द्विवेदी युगीन काव्य की विशेषताएँ

द्विवेदी युगीन काव्य की विशेषताएँ (Dwivedi Yugin Kavya ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत द्विवेदी युगीन काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

द्विवेदी युगीन काव्य की विशेषताएँ

हिंदी-साहित्येतिहास में 1900 से 1918-20 ई. तक का काल द्विवेदी काल है। समकालीन साहित्य पर महावीर प्रसाद द्विवेदी की बहुमुखी प्रतिभा और प्रभावशाली व्यक्तित्व की इतनी गहन व प्रभावशाली छाप पड़ी कि उनका युग (1900-1918) ‘द्विवेदी युग’ कहलाया। जागरण और सुधार की दृष्टि से यह काल ‘जागरण सुधार काल’ भी कहा जाता है। द्विवेदी जी के अतिरिक्त मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, रायदेवी प्रसाद पूर्ण, नाथूराम शर्मा ‘शंकर’ इत्यादि द्विवेदीयुग के प्रधान कवि थे।

1. राष्ट्रीयता

राष्ट्रीयता द्विवेदीयुगीन कव्य की प्रधान भावधारा थी। द्विवेदीयुगीन कवियों ने देश की वर्तमान हीन दशा पर क्षोभ प्रकट किया और आलस, फूट, मिथ्या, कुलीनता इत्यादि को उसका कारण बताया। उन्होंने परतंत्रता को सबसे बड़ा अभिशाप मानते हुए स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए क्रांति और आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा दी।

‘’देशभक्त वीरों मरने से नहीं नेक डरना होगा।
प्राणों का बलिदान देश की बलिवेदी पर करना होगा।।‘’

2. जागृति

द्विवेदीकाल ‘जागरण काल’ है। यह राष्ट्रीय जागृति का वह काल है, जब सारा देश अंगड़ाई लेता हुआ जागता है। ब्रिटिश हुकूमत के प्रति जेहाद के रूप में उभरता हुआ आक्रोश द्विवेदी युग में देखते ही बनता है। वस्तुतः भाषा, विषय, राष्ट्रीयता इत्यादि विभिन्न आधारों पर द्विवेदी युग समस्त देश को एकता के सूत्र में पिरोने का काल है।

3. काव्यफलक का विस्तार

‘सब विषय काव्योपयुक्त हैं, कविता के क्षेत्र में द्विवेदीयुग में यह मार्ग प्रशस्त हुआ। चींटी से लेकर हाथी तक, भिक्षुक से लेकर राजा तक, बिंदु से लेकर समुद्र तक, अनंत आकाश, अनंतपृथ्वी, अनंतपर्वत इत्यादि सभी को काव्य का उपयुक्त विषय माना गया।

4. मानवतावाद

द्विवेदीयुग में सामान्य मानव की प्रतिष्ठा पहली बार हुई। छायावाद-युग में जो सामान्य मानव आता है, वह द्विवेदीयुग से ही चलकर आता है। द्विवेदी जी की कविता में ‘कल्लू अल्हैत’ काव्य का विषय बना, तो अविद्यानंद के व्याख्यान में विदेशीयता का रसिक शंकर जी के व्यंग्य बाण का लक्ष्य बना। द्विवेदी युग में साकेत, द्वापर, यशोधरा में उपेक्षित नारियों का चित्रण ‘सामान्य मानव की प्रतिष्ठा’ का सूचक है।

5. अन्य विशेषताएँ

बौद्धिकता, हास्य की अपेक्षा व्यंग्य की प्रधानता (शिवशंभु का चिट्ठा में बालमुकुंद गुप्त ने व्यंग्य लिखे, नाथूराम शर्मा शंकर ने गर्भरंडा रहस्य लिखा), आदर्शवादिता और नैतिकता द्विवेदीयुगीन काव्य की अन्य मुख्य विशेषताएँ थीं। भाषा की दृष्टि से द्विवेदी युग इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि इसने भविष्य की कविता के लिए एक वाणी दी जिसे हम ‘खड़ीबोली’ कहते हैं।

