नवगीत से आप क्या समझते हैं ?

नवगीत से आप क्या समझते हैं (Navgeet Se Aap Kya Samajhte Hain): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नवगीत पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नवगीत से आप क्या समझते हैं ?

‘नई कविता’ के नाम के आधार पर ‘नवगीत’ (Navgeet) का नामकरण हुआ। छायावादी कविता की प्रणय भावना, काल्पनिकता, राष्ट्रीयता, रहस्यवादिता, मांसलता एवं संगीतात्मकता की प्रतिक्रिया स्वरूप ‘नवगीत’ का उदय हुआ।

नवगीत के प्रमुख कवि

  • ठाकुर प्रसाद सिंह
  • पुष्पा राही
  • हरीश भादानी
  • देवेन्द्र कुमार
  • महेन्द्र भटनागर
  • वीर सक्सेना

इन नवगीतकारों ने नवगीत काव्यधारा के विकास एवं प्रवर्तन में अमूल्य योगदान दिया।

नवगीत की विशेषताएँ –

1. प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति, भावुकता इत्यादि प्रमुख वर्ण्य-विषय।
2. लोकजीवन की अनुभूति।
3. यथार्थ से साक्षात्कार।
4. अंतरंग अनुभूति।
5. सामाजिक, राजनीतिक चेतना।
6. महानगरीय संत्रास की अभिव्यक्ति।
7. नवीन शिल्प।
8. गेयता

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समानांतर कहानी क्या है ?

समानांतर कहानी क्या है (Samanantar Kahani Kya Hai): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत समानांतर कहानी पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

समानांतर कहानी क्या है ?

अकहानी आंदोलन की प्रतिक्रियास्वरूप सन् 1971 में कमलेश्वर के द्वारा समानांतर कहानी आंदोलन का प्रवर्तन हुआ। उन्होंने अकहानीकारों की ‘अय्याश प्रेतों का विद्रोह’ शीर्षक लेखमाला में तीव्र आलोचना की। ‘समानांतर’ से कमलेश्वर जी का अभिप्राय कहानी को आम आदमी के जीवन की परिस्थितियों एवं समस्याओं के समानांतर प्रतिष्ठापन से है। समानांतर कहानीकारों में कमलेश्वर के अतिरिक्त जितेन्द्र भाटिया, धमेन्द्र गुप्त, मणिमधुकर, मृदुला गर्ग, हिमांशु जोशी इत्यादि मुख्य हैं।

समानांतर कहानी की विशेषताएँ –

1. समानांतर कहानी में मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय समाज की विभिन्न स्थितियों, विषमताओं एवं समस्याओं का अंकन सूक्ष्मतापूर्वक हुआ।

2. इसमे पुरुष-नारी के संबंधों का स्वरूप एवं संतुलित चित्रण किया गया।

3. समानान्तर कहानी में शासन और राजनीति के दुर्बल पक्षों का भी उद्घाटन हुआ।

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नई कविता की विशेषताएँ

नई कविता की विशेषताएँ (Nai Kavita Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नई कविता की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नई कविता की विशेषताएँ

सन् 1943 ई. में अज्ञेय के नेतृत्व में हिंदी-कविता के क्षेत्र में एक नये आंदोलन का प्रवर्तन हुआ, जिसे प्रयोगवाद, प्रपद्यवाद, नई कविता इत्यादि विभिन्न संज्ञाओं से विभूषित किया गया। छठा दशक नई कविता (Nai Kavita) का दशक है। नई कविता वस्तुतः 1953 ई. में ‘नये पत्ते’ के प्रकाशन के साथ विकसित हुई।

1952 ई. में अज्ञेय ने आकाशवाणी पटना की भेंटवार्ता में ‘नई ‘कविता’ शब्द का प्रयोग किया था। जगदीश गुप्त और रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा संपादित संकलन ‘नयी कविता’ (1954) में यह सर्वप्रथम अपने समस्त प्रतिमानों के साथ सामने आई। कई विद्वानों ने भारतीय स्वतंत्रता- प्राप्ति के पश्चात् लिखी गई कविता को ‘नई कविता’ कहा है।

नई कविता की विशेषताएँ (Nai Kavita Ki Visheshtaen) इस प्रकार हैं –

1. सभी वादों से मुक्ति –

नई कविता (Nai Kavita) का कोई वाद नहीं है, जो अपने कथ्य एवं दृष्टि से सीमित हो। कथ्य की व्यापकता और दृष्टि की उन्मुक्तता नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता है। द्वितीय सप्तक (1951) की भूमिका में अज्ञेय जी ने लिखा है कि –“प्रयोग कोई वाद नहीं है। हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं।”

2. घोर वैयक्तिकता –

नई कविता का प्रमुख लक्ष्य निजी मान्यताओं, विचारधाराओं और अनुभूति का प्रकाशन करना था। यथा –

साधारण नगर के, एक साधारण घर में, मेरा जन्म हुआ।
बचपन बीता अति साधारण, खान-पान, साधारण वस्त्र वास। (भारत भूषण)

