अज्ञेय के काव्य की विशेषताएँ

अज्ञेय के काव्य की विशेषताएँ(Agyeya Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत अज्ञेय के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

अज्ञेय के काव्य की विशेषताएँ

‘भग्नदूत’ और ‘चिन्ता’ की छायावादी कविताओं से अपनी काव्य- यात्रा प्रारम्भ करने वाले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ प्रयोगवाद और नयी कविता के प्रवर्तक है। इनकी कविता मूलतः व्यक्तिवादी है; इसलिए इन्हें ‘व्यक्तिवादी कवि’ भी माना जाता है। अज्ञेय की काव्य-रचनाओं को इस प्रकार देखा जा सकता है –

1. काव्य –  ‘भग्नदूत’, ‘चिन्ता’, ‘इत्यलम’, ‘सागर मुद्रा’, ‘बावरा अहेरी’, ‘इन्द्रधनुष’, ’रौंदे हुये’, ‘आँगन के पार द्वार, ’हरी घास पर क्षण भर’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’।

2. सम्पादन – तार सप्तक प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ।

अज्ञेय के काव्य की मुख्य विशेषतायें (Agyeya ke Kavya ki Visheshtaen) इस प्रकार हैं –

1. प्रणयानुभूति –

अज्ञेय के काव्य का शुभारम्भ प्रेम की टीस, चुभन, वेदना और छटपटाहट के साथ हुआ है। अज्ञेय के काव्य में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक प्रेमानुभूति की अजस्र धारा प्रवाहित हुई है। अज्ञेय की प्रेमानुभूति में कर्म और भावना, प्रेम और वय तथा प्रेम और कामवाशना (Sex) का द्वन्द है। अज्ञेय के काव्य में प्रेमानुभूति के विविध रूप दिखाई देते हैं। जैसे –

1. तुम्हारी देह,
मुझको कनक चम्पे की कली है।
दूर से ही,
स्मरण में भी गंध देती है।

2. पा न सकने पर तुझे संसार सूना हो गया है।
विरह के आघात से प्रिये!
प्यार दूना हो गया है।

2. प्राकृतिक सौन्दर्य –

अज्ञेय सौन्दर्यानुभूति के कवि हैं। उनके काव्य में प्रकृति-सौन्दर्य की छटा अत्यन्त मनोहारिणी बन पड़ी है। उन्होंने प्रकृति का (1) आलम्बन (2) उद्दीपन (3) आलंकारिक (4) रहस्यात्मक (5) प्रतीकात्मक (6) बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव (7) मानवीकरण इत्यादि विविध रूपों में वर्णन किया है। उदाहरण देखें –

1. तुम्हारे नैन
पहले भोर की दो ओस बूँदें हैं
मछली ज्यायेति मय
भीतर दृवित। (आलंकारिक रूप)

2. दो पंखुरियाँ
झरी लाल गुलाब की, तकती प्यास
ओंठ ज्यों ओंठों तले। (बिम्ब-प्रतिबिम्ब के रूप में)

3. क्षणवाद –

अज्ञेय नयी कविता के प्रतिनिधि कवि हैं; जिनके काव्य में क्षण की महत्ता प्रतिपादित हुई है। अज्ञेय का सम्पूर्ण काव्य क्षणवाद, भोगवाद और दुःखवाद की प्रवृत्तियों का सुन्दर उदाहरण है। कवि का क्षणवादी दृष्टिकोण ही उसे भोगवाद की ओर ले जाता है।

उदाहरणार्थ –

और सब समय पराया है
बस उतना क्षण अपना
तुम्हारी पलकों का कँपना।

4. जिजीविषा –

कवि अज्ञेय की कविताओं में जिजीविषा अर्थात् ‘जीवित रहने की इच्छा’ की तीव्र एवं मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। सोन मछली, दाना दे, चितेरे, जीवन की छाया, तैर रहा सागर, मछलियाँ इत्यादि अज्ञेय की दर्जनों ऐसी कवितायें हैं, जिनमें जिजीविषा की भावना अभिव्यक्त हुई है। जैसे –

1. बना दे चितेरे
मेरे लिए एक चित्र बना दे।

2. सागर आँक कर
एक मछली हुई मछली।

5. व्यक्तिनिष्ठा –

कवि अज्ञेय की कविताओं में सबसे अधिक व्यक्तिनिष्ठा की प्रवृत्ति दिखाई देती है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि कवि अज्ञेय निजता के कवि है। व्यक्ति निष्ठा का उदाहरण देखें –

”मैं कवि हूँ
दृष्टा, उन्मेष्टा
संधाता
मर्मवाद।”

6. क्रांति की भावना –

अज्ञेय जी ने अपने काव्य में एक ओर असमानता और विषमता के प्रति आक्रोश, क्षोभ, घृणा इत्यादि का भाव व्यक्त किया है तो दूसरी ओर इस असमानता और विषमता को मिटाने के लिए रक्तमयी क्रांति का भी आह्वान किया है। देखें –

हमने न्याय नहीं पाया है, हम ज्वाला से न्याय करेंगे,
धर्म हमारा नष्ट हो गया, अग्नि धर्म हम हृदय करेंगे।

अज्ञेय जी आर्थिक विषमता के अन्धकार को मिटाकर समानता का आलोक प्राप्त करने के लिए कविगण से कहते हैं कि –

कवि एक बार फिर गा दो
एक बार इस अन्धकार में फिर आलोक दिखा दो।

7. आध्यात्मिकता –

अज्ञेय जी ने कबीर की भाँति आत्मा एवं परमात्मा के विवाद का भी चित्रण अपने काव्य में किया है। जैसे –

अरी! ओ आत्मा री
कन्या भोली कँवारी
महा शून्य के साथ भाँवरे तेरी रची गयी।

अज्ञेय भी परमात्मा को अगोचर, महाशून्य, महामौन, अनाप्त एवं शब्दहीन मानते हैं।

8. देशप्रेम –

अज्ञेय का कवि हृदय अपने देश के कण-कण में रमा हुआ है। उन्हें इस देश की डगर-डगर से प्यार है। गाँव-गाँव में उनकी भाषा रमती है। शहर-शहर में उनके विचार मंडराते हैं। झोंपड़ी से लेकर हवेली तक वे अपने देश से परिचित हैं। निम्नांकित व्यंग्य में उन्होंने देश की स्थिति की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत की है –

इन्हीं तृण फूस छप्पर से
ढँके ढुलमुल गवाँर
झोंपड़ों में ही हमारा देश बसता है
सभ्यता का भूत होता है।

9. भाषा-शैली –

भाषा के क्षेत्र में अज्ञेय जी ने कई समर्थ प्रयोग किये हैं। नये विचारों को प्रस्तुत करने के लिए उपयुक्त शब्द शिल्प और कुशल वाक्य-विन्यास उनकी हिन्दी-साहित्य को महत्त्वपूर्ण देन हैं। उनकी भाषा शुद्ध साहित्यिक परिनिष्ठित हिन्दी है।

अज्ञेय जी ने लोक प्रचलित शब्दों और उनके प्रयोगों को अपनी कविताओं में स्थान दिया है। उन्होंने गीत के लिए लोकगीत की तकनीक अपनाकर उसे नयारूप प्रदान किया है।

अज्ञेय जी ने अपने काव्य में नये प्रस्तुत विधान, नये प्रतीक और नये बिम्ब को गढ़ा है। उनके काव्य में द्वीप, मछली और सागर इत्यादि प्रतीकों का सार्थक प्रयोग हुआ है। अज्ञेय जी ने यमक, उत्प्रेक्षा, मानवीकरण, विरोधाभास इत्यादि अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है। इन्होंने अपनी कवितायें मात्रिक छंदों व वर्णिक छंदों के साथ-साथ मुक्त छंद में भी रची है; जिनमें लय, स्वर और गति का सुन्दर समावेश मिलता है। कुल मिलाकर, अज्ञेय जी का भाव-पक्ष जितना समर्थ एवं सम्पन्न है; उतना ही कला पक्ष भी।

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बिहारी के काव्य की विशेषताएँ

बिहारी के काव्य की विशेषताएँ(Bihari ke Kavya ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत बिहारी के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

बिहारी के काव्य की विशेषताएँ

बिहारी सौंदर्य और शृंगार के चितेरे कवि थे। उनकी ख्याति का मूल आधार उनका एक मात्र ग्रंथ ‘बिहारी सतसई’ है। बकौल हजारी प्रसाद द्विवेदी -“बिहारी-सतसई संसार-साहित्य का भूषण है। यह रसिकजनों का कंठहार है।” इसकी प्रसिद्धि इसी से जानी जा सकती है कि हिन्दी में तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ को छोड़कर किसी अन्य ग्रंथ में उतनी टीकाएँ नहीं लिखी गईं, जितनी बिहारी सतसई पर।

अंग्रेजी विश्वकोश (इन साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका) में लिखा है – सतसई काव्यकला की सर्वाधिक प्रतिष्ठित कृति है (The Satsai is perhaps the most celebrated works of poetic art)।

डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार – यूरोप में बिहारी सतसई के समक्ष कोई काव्य नहीं मिलता है। (I know nothing like this verse in any, uropean Languages)

हिन्दी में महारथी आलोचक शुक्ल जी ने भी बिहारी-सतसई की विशिष्टता प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि- “श्रृंगार रस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान बिहारी सतसई का हुआ, उतना अन्य किसी का नहीं। इनका एक-एक दोहा हिंदी-साहित्य का एक-एक रत्न माना जाता है।”

बिहारी काव्य की विशेषताओं को इस प्रकार देखा जा सकता है –

(1) संयोग-श्रृंगार वर्णन –

शृंगार रस को अमरता का घूँट पिलाने वाले कवि बिहारी ने अपनी कविताओं में श्रृंगार की जो रसधार बहाई है, वह अपूर्व है। बिहारी का संयोग-शृंगार जीवन का एक सुखात्मक अध्याय है, जिसमें नायक-नायिका मिलन, परस्पर केलि-क्रीड़ाएँ, मान-मनुहार, र-दुलार, स्पर्श- र्श-सुख, आलिंगन, चुम्बन, रति, विपरीत रति इत्यादि सब कुछ होता है।

रूप, स्वभाव, मनोविज्ञान, भंगिमा-सबका वर्णन बिहारी ने सतसई में इतना चित्रवत्, यथार्थ और मनोवैज्ञानिक धरातल पर किया है कि उनकी कला की बारीकी और सूझबूझ पर मुग्ध रह जाना पड़ता है। उनके शृंगारिक दोहों में कितनी मादकता, चुटीलापन, व्यंग्य और तीव्र-रसानुभूति है। यथा –

1. कुचगिरी चढ़ि अति थकित हवै चली दीढि मुँह-चाड़।
फिरी न टरि, परिहै रहि, परी चिबुक की गाड़।।

2. उड़ति गुड़ि लखि लाल की अंगना-अंगना माँह।
बौरि लौं दौरि फिरति छुवति छबीली छाँह।।