कतिपय आलोचकों ने द्विवेदीयुगीन काव्य पर नीरसता, इतिवृत्तात्मकता, उपदेशात्मकता, कविता में अपेक्षित गहराई एवं कलात्मक समृद्धि की न्यूनता इत्यादि के आरोप लागाए। यह स्थिति प्रारम्भिक वर्षों में अवश्य रही; परन्तु प्रियप्रवास (हरिऔध), साकेत (गुप्त), जयद्रथवध (गुप्त), भारत-भारती (गुप्त) इत्यादि रचनाओं को देखते हुए ऐसा नहीं कहा जा सकता है।

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पूर्वी हिंदी की बोलियाँ : वर्गीकरण

पूर्वी हिंदी की बोलियाँ (Purvi Hindi ki Boliyan): आज के आर्टिकल में हम पूर्वी हिंदी की बोलियों के बारे में जानकारी शेयर करेंगे।

पूर्वी हिंदी की बोलियाँ

1. अवधी

इस बोली का केंद्र ‘अयोध्या’ है। अयोध्या का ही विकसित रूप अवध है जिससे ‘अवधी’ बना है। इसके उद्भव के संबंध में विवाद है। बैसवाड़ी, मिर्जापुरी, बनौधी इसकी मुख्य बोलियाँ हैं।

क्षेत्र – लखनऊ, इलाहाबाद, फतेहपुर, मिर्जापुर (अंशतः) उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, फैजाबाद, गोंडा, बस्ती, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बाराबंकी इत्यादि हैं।

प्रमुख विशेषताएँ – संज्ञा के तीन रूप (घोर, घोरवा, घोरौना), स्वार्थे ‘वा’ का व्यापक प्रयोग (भोलवा, मोरवा), ‘ह’ और ‘यार’ का आगम (सईस—सहीस, इच्छा-द्विच्छा; पसंद-परसंद, वियोग-विरोग), महाप्राणीकरण (पुन:-फुन, पेड़-फेड़) व का ब (विद्यालय — बिद्यालय), मौसा के लिए ‘मौसिया’, व्यंजनातता (घोड़ा-घोर; होत्-होब; करव्)।

2. बघेली

बघेल राजपूतों के आधार पर रीवां तथा आस-पास का क्षेत्र बघेलखंड कहलाता है और वहाँ की बोली बघेली या बघेलखंडी कहलाती है।

क्षेत्र – रीवां, नागौद, शहडोल, सतना, मैहर तथा आस-पास का क्षेत्र है।

प्रमुख विशेषताएँ – सर्वनामों में मुझे के स्थान पर म्वा, मोही; तोही के स्थान पर त्वां, तोही; विशेषण में ‘हा’ प्रत्यय (नीकहा) घोड़ा का घ्वाड़, मोर का म्वार, पेट का प्याट, देत का घात इत्यादि।

3. छत्तीसगढ़ी

मुख्य क्षेत्र ‘छत्तीसगढ़’ होने के कारण इसका नाम ‘छत्तीसगढी’ पड़ा।

क्षेत्र – सरगुजा, कोरिया, बिलासपुर, खैरागढ़, रायगढ़, दुर्ग, नदगाँव, कांकेर इत्यादि।

प्रमुख विशेषताएँ – कुछ शब्दों में महाप्राणीकरण (इलाका—इलाखा), अघोषीकरण (बंदमी—बंदकी, शराब शराप ), ( खराब – खराप) स का छ तथा छ का स (सीता—छीता, छेना – सेना), ऋ का उच्चारण ‘रु’ (उड़िया तथा मराठी की सीमा पर ) इत्यादि।

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पश्चिमी हिंदी की बोलियाँ : वर्गीकरण

पश्चिमी हिंदी की बोलियाँ (Paschimi Hindi Ki Boliyan): आज के आर्टिकल में हम पश्चिमी हिंदी की बोलियों के बारे में जानकारी शेयर करेंगे।

पश्चिमी हिंदी की बोलियाँ – Paschimi Hindi Ki Boliyan

1. खड़ी बोली

खड़ी बोली शब्द का प्रयोग दो अर्थों में होता है- (i) साहित्यिक हिंदी खड़ी बोली के अर्थ में और (ii) दिल्ली मेरठ के आस-पास की लोकबोली के अर्थ में।

