रीतिमुक्त काव्यधारा किसे कहते हैं ?

रीतिमुक्त काव्यधारा(Ritimukt Kavya Dhara): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में रीतिमुक्त काव्यधारा पर जानकारी शेयर करेंगे।

रीतिमुक्त काव्यधारा – Ritimukt Kavya Dhara

ऐसा काव्य जो अलंकार, रस, गुण, ध्वनि, नायिका-भेद इत्यादि काव्यशास्त्रीय प्रणाली पर रचा जाये, वह रीतिकाव्य कहलाता है। रीतिकाव्य को 3 भागों में बाँटा गया है –

  • रीतिबद्ध
  • रीतिसिद्ध
  • रीतिमुक्त

रीतिमुक्त काव्य क्या है – Ritimukt Kavya Kya Hai

रीतिमुक्त काव्य का आशय उस काव्य से है, जिसमें कवियों ने लक्षण-ग्रंथ न लिखकर स्वच्छंद रीति से अपने भावों की व्यंजना कीं।

रीतिमुक्त का सीधा-साधा अर्थ भी यही है कि यह धारा रीति-परंपरा के साहित्य बंधनों और रूढ़ियों से सर्वथा मुक्त थी। इसे ही कतिपय विद्धानों ने ‘स्वच्छंद-काव्यधारा’ भी कहा है। स्वच्छंद का अर्थ है – बाह्यबंधनों अर्थात् रीति के बंधनों से मुक्त।

रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवि

  • घनानंद
  • बोधा
  • आलम
  • द्विजदेव
  • ठाकुर
  • शीतल

रीतिमुक्त काव्यधारा की विशेषताएं

(1) आत्मप्रधान एवं व्यक्ति प्रधान काव्य – रीतिमुक्त काव्य आत्मप्रधान एवं व्यक्तिपरक काव्य है। रीतिमुक्त कवियों ने काव्य में रीति, रूढियों का तिरस्कार कर स्वछंद मार्ग अपनाते हुए आत्मपरक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा की। इन्होंने कविता को सायास न मानकर आवेश प्रेम के आवेग का सहज उच्छलन माना। घनानंद कहते हैं कि –

लोग हैं लागि कवित्त बनावत, मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’।

(2) स्वछंद प्रेम – रीतिमुक्त कवियों का प्रेम स्वछंद प्रेम है, जो एकनिष्ठ एवं एकांगी है। वह एक ओर भक्ति की सांप्रदायिकता से मुक्त है, तो दूसरी न और समाज के रीति-नियमों से। घनानंद, बोधा, आलम जैसे कवियों ने हिंदू होते हुए भी मुस्लिम युवतियों क्रमशः सुजान, शेख, सुभान से प्रणय संबंध स्थापित कर स्वछंदतावादिता का परिचय दिया। इन्होंने प्रेम की प्रेरणा से राज्याश्रय, समाज, धर्म इत्यादि सभी को ठुकरा दिया। बोधा अपनी प्रेयसी के लिए संसार के समस्त वैभव को ठुकराने की बात कहते हैं –

‘’एक सुभान के आनन पै कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को।‘’

प्रेम की इस अनन्यता के कारण रीतिमुक्त कवियों के प्रेम में कोरी रसिकता, भावुकता, कामुकता इत्यादि न होकर संघर्ष, त्याग एवं साहस की भावना है।

(3) रीतिमुक्त कवियों का प्रेम व्यथाप्रधान है। यहाँ संयोग में भी वियोग पीछा नहीं छोड़ता है –

‘’यह कैसी संयोग न बुझि न परै कि। वियोग न क्यों हू बिछोहत है।‘’

इस प्रेम की पीर को समझने के लिए हृदय की आँखें चाहिए –

‘’समुझे कविता घनानंद की हिय आँखिन नेह की पीर तकी।‘’

(4) नारी के प्रति अत्यंत सम्मानपूर्ण दृष्टिकोण एवं परिष्कृत रुचि का परिचय रीतिमुक्त कवियों ने दिया है –

‘’अंग-अंग तरंग उठे द्युति की, परि है मनो रूप अबै घट च्वै।‘’ (घनानंद)

(5) रीतिमुक्त काव्य भावप्रधान अधिक है, रूपप्रधान कम। इनकी काव्य शैली पर जानबूझकर अलंकारों का जामा नहीं पहनाया गया है। इनकी भाषा प्रौढ़ ब्रज है और शैली मुक्तक है।

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रीतिसिद्ध काव्य धारा क्या है ?