(2) वियोग-श्रृंगार वर्णन –

बिहारी ने संयोग और वियोग श्रृंगार का चित्रण किया है; किन्तु उन्हें विशेष सफलता संयोग श्रृंगार में मिली है। इसका कारण यह है कि बिहारी ने वियोग वर्णन में काव्यशास्त्रीय परंपराओं का अंधानुकरण किया है और उन्हें अपनी मौलिक उद्भावनाओं के प्रकटीकरण की गुंजाइश नहीं मिल सकी है। इसलिए संयोग श्रृंगार की तुलना में उनका वियोग श्रृंगार कुछ फीका, कृत्रिम एवं ऊहात्मक हो गया है। कितना हास्यास्पद लगता है जब बिहारी की विरह-व्याकुल नायिका वायु के झोंको पर झूले की तरह झूलती है। शुक्ल जी के शब्दों में- “नायिका क्या हुई, घड़ी की पेंडुलम हो गई।”

इत आवति चलि जाति उत चली, छ सातक हाथ।
चढ़ी हिंडौरें सैं रहै लगी हाथ।

बिहारी की नायिका विरह में इतनी दुबली हो जाती है कि मृत्यु उसे चाहती है; परन्तु अपनी आँखों पर चश्मा लगाने पर भी उसको ढूँढ़ नहीं पाती है। विरह की गर्मी इतनी तीखी है कि विरहिणी के ऊपर गुलाबजल से भरी शीशी उलट दी जाती है, पर सारा गुलाबजल बीच में ही सूख जाता है, उसका एक भी छींटा नायिका के शरीर पर भी नहीं पड़ता है –

औंघाई शीशी सुलखि, विरह बरनि बिललाल।
बींचहि सूखि गुलाब गौ छींटी हुई न गात।।

बिहारी वियोगिनी नायिका के तपन का वर्णन करते एक स्थान पर यह कहते हैं कि “छाती सौं छुवाई दिया बाती क्यों न बारि लैं।” इस प्रकार विरह-ताप से दुःखी नायिका-नायिका न रहकर दियासलाई ही बन जाती है।

(3) भक्ति –

बिहारी की विशिष्टता श्रृंगारेतर -वर्णन में भी देखी जा सकता है। बिहारी की भक्ति-भावना के कैनवस में राधा-कृष्ण के प्रति भक्ति मिलती है। सतसई का प्रारम्भिक दोहा मंगलाचरण मूलक भक्ति से संवलित है –

मेरी भवबाधा हरौ, राधा नागरी सोय।
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय।।

कला को जीवन की स्फूर्ति माननेवाले बिहारी राधाकृष्ण के रूप में अनुराग करना ही तीर्थ, व्रत और जीवन की साधना मानते हैं। ब्रजभूमि राधाकृष्ण की लीलाभूमि होने के नाते तीर्थराज प्रयाग से कम गरिमायुक्त नहीं है। बिहारी कहते हैं कि –

तजि तीरथ हरि राधिका तन दुति करि अनुराग ।
जिहिं ब्रज केलि निकुंज मग, पग-पग होत प्रयाग।।

(4) नीति –

बिहारी ने नीति के दोहे वास्तविक जीवन में पैठकर रचे हैं। एक ओर उन्होंने सज्जनों में वह विशिष्टता पाई थी, जो कभी नहीं घटती –

चटक न छाँड़त घटत हूँ, सज्जन नेह गंभीर।
फीको परै न बरु, फटै रंग्यो चोल रंग चीर।।

ऐसे सज्जन ज्यों-ज्यों उन्नति करते जाते हैं, त्यों-त्यों विनम्र होते जाते हैं –

नल की अरू नलनीर की गति एकै करि जाय।
जेती नीचे हवै चले तेतौ ऊँची होय।।

दूसरी ओर उन्होंने ससुराल में रहकर देखा था कि अधिक दिनों तक पहुनई करने से मान-प्रतिष्ठा दिनोंदिन घटती जाती है और घटते-घटते प्रतिष्ठा पूस के दिनों की तरह हो जाती है। कवि ने धन के नशे में चूर उन व्यक्तियों को भी देखा था और पाया था कि धन का नशा धतूरे के नशे से अधिक होता है।

(5) अन्योक्ति –

बिहारी की निम्नांकित अन्योक्तियाँ – जिनमें भी नीति संबंधी बातें हैं, अत्युत्कृष्ट हैं –

1. नहिं पराग, नहिं कुसुम, नहिं विकास इहि काल।
अली कली ही सों बंध्यो आगे कौन हवाल।।

2. स्वारध सुकृत श्रम न बृधा, देखु विहंग विचारि।
बाज पराये पानी परि तू पंछीनु न मारि।।

(6) ऋतु वर्णन –

काव्य-परम्परा के अनुसार बिहारी ने ऋतुओं का वर्णन किया है; किन्तु उनका प्रकृति वर्णन शुद्ध प्रकृति-वर्णन नहीं है, वह आलंकारिकता से बोझिल है। ‘छकि रसाल सौरभ सेन…. भर-भर अंध’- इस दोहे में जहाँ बिहारी ने बसंत ऋतु का मादक वर्णन किया है; मधु वहीं ग्रीष्मकालीन प्रचंड ऋतु का वर्णन (बैठ रहि अति सघनवन…… छाहीं चाहति छाँह) करते हुए जब वह कहते हैं कि जेठ की दुपहरी इतनी प्रचंड गर्मी से पूर्ण होती है कि छाँह को भी छाँह की आवश्यकता होती है, तो ऐसा लगता है कि उनकी अभिव्यक्ति ने शीर्ष बिन्दु को छू लिया है। अन्यत्र ग्रीष्म ऋतु के प्रभाव का वर्णन वह इस प्रकार करते हैं –

कहलाने एकत बसत, अहि मयूर, मृग, बाघ।
जगत तपोवन सो कियो, दीरघ दाघ निदाघ।।

(7) रूप (नख-शिख ) वर्णन –

बिहारी का रूप और नख – शिख वर्णन अत्यन्त उच्च कोटि का है, यही उनके काव्य का मुख्य विषय भी है। यह शास्त्रीय अवश्य है, पर इसमें बिहारी की निरीक्षण शक्ति और सूक्ष्म- सृष्टि बेजोड़ है। यथा—

1. कहत सबै बेंदी दियै आँक दसगुनों होतु।
तिय लिलार बेंदी दियै, अगिनितु बढ़त उदांतु।।

2. पग-पग मग अमगन परति, चरन अरून दुति झूलि।
ठौर-ठौर लखियत उठे, दुपहरिया सी फूलि।।

(8) नायिका-भेद –

बिहारी ने शास्त्रीय विधि से कई प्रकार की नायिकाओं—स्वकीया, परकीया, सामान्या, मुग्धा, प्रौढ़ा, प्रोषितपतिका, अज्ञात यौवना इत्यादि का वर्णन किया है। स्वकीया का उदाहरण देखें –

स्वेद सलिल, रोमांच कुस, गहि दुलही अरू नाथ।
हियो दियो संग हाथ के, हथलेवा ही हाथ।।

(9) प्रेमनिरूपण –

बिहारी ने ‘प्रेम को चौगान’ का खेल कहा है और इसमें उनका मन काफी रमा है। प्रेम क्रीड़ाओं में चोरमिहीचनी (आँख मिचौली), जलविहार, बहाने का शयन, झूले की क्रीड़ा, फाग के खेल इत्यादि का वर्णन कर बिहारी ने अपनी अद्भुत प्रेम-वृत्ति की परख का परिचय दिया है। यथा-

प्रीतम दृग मींचत तिया पानि परस सुख पाय।
जानि पिछानि अजान लौं नैक न होति लखाय।।

(10) दार्शनिकता –

दार्शनिकता से संबंधित दोहे बिहारी ने कम ही लिखे हैं; किन्तु जितना भी लिखा है, उनमें सरलतम दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति हुई है। यथा –

1. यह जग काँचो काँच सों, मैं समुझयो निरधार।
प्रतिबिंबित लखियत जहाँ एकै रूप अपार।।

2. बुद्धि अनुमान, प्रमाण, स्रुति, किये निठि ठहराया।
सूक्ष्म गति अति ब्रह्म की, अलख लखी नहीं जाय ।।

(11) भाषा –

बिहारी की भाषा ‘ब्रजभाषा’ है, जो सरस, मधुर, प्रांजल, ललित, मंडल और चित्रशेष है। बिहारी की भाषा पर बुंदेलखंडी, संस्कृत, अरबी, फारसी इत्यादि का प्रभूत प्रभाव है। भाषा कसाव (Com pactness), सुष्टुपदावली (Diction), सांकेतिक शब्दावली और नपे- तुले शब्दों से युक्त बिहारी की भाषा अद्भुत है। कहीं-कहीं भाषा में लिंग- विपर्यय (पुल्लिंग का स्त्रीलिंग और स्त्रीलिंग का पुल्लिंग प्रयोग) दोष भी है। बावजूद इसके बिहारी की भाषा अल्पाक्षरा होते हुए भी बृहत् अर्थ को संभाले हुए है। शब्द और वर्ण इनके दोहों में नगों के समान जड़े हुए हैं, जो रत्नों के समान चमकते हैं। एक रमणी के पगतल का वर्णन (सौंदर्य) करते हुए उन्होंने लिखा है कि –

पग-पग मग अगमन परित, चरन अरुन दुति झूलि।
ठौर-ठौर लखियत उठे, दुपहरिया सी फूलि।।

बिहारी की रचना में ब्रजभाषा इठलाती और अठखेलियाँ करती हुई चलती है। कहीं-कहीं उसकी मस्त गति में संगीत की झमक एक विलक्षण मिठास प्रदान करती है। यथा –

अंग-अंग नग जगमगति, दीप सिखा सी देह।
दिया बुझाये छू रहे, बड़ो उजेरो गेह।।

(12) शैली –

बिहारी की शैली ‘समासोक्ति’ है। गागर में सागर भरना इस शैली की मुख्य विशेषता है। बिहारी का दो पंक्तियों का छोटा- सा दोहा हमारे अंतस को स्पर्श करता है और आँखों के सामने एक सौंदर्यपूर्ण, प्रेमक्रीड़ा से भरा संसार प्रत्यक्ष कर देता है। यथा –

लरिका लैबु कै मिसनु, लंगरू मो ठिग जाई।
गयौ अचानक आंगुरी, छतिया छैलु छुवाइ।।

(13) काव्यरूप –

काव्यरूप की दृष्टि से बिहारी का काव्य ‘मुक्तक काव्य’ की श्रेणी में आता है। बिहारी सर्वश्रेष्ठ मुक्तककार हैं। कल्पना की समाहार शक्ति और भाषा की समास शक्ति की दृष्टि से उनका काव्य चरमोत्कर्ष पर पहुँचा हुआ है। गाथा सप्तशती, आर्यासप्तशती एवं अमरुकशतक इत्यादि मुक्तक ग्रंथों से प्रेरणा लेकर बिहारी ने एक विविध रत्नमाला तैयार की है; जिसकी आभा के सामने कोई मुक्तक काव्य ठहर नहीं पाता है। बिहारी के दोहों के विषय में यह कथन प्रसिद्ध है-

सतसैया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटन लगै, घाव करैं गंभीर।।