3. दूषित वृत्तियों का नग्न रूप में चित्रण –

जिन वृत्तियों को अश्लील, असामाजिक एवं अस्वस्थ कहकर समाज और साहित्य में अब तक दमन किया जाता रहा था, नई कविताओं में उसकी निःसंकोच प्रस्तुति हुई। उदाहरणार्थ –

मेरे मन की अंधियारी कोठरी में,
अतृप्त आकांक्षा की वेश्या बुरी तरह खाँस रही है। (अनंत कुमार पाषाण)

4. भदेस का चित्रण –

नई कविता के कवियों ने भदेस (असुंदर, कुरूप, भद्दा) का चित्रण भी खूब किया है, जैसे –

मूत्र सिंचित मृत्तिका के वृत्त में,
तीन टाँगों पर खड़ा नत ग्रीव, धैर्यधन गदहा। – (अज्ञेय)

5. अन्य विशेषताएँ –

लघुमानव की प्रतिष्ठा, क्षणवादी समसामयिकता साधारण विषयों (जैसे – चूड़ी का टुकड़ा, चाय की प्याली, बाटा की चप्पल, कुत्ता, पेंटिंग रूम, दाल, तेल, इत्यादि) का चयन, व्यक्ति स्वातंत्र्य रूप इत्यादि नई कविता की अन्यतम विशेषताएँ थीं।

6. शैलीगत प्रवृत्तियाँ –

नये कवियों ने नये प्रतीक, उपमान, बिंब, नयी शब्दावली इत्यादि का प्रचुर प्रयोग किया था –
(i) नये प्रतीक – प्यार का बल्ब फ्यूज हो गया।
(ii) नये उपमान – आपरेशन थियेटर सी, जो हर काम करते हुए भी चुप है।
(ii) नई शब्दावली – फफूंद, बिटिया, ठहराव, अस्मिता, पारमिता इत्यादि।

नई कविता का अपना मिजाज और तेवर है। जो लोग इसे बकवास या शब्दों का जाल कहते हैं उनके विषय में केशरी कुमार का कथन है कि – “नई कविता कोई बउआ जी का झुनझुना नहीं है, जिसे जो चाहे जब चाहे बजा ले।”

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रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताएँ

रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताएँ (Raghuvir Sahay Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताएँ

रघुवीर सहाय (1929-1990) एक प्रभावशाली कवि होने के साथ- साथ कथाकार, निबंध-लेखक और आलोचक थे। पत्रकार, संपादक और अनुवादक के रूप में उनकी विशिष्टता निर्विवाद है। ये नभाटा (नवभारत टाइम्स, दिल्ली) में संवाददाता और मशहूर पत्रिका दिनमान के 1969 से 1982 तक प्रधान संपादक रहे। रघुवीर सहाय 1982 ई. में ‘लोग भूल गये हैं’ कृति के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजे गये।

रघुवीर सहाय (Raghuvir Sahay) ‘द्वितीय सप्तक’ (1951 ई.) के प्रकाशन के साथ ही एक कवि के रूप में हिंदी काव्य-संसार में छा गये। नये कवियों में प्रसिद्ध रघुवीर सहाय प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रतिनिधि कवि हैं; जिनका काव्य स्वातंत्र्योत्तर भारत के यथार्थ का अद्भुत् दस्तावेज है।

‘सीढ़ियों पर धूप में’ (1960 ई.), आत्महत्या के विरुद्ध (1967 ई.), हँसो-हँसो जल्दी हँसो (1975 ई.), लोग भूल गये हैं (1982 ई.), कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ (1989 ई.) तथा एक समय था (1994 ई., मरणोपरान्त प्रकाशित) उनकी 6 काव्य-कृतियाँ हैं। दिल्ली मेरा परदेस; लिखने का कारण; ऊबे हुए सुखी; वे और नहीं होंगे जो मारे जायेंगे; भँवर लहरें और तरंग रघुवीर सहाय के निबंध-संग्रह हैं। इनके 2 कहानी-संग्रह भी बेहद चर्चित हैं- 1. रास्ता इधर से है और 2. जो आदमी हम बना रहे हैं।

रघुवीर सहाय के काव्य की विशेषताएँ (Raghuvir Sahay Ke Kavya Ki Visheshtaen) इस प्रकार हैं –

1. जन-यथार्थ –

रघुवीर सहाय की कविता का केन्द्रीय बिन्दु समकालीन साधारण जन का यथार्थ है। उनकी कविताओं में स्वातंत्र्योत्तर भारत में बदली हुई परिस्थितियों, बदले हुए प्रशासन, लोकतंत्र के नाम पर विडम्बना और विसंगतिपूर्ण स्थितियों का पर्दाफाश है तो गरीबी, ऊब, उदासी, अभावग्रस्त अकेलेपन का कच्चा चिट्ठा इत्यादि का वर्णन जो देश की आबादी की 80% जनता के जनजीवन का कड़वा भयावह सत्य है। इनकी दुनिया लोकतंत्र की विसंगतियों को झेल रहे आम आदमी की दुनिया है। यथार्थ पर बल देने की प्रक्रिया में वह अतिशय भावुकता पर प्रहार करते हुए लिखते हैं कि –