रीतिसिद्ध काव्य धारा क्या है(Riti Siddh Kavya Dhara): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में रीतिसिद्ध काव्य धारा पर जानकारी शेयर करेंगे।

रीतिसिद्ध काव्य धारा – Riti Siddh Kavya Dhara

ऐसा काव्य जो अलंकार, रस, गुण, ध्वनि, नायिका-भेद इत्यादि काव्यशास्त्रीय प्रणाली पर रचा जाये, वह रीतिकाव्य कहलाता है। रीतिकाव्य को 3 भागों में बाँटा गया है – (i) रीतिबद्ध (ii) रीतिसिद्ध और (iii) रीतिमुक्त।

रीतिसिद्ध काव्य धारा क्या है ?

रीतिकाव्यधारा की 3 कोटियों में एक कोटि ‘रीतिसिद्ध काव्य’ से अभिप्राय ऐसे काव्य से है, जिसमें लक्षण तो नहीं मिलते हैं; किंतु इनमें काव्यशास्त्रगत सभी विशेषताएँ समाविष्ट हैं। रीतिसिद्ध कवियों ने लक्षणग्रंथ तो नहीं लिखा, परंतु उनका आधार लेते हुए उत्कृष्ट रचनाएँ कीं।

रीतिसिद्ध काव्य वह है जिनमें लक्षण तो नहीं मिलता, परंतु उनमें रीतिकालीन परंपराओं का पूरा निर्वाह हुआ है तथा उसमें भावपक्ष एवं कलापक्ष का पूरा समन्वय है।

रीतिसिद्ध काव्य धारा के कवि – Riti Siddh Kavya Dhara ke Pramukh Kavi

  • बिहारीलाल (सर्वोपरि)
  • बेनी
  • रसनिधि
  • विक्रमसाहि
  • राजा मानसिंह
  • रामसहाय

रीतिबद्ध काव्यधारा की विशेषताएं

(1) शृंगारिकता – रीतिसिद्ध कवि बिहारी श्रृंगारिक कवि थे। उनका श्रृंगार वर्णन अनूठा था। उन्हें संयोग श्रृंगार में जितनी सफलता मिली है।

वियोग श्रृंगार में नहीं –

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय। (संयोग श्रृंगार)

सौंह करे, भौंहन हँसे, देन कहे नटि जाई।।

(2) भक्ति-नीति – बिहारी का काव्य श्रृंगार, भक्ति एवं नीति की त्रिवेणी है। बिहारी सतसई का यह (मंगलाचरण) दोहा उनकी भक्ति का विशिष्ट दोहा है –

मेरी भव बाधा हरी, राधा नागरि सोय।

जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय।।

रीतिसिद्ध कवियों में बेनी, बिहारी इत्यादि ने उत्कृष्ट नीति-काव्य भी लिखा है।

नहिं पराग, नहिं मधुर मधु नहिं विकास, इहि काला

अली कली ही सौं बंध्यो आगे कौन हवाल।

(3) ब्रजभाषा का प्रयोग, काव्य का स्वरूप मुक्तक, समासोक्ति शैली का प्रयोग, शब्द योजना में नाद-सौंदर्य, अलंकारों का बहुल प्रयोग दोहा छंद इत्यादि रीतिसिद्ध काव्य के सिरमौर कवि बिहारी के कलापक्ष की मुख्य विशेषताएँ थीं।

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निबंध की शैली कितने प्रकार की होती है ?