यहाँ दूसरे अर्थ में ही इस शब्द का प्रयोग किया जा रहा है। कुरु जनपद की बोली होने के कारण राहुल सांकृत्यायन ने इसे ‘कौरवी’ कहा। खड़ी बोली में ‘खड़ी’ शब्द विवादास्पद है। ने ‘खड़ी का अर्थ ‘खरी’ (Pure) अर्थात् शुद्ध माना है तो दूसरों ने खड़ी कुछ लोगों (Standing)। कुछ लोगों ने इसका संबंध खड़ी बोली में अधिकता से प्रयुक्त पाई (1) (गया बड़ा, का) तथा उसके ध्वन्यात्मक प्रभाव कर्कशता से जोड़ा है। यों अभी तक इस प्रश्न का उत्तर अनुत्तरित है।

क्षेत्र – देहरादून का मैदानी भाग, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, दिल्ली का कुछ भाग, बिजनौर, रामपुर तथा मुरादाबाद।

प्रमुख विशेषताएँ – आकारांतता (घोड़ा), न का ण (अपना, राणी), ल का क (काला, नीला), दीर्घ स्वर के बाद मूल व्यंजन के स्थान पर द्वित्व व्यंजन (बेटा, बापू, रोही), महाप्राण के पूर्व इसी स्थित में अल्पप्राण का आगम (देक्खा, भूक्खा) ।

2. ब्रजभाषा

ब्रज का पुराना अर्थ – पशुओं या गौओं का समूह या ‘चारागाह’ है। पशुपालन के प्राधान्य के कारण यह क्षेत्र कदाचित् ब्रज कहलाया और इसी आधार पर इसकी बोली ‘ब्रजभाषा’ अथवा ‘ब्रजी’ कही जाती है। सूर, तुलसी, नंददास, रहीम, रसखान, बिहारी, देव, रत्नाकर इसके मुख्य कवि थे।

क्षेत्र – मथुरा, आगरा, अलीगढ़, धौलपुर, मैनपुरी, एटा, बदायूँ, बरेली तथा आस-पास का क्षेत्र।

प्रमुख विशेषताएँ – खड़ी बोली आकारांतता के स्थान पर ‘ओकारांतता’ (घोरो, भलो, बडो), व्यंजनांत के स्थान पर उकारांत (सबु, मालु) ने के स्थान पर नै, को का कूं, पर का पै, से का सों।

3. हरियाणवी

क्षेत्र – मोटे रूप से हरियाणा, पंजाब का कुछ भाग, दिल्ली का देहाती (पश्चिमी) भाग।

प्रमुख विशेषताएँ – एक व्यंजन के स्थान पर द्वित्व (बब्बू, भीत्तर), न का ण (होणा); ल का ळ (काळा), ड़ का ड (घड़ा), सहायक क्रिया हूं, है, हैं, हो के स्थान पर सूं, सै, सैं।

4. बुंदेली

बुंदेले राजपूतों के कारण मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश की सीमा रेखा के झाँसी, छतरपुर, ओड़छा, सागर, हमीरपुर, होशंगाबाद तथा आस-पास के भागों को बुंदेलखंड कहते हैं। यहाँ की बोली बुंदेली या बुंदेलखंडी है।

प्रमुख विशेषताएँ – अन्त्य अल्प्राणीकरण (भूक, दूद), च का स प्रयोग, यथा—सांचे (सांसे), स का छ (सीढी—छीड़ी), कर्म, संप्रदान ‘को’ के स्थान पर खों, खां, खे इत्यादि।

5. कन्नौजी

कन्नौज इस बोली का प्रमुख केंद्र है। अतः इसका नाम कन्नौजी पड़ा।

क्षेत्र – इटावा, फर्रुखाबाद, शाहजहाँपुर, हरदोई, पीलीभीत।

प्रमुख विशेषताएँ – ओकारांतता (हमारो), उकारांतता (खातु, सबु), स्वार्थ प्रत्यय ‘इया’ (जिभिया, छोकरिया) औ का अऊ (कौन-कउन), बहुवचन के लिए ह्वार (हम ह्वार—हम लोग) इत्यादि।

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देवनागरी लिपि की विशेषताएँ : उपयोगिता, महत्त्व