कितना अच्छा था छायावादी कवि
एक दुःख लेकर वह एक गान देता था
कितना कुशल था प्रगतिवादी
हर दुःख का कारण पहचान लेता था
कितना महान था गीतकार
जो दुःख के मारे अपनी जान लेता था
कितना अकेला हूँ मैं इस समाज में। – कोई एक और मतदाता

रघुवीर सहाय की ‘रामदास’ शीर्षक प्रसिद्ध कविता समकालीन परिवेश की भयावहता, शासनतंत्र के निठल्लेपन, वर्तमान काल का यथार्थ, समकालीन सामयिक परिवेश में व्याप्त संवेदनहीनता, स्वार्थरता एवं व्यक्ति के अकेलेपन की बेजोड़ कविता है।

रामदास उस दिन उदास था, अंत समय आ गया पास था,
उसे बता यह दिया गया था उसकी हत्या होगी।
धीरे-धीरे चला अकेले, सोचा साथ किसी को ले लें,
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे, सभी निहत्थे ……….
निकल गली से तब हत्यारा……. भीड़ ढेलकर लौट गया वह मरा पड़ा है रामदास यह ! – रामदास

2. राजनीतिक चेतना –

रघुवीर सहाय हिन्दी – साहित्य में एक राजनीतिक कवि के रूप में अपनी पहचान, अपनी अस्मिता, अपना अस्तित्व रखते हैं। मुक्तिबोध, धूमिल, श्रीकांत वर्मा, चंद्रकांत देवताले, लीलाधर जगूड़ी की कड़ी में रघुवीर सहाय ने राजनैतिक संदर्भों को व्यापक फलक पर रूपायित किया है।

रघुवीर सहाय की माइल स्टोन रचना ‘आत्महत्या के ‘विरुद्ध’ में राजनीतिज्ञों के छल, उनके झूठे आश्वासनों, कोरे कायों, सांसद, नेताओं की अवसरवादिता, दलबंदी, सत्तालोलुपता इत्यादि का पूरा का पूरा चित्र विडम्बना और विसंगतिपूर्ण रूप में साकार होता है।

स्वर्ण शिखर से आकर आत्मा के स्वर्णखंड
किये जाये/गोल शब्दों में अमोल बोल तुतलाते
भीमकाय भाषाविद् हाँफते डकारते हँकाते!
अंगरेजी का अवध्य गाय
घंटा घनघनाते पुजारी जय-जयकार
सरकार से करार जारी हजार शब्द रोज/कैद।

नेहरू युग के खोखलेपन को आत्महत्या के विरुद्ध कविता बखूबी साकार करती है। निम्न पंक्तियों में कवि का मानवीय-बोध, समाज-बोध एवं व्यंग्य की धार दर्शनीय है –

गया वाजपेयी जी से पूछ आया देश का हाल
पर उढा नहीं सका नंगी औरत को कंबल
रेलगाड़ी में बीस अजनबियों के सामने (आत्महत्या के विरुद्ध)

3. आक्रोश का स्वर –

रघुवीर सहाय की कविता में एक ओर समकालीन अवाम की पीड़ा, दुःख-दर्द, अभाव, बेबसी, बेचारगी इत्यादि का चित्रण है, तो दूसरी ओर राजनीति जगत् में व्याप्त भ्रष्टाचार, राजनीति के विकृत और भयावह रूप का निदर्शन है। रघुवीर सहाय की ‘आत्मा के ‘विरुद्ध’ और ‘हंस हंसे और हंस’ शीर्षक काव्य-संग्रह की अनेक कविताओं में व्यवस्था के प्रति कहीं क्षोभ, कहीं विरोध, कहीं व्यंग्य और कहीं आक्रोश का स्वर गंभीरतापूर्वक प्रकट हुआ है। उदाहरण –

हर संकट में भारत में एक गाय है
होता है
ठीक समय ठीक बहस नहीं कर सकती
राजनीति
बाद में जहाँ कहीं से भी शुरू करो
बीच सड़क पर गोबर कर देता है विचार।

4. व्यंग्यात्मकता –

रघुवीर सहाय चूँकि राजनीति के कवि हैं और उनके काव्य का मूल स्वर जहाँ एक ओर विद्रोह एवं आक्रोश से भरा है. वहीं दूसरी ओर उनके व्यंग्य की पैनी धार भी है। आत्महत्या के विरुद्ध, नेता क्षमा करें, मतदाता, अधिनायक इत्यादि कविताओं में रघुवीर सहाय की व्यंग्यात्मकता देखते ही बनती है। ‘अधिनायक’ शीर्षक कविता में रघुवीर सहाय ने हमारे देश के राष्ट्रगीत ‘जन-गण-मन अधिनायक जय हे भारत भाग्य विधाता’ हमारे देश के मूल में सत्ताहीन नेताओं की स्वार्थपरता, होंग, दिखावे की प्रवृत्ति पर तंज इस प्रकार कसा है –