निबंध की शैलियाँ(Nibandh ki Shailiyan): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में हिंदी निबंध की शैलियाँ पर जानकारी शेयर करेंगे।

निबंध की शैलियाँ – Nibandh Ki Shailiyan

हिंदी निबंध की प्रमुख शैलियाँ समास शैली, व्यास शैली, तरंग शैली, धारा शैली ,विक्षेप और प्रलाप शैली होती है हिंदी निबंध के मुख्यत: पांच तत्त्व होते है।

हिंदी निबंधों की 5 प्रमुख शैलियाँ हैं –

  1. समास शैली
  2. व्यास शैली
  3. तरंग शैली
  4. धारा शैली
  5. विक्षेप एवं प्रलाप शैली

(1) समास शैली

समास प्रधान शैली वह होती है, जिसमें विचारों के विस्तार को संक्षिप्त रूप में प्रकट किया जाता है। इसमें वाक्य सुगठित, परिमार्जित तथा भावविचार सुगुम्फित एवं अलंकृत होता है। विचारात्मक निबंधों में इस शैली का प्रयोग होता है। शुक्ल जी के मनोविकारों से संबंधित निबंधों (यथा—लज्जा, ग्लानि, उत्साह, लोभ- प्रीति इत्यादि) में इस शैली के दर्शन होते हैं।

(2) व्यास शैली

व्यास प्रधान शैली वह होती है, जिसमें विचारों एवं भावों को सरल-सहज शब्दावली में समझा-बुझाकर प्रस्तुत किया जाता है। सुबोधता एवं प्रसाद गुण इस शैली की मुख्य विशेषता है। वर्णनात्मक एवं विवरणात्मक निबंधों में व्यास शैली अपनायी जाती है।

(3) तरंग शैली

तरंग शैली में भाव लहराते हुए से प्रतीत होते हैं। तरंग की भाँति वे उठते और गिरते प्रतीत होते हैं। यह धारा शैली एवं विक्षेप शैली के बीच की शैली है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का मत है। कि “वह भावाकुलता की उखड़ी खड़ी शैली है, जिसका मुख्य गुण पाठकों के हृदय को आंदोलित करना भर है।”

हजारी प्रसाद द्विवेदी के ललित निबंधों (कल्पलता, अशोक के फूल) तथा डॉ. रघुवीर सिंह की ‘शेष स्मृतियाँ’ कृति में इस शैली का सुंदर प्रयोग मिलता है।

(4) धारा शैली

भावनात्मक एवं ललित निबंधों में धारा शैली का प्रयोग होता है। धारा शैली में भावों की धारा निरंतर प्रवाहमान होकर प्रायः एक गति से चलती है। वस्तुतः, इसमें भावना का आवेग समान स्तर और समान गति में विन्यस्त होता है। सरदार पूर्ण सिंह के निबंध (मजदूरी और प्रेम, सच्ची वीरता, आचरण की सभ्यता) इस शैली के उदाहरण है।

(5) विक्षेप एवं प्रलाप शैली

विक्षेप एवं प्रलाप शैली का प्रयोग आत्मपरक एवं भावात्मक निबंधों में होता है। विक्षेप शैली में भावों की धारा कुछ-कुछ उखड़ती हुई रहती है। इसमें तारतम्य एवं नियंत्रण का अभाव रहता है। प्रलाप शैली की भावाभिव्यक्ति में तीव्रता के साथ-साथ कुछ रूक्षता भी रहती है।

अन्य शैली इन प्रमुख शैलियों के अतिरिक्त हिंदी निबंध में व्यय शैली (बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुन्द गुप्त, हरिशंकर परसाई), आलोचनात्मक शैली (आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी), आलंकारिक शैली, प्रतीकात्मक, बिम्बात्मक, चित्रात्मक, संवाद शैली इत्यादि विविध शैलियां प्रयोग में लायी जाती हैं।

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निबंध के तत्व कितने होते हैं ?