(14) अलंकार –

भाषा की अलंकारिक छटा बिहारी में दर्शनीय है। अनुप्रास, चमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, असंगति, विरोधाभास, अन्योक्ति, तद्गुण इत्यादि अलंकारों के प्रयोग से उन्होंने अपने भावों को जो उत्कर्षता प्रदान की है, वह अन्यत्र कम देखने को मिलती है। उदाहरणार्थ –

1. चिरजीवी जोरी जुरै क्यों न सनेह गंभीर…. हलधर के बीर। (श्लेष)

2. अधर-धरत हरि के परत होठ डीठि पट जोति… इंद्रधनुष रंग होति। (अनुप्रास)

(15) छंद –

बिहारी ने सतसई में ‘दोहा’ छंद अपनाया है। बिहारी दोहे जैसे छोटे छंद में पर्याप्त रस भर सके हैं। उनके दोहे क्या हैं? रस की छोटी-छोटी पिचकारियाँ हैं, जो मुँह से छूटते ही श्रोता को रस से सराबोर कर देते हैं। यथा –

बिनती रति विपरीत रति की, करी परसि पिय पाइ ।
हँसी अनबोले ही दियौ ऊतरु दियो बताई।।

(16) रस –

रस की दृष्टि से बिहारी ने ‘श्रृंगार रस’ को विशेष महत्त्व दिया है। रस-परिपाक की दृष्टि से उनका प्रत्येक दोहा बेजोड़ है। भाव, अनुभाव, विभाव, संचारीभाव इत्यादि से उनकी सतसई श्रृंगार रस की मंजूषा बन गई है। भक्ति और विनय के दोहों में शांत रस का परिपाक हुआ है। कुछ दोहे ‘वीर’ और ‘अद्भुत रस’ के भी मिलते हैं।

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केशवदास के काव्य की विशेषताएँ

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केशवदास के काव्य की विशेषताएँ

1. केशव की काव्य-दृष्टि –

रीतिबद्ध काव्य के सिरमौर कवि और हिंदी के प्रथम आचार्य महाकवि केशवदास अलंकारवादी थे। उनका मत था कि –

जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस सुवृत्त।।
भूषण बिनुन बिराबाई, कविता वनिता मित्त।।

केशव से पूर्व संस्कृत काव्यशास्त्र में अलंकार के संबंध में दो प्रकार की धारणाएँ प्रचलित थीं। भामह, दंडी, वामन, जयदेव, अप्पय दीक्षित इत्यादि अलंकारवादी आचार्य अलंकार को काव्य की आत्मा मानते थे –

1. न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनितामुखम्! – भामह

2. काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते। – दण्डी

3. सौन्दर्यमलंकारः। काव्यं ग्राह्ममलंकारात्।। – वामन

4. अंगी करोति यः काव्यं शब्दार्थावनलंकृती
असौ न मन्यते कस्मादनुश्णा णामनलंकृती।। – जयदेव

तो दूसरी ओर मम्मट, पं विश्वनाथ इत्यादि ने अलंकार को कटक कुण्डलवत् कहा। केशव ने प्रथम धारणा को अपनाते हुए अलंकार को काव्य का सर्वस्व माना। भूषणों के अभाव में उन्हें न कविता में सौंदर्य दिखाई पड़ा और न वनिता में। अलंकारों को अत्यधिक महत्त्व देने के साथ ही केशव ‘काव्यगुण, अर्थ-गौरव और पद-लालित्य को भी आवश्यक माना।

सगुन पदारथ अरथयुत, सुबरनमय सुभ साज,
कंठमाल ज्यों कविप्रिया, कंठ करहु कविराज।।

केशवदास की दृष्टि में काव्य में रंचमात्र दोष भी काव्य-सौंदर्य को विनष्ट कर डालता है –

राजत रंच न दोशयुत, कविता, बनिता मित्र
बुंदक हाल परत ज्यों, गंगा घट अपवित्र।।

केशव ने अन्धदोष, बधिरदोष, पंगुदोष, नग्नदोष इत्यादि अट्ठारह दोषों का विवेचन किया है और काव्योत्कर्ष के लिए इन रस विघातक तत्त्वों से बचने और सतर्क रहने को कहा है।

केशवदास ने शब्द-प्रयोग में औचित्य, छंदों के नियमों में अवहेलना, अलंकारों से रहित काव्य एवं अर्थहीन काव्य के विषय में अपनी मान्यता इस प्रकार प्रतिपादित की है –

अंध बधिर अरू पंगु तनि, नगन मृतक मति सुद्ध।
अंध विरोधी पंथ को बधिर जो सबद विरुद्ध।।

छंद विरोधी पंगु गुनि, नगन जो भूशण हीन।
मृतक कहावै अरथ बिन केसव सुनहु प्रवीन।।

अर्थात् शब्द-प्रयोग में औचित्य का ध्यान न रखने वाला भाग्य बधिर है। छंद के नियमों की अवहेलना करने वाला काव्य पंगु होता है। अलंकारों से रहित काव्य नग्न है और अर्थहीन काव्य मृतकतुल्य है।

केशव ने वाणी को कवि की महती शक्ति माना है। तुलसी ने जिस प्रकार ‘कवहि निज आखर बल सांचा’ कहा है; उसी प्रकार केशवदास वाणी को महत्त्व देते हैं। उनकी दृष्टि में वाणी की सरसता भी काव्य-सौन्दर्य का हेतु है। केशव के अनुसार अभिव्यक्त अनुभूति दृष्टिविहीन विशाल नेत्र के समान है –

ज्यों बिन दीठि न शोभि जं, लोचन लोल विसाल।
त्यों ही केसव सकल कवि, बिन वाणी न रसाल।।

केशव कवि की शक्तिरूप इस बाणी का सच्चा उपयोग हरि-गुणगान में मानते हैं। हरिगुण को ही अपनी वाणी का विषय बनानेवाले कवि को केशवदास उत्तम कवि स्वीकार करते है –

उत्तम मध्यम अधम कवि, उत्तम हरि रसलीन।
माध्यम मानत मानुषि दोषनि अधम प्रवीन।।

केशव की काव्य-दृष्टि में काव्य का आदर्श अथवा उद्देश्य रसाधिपति ब्रजराज श्याम का चित्तरंजन है। जिस काव्य के श्रवण के उपरान्त श्री कृष्ण प्रसन्न नहीं होते, उसे केशव कविता नहीं मानते हैं। केशव की काव्य-दृष्टि में कविता का उद्देश्य ईश्वर-आराधना, ईश-वंदना है –

ताते रुचि सुचि सोचि पचि कीजै सरस कवित्त।
केशव श्याम सुजान को सुनत होइ बस चित्त।।

उपर्युक्त विवेचनों के आधार पर केशवदास के काव्य-विषयक दृष्टिकोण को निम्नांकित बिन्दुओं में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है –

1. केशव अलंकारवादी आचार्य थे। भामह, दण्डी, वामन, जयदेव की भाँति केशव ने अलंकारहीन कविता को निष्प्राण माना और अलंकार का महत्त्व इस प्रकार प्रतिपादित किया- “भूषण बिनु न बिराबाई कविता, वनिता मित्त।”

2. केशव ने अलंकारों के साथ-साथ काव्य गुण, अर्ध-गौरव, पद- लालित्य इत्यादि को भी काव्य के लिए महत्त्वपूर्ण माना है।

3. केशव ने 18 प्रकार के दोषों की चर्चा करते हुए यह मान्यता प्रतिपादित की है, कि रंचमात्र दोष से भी काव्य का सौंदर्य नष्ट हो जाता है।

4. केशव की काव्य-दृष्टि में काव्य-परम्परा का अनुसरण न करने वाला काव्य अंधा, शब्द-प्रयोग में औचित्य का ध्यान न रखने वाला काव्य बधिर, छंदों के नियमों की अवहेलना करने वाला काव्य पंगु और अर्थहीन काव्य मृतकतुल्य होता है।

5. वाणी कवि की महत्त्वपूर्ण शक्ति होती है; इस शक्ति का सच्चा उपयोग हरि-गुण गान में है।

6. उत्तम कवि वह है, जो अपनी वाणी का उपयोग हरि-गुण के वर्णन में करे।

7. कविता का उद्देश्य भगवत्-आराधना में है।

8. काव्य-रचना एक प्रकार से कवि का पुरुषार्थ है और उसकी सार्थकता ईश-वंदना, आराध्य के चरित्र-चित्रण में है।

2. केशव का आचार्यत्व –

केशवदास उच्चकोटि के आचार्य हैं, जिनका समय भक्तिकाल के अन्तर्गत पड़ता है; पर ये अपनी रचना में पूर्णतः शास्त्रीय तथा रीतिबद्ध हैं। हिन्दी-साहित्य में केशव हिन्दी के प्रथम आचार्य के रूप में मान्य हैं। केशव के पूर्व भी लक्षण-ग्रंथ लिखे गये; पर व्यवस्थित एवं सर्वांगपूर्ण ग्रंथ सबसे पहले केशवदास ने ही प्रणीत किये। केशव विरचित निम्न काव्यशास्त्रीय ग्रंथ हैं-

1. रसिकप्रिया (1628 वि.) – रस विवेचन, नायक-नायिका-भेद से संबंधित।
2. नखशिख (1658 वि.) – राधाजी के नख-शिख वर्णन से सम्बन्धित।
3. कविप्रिया (1658 वि.) – काव्य-रीति, अलंकार एवं कवि-पंथ से सम्बन्धित।
4. छंदमाला – विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा सम्पादित इस रचना में 84 छंदों के लक्षण और उदाहरण दिये गये हैं।

‘रसिक प्रिया’ केशव का रीतिशास्त्र पर आधारित एक समादृत ग्रंथ है। ‘रसिक-प्रिया’ रस-ग्रंथ है और परवर्ती आचार्यों और कवियों के लिए यह एक पथ-प्रदर्शक ग्रंथ भी है। मूलतः रस-ग्रंथ होते हुए भी ‘रसिकप्रिया’ एवं ‘कविप्रिया’ में काव्यशास्त्र के सभी अंगों पर प्रकाश डाला गया है।

डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने ‘रसिकप्रिया’ के वर्ण्य-विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला है और उन्होंने कहा है कि ‘रसिकप्रिया’ में श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, वीभत्स, अद्भुत और शांत रसों का वर्णन किया गया है। आचार्य केशवदास ने शृंगार को सभी रसों का नायक माना है और श्रृंगार- मूर्ति भगवान् हरि के व्यक्तित्व में सभी रसों की स्थिति प्रमाणित की है। ‘रसिकप्रिया’ में नायक के चार प्रकार—अनुकूल, दक्ष, शठ एवं धृष्ट एवं जाति के अनुसार नायिका के भी चार प्रकारों-पद्मिनी, चित्रिणी, शंखिनी और हस्तिनि का उल्लेख किया है।

श्रृंगार-रस-निरूपण की दृष्टि से रसिकप्रिया का छठा प्रकाश अत्यंत महत्त्वपूर्ण है; जिसमें भाव, विभाव, अनुभाव, स्थायी भाव, सात्त्विक भाव, व्यभिचारी भाव और हाव इत्यादि का वर्णन लक्षण एवं उदाहरणों सहित किया गया है। हाव के 13 भेदों का उल्लेख केशव की निजी विशेषता है। हास्य रस के अंतर्गत केशव ने मंदहास, कलहास, अतिहास और परिहास 4 भेद किये है।