राष्ट्रगीत में भला कौन वह, भारत भाग्य विधाता है,
फटा सुथन्ना पहने जिसका, गुन हर चरना गाता है।
मखमल, टमटम, बल्लम, तुरी, पगड़ी, छत्र, तँवर के साथ
तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर, जय-जय कौन कराता है। – अधिनायक

5. अन्य विशेषताएँ –

रघुवीर सहाय के काव्य-फलक में जनजीवन का यथार्थ, राजनीति, आक्रोश, व्यंग्य इत्यादि के साथ-साथ रोमानी प्रेम की अभिव्यक्ति, बौद्धिकता, प्रकृति के प्रति नया नजरिया, अनाहत जिजीविष व मुक्ति के स्वर इत्यादि की अभिव्यंजना है। रघुवीर सहाय की अनेक कविताएँ (यथा-नारी, चढ़ती स्त्री, अकेली औरत, पागल औरत, हकीम और औरत, औरत का सीना, नंगी औरत, नन्हीं लड़की) स्त्री-जगत् से संबंधित हैं; जिनमें स्त्रियों की समाज में दयनीय दशा, स्त्रियों के प्रति सामंती दृष्टिकोण, स्त्रियों के भविष्य को जानने की पड़ताल है, तो सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य स्त्री-पुरुष की समानता का प्रबल भाव है।

बंधु हम दोनों थके हैं,
और थकते ही रहे तो साथ चलते भी रहेंगे,
वह नहीं है साथ जिसमें तुम थको तो हम तुम्हें
लादे फिरें
और हम थके तो दम तुम्हारा फूल जाय हाय।

6. कलापक्ष विषयक विशेषताएँ –

भाषा – रघुवीर सहाय के दौर में तीन नाम शीर्ष पर थे गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ फंतासी के लिए जाने जाते थे; शमशेर बहादुर सिंह शायरी के लिए पहचान रखते थे; जबकि रघुवीर सहाय अपनी भाषा और शिल्प के लिए लोकप्रिय थे। रघुवीर सहाय की भाषा जनता-जनार्दन की जनभाषा है; जो उन करोड़ों लोगों के अनुभव और विचारों के ठोस जमीन पर खड़ी है तथा जो उनसे ही आकार ग्रहण करती है।

रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि – “रघुवीर सहाय की एक बड़ी विशेषता है कि उनकी काव्य-भाषा की सिद्धि शब्दों के सन्दर्भ, उनकी ध्वनियाँ तथा भाव चित्र कवि ने अच्छी तरह से समझे हैं। विद्रूपों के चित्रण में उनकी भाषा की मुहल्लेदारी प्रवृत्ति बहुत स्वाभाविक लगती है, जो नयी कविता विशिष्ट उपलब्धि है।”

रघुवीर सहाय की कविता शब्द के हर अर्थ में क्रमशः गद्य की ओर उन्मुख हुई है। इसलिए रामस्वरूप चतुर्वेदी ने रघुवीर सहाय की कविता को ‘गद्य-कविता’ शीर्षक से नया नामकरण किया है। कविता को गद्य की बनावट में ढालना रघुवीर सहाय के कलापक्ष की निजी विशेषता है।

शिल्प की दृष्टि से भी रघुवीर सहाय ने नये प्रयोग किये हैं। इनमें आंतरिक समीकरण तो हैं ही, साथ ही साथ नाटकीय होने से उसका प्रभाव- क्षेत्र भी अत्यन्त प्रभावोत्पादक है। ‘हमारी हिन्दी’ शीर्षक कविता का उदाहरण –

हमारी हिंदी एक दुहाजू की बीबी है,
बहुत बोलनेवाली, बहुत खानेवाली, बहुत सोनेवाली।

‘आत्महत्या के विरुद्ध’ शीर्षक कविता का एक और उदाहरण –

हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है,
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे।

रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि रचनात्मक स्तर पर बिंब-विधान कुछ नये रूप रघुवीर सहाय की कविताओं में विकसित हुए हैं। अपनी भाषा के रचाव में उन्होंने वर्णन और बिंब के भेद को क्रमशः मिटाया है।

रघुवीर सहाय की कविताओं में वर्णन-बिंब का अभेद कैसे संभव होता है, इसे निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है –

सिंहासन ऊँचा है सभाध्यक्ष छोटा है
अगणित पिताओं के
एक परिवार के
मुँह बाये बैठे हैं लड़के सरकार के लूले, काने, बहरे विविध प्रकार के।
हल्की सी दुर्गंध से भर गया है सभाकक्ष। – मेरा प्रतिनिधि

इस उद्धरण में किसी सामान्य सभाकक्ष का वर्णन है और विशिष्ट सभाकक्ष का बिंब भी। वर्णन मूलतः प्रस्तुत कथन है, बिंब अप्रस्तुत विधान। उन्हीं पंक्तियों में वर्णन और बिंब के स्तरों की टकराहट अर्थ को असाधारण विस्तार देती है।