निबंध के तत्व(Nibandh ke Tatva): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में निबंध के तत्व पर जानकारी शेयर करेंगे। निबंध के प्रमुख तत्त्व वैचारिकता, वैयक्तिकता ,शैली, और समाहारिता होते है।

निबंध के तत्व – Nibandh ke Tatva

निबंध के वैसे कोई सर्वसामान्य तत्त्व निर्धारित नहीं किये जा सकते जैसे कि साहित्य की अन्य विधाओं के तत्त्व स्पष्ट रूप से निर्धारित हो जाते हैं।

निबंध-सृजन के निम्नांकित तत्त्व हो सकते हैं –

  1. वैचारिकता
  2. वैयक्तिकता
  3. शैली
  4. समाहारिता

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(1) वैचारिकता

वैचारिकता निबंध का प्रथम तत्त्व है। निबंध में जिस विचार तत्त्व की प्रधानता होती है, वह विचार तत्त्व भाव का स्पर्श लिए हुए होता है। निबंध की वैचारिकता निबंधकार की आत्मगत वैचारिकता होती है।

(2) वैयक्तिकता

वैयक्तिकता को निबंध का द्वितीय मुख्य तत्त्व कहा जा सकता है। निबंध का मूलाधार यदि विचार है तो विचार का मूलाधार निबंधकार की वैयक्तिकता है। निबंध में वैयक्तिकता से अभिप्राय निबंधकार का वह विषयगत रूप है जो उसके पूरे वैचारिक धरातल पर खड़ा है।

(3) शैली

निबंध में जितना महत्त्व वैचारिकता और वैयक्तिकता का है, उतना ही महत्त्व शैली का भी है। साहित्य की सभी विधाओं में निबंध एक ऐसी विधा है जो पूर्णतया शैली आश्रित है। उत्कृष्ट शैली का मुख्य आधार शब्द चयन और अद्भुत कसाव है, जिसके आधार पर निबंध एक सुगठित रचना बनता है।

(4) समाहारिता

समाहारिता निबंध का एक प्रमुख तत्त्व है। यह समाहार वैचारिकता, वैयक्तिकता और शैली की सानुपातिकता का दूसरा नाम है। निबंध लेखन में निबंधकार की एक आँख निरन्तर तात्त्विक समाहार पर टिकी रहनी चाहिए, नहीं तो निबंध ‘उच्छृंखल बुद्धि विलास’ बनकर रह जायेगी।

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ललित निबंध किसे कहते है ?

ललित निबंध किसे कहते है(Lalit Nibandh Kise Kahate Hain): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में ललित निबंध पर जानकारी शेयर करेंगे।

ललित निबंध किसे कहते है – Lalit Nibandh Kise Kahate Hain

विगत कुछ वर्षों में निबंध के ही कलात्मक रूप पर विशेष देते बल हुए ललित निबंधों की रचना हुई, जिनमें विषयवस्तु एवं विचारों के सुव्यवस्थित प्रतिपादन के स्थान पर निजी चिंतन एवं अनुभूति को स्वच्छंदतापूर्वक ललित शैली में व्यक्त किया गया। शैली के लालित्य के कारण ही इन्हें ललित निबंध कहा जाता है।

ललित निबंध की विशेषताएँ

ललित निबंध की विशेषताएँ निम्न हैं –

  • ललित निबंध में विचार की अपेक्षा अनुभूति का महत्त्व होता है।
  • कल्पना की प्रधानता पर बल होता है न कि तथ्य पर।
  •  विषयवस्तु के प्रतिपादन के स्थान पर आत्मव्यंजना का आग्रह ललित निबंध की मुख्य विशेषता है।
  • शैली में लालित्य होता है।

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हिंदी के प्रमुख ललित निबंधकार

हिंदी के प्रमुख ललित निबंधकारों में निम्नांकित प्रमुख हैं –

  • कुबेरनाथ राय – प्रिय नीलकंठी, निषाद योग, निषाद बाँसुरी, कामधेनु
  • विद्या निवास मिश्र – तुम चंदन हम पानी, मेरे राम का मुकुट भीग रहा है।
  • कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर – जिंदगी मुस्कराई, दीपजले शंख बजे।
  • हजारी प्रसाद द्विवेदी – कल्पलता, अशोक के फूल निबंध संग्रह।

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निबंध कितने प्रकार के होते है ?