देवनागरी लिपि की विशेषताएँ(Devanagari Lipi Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम देवनागरी लिपि की विशेषताएँ के बारे में चर्चा करेंगे।

देवनागरी लिपि की विशेषताएँ – Devanagari Lipi Ki Visheshtae

भारत की प्राचीनतम ब्राह्मी लिपि से विकसित नागरी लिपि है, जिसे नागरी, नन्दिनागरी, देवनागरी इत्यादि विविध नामों से जाना जाता है। यह अन्य लिपियों के समान दायीं से बायीं ओर लिखी जाती है। हिंदी के अतिरिक्त मराठी, पंजाबी, नेपाली इत्यादि भाषाओं की लिपि भी देवनागरी है। यह भारत की राजलिपि है।

नागर ब्राह्मणों, नगरों और तांत्रिक चिह्न देवनागर से उत्पन्न होने के कारण इसका नाम नागरी पड़ने का अनुमान किया जाता है। उदयनारायण तिवारी का यह मत महत्त्वपूर्ण है कि चूँकि देवभाषा संस्कृत लिखने के लिए इसका प्रयोग होता था, अतः इसे देवनागरी नाम से अभिहित किया गया।

1. देवनागरी लिपि एक वैज्ञानिक लिपि है। इसमें एक अक्षर से केवल एक ध्वनि का बोध होता है। जैसे—अंग्रेजी में C का कहीं ‘स’ कहीं क, G का कहीं ‘ज’ कहीं ‘ग’; पर नागरी में यह अव्यवस्था नहीं है।

2. देवनागरी में एक ध्वनि के लिए एक चिह्न है। रोमन में कभी ‘स’ के लिए C (Rice), कभी SS (Ass), कभी SC (Science) कभी S (Song) का प्रयोग होता है; नागरी में ऐसी बात नहीं है।

3. नागरी लिपि में ह्रस्व और दीर्घ के लिए स्वतंत्र चिह्न हैं। जैसे—अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। रोमन में A (ए) को अ, आ दोनों पढ़ते हैं।

4. देवनागरी लिपि संसार को एक ऐसी लिपि है, जिसमें ध्वनियों के उच्चारण और लेखन में एकरूपता है।

5. ध्वनियों की पूर्णता, पर्याप्तता एवं स्पष्टता की दृष्टि से नागरी लिपि संसार में अन्यतम है।

6. वर्णमाला के वैज्ञानिक वर्गीकरण की दृष्टि से भी देवनागरी लिपि अन्यतम है।

7. अक्षरात्मकता, सुपाठ्यता, यांत्रिक सौकर्य देवनागरी लिपि के अन्य गुण हैं।

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छायावाद की विशेषताएं

छायावाद की विशेषताएं – अर्थ, परिभाषा और प्रवृत्तियां

छायावाद (Ekanki Ke Tatva Bataiye): छायावाद आधुनिक हिंदी-कविता की उस धारा का नाम है, जो सन् 1918 ई. से 1936 ई. तक हिंदी-काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति रही। वैयक्तिकता, भावुकता, काल्पनिकता, नवीन सौंदर्य बोध, प्रकृति का सूक्ष्म चित्रण, गीतात्मकता इत्यादि छायावाद की मुख्य विशेषताएँ थीं। छायावाद के नामकरण एवं परिभाषा के संबंध में बड़ा ऊहापोह है।

छायावाद का क्या अर्थ है ?

शुक्ल जी ने छायावाद का संबंध अंग्रेजी के ‘फैंटसमेटा’ (Phantasmata) से जोड़ा, नंददुलारे वाजपेयी ने इसका संबंध ‘युगबोध से जोड़ते हुए इसे आध्यात्मिक छाया का भान’ कहा। मुकुटधर पाण्डेय ने इसे कविता न मानकर उसकी छाया माना। इसी प्रकार सुशील कुमार ने इसे कोरे काग़ज की भाँति अस्पष्ट, निर्मल ब्रह्म की विशद छाया, वाणी की नीरवता इत्यादि-इत्यादि कहा।