कलहास, अतिहास और परिहास 4 भेद हैं। 15 वें प्रकाश में कैशिकी, भारती, आरभटी और सात्त्वती वृत्तियों का वर्णन है। सोलहवें एवं अंतिम प्रकाश में अनरस का वर्णन है; जिसके प्रयत्नीक (विरोधी), नीरस दुःसन्धान और पात्रादुष्ट 5 भेद बताए गये हैं। रसिकप्रिया में रस की महत्ता इस प्रकार प्रतिपादित की गई है –

ज्यों बिन डीठि न सोभिर्न, लोचन लोल विसाल।
त्यों ही केशव सकल कवि, बिनु वानी न रसाल।।

संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों-नाट्यशास्त्र, साहित्यदर्पण सुधाकर (भूपाल) का आधार लेते हुए भी केशव के उपर्युक्त विवेच मौलिकता, निजी अनुभव परिलक्षित हैं। केशव ने भरतमुनि, विश्व भूपाल इत्यादि आचायों की परिभाषाओं का रूपान्तरण मात्र प्रस्तुत न कर एक आचार्य की भाँति उन्हें अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। भगीरथ म लिखा है कि-”रसिकप्रिया में रसांगों, वृत्तियों और रस दोषों का वर्णन है इसका उद्देश्य रसिकों की तृमि के लिए है। केशव ने स्पष्ट कहा है कि –

अति रति गति मति एक करि, विविध विवेक विलास!
रसिकन को रसिकप्रिया, कीन्हीं केशवदास।।

रसिकप्रिया के अतिरिक्त ‘कविप्रिया’ रचना के द्वारा केशव ने रीतिशा के आधार पर काव्य-रचना की नवीन पद्धति प्रचलित की है। कविप्रिया में केशव ने कवि शिक्षा की बातें लिखीं। इसके 16 प्रभावों में कवि के लिए काव्य-रचना में उपयोगी अनेक तथ्यों का विवरण दिया गया है। इन्हें त काव्य-दोष, कवि भेद, वर्णन के प्रकार, सामान्यालंकार, राज्यश्री, विशिष्टालंकार (जिसमें वास्तव में अलंकारों के विविध भेदों का वर्णन है।

नखशिख, चित्रालंकार इत्यादि उल्लेखनीय है दोष और अलंकार दण्डी के काव्यादर्श के आधार पर हैं तथा अन्य वर्णन के प्रसंग आचार्य केशव मिश्र के ‘अलंकार शेखर’ तथा अमरचंद की ‘काव्य कल्पलतावृत्ति’ के आधा पर लिखे गये हैं।

डॉ भगीरथ मिश्र के अनुसार ‘कविप्रिया’ में विशेष प्रयत्न अलंक के वर्गीकरण का है। यह वर्गीकरण उक्ति, उपमा, तुलना, शब्दवृत्ति, अनेकार्थता, विद्रोह, कार्य-कारण संबंध इत्यादि के आधार पर किये गये हैं। केशव काव्य में अलंकारों को विशेष महत्त्व देते थे— ‘भूषण बिनु न सोहई, कविता बनिता मित्त।’ केशव अपनी चमत्कारपूर्ण अभिव्यक्ति के फेर में पड़कर अपने विवेचन को गंभीरता प्रदान नहीं कर पाये हैं।

‘नखशिख-वर्णन’ रचना में केशव दास ने राधाजी के नख से लेकर शिख तक का सौंदर्य वर्णन किया है। ‘छंदमाला’ केशव की पिंगलशास्त्र पर रचित रचना है, जिसमें केशव ने 84 प्रकार के छंदों और उसके उदाहरणों पर प्रकाश डाला है।

उपर्युक्त समग्र विवेचनों के उपरान्त केशव को उच्चकोटि का आ माना जा सकता है। वे सचमुच में रीति-प्रवर्तक आचार्य हैं। कवि-शिक्ष संबंधित समस्त पक्षों – अलंकार, रस, नायिका-भेद, गुण-दोष विवेचन, काव्य-नियम (रूढ़ि), छंदों के विविध रूप इत्यादि को इन्होंने मौलिकता एवं अपने ज्ञान के साथ हिन्दी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है। हिन्दी-पाठकों के समक्ष काव्यशास्त्रीय सामग्री को व्यापक रूप से प्रस्तुत करने का सराहनीय कार्य केशव ने किया है।

कविप्रिया का वैशिष्ट्य निरूपित करते हुए मिश्रबंधु लिखते हैं कि – केशव ने अपना पूरा आचार्यत्व इस ग्रंथ में समाप्त कर दिया है। कविता के जिज्ञासुओं को काव्य सीखने में यह ग्रंथ बड़ा उपयोगी है। संस्कृत की काव्यशास्त्रीय पद्धति को हिन्दी में प्रचलित करने का श्रेय निर्विवाद रूप से केशवदास को है। हिन्दी की सारी काव्यशास्त्रीय परंपरा को केशवदास ने प्रभावित किया है। काव्यशास्त्र का ज्ञान जनसाधारण को सुलभ करके साहित्यिक अभिरुचि जाग्रत करने में एवं परवर्ती आचार्यों एवं कवियों को प्रेरित करने में आचार्य केशव का योगदान श्लाघनीय है।

3. केशव की संवाद-योजना –

आचार्य एवं महाकवि केशव की अक्षय कीर्ति का आधार ‘रामचंद्रिका’ महाकाव्य है। ‘रामचंद्रिका’ का वैशिष्ट्य सफल एवं उत्कृष्ट संवाद-योजना के कारण निर्विवाद है। रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में – “रामचंद्रिका में केशव को सबसे अधिक सफलता संवादों में मिली है।”

हिन्दी-साहित्य में केशवदास अपनी उत्कृष्ट संवाद-योजना के कारण मशहूर है। केशव ने रामचंद्रिका में कुल 9 प्रकार के संवादों की योजना की है –

1. सुमति विमति संवाद,
2. रावण-बाणासुर संवाद,
3. राम- परशुराम संवाद,
4. राम जानकी संवाद,
5. राम-लक्ष्मण संवाद,
6. राम- शूर्पणखां संवाद,
7. सीता-रावण संवाद,
8. सीता-हनुमान संवाद और
9. रावण-अंगद संवाद।

केशव की संवाद योजना के वैशिष्ट्य को निम्नांकित शीर्षकों में देखा जा सकता है –

1. पात्रानुकूलता एवं व्यक्तित्व प्रकाशन –

किसी भी काव्य में संवाद-योजना का एक प्रमुख कार्य चरित्र चित्रण होता है। केशव के संवादों की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता पात्रानुकूलता एवं व्यक्तित्व का प्रकाशन है। रावण-बाणासुर के संवादों में पात्रानुकूलता एवं व्यक्तित्व प्रकाशन के गुणों की सुन्दर व्यंजना हुई है। देखें-

रावण शम्भु कोदण्ड दे राजपुत्री किते टूक है तीन के बहु लंकाहि लै।
वाणासुर – जपु जिय जोर, तजौ सब सोर। सरासन तोरि, लहौ सुख कोरि।।

इस संवाद में रावण और बाणासुर दोनों पराक्रमी योद्धाओं के अनुकूल संवादों की योजना हुई है और दोनों योद्धाओं के दर्प, गर्व, अभिमान, अहंकार, ऐश्वर्य, पराक्रम इत्यादि का व्यक्तित्व-प्रकाशन हुआ है। केशव के ये चरित्रोदघाटक संवाद सफल बन पड़े हैं।

2. कथा-विकास में सहायक संवाद –

कथोपकथन या संवादों की सफलता इस तथ्य में निहित होती है कि वह कथा-विकास में सहायक सिद्ध हो। इस दृष्टि से ‘रामचंद्रिका’ के संवाद जहाँ चरित्रोद्घाटक हैं, वहीं कथा- विकास में भी सहायक सिद्ध हुए हैं। रामचन्द्रिका के अयोध्याकाण्ड का ‘भरत-कैकेयी के संवाद से सम्बन्धित निम्न छंद को देखें, जो कथा-विकास में पूर्णतः सहायक सिद्ध हुआ है –

मातु! कहाँ नृप? तात्। गये सुर लोकहिं क्यों? सुत शोक लये।
सुत कौन? सुराम कहाँ है अबै? बन लक्ष्मण सीय समेत गये

बन काज कहा अही? केवल मो सुख, ताकों कहा सुख यामै भये
तुमको प्रभुता धिक तोकों कहा अपराध बिना सिगरेई हये?

3. नाटकीयता –

रामचंद्रिका के संवादों की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता ‘नाटकीयता’ है। केशवदास ने रामचंद्रिका के संवादों में अद्भुत नाटकीयता का समावेश किया है। बाण-रावण संवाद, रावण-अंगद संवाद, राम- परशुराम संवाद इत्यादि रामचंद्रिका के संवाद अभिनेयता की दृष्टि से बेजोड़ हैं। देखें एक उदाहरण –

परशुराम-तोरि सरासन संकट को सुभ सीय स्वयंवर मांझ बरी।
ताते बढयो अभिमान महा मन मेरीयो नेक न संक करी।

राम-सो अपराध भी हम सों अब क्यों सुधरै तुमहूँ धौं कहौ।
परशुराम-बाहु दै दोउ कुठारहिं केशव आपने धाम को पंथ गहौ।।

4. व्यंग्य एवं वाग्वैदग्ध्य –

केशव के संवादों में व्यंग्य के साथ-साथ वाग्विदग्धता का अद्भुत गुण मिलता है। इस दृष्टि से रावण-अंगद संवाद का क्या कहना है? रावण ने जब अंगद से उसका और उसके पिता का परिचय जानना चाहा, तो अंगद का यह व्यंग्य एवं विदग्धतापूर्ण उत्तर हंसी से लोटपोट कर देता है –
रावण – कौन के सुत?
अंगद – बालि के।
रावण – वह कौन बालि?
अंगद – न जानिये? काँख चांपि तुम्हें जो सागर सात न्हात बखानिये। ‘रावण-हनुमान संवाद’ भी केशव के वाग्वैदग्ध्य एवं व्यंग्य का अनूठा उदाहरण है। देखें –

सागर कैसे तरयो? जैसे ‘गो पद’, काज कहा? सिय चोरहि देखौं।
कैसे बधायो? जो सुंदरि तेरी हुई दृग सोबत, पातक लैखों।।

5. औचित्य तथा शालीनतापूर्ण संवाद –

संवादों की महत्ता इस तथ्य में निहित होती है कि उनमें वाग्वैदग्ध्य, नाटकीयता इत्यादि के गुणों के समावेश के साथ-साथ मर्यादा एवं शालीनता का अतिक्रमण न हो। केशव के संवादों में पात्रोचित शिष्टाचार, शालीनता का पूर्ण निर्वाह हुआ है। इस दृष्टि से ‘हनुमान -सीता संवाद’ शील, मर्यादा एवं शिष्टाचार का अद्भुत आख्यान है। देखें-