समग्रतः कहा जा सकता है कि नई कविता के प्रमुख हस्ताक्षर रघुवीर सहाय का काव्य संवेदना और शिल्प दोनों धरातलों पर बेजोड़ हैं। राजनीतिक परिदृश्य, जन-यथार्थ, आक्रोश, व्यंग्य, विद्रोही दृष्टिकोण, प्रणय-भावना इत्यादि भावपक्ष विशेषताओं के कारण रघुवीर सहाय राजनीतिक चेतना के प्रति जागरुक, यथार्थ के पक्षधर एवं मानवीय दृष्टिकोण के कवि के रूप में अपनी विशिष्ट रचनात्मक पहचान बनाते हैं; वहीं उनकी सपाटबयानी, व्यंग्यात्मकता, सरल शब्दों में भावाभिव्यक्ति, गद्य कविता की निरूपत्ति उन्हें समकालीन कवियों में विशिष्ट स्थान निर्धारित कराती है।

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धूमिल के काव्य की विशेषताएँ

धूमिल के काव्य की विशेषताएँ (Dhumil Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत धूमिल के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

धूमिल के काव्य की विशेषताएँ

धूमिल (1936-1975) साठोत्तरी हिंदी-कविता के एक अविस्मरणीय हस्ताक्षर हैं। धूमिल का पूरा नाम सुदामा पाण्डेय था और इनको धूमिल उपनाम से जाना जाता है। वह समकालीन कविता के दौर के मील के पत्थर हैं। नई कविता के समर्थ और सफल कवियों में धूमिल की शख्सियत महान् एवं उनका स्थान अप्रतिम है। धूमिल जनवादी चेतना के प्रगतिशील कवि हैं। धूमिल का सम्पूर्ण काव्य जनवादी चेतना का परिचायक और हिंदी-साहित्य की अमिट धरोहर है। साठोत्तरी जनवादी कविता के केन्द्रीय कवि के रूप में धूमिल का गौरवपूर्ण स्थान है।

रचनाएँ –

1. बाँसुरी जल गई (काव्य-संग्रह, 1961 ई.)

2. संसद से सड़क तक (1972)

3. कल सुनना मुझे (1976)

4. सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र

5. ‘कल सुनना मुझे’ इनकी साहित्य अकादमी से पुरस्कृत रचनाएँ हैं।

6. ‘चार घोंघे’ इनका व्यंग्यात्मक निबंध-संग्रह है।

‘पटकथा’ इनकी सर्वाधिक लंबी कविता है। ‘भाषा की रात’ इनकी एक अन्य दीर्घ कविता है। मोचीराम, जनतंत्र के सूर्योदय में, प्रजातंत्र के विरुद्ध, कविता श्री काकुलम, मकान, नक्सलबाड़ी, अकाल-दर्शन, किस्सा जनतंत्र, कवि 1970, आज मैं लड़ रहा हूँ इत्यादि धूमिल की बेहद चर्चित कविताएँ हैं।

धूमिल के काव्य की विशेषतायें (Dhumil Ke Kavya Ki Visheshtaen) इस प्रकार हैं –

1. जनवादी चेतना –

धूमिल (dhumil) जनवादी चेतना के अप्रतिम कवि हैं और उनका काव्य जनवादी चेतना का अद्भुत प्रतिबिंब है। जनतंत्र के सूर्योदय में, नक्सलवाड़ी, पटकथा, प्रजातंत्र के विरुद्ध, कविता श्री काकुलम इत्यादि कविताओं में धूमिल ने सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक विसंगतियों को उभारते हुए जनवादी शासन-पद्धति को लोक कल्याणकारी मानते हुए इसकी तरफदारी की है।

‘जनतंत्र के सूर्योदय में’ शीर्षक कविता में अनेक स्वर उभरते हैं। रक्तपात, नौकरशाही, भारतीय संविधान में कमी, मातृभाषा की दुर्दशा, मुर्दा इतिहास का रोमानीपन, अखबारों की साजिशों इत्यादि के साथ-साथ आम आदमी की पीड़ा, छटपटाहट, यातना इत्यादि को धूमिल जनतंत्र का उत्तरदायी ठहराते हैं।

‘नक्सलबाड़ी’ कविता में व्यवस्था के प्रति विद्रोह और विसंगतियों के प्रति आक्रोश है। ‘पटकथा’ में कवि धूमिल ने भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी एवं विद्रूपता की पटकथा लिखी है। ‘प्रजातंत्र के विरुद्ध’ शीर्षक कविता में प्रजातंत्र के विरुद्ध जबर्दस्त प्रहार है। ‘कविता श्रीकाकुलम’ शीर्षक कविता में प्रजातंत्र की बातें नहीं, सीधे-सीधे रक्त-क्रांति की बातें. हैं। धूमिल की जनवादी चेतना को निम्न उदाहरणों में देखा जा सकता है –