निबंध के प्रकार(Nibandh Ke Prakar): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में निबंध के प्रकार पर जानकारी शेयर करेंगे।

निबंध के प्रकार – Nibandh Ke Prakar

निबंध के प्रकार वर्णनात्मक निबंध, विवरणात्मक निबंध, विचारात्मक निबंध औरभावात्मक निबंध होते है निबंध के मुख्यत: चार प्रकार होते है।

निबंध की परिभाषा :

नि+बंध = निबंध का अर्थ – रोकना या बाँधना है तथा इसके पर्यायवाची के रूप में लेख रचना, संदर्भ, प्रस्ताव इत्यादि शब्द प्रयुक्त होते. हैं। आजकल इसका प्रयोग लैटिन के ‘एग्जीजियर’ (निश्चिततापूर्वक परीक्षण करना) से उत्पन्न ऐसाई (फ्रेंच) व ऐसे Essay (अंग्रेजी) के अर्थ में होता है। संस्कृत में निबंध का समानार्थी शब्द ‘प्रबंध’ है, जिसका मूल अर्थ प्र (प्रकर्ष से) बंध+अन् (बाँधना) अर्थात् सुगुंफित ग्रंथ या रचना होता है।

आधुनिक निबंध के जन्मदाता मौनतेन के अनुसार – निबंध विचारों, उद्धरणों, कथाओं इत्यादि का मिश्रण है। जॉनसन महोदय के अनुसार -“निबंध मन का आकस्मिक और उच्छृंखल आवेग असम्बद्ध और चिंतनहीन बुद्धि विलास मात्र है। आचार्य शुक्ल जी की दृष्टि में निबंध वही है जिसमें व्यक्तित्व या व्यक्तिगत विशेषता है। आत्म प्रकाशन ही निबंध का प्रथम एवं अंतिम लक्ष्य है।

निबंधों को निम्नांकित 4 भागों में विभक्त करते हैं –

  1. वर्णनात्मक निबंध
  2. विवरणात्मक निबंध
  3. विचारात्मक निबंध
  4. भावात्मक निबंध

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(1) वर्णनात्मक निबंध –

वर्णनात्मक निबंध में वर्णन की प्रधानता होती है। इसमें निबंधकार वस्तु को स्थिर होकर देखता है। इसका संबंध अधिकतर देश से होता है, जिसमें कल्पना तत्त्व की भी प्रधानता होती है।

वर्णनात्मक निबंध पटना की अपेक्षा दृश्य आश्रित होते हैं। इसमें व्यास शैली अपनायी जाती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अधिकांश निबंध वर्णनात्मक निबंध हैं।

(2) विवरणात्मक निबंध –

वर्णनात्मक निबंध में देश की प्रधानता होती है, तो विवरणात्मक निबंधों में काल की प्रधानता स्थान पाती है। यह निबंध प्रायः शिकार, पहाड़ की चढ़ाई, कष्टसाध्य यात्रा, ऐतिहासिक घटनाओं, साहसिक कार्यों इत्यादि से संबंधित होता है, इसलिए इसमें कथात्मकता का अंश आ जाता है।

काल्पनिकता, प्रवाहशैली, आत्मकथात्मक शैली, भावात्मकता और कथात्मकता विवरणात्मक निबंध के मूल तत्त्व हैं। श्रीराम शर्मा एवं सियारामशरण गुप्त के निबंध इस कोटि के हैं।

(3) विचारात्मक निबंध –

विचार प्रधान निबंध विचारात्मक निबंध होते हैं। इसमें भावतत्त्व की अपेक्षा बुद्धि तत्त्व की प्रधानता होती है। विचारात्मक निबंध के केन्द्र में कोई साहित्यिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक इत्यादि कोई भी विचार या समस्या होती है।