कर जोरि कह्यौ, हौं पवनदूत! जिय जननि जानु रघुनाथ दूत!
रघुनाथ कौन? दशरथ नंद। दशरथ कौन? अज तनय चंद।

हनुमान सीता संवाद में शालीनता और मर्यादा का पूरी तरह से निर्वाह हुआ है। यहाँ जननी, रघुनाथ, दशरथनंद, अजयतनयचंद इत्यादि शब्दों के प्रयोग में शील, शिष्टाचार एवं मर्यादा की पूर्ण रक्षा हुई है।

6. मनोवैज्ञानिकता –

केशव की रामचंद्रिका के संवादों में मनोवैज्ञानिकता के अदभुत गुणों का भी समावेश हुआ है। रामचंद्रिका में पात्रों के अनुरूप उनके मनोभावों की सुन्दर व्यंजना हुई है। जैसे रावण के चरित्र में क्रूरता, कठोरता, निष्ठुरता, निर्ममता, कूटनीति इत्यादि मनोभावों की व्यंजना मिलती है, तो राम के चरित्र में धीरता, गंभीरता, उदात्तता इत्यादि मनोभावों की व्याख्या सीता के चरित्र में पति राम के प्रति दृढ़ अनुरक्ति, तो पर पुरुष रावण के प्रति उत्कट घृणा-रोष इत्यादि मनोभावों की अभिव्यक्ति हुई है।

अति तनु धनुरेख नेक नाकी न जाकी।
खल सर खर धार क्यों सहै तिक्ष ताकी।
बिड़कन धन घूरे भक्षि क्यों बाज जीवै।
शिव सिर ससि-श्री कों राहु कैसे सु घीवै।।

कितनी गहरी कूटनीति है – रावण की इस उक्ति में राजनीति के चारों भेदों-साम, दाम, दण्ड, भेद की दृष्टि से रावण-अंगद संवाद केशव की मौलिक सूझ-बूझ का अद्भुत निदर्शन है।

7. कूटनीतिज्ञता –

कूटनीति भेद नीति अथवा राजनीतिक दाँव-पेच से संबंधित संवाद केशव के रामचंद्रिका के संवादों की एक अन्यतम विशेषता है। रावण अंगद संवाद कूटनीति का एक सुन्दर उदाहरण है। शत्रु पक्ष के अंगद को अपने पक्ष में करने के लिए रावण-अंगद संवाद में व्यवहारकुशल नीतिनिपुणता के साथ-साथ कूटनीतिज्ञता का अद्भुत संगम मिलता है। देखें –

देहि अंगद राज तोक मारि बानर राज को।
बाँधि देहिं विभीषणों अरू फोरि सेतु समाज को।
पूंछ जारहिं अच्छरिपु की, पांइ लागे रूद्र के।
सीय को तब देहु रामहिं, पार जाइ समुद्र के।

8. अन्य विशेषताएँ –

केशव की रामचंद्रिका के संवादों में उपर्युक्त महत्त्वपूर्ण विशेषताओं के अतिरिक्त कुछ अन्य विशेषताएँ भी देखने को मिलती हैं, जिन्हें निम्नांकित शीर्षकों में सोदाहरण इस प्रकार देखा जा सकता है—

(i) गत्यात्मक संवाद –
मारीच-रामहि मानुष कै जाति जानौ। पूरन चौदह लोक बखानौ।
रावण-तू अब मोहि सिखावत है सठ। मैं बस लोक करे अपनी हठ।।

(ii) प्रश्नोत्तर मूलक संवाद –
लंकानायक को? विभीषण, देव-दूषण को दहै।
मोहि जीवित होहि क्यों? जग तोहि जीवित को कहै?

(iii) परिचयात्मक संवाद –
रे कपि कौन तू अच्छ को घातक? दूत बलि रघुनंदन जी को।
को रघुनंदन रे? त्रिसिरा खरदूषन-दूषण-भूषन भू कौ।।

(iv) ध्वनि-सौंदर्यात्मक संवाद –
रावण – कैसे बँधायो ?
हनुमान – जो सुन्दरि तेरी छुई दृग सोवत पातक लेखौ ।

(v) संक्षिप्त, चुस्त-दुरुस्त संवाद –
रावण – कौन हो, पठसे सो कौने, हयाँ तुम्हें कह काम है?
अंगद – जाति वानर, लंकानायक, दूत अंगद नाम है।

कहा जा सकता है कि ‘रामचंद्रिका’ में केशव की संवाद-योजना अनूठी है। केशव की संवाद-योजना ‘रामचंद्रिका’ में अत्युत्कृष्ट बन पड़ी है। केशव के संवाद कथा-विकास में सहायक और चरित्रोद्घाटक के साथ- साथ संक्षिप्त, सजीव, रोचक, औत्सुक्यपूर्ण एवं मनोरंजक बन पड़े हैं। वैदग्ध्यपूर्ण, व्यंग्ययुक्त, नाटकीयता के साथ-साथ शालीनता और मर्यादा का उत्तम निर्वाह केशव के संवादों की प्रमुख विशेषताएँ हैं। केशव के संवादों में बोलचाल की भाषा का बड़ा सफल प्रयोग हुआ है; जिसके कारण संवादों में स्वाभाविकता, सजीवता, सरलता एवं अर्थगांभीर्य के अद्भुत गुणों का समावेश हो गया है। रामचंद्रिका में प्रश्नोत्तर-शैली के संवाद लाजवाब बन पड़े हैं।

वस्तु-ध्वनि, अलंकार-ध्वनि आदि का सौन्दर्य केशव के संवादों की विलक्षण विशेषताएँ हैं। मनोवैज्ञानिकता, राजनीतिज्ञता, व्यवहारकुशलता, वाक्पटुता, भाषा-प्रवीणता एवं शैली की मधुरता इत्यादि सभी दृष्टियों से केशव की संवाद-योजना सौष्ठवपूर्ण है। हिंदी-साहित्य में केशव ऐसे विरले महाकवि हैं, जिन्हें संवाद-लेखन में जैसी बेजाड़ सफलता मिली, अन्य किसी को नहीं। वस्तुतः केशव की संवाद-योजना सम्पूर्ण हिंदी-साहित्य में अद्वितीय है।

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मीरा के काव्य की विशेषताएँ

मीरा के काव्य की विशेषताएँ(Meera ke Kavya ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत मीरा के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

मीरा के काव्य की विशेषताएँ

(i) भावपक्ष विशेषताएँ –

1. विरह-वर्णन –

मीरा के काव्य का सर्वप्रमुख पक्ष है—उनकी वेदनानुभूति और विरह-वर्णन। मीरा का विरह-वर्णन अंतर्मुखी, अनुभूतिप्रवण, दर्द और तडपन से युक्त आनंद की सजग साधना है। मीरा के विरह-वर्णन में ‘प्रवासजन्य विरह’ की प्रधानता है।

प्रभु जी कहाँ गयो नेहड़ा लगाय।
मीरा के प्रभु कबरे मिलोगे, थे विण रहयां ण जाये।

उनके काव्य में विरह की अंतर्दशाओं का भी वर्णन हुआ है। यथा –

1. होली पिया बिन लागां री खारी।
2. पपइया रे पिव की वाणि न बोल।

2. भक्ति-पद्धति –

मीरा बाई (meera bai) कृष्णभक्त कवयित्री थीं। मीरा की भक्ति कांताभाव की माधुर्य भक्ति थी। मीरा की भक्ति एकनिष्ठता, अन्यतम, आत्मसमर्पण, परित्राण की याचना, प्रभु के शरण में आने की आज्ञा एवं कृष्ण की विविध लीलाओं का गान इत्यादि अन्यतम विशेषताएँ हैं। मीरा की भक्ति में नवधा भक्ति एवं निर्गुण भक्ति का भी समावेश हुआ है। वस्तुतः मीरा सगुणोपासक, मूर्तिपूजक, कृष्णाश्रयी माधुर्योपासक वैष्णव भक्त थीं। मीरा की भक्ति से संबंधित कुछ पद देखें –

1. राम नाम रस पीजे मनुआं।
2. मन रे परस हरि के चरण।
3. मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।

3. प्रेमानुभूति –

मीरा कृष्ण-प्रेम की अनन्य पुजारिन थीं। प्रेम दीवानी मीरा ने बार-बार अपने प्रियतम कृष्ण के चरणों में लिपट जाने की इच्छा प्रकट की है। समर्पण भाव की पराकाष्ठा मीरा की प्रेम-पद्धति की सर्वप्रमुख विशेषता है। मीरा का समूचा काव्य उनका सुंदर प्रेमोद्गार है –

गिरधर म्हांरो प्रीतम।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ।

4. अन्य विशेषताएँ –

मीरा के काव्य में भावपक्ष के अंतर्गत जीवन संबंधी, प्रकृति-वर्णन संबंधी, रहस्य-भावना एवं दर्शन-संबंधी पद भी मिलते हैं। उदाहरण के रूप में इन्हें इस प्रकार देखा जा सकता है –

1. जीवन संबंधी पद – मीरा के प्रभु सदा सहाई राखै विघन हटाय।
भजन भाव में मस्त डोलती गिरधर पै बलि जाय।
2. प्रकृति वर्णन संबंधी – झुक आई बदरिया सावन की, सावन की मन भावन की।
3. रहस्य-भावना संबंधी – तुम बिच, हम बिच अंतर नाहीं जैसे सूरज घामा।
4. दर्शन संबंधी – भज मन चरण कमल कंवल अविनासी।

(ii) कलापक्ष विषयक विशेषताएँ –

भाषा – मीरा की भाषा में मुख्यतः ब्रज, गुजराती, राजस्थानी तथा पंजाबी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग मिलता है। मीरा का उद्देश्य अपने प्रेमपूर्ण हृदय को प्रकट करना था। उनकी भाषा अनुभूति की भाषा है, जो हृदयस्पर्शी, भावप्रवण, प्रवाहमय, प्रभावात्मक, सहज और स्वाभाविक बन पड़ी है। यथा –

1. यहि विधि भक्ति कैसे होय……(ब्रजभाषा)
2. मुज अबला ने मोटी नीरांत धई रे – (राजस्थानी)
3. लागी सोही जाणै, कठण लगण दी पीर (पंजाबी)
4. प्रेमनी प्रेमनी प्रेमनी रे, मनी लागी कटारी प्रेमनी (गुजराती)

मीरा की भाषा में शब्दों का अशुद्ध प्रयोग भी मिलता है। जैसे न का ‘ण’ प्रयोग, सहेली का बहुवचन सहेल्यां मुरली का मुरलिया नृत्य का निरत, सेह का नेहड़ा इत्यादि।

मीरा का समूचा काव्य उनके हृदय की भाषा है; उसमें कोई लुकाव- छिपाव नहीं, अतः उनके काव्य में अधिकांशतः ‘अभिधाशक्ति’ का प्रयोग मिलता है।

म्हारा री गिरधर गोपाल दूसरा णा कूंयां। (अभिधा शक्ति)
म्हीं गिरधर आगां नाच्या री।।