1. यहाँ ऐसा जनतंत्र है जिसमें / जिन्दा रहने के लिए
घोड़े और घास को / एक जैसी छूट है
कैसी बिडंबना है / कैसा झूठ है
दरअसल अपने यहाँ जनतंत्र / एक ऐसा तमाशा है
जिसकी जान मदारी की भाषा है।

2. क्या आजादी तीन सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई खास मतलब होता है।

2. व्यंग्य –

कवि धूमिल की कविताओं में व्यंग्य का स्वर अत्यंत मुखर व्यंग्य-धूमिल और जबर्दस्त है। धूमिल का व्यंग्य देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति पर ‘संसद से सड़क तक’ तथा ‘सुदामा पाण्डेय का प्रजातंत्र’ इत्यादि काव्य- संग्रहों में चित्रित हुआ है। धूमिल की समकालीन राजनीतिक चेतना में व्यंग्य -भाव अत्यन्त प्रबल है। यथा –

1. संसद तेल की वह घानी है, जिसमें आधा तेल
और आधा पानी है।

2. जनतंत्र एक ऐसा तमाशा है।
जिसकी जान मदारी की भाषा है।

3. राजनीतिज्ञों की आत्माएँ बिड़ियों की तरह मरी पड़ी हैं।

4. कचहरी एक ऐसी उपजाऊ जमीन है।
जहाँ लाकर एक काठ डाल दो और कुछ समय बाद
उसमें अंखुए फूट निकलेंगे।

विश्वम्भर मानव ने लिखा है कि- “धूमिल ऐसे रचनाकार हैं, जो दिनकर की तरह यह आह्वान नहीं करते हैं कि सिंहासन खाली करो, जनता आती है; बल्कि जनता की ओर से चुने गये सांसदों से निर्मित संसद को अपने नुकीले हथियार से आहत करते हैं। प्रजातंत्र पर धारदार कविताएँ लिखने की अगुवाई भूमिल ने की।” इंद्रनाथ मदान ‘अँधेरे में’ (मुक्तिबोध) और ‘पटकथा’ (धूमिल) में व्यंग्य के विषय में लिखते है कि – “अँधेरे में कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई की बात है और पटकथा में चुनाव और मतदान की। पहले में परिवेश आजादी के बाद का है और दूसरी में आम चुनाव के बाद का। पहली में व्यंग्य का स्वरूप त्रासदीय है और दूसरी में कामदीय और आयरनीगत।” धूमिल का मार्क्सवादी आक्रोश का स्वर व्यंग्य के तीव्रतम रूप में प्रकट हुआ है।

3. आम आदमी की व्यथा –

सुदामा पाण्डेय धूमिल आम आदमी की व्यथा के कवि हैं। उन्होंने हिंदी-कविता में पहली बार आम आदमी की पीड़ा, अभावों, दुःख-दर्द, मकान की समस्या, आर्थिक विसंगतियों इत्यादि के साथ-साथ उसकी तनहाई, परेशानी, बेकारी, झेंप, बेहयाई, पेचीदगी इत्यादि नाना प्रकार के अनछुए पहलुओं को वाणी दी है। धूमिल की ‘मोचीराम’ कविता में मोचीराम श्रमनिष्ठ, वर्गहीन साम्यवादी चेतना के प्रतीक के रूप में चित्रित हुआ है। इस कविता में वर्ग-भेद के विरुद्ध समतावादी दृष्टिकोण रूपायित हुआ है। देखें –

1. बाबूजी सच कहूँ, मेरी निगाह में
न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है।

2. फिर भी मुझे ख्याल रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे हुए जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं।

3. मेरे गाँव में / वही आलस्य, वही ऊब
वही कलह, वही तटस्थता
हर जगह और हर रोज
और मैं कुछ नहीं कर सकता।

‘मोचीराम’ कविता की कड़ी में ‘मकान’ शीर्षक कविता धूमिल की एक प्रमुख काव्यात्मक उपलब्धि है; जिसमें उन्होंने आम आदमी की गरीबी, घुटन, विवशता, पीड़ा के साथ-साथ उसके टूटते हुए स्वप्न और उसे तार- तार होते हुए दिखाया है। धूमिल ने कई कविताओं में अकाल, अन्न के अभाव, रोटी की समस्या इत्यादि (जो आम आदमी की बुनियादी समस्या है) को उघाड़ा है। रामकृपाल पाण्डेय ने धूमिल के काव्य को स्वाधीन भारत की हिंदी कविता की नक्सलबाड़ी कहा है।

4. अन्य विशेषताएँ –

धूमिल के काव्य में जनवादी चेतना, आम- आदमी की व्यथा-कथा, व्यंग्यात्मकता के साथ-साथ सामाजिक चेतना, जिजीविषा का भाव, ग्रामीण बोध, मानवीय आस्था एवं भावुकता, अन्याय- अत्याचार के विरोध इत्यादि का स्वर भी प्रकट हुआ है। उदाहरणार्थ-

1. भूख ने उन्हें जानवर बना दिया है।
संशय ने उन्हें आग्रहों से भर दिया है।
फिर भी वह अपने हैं / अपने हैं, अपने हैं
जीवित भविष्य के सुन्दरतम सपने हैं।