विचारात्मक निबंध को आलोचनात्मक, गवेषणात्मक तथा विवेचनात्मक निबंध भी कहते हैं। विचारात्मक निबंध में व्यास तथा समास शैली होती है। शुक्ल जी के कई निबंध इस कोटि के हैं।

(4) भावात्मक निबंध –

भावात्मक निबंध में बुद्धितत्त्व गौण और भावों की प्रधानता होती है। मनोभावों के प्राधान्य से युक्त भावात्मक निबंध काव्यात्मकता का आभास देते हैं और कभी-कभी ऐसे निबंधों को गद्य काव्य भी कहते हैं।

चिंतामणि भाग 01 में शुक्लजी के अधिकांश निबंध भावात्मक हैं। रागात्मक तत्त्व की अधिकता से युक्त भावात्मक निबंधों की शैली धारा शैली, तरंग शैली, विक्षेप शैली होती है।

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एकांकी के तत्व कितने होते हैं

एकांकी के तत्व(Ekanki Ke Tatva Bataiye): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में एकांकी के तत्त्व पर जानकारी शेयर करेंगे।

एकांकी के तत्व – Ekanki Ke Tatva

एकांकी के प्रमुख तत्त्व कथावस्तु,पात्र एवं चरित्र चित्रण,संवाद,देशकाल एवं वातावरण,अभिनेयता और उद्देश्य होते है एकांकी के मुख्यत: छ: तत्त्व होते है।

एकांकी की परिभाषा:

एक अंक वाला नाटक एकांकी नाटक या एकांकी कहलाता है। कहानी की भाँति एकांकी नाटक भी एक घटना, एक परिस्थिति और एक उद्देश्य से बनता है-हजारी प्रसाद द्विवेदी। नाटक और एकांकी में वही संबंध और अंतर है जो उपन्यास और कहानी में होता है। प्रभावोत्पादन की दृष्टि से एकांकी भी उतनी ही सफल नाट्य विद्या है जितना कि नाटक।

डॉ. रांगेय राघव प्रभृति विद्वान् एकांकी को पाश्चात्य One Act Play का हिंदी रूपान्तरण मानते हैं। हरिकृष्ण प्रेमी (मंदिर, बादलों के पार), विष्णु प्रभाकर (अशोक, इंसान, क्या वह दोषी थी, 12 एकांकी, प्रकाश और परछाई), लक्ष्मीनारायण मिश्र (मुक्ति का रहस्य, राजयोग), मोहन राकेश (अंडे के छिलके), भुवनेश्वर (कारवाँ, आदमखोर, इंस्पेक्टर जनरल), उदयशंकर भट्ट (आज का आदमी, जवानी और 6 एकांकी) हिंदी के प्रमुख एकांकीकार हैं।

एकांकी के निम्नांकित छ: तत्त्व माने गये हैं –

  1. कथावस्तु
  2. पात्र एवं चरित्र चित्रण
  3. संवाद
  4. देशकाल एवं वातावरण
  5. अभिनेयता
  6. उद्देश्य

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1. कथावस्तु

कथावस्तु एकांकी का अनिवार्य एवं मूल तत्व है, जिसके बिना एकांकी की कल्पना नहीं की जा सकती। एकांकी की कथावस्तु किसी एक घटना, प्रसंग, एक चरित्र, एक कार्य इत्यादि पर आधारित होती है। इसमें आधिकारिक अर्थात् मूल कथा ही होती है, प्रासंगिक कथाओं (गौण कथाओं) का इसमें स्थान नहीं होता है। एकांकी की कथा प्रारंभ होते ही सीधे लक्ष्य (चरम) की ओर अग्रसर होती है। आरम्भ, चरम एवं अंत ही एकांकी की कथावस्तु की अवस्थाएँ हैं। संक्षिप्तता, सांकेतिकता, मार्मिकता, कौतूहलता, मौलिकता, रोचकता एवं प्रभावान्विति एकांकी के अच्छे कथानक के मुख्य गुण हैं।