मीरा ने अपनी अभिव्यक्ति को सरस और मधुर बनाने के लिए अनेक लोकोक्तियों एवं मुहावरों का प्रयोग किया है; जिनसे उनके पदों में अर्थ- गांभीर्य की वृद्धि हो गई है। यथा-आली रे णेणा बाण पड़ी, थारो रूप देख्यां अटकी इत्यादि। अलंकार की दृष्टि से मीरा के काव्य में अनुप्रास, वीप्सा, रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा, अत्युक्ति, उदाहरण, अर्थान्तरन्यास इत्यादि अनेक शब्दालंकारों व अर्थालंकारों का प्रयोग हुआ है। यथा –

1. तुम बिच, हम बिच अंतर नाहीं जैसे सूरज घामा। (उदाहरण)
2. अंसुवं जल सींच-सींच प्रेम बेलि बूयां। (रूपक)
3. गिणतां गिणतां घिस गया, रेखा आंगलियां सारी (अत्युक्ति)

मीरा के काव्य में छंदों की स्थिति भी भाषा के समान है। उनके काव्य में लगभग 15 प्रकार के छंदों का प्रयोग मिलता है; जिनमें सरसीछंद, सारकंद, विष्णुपद, उपमानछंद, दोहानंद, शोभन छंद, कुण्डल चंद इत्यादि मुख्य हैं। मीरा ने किसी पिंगलशास्त्र का अध्ययन नहीं किया था, इसलिए उनके छंदों में कई दोष अथवा त्रुटियाँ रह गई हैं।

संगीतात्मकता – मीरा का काव्य ‘गीतिकाव्य’ के अंतर्गत आता है। मीरा ने गीति का माध्यम अपनाया नहीं, बल्कि उनकी विरह-वेदना स्वतः ही गीतों के रूप में फूट पड़ी है। उनके पदों में गीतिकाव्य की समस्त विशेषताएँ — आत्माभिव्यक्ति, संगीतात्मकता, भावप्रवणता तथा भावों का ऐक्य इत्यादि सहज सुलभ हैं। यथा –

1. बस्यां म्हारे णेणा मां नंदलाल।
2. आली रे म्हारे नेणां बाण पड़ी।

शैली – मीरा के काव्य में क्या कहा गया है? कैसे कहा गया है? —यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण नहीं है; महत्त्वपूर्ण यह है कि उनके काव्य में उनका प्रेमदग्ध हृदय साकार हुआ है। मीरा पदावली वस्तुतः मीरा के प्रेमी-हृदय की एक अमरगाथा है, जो शब्दों के चमत्कार, अलंकारों की छटा, छंदों के सौंदर्य इत्यादि की दृष्टि से बहुत समृद्ध न होने पर भी जीवंत, प्रभावात्मक बन पड़ी है। मीरा का सम्पूर्ण काव्य आत्मव्यंजक काव्य है और इस दृष्टि से मीरा की शैली गीतिकाव्य की आत्मव्यंजक शैली है। इस प्रकार, मीरा का भावपक्ष जितना संपन्न है, उतना ही कलापक्ष भी समृद्ध है।

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मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ

मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ(maithili sharan gupt ki kavyagat visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

मैथिलीशरण गुप्त की काव्यगत विशेषताएँ

1. रामभक्ति –

मैथिलीशरण गुप्त की काव्य-प्रवृत्तियों में सर्वप्रमुख प्रवृत्ति उनकी ‘रामभक्ति’ है। ‘रंग में भंग’ से लेकर ‘जयभारत’ तक की सभी कृतियों में गुप्त जी ने रामभक्ति का सुन्दर निदर्शन प्रस्तुत किया है। रामभक्ति- काव्यधारा में गुप्त जी की ‘साकेत’ रचना का अक्षुण्ण महत्त्व है। मैथिलीशरण गुप्त जी ने राम की कथा को एक नवीन रूप प्रदान किया। उन्होंने राम को ईश्वर का विश्वव्यापी रूप प्रदान किया है और यह कहा है कि राम से प्रेम करना ईश्वर से प्रेम करना है।

‘’राम तु मानव हो ईश्वर नहीं हो क्या ?
विश्व में रमे हुए नहीं सभी वहीं क्या?
तब मैं निरीश्वर हूँ ईश्वर क्षमा करें
तुम न रमो तो मन में रमा करें।‘’

डॉ. सत्येन्द्र का मत है कि – “गुप्त जी के काव्य में राम के प्रति अटूट भक्ति है। गुप्त जी की कविता व्यक्तिगत हर्ष-विषाद और संयोग-वियोग की अभिव्यक्ति नहीं, एक परम्परागत भारतीय परिवार की गौरवमयी झाँकी है।” डॉ. नगेन्द्र ने ‘मानस’ के बाद साकेत को राम काव्य का दूसरा स्तंभ कहा है।

2. राष्ट्रीयता –

गुप्त जी राष्ट्रीय कवि हैं। विजयेन्द्र स्नातक के शब्दों में “राष्ट्रीय सांस्कृतिक मूल्यों के वैतालिक गुप्त जी थे।” ‘भारत-भारती’ के प्रकाशन के साथ ही गुप्त जी की पहचान राष्ट्रीय भावधारा के प्रतिनिधि कवि के रूप में प्रतिष्ठित हो गई। गुप्त जी की राष्ट्रीयता में अतीत का गौरवगान (भारत-भारती, हिन्दू ), जन्मभूमि से अकाट्य प्रेम, कर्त्तव्य- अकर्त्तव्य का विवेक, सांस्कृतिक जागरण, कर्त्तव्यबोध, स्वतंत्रता के लिए व्याकुल पुकार, जातीय गौरव का अमर दिव्य संदेश है, तो न्यायार्थ अपने बन्धुओं को भी दण्ड देने का अद्भुत भाव है। गुप्त जी की राष्ट्रीयता देखें –

1. हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी।
आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी।

2. फैला यहीं से ज्ञान का आलोक सब संसार में।
जागी यहीं थी जग रही जो ज्योति अब संसार में।

राष्ट्रीय एकता, साम्प्रदायिक सद्भाव और सौहार्द के सम्बन्ध में गुप्त जी ‘मातृवंदना’ शीर्षक कविता में कहते हैं कि –

3. जाति, धर्म या संप्रदाय का, नहीं भेद व्यवधान यहाँ।

सबका स्वागत, सबका आदर, सबका सम-सम्मान यहाँ। विजयेन्द्र स्नातक ने बिल्कुल ठीक लिखा है कि – “भारतीय संस्कृति की विराट सामाजिकता ही गुप्त जी को इष्ट थी और इसी उदात्त भावना को वह राष्ट्र-भावना के रूप में स्वीकार करते हैं। जिस राष्ट्रीय एकता, अखंडता और साम्प्रदायिक सद्भावना की बात आज देश में की जा रही है, गुप्त जी के काव्य में वह सर्वोपरि है।” गुप्त जी सच्चे अर्थो में राष्ट्रीय कवि हैं। भारत- भारती रचना राष्ट्रीय जागरण का शंखनाद है।

3. उपेक्षितों का उद्धार –

मैथिलीशरण गुप्त का काव्य उपेक्षित पात्रों के उद्धार की दृष्टि से विशिष्ट काव्य है। गुप्त जी ने ‘पंचवटी’ में लक्ष्मण का, ‘साकेत’ में उर्मिला का और ‘यशोधरा’ में यशोधरा का उद्धार किया है। रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि- “साकेत की रचना तो मुख्यतः इस उद्देश्य से हुई है कि उर्मिला काव्य की उपेक्षित पात्र न रह जाये। पूरे दो सर्ग (9 और 10) उसके वियोग वर्गन में खाप गये हैं। जिनके बीच-बीच में अत्यंत उच्च भावों की व्यंजना है।”

‘साकेत’ के नवम् सर्ग में उर्मिला का चरित्रोत्कर्ष देखते ही बनता है। वह अपने त्याग और पवित्र प्रेम के बल पर अविस्मरणीय चरित्र बनकर उभरती है। काव्य की उपेक्षिताओं के सन्दर्भ में ‘यशोधरा’ कृति की ‘यशोधरा’ नारी चरित्र भी गुप्त जी की एक अविस्मरणीय सृष्टि है यशोधरा के प्रथम पृष्ठ पर ही गुप्त जी ने लिखा है कि-

‘’अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी,
आँचल में है दूध और आँखों में है पानी।‘’

गुप्त जी ने यशोधरा के चरित्र के द्वारा भारतीय नारी को उसके स्वाभाविक गुणों के साथ प्रतिष्ठित किया है; जो पुरुष को बाँधती नहीं मुक्त करती है। और उसे कर्मण्यता सिखाती है। गुम जी की ‘विष्णुप्रिया’ रचना भी यशोधरा के समान है। चैतन्य महाप्रभु की गृहिणी ‘विष्णुप्रिया’ का दुःख भी यशोधरा से मिलता-जुलता है। विष्णुप्रिया को भी चैतन्य निद्रामग्न छोड़ गृह-त्याग करते हैं।

गुप्त जी एक स्थान पर चैतन्य के माध्यम से कहते हैं कि – “पुरुष क्या करेगा त्याग करती है नारी ही।” उर्मिला, यशोधरा, विष्णुप्रिया इत्यादि उपेक्षिता नारी पात्रों को सर्वप्रथम गुप्त जी ने ऐसी प्रतिष्ठा प्रदान की है कि ये अमर नारी चरित्र के रूप में प्रतिष्ठित हो गईं। हिन्दी-कविता के इतिहास में गुप्त जी पहले कवि हैं, जिन्होंने उपेक्षित नारियों का उद्धार कर इनका परिष्कृत आदर्श रूप समाज के समक्ष रखा।

4. मानवतावाद –

सांस्कृतिक पुनर्जागरण के पुरोधा और भारतीय सभ्यता, संस्कृति और परंपरा के पोषक मैथिलीशरण गुप्त सच्चे अर्थों में मानवतावाद के पोषक और समर्थक थे। गुप्त जी ने ‘काबा और कर्बला’ लिखकर मुसलमानों के प्रति उदारता बरती, तो ‘गुरुकुल’ लिखकर सिक्खों के धर्म गुरुओं के प्रति सहिष्णुता का अद्‌भुत परिचय दिया। आशावादी कवि गुप्त जी मानवतावाद के पक्षधर हैं जो विषम स्थिति में भी स्वर्णिम स्वरूप को साकार करने एवं आशा का महत् संदेश देते हैं। यथा-

”भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया,
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल ही को स्वर्ग बनाने आया।।”

5. भारतीय संस्कृति –

गुप्त जी भारतीय संस्कृति के अनन्य प्रस्तोता हैं और उनका काव्य भारतीय संस्कृति का आख्यान है। गुप्त जी की समस्त रचनाओं में भारतीय संस्कृति की पुरजोर अभिव्यक्ति होने के साथ-साथ भारतीय समाज के उद्बोधन की दिशा में स्तुत्य एवं सार्थक प्रयास व्यक्त हुआ है। डॉ उमाकांत गोयल ने गुप्त जी को भारतीय संस्कृति का आख्याता सही कहा है। गुप्त जी गार्गी, मैत्रेयी, अहल्या, लक्ष्मी, पद्मिनी, भारती जैसी स्त्रियों का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि “इससे हमारी संस्कृति और जातीय इतिहास जगमगा रहे हैं।”