2. तनों / अकड़ो / अमरबेलि की तरह मत जियो
जड़ पकड़ो / बदलो अपने-आपको बदलो।

धूमिल की एक अन्यतम विशिष्टता है- कविता का समकालीन संदर्भों में पुनः परिभाषित करना। इस दृष्टि से धूमिल की निम्नांकित पंक्तियाँ द्रष्टव्य है –

1. कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है।
2. कविता घेराव में किसी बौखलाये हुए आदमी का संक्षिप्त एकालाप है।
3. कविता में शब्दों के जरिये एक कवि अपने वर्ग के आदमी को साहसिकता से भरता है।
4. एक सही कविता पहले एक सार्थक वक्तव्य होती है।
5. मेरी कविता इस तरह अकेले को सामूहिकता देती है और समूह को साहसिकता।
6. हर लड़की गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है और कविता हर तीसरे पाठ के बाद।
7. कविता शब्दों की अदालत में कटघरे में खड़े निर्दोष आदमी का हलफनामा है।

5. शिल्प वैशिष्ट्य –

धूमिल की कविता की शक्ति उनके शिल्प- वैशिष्ट्य में निहित है। धूमिल ने पुरानी और पेशेवर भाषा को व्यर्थ बताया है। उनकी भाषा अनुभव की आँच से तपकर निकली भाषा है; उनकी भाषा की चालू भाषा है, जिसमें साफगोई सपाटवयानी और व्यंग्य की तीव्र धार है, तो शैली, प्रखर शैली; जिसका प्रभाव अत्यन्त पैना व्यापक एवं तीव्र होता है। एक उदाहरण देखें –

करछुल / बटलोही से बतियाती है और चिमटा /
तवे से मचलता है / चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है ओर जलता रहता है। – किस्सा जनतंत्र

धूमिल ने अपनी भाषा को खरापन प्रदान किया है; जिससे काव्य में एक नये ढंग का श्रीगणेश हुआ। धूमिल के काव्य में मुहावरों का नवीन रूप दर्शनीय है; तभी नामवार सिंह का मत है कि धूमिल के मुहावरों पर शोध की आवश्यकता है। महुए के फूल पर मूतना, भाषा को हींकना, घास की सट्टी में छोड़ना, फटे हुए दूध-सा सेना इत्यादि अनेक नवीन मुहावरों को धूमिल ने गढ़ा है। तमाम उमर गुजर जाती है मगर गाँड़ /सिर्फ बायाँ हाथ धोता है। जैसे भोजपुरी गालियों को मुहावरों में प्रस्तुत करना धूमिल की निजी विशेषता है।

काशीनाथ सिंह का मत है कि – “शब्दों के प्रयोग, सटीक मुहावरे, सही और अनिवार्य तुक, सार्थक वाक्य-विन्यास पर इतनी मेहनत करने वाला धूमिल जैसा आदमी मैंने नहीं देखा।” परमानंद श्रीवास्तव भी कहते हैं कि – ‘धूमिल के बाद कोई दूसरा कवि उस अर्थ में अपना स्वतंत्र काव्य-मुहावरा विकसित करने में सफल नहीं हो सका है, जिस अर्थ में धूमिल उग्रता, असहमति, आक्रोश या विद्रोह को अपना स्वाभाविक अनिवार्य मुहावरे बनाने वाले प्रतिपक्षधर्मी अथवा प्रतिबद्ध युवा कविता के लगभग प्रतीक या प्रतिनिधि हो चले थे।”

विश्वम्भर मानव ने उचित ही लिखा है कि “1970 के बाद हिंदी कविता के क्षेत्र में अपनी तल्ख आवाज एवं नये मुहावरों के साथ जो कवि धूमिल की तरह उभरा उसका नाम धूमिल है।”

धूमिल का शब्द-चयन अनूठा है। धूमिल ने लिखा है कि “छायावाद के कवि शब्दों को तोलकर रखते हैं; प्रयोगवाद के कवि शब्दों को टटोलकर रखते हैं; नयी कविता के कवि शब्दों को गोलकर रखते हैं; सन् साठ के बाद के नये कवि शब्दों को खोलकर रखते हैं। धूमिल की कविता के शब्द-चयन का कैनवास अत्यधिक विस्तृत है। उनका शब्द-चयन आमजीवन, राजनीति, लोकजीवन इत्यादि से सम्बद्ध रखता है। धूमिल में लोकभाषा के तिरस्कृत उपेक्षित शब्दों की क्षमता की पहचान है।

विश्वम्भर मानव ने लिखा है कि – “शब्दों का चयन करते समय धूमिल श्लील और अश्लील का ध्यान नहीं रखते। उनकी भाषा ऐसी गंवार औरत की भाषा है, जो गुस्से में आकर मुहावरेदार गालियाँ बकने लगती है। जिस तरह मुक्तिबोध फैंटेसी का प्रयोग करने में सिद्धहस्त हैं; उसी तरह धूमिल भाषा के भदेसपन में भी गंभीर सत्य को प्रत्यक्ष कर देने की कला में सिद्धहस्त हैं। धूमिल की कविताओं में शब्दों का कोशीय अर्थ उतना महत्त्व नहीं रखता है, जितना सामाजिक अर्थ महत्त्वपूर्ण है।