सांकेतिक सूक्ष्म अभिव्यक्ति के कारण आज छायावाद उस सशक्त काव्यधारा के लिए प्रयुक्त होता है, जिसकी अवधि महज 18- 20 वर्ष है; पर जो जीवन और काव्य के प्रति नई दृष्टि अपनाने तथा विषय, भाव, भाषा, शिल्प के क्षेत्र में क्रांति लाने के कारण एक सशक्त आन्दोलन सिद्ध हुआ।

छायावाद की परिभाषा

(1) रामचंद्र शुक्ल – छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिये। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में और दूसरा काव्य शैली या विशेष के व्यापक अर्थ में।

(2) डॉ. रामकुमार वर्मा – ‘जब परमात्मा की छाया आत्मा पर पड़ने लगे और आत्मा की छाया परमात्मा पर तो यही छायावाद है।’

(3) नंददुलारे वाजपेयी – ‘छायावाद मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान है।’

(4) जयशंकर प्रसाद – कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगे, तब हिंदी में उसे छायावाद से अभिहित किया गया।

छायावाद की विशेषताएं

हिंदी साहित्य के अंतर्गत हम छायावाद की विशेषताएं टॉपिक पर जानकारी शेयर कर रहें है

1. वैयक्तिकता –

छायावाद युग में कवियों का विषय हो गया था- ‘आत्मकथा’ और शैली ‘मैं’। पंत का ‘उच्छ्वास’, प्रसाद का आँसू, निराला के ‘विप्लवी बादल’ और ‘सरोज स्मृति’ इसी वैयक्तिकता के अग्रदूत हैं। छायावादी कविता में जिस ढंग से निजी बातें एकदम खरे रूप में कही गईं, पहले कभी नहीं।

‘मैं तो अबाध गति मरुत सदृश हूँ चाह रहा अपने मन की।’

2. नवीन सौंदर्य बोध –

छायावादी कवियों ने नारी सौंदर्य के रीतिकालीन प्रतिमानों को ध्वस्त करते हुए नारी को अपमान के पंक और वासना के पर्यंक से उठाकर देवी, प्राण और सहचरी के उच्च आसन पर प्रतिष्ठित किया। पंत ने नारी को ‘देवी, माँ, सहचरी प्राण’ कहा तो निराला ने विधवा को ‘इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी’ कहा। प्रसाद ने नारी को आदर्श श्रद्धा में देखा।

“नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघवन बीच गुलाबी रंग।‘’ (कामायनी)

छायावादी कवियों का नवीन सौंदर्य बोध प्रकृति-चित्रण में भी परिलक्षित हुआ। पंत अपने चित्रण के लिए विशेष प्रसिद्ध हुए।

3. स्वछंद कल्पना –

यह छायावादी कवियों के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थी। कल्पना छायावादी कवियों के ‘मन की पाँख’ थी, वह उसकी स्वतंत्रता, मुक्ति, विद्रोह, आनंद इत्यादि आकांक्षाओं की प्रतीक थी। कल्पना छायावादी कवियों की ‘राग शक्ति’ थी, तो ‘बोध शक्ति’ भी।

4. अन्य विशेषताएँ –

भावुकता (यह छायावाद का पर्याय हो गई), जिज्ञासा (प्रथम रश्मि का आना रंगिणि तूने कैसे पहचाना), रहस्यात्मकता (निमंत्रण देता मुझको कौन?), वेदना की अभिव्यक्ति (मैं नीर भरी दुःख की बदली – महादेवी), दुःख ही जीवन की कथा रही (निराला) इत्यादि छायावाद की अन्य विशेषताएँ थीं।

5. कोमलकांत पदावली, संगीतात्मकता, चित्रात्मकता, अनूठी उपमाओं और प्रतीकों का प्रयोग छायावाद की शिल्पगत प्रवृत्तियाँ थीं। इसके अतिरिक्त छंद के क्षेत्र में मुक्तछंद का प्रयोग (जैसे-जूही की कली), अलंकार के क्षेत्र में मानवीकरण एवं विशेषण-विपर्यय इन दो नए अलंकारों का प्रयोग छायावाद की मुख्य विशेषताएँ थीं।

यथा –

1. मेघमय आसमान से उतर रही वह, संध्यासुंदरी परी सी धीरे-धीरे। (मानवीकरण)
2. तुम्हारी आँखों का बचपन ! खेलता जब अल्हड़ खेल (विशेषण विपर्यय)।

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