936) और मधुकलश (1951) बच्चन की ये तीन कृतियाँ हालावाद की विशिष्ट देन हैं। इन दोनों काव्य- संग्रहों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि हालावाद के नाम से पृथक् काव्यधारा ही प्रवाहित हो गई। फलस्वरूप बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, हृदयेश, भगवतीचरण वर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ इत्यादि कवियों ने मादकता और बेहोशी के गीत गाये।
जीवन के दुःखों और विफलताओं को अनिवार्य समझकर एक विचित्र मस्ती में समस्त पीड़ा को डुबो देना ही हालावाद का लक्ष्य था। इस वाद की सारी विशेषता बच्चन की इस पंक्ति में निहित है – मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षणभर जीवन मेरा परिचय।
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