वहीं दूसरी ओर पूरे विश्वास के साथ यह लिखते हैं कि “पाती स्त्रियाँ आदर जहाँ रहतीं वहीं सब सिद्धियाँ”। परिवार के केन्द्र में स्थित नारी को विशिष्टता प्रदान कर गुप्त जी ने भारतीय संस्कृति के उज्वल पक्ष को रूपावित किया है। मर्यादा, कर्तव्यपालन, पराक्रम, मेह, सौहार्द, वसुधैव कुटुम्बकम् इत्यादि भारतीय संस्कृति के प्रोज्ज्वल मणि का सुन्दर दस्तावेज है- गुप्त जी का साहित्य।

6. मानवीय मूल्य –

गुप्त जी का काव्य मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति का अद्भुत काव्य है। गुप्त जी का काव्य युगीन समस्याओं (यथा- राष्ट्रीय मुक्ति, जात-पाँत, छुआछूत, स्त्री सम्मान की समस्या, अनमेल विवाह, किसान-समस्या, बाल-विवाह इत्यादि) का चित्रण कर जहाँ सुधार का संदेश देता है; वहीं राष्ट्र-सम्मान, स्वतंत्रता, स्त्री-सम्मान इत्यादि मूल्यों को भी उच्च मनोभूमि पर प्रतिष्ठित करता है। यथा –

1. अनय राज निर्दय समाज से निर्भय होकर जूझो।

2. न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दंड देना धर्म है।

7. प्रकृति चित्रण –

गुप्त जी की काव्य-प्रवृत्तियों में प्रकृति-चित्रण एक अन्यतम प्रवृत्ति है। साकेत, यशोधरा, पंचवटी इत्यादि रचनाओं में पंत जी ने प्रकृति के बड़े सुंदर, सजीव, जीवंत, मनोरम एवं भाव प्रवण चित्र उकेरे हैं। ‘पंचवटी’ में प्रकृति का आलंबन रूप में यह चित्र अनुपम है –

‘’चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रही हैं जल-थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है, अवनि और अंबर तल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मंद पवन के झोंकों से।‘’

प्रकृति-चित्रण का निम्नांकित उदाहरण भी बेमिसाल है-

‘’सखी निरख नदी की धारा
ढलढल ढलमल अंचल अंचल झलमल झलमल तारा।‘’

8. कलापक्ष –

कलापक्ष की दृष्टि से गुप्त जी की महनीय देन है— ‘खड़ी बोली को कविता के अनुकूल स्वरूप प्रदान करना’। गुप्त जी पहले ब्रजभाषा में कविता किया करते थे। आरम्भ में उन्होंने ‘रसिकेन्द्र’ उपनाम से एक ब्रजभाषा की कविता ‘सरस्वती’ में प्रकाशनार्थ भेजी थी; जिसे महावीर
प्रसाद द्विवेदी ने यह कहकर लौटा दिया कि आपकी कविता पुरानी भाषा में लिखी गई है।

सरस्वती में हम बोलचाल की भाषा में ही लिखी गई कविताएँ छापना पसंद करते हैं। कुछ समय बाद ‘हेमंत’ शीर्षक से गुप्त जी की खड़ीबोली में (सरस्वती पत्रिका में) प्रथम कविता प्रकाशित हुई और फिर उनकी भाषा निरंतर निखरती हुई परवान चढ़ी।

खड़ी बोली को काव्यभाषा बनाने में गुप्त जी का अभूतपूर्व योगदान रहा। उमाकांत गोयल ने लिखा है कि – खड़ीबोली के स्वरूप-निर्धारण और विकास में गुप्त जी का योगदान अन्यतम है। खड़ीबोली को उसकी प्रकृति के भीतर ही सुन्दर सुघड़ स्वरूप देकर काव्योपयुक्त रूप प्रदान करने का इन्होंने सफल प्रयत्न किया। आज जिस संपन्न भाषा के हम अनायास उत्तराधिकारी हैं, उसे काव्य-भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने वाले यही प्रथम कवि हैं।

अलंकार-छंद की दृष्टि से भी मैथिलीशरण गुप्त उल्लेखनीय हैं। गुप्त जी ने अपनी भाषा-शैली को अर्थालंकारों से सँजोया-सँवारा है; फिर भी शब्दालंकारों के प्रयोग भी उनके काव्य में मिलते हैं। इन्हें ‘अन्त्यानुप्रास का स्वामी’ कहा जाता है। इनके काव्य में छंदों की जितनी विविधता मिलती है, वर्तमान युग में कदाचित् किसी कवि में नहीं। इनके छंद प्रसंगानुकूल हैं।

छंद-मर्मज्ञ गुप्त जी को नंददुलारे वाजपेयी छंद-प्रयोग की विविधता, प्रसंगानुकूलता इत्यादि विविध दृष्टियों से तुलसी के समकक्ष घोषित करते हैं। गुप्त जी का काव्यरूप प्रबंधात्मक (साकेत, जयभारत), खड-काव्य (पंचवटी, द्वापर,नहुष किसान आदि), चंपूकाव्य (यशोधरा), प्रबंधात्मक प्रगीत मुक्तक (भारत-भारती, वैतालिक, हिंदू आदि) एवं मुक्तक (स्वदेश संगीत, झंकार आदि) हैं।

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नकेनवाद क्या है ?

नकेनवाद क्या है ?

बिहार के नलिनविलोचन शर्मा ने अपने दो साथियों नरेश और केशरी कुमार को मिलाकर ‘नकेनवाद’ की स्थापना की थी। नकेनवाद का नाम इन तीन कवियों के नाम के पहले अक्षर से मिलकर बना है। इसकी स्थापना 1956 में की गई। इसका दूसरा नाम ‘प्रपद्यवाद’ भी दिया गया। यह हिन्दी साहित्य की एक प्रयोगवादी शाखा है।

इसमें प्रयोगवाद को स्पष्ट करने के लिए 10 सूत्री सामने रखे गए; जिसका सार यही है कि ‘प्रपद्यवाद’ न सिर्फ शास्त्र या दल- निर्धारित नियमों को, बल्कि महान पूर्ववर्तियों की परिपाटियों को भी गलत मानता है। इसे अपना अनुकरण भी वर्जित है।

प्रपद्यवाद प्रयोग को साध्य मानता है, जबकि प्रयोगवाद इसे साधन। ‘प्रपद्यवाद’ और प्रयोगवाद में यही अंतर है। नकेनवादियों का ‘प्रपद्यवाद’ अज्ञेय के प्रयोगवाद की स्पर्द्धा में खड़ा किया गया आंदोलन था।

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रीतिबद्ध काव्य धारा क्या है ?

रीतिबद्ध काव्य धारा(Ritibaddh Kavyadhara): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में रीतिबद्ध काव्य धारा पर जानकारी शेयर करेंगे।

रीतिबद्ध काव्य धारा – Ritibaddh Kavyadhara

ऐसा काव्य जो अलंकार, रस, गुण, ध्वनि, नायिका-भेद इत्यादि काव्यशास्त्रीय प्रणाली पर रचा जाये, वह रीतिकाव्य कहलाता है। रीतिकाव्य को 3 भागों में बाँटा गया है – (i) रीतिबद्ध (ii) रीतिसिद्ध और (iii) रीतिमुक्त।

रीतिबद्ध काव्य धारा क्या है – Ritibadh Kavya Dhara Kya Hai

रीतिकाव्यधारा की तीन कोटियाँ थीं – रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त। रीतिबद्ध अर्थात् रीति से बँधा हुआ। ऐसे कवि जो शास्त्रीय लक्षण देते हुए काव्य-रचना किया करते थे, वे रीतिबद्ध कवि कहलाते थे और इनके द्वारा रचित काव्य ‘रीतिबद्ध काव्य’।

दूसरे शब्दों में काव्यांगों (अलंकार, रस, नायिका-भेद, गुण, ध्वनि, वक्रोक्ति इत्यादि) के लक्षण देकर उनके उदाहरण स्वरूप रचित काव्य रीतिबद्ध काव्य है। वस्तुतः रीतिबद्ध काव्य लक्षणों और उदाहरणों से युक्त काव्य है।

रीतिबद्ध कवियों की रचनाएँ

  • केशवदास (रामचंद्रिका)
  • देव (भवानी विलास)
  • चिंतामणि त्रिपाठी
  • (कविकल्पतरु)
  • भूषण (शिवराजभूषण)
  • मतिराम (ललितललाम)
  • पद्माकर (हिम्मतबहादुर-विरदावली)
  • भिखारीदास
  • ग्वाल
  • रसलीन

रीतिबद्ध काव्य धारा की विशेषताएं

1. आचार्यत्व या रीति विवेचन – रीतिबद्ध कवियों ने आचार्यत्व अथवा रीति का विवेचन दो कारणों से किया है— (i) ये कवि स्वयं को केवल कवि ही नहीं अपितु काव्यशास्त्र का ज्ञाता भी समझते थे। (ii) आश्रयदाता अथवा धनाढ्य लोगों को शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से रीतिबद्ध कवियों ने मुख्यतः रस, नायिका-भेद, अलंकारों इत्यादि का विवेचन किया।

2. शृंगार वर्णन – रीतिबद्ध कवियों ने जहाँ लक्षणग्रंथ लिखे हैं, वहीं इन्होंने शृंगार रस को पूर्ण रसराजत्व तक पहुँचाया है। इनके द्वारा श्रृंगार रस का इतना अधिक विस्तार साहित्य में हुआ है कि इसके एक-एक अंग को लेकर स्वतंत्र ग्रंथ लिखे गए। शृंगार के अन्तर्गत इन्होंने मुख्यतः संयोग पक्ष य एवं नायिका के सौंदर्य का निरूपण किया है। यथा – ”कुंदन को रंग फीको लगे, झलके ऐसो अंगन चारु गोराई।” (मतिराम)

3. नखशिख वर्णन की परंपरा, संस्कृत के आचार्यों की देखादेखी षङऋतु एवं बारहमासा शीर्षक से अनेक काव्यग्रथों का प्रणयन, आश्रयदाताओं की प्रशंसा (भवानीविलास, जगतविनोद, जहाँगीर जसचंद्रिका, हिम्मत बहादुर विरदावली) इत्यादि रीतिबद्ध काव्य की अन्य विशेषताएँ थीं।

4. ब्रजभाषा का परिमार्जन, मुक्तक शैली, सुकुमार भावों और ललित चेष्टाओं की मार्मिक अभिव्यंजना रीतिबद्ध काव्य की कलापक्ष की मुख्य प्रवृत्तियाँ थीं।

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प्रगतिवाद किसे कहते हैं ?