2. पात्र एवं चरित्र चित्रण

पात्र एवं चरित्र-चित्रण एकांकी का दूसरा प्रमुख एवं अनिवार्य तत्त्व हैं। एकांकी का फलक सीमित होता. है इसलिए इसमें कम-से-कम गिने-चुने पात्रों की योजना की जाती है। तथा पात्रों का चरित्र – चत्रिण भी रेखाचित्रात्मक स्वरूप में ही संभव हो पाता है। पात्रों का चरित्र-चित्रण एकांकी में जीवंत, विश्वसनीय, गतिशील एवं प्रभावशाली रूप में होना चाहिए ताकि प्रेक्षक उसे आसानी से पचा सके।

डॉ. रामकुमार वर्मा का मत है कि- “घटना से अधिक शक्तिशाली पात्र होते हैं। एकांकी में पात्र महारथी होता है। घटनाएँ रथ बनकर समस्या-संग्राम में उसे गति प्रदान करती हैं।” आज एकांकी में संघर्ष (मानव-जीवन की विभिन्न समस्याओं से उत्पन्न घात-प्रतिघात) को भी अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है और इसे भी एकांकी का एक अन्य तत्त्व माना जाने लगा है।

3. संवाद –

संवाद, कथोपकथन अथवा डायलॉग एकांकी का प्राणतत्त्व है। कथावस्तु एवं पात्रों के चरित्र-चित्रण की सफलता संवादों पर ही आधारित होते हैं। एकांकी के संवाद कथा-विकास एवं चरित्र-चित्रण के विकास में समर्थ होने चाहिए। संक्षिप्तता, रोचकता, ध्वन्यात्मकता, सजीवता, स्वाभाविकता इत्यादि विशेषताएँ भी एकांकी के संवादों में अपेक्षित हैं। संवादों की भाषा-शैली सरल, सहज, बोधगम्य एवं प्रवाहपूर्ण होनी चाहिए।

4. देशकाल एवं वातावरण

‘देश’ का तात्पर्य है- ‘स्थान’; ‘काल’ का अर्थ है- ‘समय’ एवं ‘वातावरण’ से अभिप्राय है— ‘परिवेश’। चूँकि एकांकी का ‘कैनवस’ लघु होता है, इसलिए इसमें देशकाल एवं वातावरण के विस्तृत विश्लेषण की गुंजायश नहीं होती, सिर्फ एकांकी में इसका आभास मात्र होता है।

5. संकलन-त्रय –

एकांकी में संकलन-त्रय (स्थान, समय एवं कार्यघटना की एकता) का निर्वाह एकांकी में सौंदर्य की सृष्टि हेतु आवश्यक है। डॉ. रामकुमार वर्मा, विष्णु प्रभाकर सरीखे प्रसिद्ध एकांकीकार एकांकी में संकलन-त्रय का निर्वाह आवश्यक मानते हैं जबकि डॉ. नगेन्द्र सरीखे आलोचकों की यह मान्यता है कि एकांकी में संकलन-त्रय के प्रति अधिक आग्रह नहीं होना चाहिए।

6. अभिनेयता

अभिनेयता एकांकी का वह केन्द्रीय तत्त्व है जिसकी मंच पर अभिनीत होने में है। चूंकि एकांकी दृश्यकाव्य है, इसलिए एकांकी अभिनेय होता है। एकांकी में अभिनय के चारों प्रकारों – आंगिक, वाचिक, आहार्य एवं सात्त्विक का प्रयोग होता है।

7. उद्देश्य

‘उद्देश्य’ एकांकी का अंतिम वह तत्त्व है, जिसकी प्रेरणा से वशीभूत होकर कोई एकांकीकार ‘एकांकी’ का सृजन करता है। रसास्वादन, आनंदोपलब्धि, किसी समस्या का समाधान, मानव जीवन की एक स्थिति विशेष का चित्रण इत्यादि कुछ भी एकांकी का उद्देश्य हो सकता है। यह उद्देश्य एकांकी में आरोपित न होकर अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त होना चाहिए।

इस प्रकार, एकांकी के इन तत्त्वों के समावेश से ही एकांकी की दृश्य – काव्यता सिद्ध होती है।

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