प्रगतिवाद(Pragativad): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत प्रगतिवाद पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

प्रगतिवाद किसे कहते हैं  – Pragativad Kise Kahte Hai

छायावादी और स्वछंदतावादी काव्यधारा की अतिशय काल्पनिकता और वैयक्तिकता के विरोध में ‘सामाजिक यथार्थवाद’ के नाम पर चलाया गया साहित्यिक आंदोलन ‘प्रगतिवाद’ कहलाया। प्रगतिवाद की समय सीमा 1936 से 1943 ईस्वी मानी जाती है।

प्रगतिवाद का मूल उद्देश्य जनजीवन की समस्याओं तथा नित्यप्रति के संघर्षरत जीवन का चित्रण करना था। अंतर्मुखी, पलायन, निराशा, पराजय इत्यादि के स्थान पर उत्साह और जूझने की प्रेरणा लेकर प्रगतिशील चेतना उद्भूत हुई थी। इसे प्रगतिशील-आंदोलन भी कहा जाता है।

लंदन में 1935 ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई और 1936 ई. में प्रेमचंद ने लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की अध्यक्षता की। आगे चलकर इस चेतना में मार्क्सवादी विचारधारा का समावेश हो गया और इसने प्रगतिवादी आंदोलन का रूप धारण कर लिया।

प्रगतिवादी विचारधारा का आधार कार्लमार्क्स का द्वन्द्वात्मक तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद है।

प्रगतिवाद के कवि और उनकी रचनाएँ

हिंदी में प्रगतिवाद का पहला कवि वही सुमित्रानंदन पंत हैं, जो छायावाद के एक प्रमुख आधार स्तंभ थे। उनकी रचना ‘युगवाणी’ प्रथम प्रगतिवादी रचना है।

प्रगतिवादी कवियों में मुख्य कवि एवं उनकी रचनायें निम्नांकित हैं –

कवि रचनाएँ
दिनकर संस्कृति के 4 अध्याय, रेणुका, हुंकार, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, उर्वशी (महाकाव्य)
नागार्जुन युगधारा, सतरंगी पंखों वाली, प्रेत का बयान, भस्मांकुर
केदारनाथ अग्रवाल युग की गंगा, नींद के बादल, फूल नहीं रंग बोलते हैं
शिवमंगलसिंह सुमन जीवन के गान, विंध्य हिमालय
रांगेय राघव अजेय खंडहर, पिघलते पत्थर
मुक्तिबोध चाँद का मुँह टेढ़ा है

प्रगतिवाद की विशेषताएं

1. ‘सामाजिक यथार्थ की अभिव्यक्ति’ प्रगतिवाद की मुख्य विशेषताएँ थीं। प्रगतिवादी साहित्य जनता का, जनता के लिए चित्रण करता है। यथा – यह तो मानव लोक नहीं है, यह है नरक अपरिचित।

2. प्रगतिवादी कवियों ने जहाँ समसामयिक समस्याओं (भारत- विभाजन, कश्मीर-समस्या, बंगाल का अकाल, महँगाई, बेकारी, रूढ़ियों का विरोध इत्यादि) का चित्रण किया, वहीं मार्क्सवाद और रूसी शासन की प्रशंसा भी की।

(i) ‘लाल रूस है ढाल साथियों, सब मजदूर किसानों की’

(ii) ‘धन्य मार्क्स चिर तामाच्छन्न पृथ्वी के उदय शिखर पर।
तुम त्रिनेत्र के ज्ञान चक्षु से प्रकट हुए प्रलयंकर।

(iii) बाप बेटा बेचता है, भूख से बेहाल होकर,
धर्म धीरज प्राण खोकर, हो रही अनीति बर्बर।
राष्ट्र सारा देखता है, बाप बेटा बेचता है। (केदारनाथ अग्रवाल)

3. प्रगतिवाद ने जहाँ शोषकों, पूँजीपति वर्ग के प्रति घृणा, रोष, विरोध इत्यादि का भाव व्यक्त किया, वहीं शोषितों का करुण गान गाया –

(i) ‘श्वानों को मिलता वस्त्र दूध, भूखे बालक चिल्लाते हैं।’

(ii) ये व्यापारी जमीदार जो हैं लक्षमी के परम भक्त,
वे निपट निरामिष सूदखोर, पीते मनुष्य का उष्ण रक्त। (दिनकर)

4. प्रगतिवादी ने ईश्वर, धर्म, परलोक एवं भाग्य संबंधी विचारों का विरोध किया। आत्मा, परमात्मा, सृष्टि, जन्मान्तर इत्यादि में उसने अविश्वास प्रकटकर समाजवाद या मानव-सत्ता का महत्त्व प्रतिपादित किया और एक नई व्यवस्था का आहवान किया।

(i) द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र (पंत)।

(ii) हो यह समाज चिथड़े-चिथड़े, शोषण पर जिसकी नींव पड़ी।

5. बौद्धिकता एवं व्यंग्यात्मकता’ का प्रसार प्रगतिवादी एक अन्य मुख्य विशेषता थी। नागार्जुन का व्यंग्य बेजोड़ है –

‘घुन खाए शहतीरों पर की बारह घड़ी विधाता बाँचे
फटीभीत है छत है चूती… आदम से सांचे।’

6. न सिर्फ काव्य बल्कि गद्य में भी प्रगतिशील साहित्य की विशेषता देखने को मिलती है। प्रेमचंद के पश्चात् किसानों की जिंदगी पर प्रगतिशील लेखकों ने उपन्यास लिखे। आलोचना के क्षेत्र में मार्क्सवादी समीक्षा को स्थान मिला।

7. प्रगतिवाद की भाषा सुस्पष्ट, संयत, सामान्य एवं प्रचलित भाषा है। शैली उपदेशात्मक है। लोकगीतों की कई धुनों को कविता में प्रगतिवादी कवियों ने पुनर्जीवित किया है, यथा –

मांझी न बजाओ वंशी, मेरा मन डोलता है, मेरा तन घूमता है- (केदार)

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हालावाद से आप क्या समझते हैं ?

हालावाद(Halawad): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत हालावाद पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

हालावाद से आप क्या समझते हैं ?

हालावाद के प्रवर्त्तक हरिवंशराय बच्चन हैं। हालावाद का समयकाल 1933 से 1936 तक माना जाता है। साहित्यिक दृष्टि से छायावाद की वेदना और घनीभूत होकर निराशा में परिणत हो हालावाद का रूप धारण कर लिया। दूसरे शब्दों में – “छायावाद की निराशा ने बच्चन की वाणी से जो एक नई भावधारा को जन्म दिया, उसे ‘हालावाद’ कहते हैं।

वेदना को मधुर बनाकर सहन करने के फलस्वरूप हालावाद का जन्म हुआ था और छायावाद की इस प्रक्षेपित धारा ‘हालावाद’ को भी 1936 ई. में समाप्त कर दिया गया।

मधुशाला (1935), मधुबाला (1936) और मधुकलश (1951) बच्चन की ये तीन कृतियाँ हालावाद की विशिष्ट देन हैं। इन दोनों काव्य- संग्रहों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि हालावाद के नाम से पृथक् काव्यधारा ही प्रवाहित हो गई। फलस्वरूप बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, हृदयेश, भगवतीचरण वर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ इत्यादि कवियों ने मादकता और बेहोशी के गीत गाये।

जीवन के दुःखों और विफलताओं को अनिवार्य समझकर एक विचित्र मस्ती में समस्त पीड़ा को डुबो देना ही हालावाद का लक्ष्य था। इस वाद की सारी विशेषता बच्चन की इस पंक्ति में निहित है – मिट्टी का तन, मस्ती का मन, क्षणभर जीवन मेरा परिचय।

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भारतेंदु युगीन काव्य की विशेषताएँ

भारतेंदु युगीन काव्य की विशेषताएँ(Bharatendu Yugin Kavya ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत भारतेंदु युगीन काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

भारतेंदु युगीन काव्य की विशेषताएँ

हिंदी-साहित्येतिहास में 1850 ई. से 1900 ई. तक का काल ‘भारतेन्दु काल’ है। समकालीन साहित्य पर भारतेन्दु की बहुमुखी प्रतिभा की जबरदस्त छाप और साहित्य-क्षेत्र में उनके कुशल नेतृत्व प्रदान करने के कारण 1850 से 1900 ई. तक का युग भारतेन्दु-युग कहलाया, जो उपयुक्त ही था।

भारतेंदु युग के कवि – भारतेन्दु, प्रेमघन, अंबिकादत्त व्यास, राजा लक्ष्मण सिंह, तोताराम, सीताराम भूप, मुरारिदान इत्यादि भारतेन्दु-युग के प्रमुख हस्ताक्षर थे।

1. देशभक्ति

अंग्रेजी राज्य के अधीन रहते हुए भी भारतेन्दुयुगीन कवियों ने देश और जाति के अतीत का गौरवगान, वर्तमान हीनावस्था पर क्षोभ, उज्ज्वल भविष्य के लिए उद्बोधन जो उस समय देशभक्ति भावना के अन्तर्गत आते थे, का बड़ी प्रमुखता के साथ चित्रण किया।

(i) कहाँ करुणानिधि केशव सोए
जागत नाहि अनेक जतन करि भारतवासी रोए।

(ii) हाय पंचनद! हा पानीपत! अजहुँ रहे तुम धरनि बिराजत
हाय चित्तौड़, निलज तू भारी, अजहुँ खरौ भारतहिं मंझारी।।

2. राजभक्ति

‘देशभक्ति के साथ राजभक्ति का प्रकाशन’ भारतेन्दुयुगीन काव्य की मुख्य विशेषता थी। सन् 1885 ई. में महारानी विक्टोरिया के घोषणा पत्रों द्वारा देश में आमूल सुधार हुए तो तयुगीन साहित्यकारों ने तत्कालीन शासकों के प्रति अभिव्यक्ति की।

यथा –

(क) अंगरेज राज सुख साज सब भारी। (भारतेन्दु)
(ख) राजभक्ति भारत सरिस और ठौर कहुँ नाहिं। (अंबिकादत्त व्यास)
(ग) जयति राजेश्वरी जय-जय परमेश।

3. जन साहित्य

भारतेन्दुयुगीन कवियों ने पहली बार निर्धनता, बुभक्षा, अकाल, महंगाई, टैक्स, आलस्य, बालविवाह, बहुविवाह, विधवा-विवाह निषेध, अशिक्षा, अज्ञानता, पुलिस, अत्याचार, बुराई इत्यादि का चित्रण कर जन साहित्य प्रस्तुत किया। भारतेन्दु-युग के साहित्यकार यथार्थवादी थे जिनका उद्देश्य सुधारवाद से प्रेरित था।

‘’डफ बाज्यो भरत भिखारी को।
बिन धन अन्न लोग सब व्याकुल भई कठिन विपत नर नारी को।‘’

4. अन्य विशेषताएँ

मातृभाषा हिन्दी का उत्थान (निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति के मूल), हास्य-व्यंग्य (चूरन पुलिसवाले खाते, कानून सब हजम कर जाते) काव्यानुवाद (रघुवंश, मेघदूत, हरमिट, डिजरटेंड विलेज इत्यादि ग्रंथों का अनुवाद) इत्यादि भारतेन्दुयुगीन काव्य की अन्य मुख्य विशेषताएँ थीं। भारतेन्दुयुगीन कवियों की भाषा ब्रजभाषा थी किंतु खड़ीबोली का प्रयोग भी प्रारंभ हुआ।

भारतेन्दुयुगीन काव्य का स्वरूप मुक्तक था। आल्हा, लावनी, कजली, ठुमरी इत्यादि नए छंदों का प्रयोग हुआ। लोकगीत भी लिखे गये।

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