हिंदी-कविता के इतिहास में बिंब के लिए अज्ञेय और शमशेर, नाटकीयता के लिए धर्मवीर अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं; तो धूमिल आम आदमी और आम आदमी की भाषा के लिए अपनी अस्मिता रखते हैं। धूमिल की मारक भाषा में बिंबों का प्रयोग प्रभावोत्पादक ढंग से हुआ है। उदाहरणार्थ –

1. हाँ हाँ मैं कवि हूँ / कवि याने भाषा में भदेस हूँ
इस कदर कायर हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँ। – पतझड़

2. तुम्हारी मातृभाषा / उस महरी की तरह है जो /
महाजन के साथ रात भर / सोने के लिए /
एक साड़ी पर राजी है। – जनतंत्र के सूर्योदय में

चंद्रकांत वांदिवड़ेकर का मत है कि – “अगर बिंब को ही काव्य का यथार्थ समझा जाये, तो धूमिल की कविता में प्रयुक्त बिंबों के आधार पर उन्हें महाकवि भी कहा जा सकता है।”

इस प्रकार जनवादी चेतना, आम आदमी, आम आदमी की पीड़ा-संघर्ष, समाज और युग की सारी विसंगतियाँ, तीखा व्यंग्य, सड़ी-गली लोकतंत्र और भ्रष्ट राजनीति का प्रबल विरोध, नाटकीय कौशल, भाषा का नयापन, नये मुहावरों का गठन, अद्भुत शब्द चयन और प्रखर शैली इत्यादि के कारण धूमिल साठोत्तरी हिंदी-कविता के इतिहास में अपनी विशिष्ट पहचान जहाँ बनाते हैं; वहीं साठोत्तरी हिंदी-कविता में अत्यन्त गौरवपूर्ण एवं मूर्द्धन्य स्थान रखते हैं।

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घनानंद के काव्य की विशेषताएँ

घनानंद के काव्य की विशेषताएँ (Ghananand Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत घनानंद के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

घनानंद के काव्य की विशेषताएँ

घनानंद हिंदी साहित्य के अन्तर्गत रीतिकाल के रीतिमुक्त या स्वच्छंद काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। घनानंद दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मीर मुंशी थे। घनानंद का सुजान नामक स्त्री से अटूट प्रेम था। सुजान की विरह-व्यथा में उन्होंने काव्य-रचनाएँ की, इसलिए उन्हें ’प्रेम पीर के कवि’ कहा जाता है। उनके काव्य में प्रेम की विरह-व्यथा का वर्णन किया गया है।

घनानन्द के काव्य की विशेषताओं को इस प्रकार समझा जा सकता है –

1. घनानन्द की स्वछंद-योजना –

रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि ठाकुर ने रीतिबद्ध कवियों की रचना-प्रकृति और उनकी रूढ़िवादी मनोवृत्ति का उपहास करते हुए कहा था –

सखि लीनो मीन मृग खंजन कमल नैन,
सीखि लीनो जस औ प्रताप की कहानी है।

डेल सो बनाये आय मेलत सभी के बीच,
लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है।

रीतिबद्ध कवियों ने कवि-वर्णन परिपाटी में गिनाई हुई बातों को सीखकर काव्य-रचना की प्रणाली अपना ली थी और वे कवि बनने लगे थे तथा उन्हें राजसभा में आदर भी प्राप्त होने लगा था। फलस्वरूप कवि-कर्म ‘खेल’ या ‘क्रीड़ा-कौशल’ की तरह अभ्यास सिद्ध कार्य बन गया था और उनका काव्य काव्यशास्त्र के चौखटे में आबद्ध हो गया था। काव्य में ‘अन्त:प्रेरणा’ और ‘आत्मानुभूति’ के समावेश के लिए बहुत कम अवकाश रह गया था। रीतिबद्ध कवियों की इस मनोवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए घनानन्द ने लिखा था –

यों घनआनन्द छावत भावत जान सजीवन ओर तें आवत।
लोग हैं लागि कवित बनावत, मोहि तो मेरे कवित्त बनावत।।

इस सवैये में घनानंद (Ghananand) ने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया है कि “लोग अर्थात् रीति कवि लगकर, जोड़-तोड़कर कविता बनाते हैं; किन्तु मैंने अपनी कविता का नहीं, वरन् मेरी कविता ने ही मेरा निर्माण किया है।” तात्पर्य यह है कि घनानंद का काव्य उनकी जीवनानुभूति का सहज-स्वच्छंद प्रकाशन है। घनानंद एक ऐसे युग के कवि हैं, जिनमें अधिकांश कवियों की निजी विशेषताओं का सर्वथा अभाव दिखाई देता है। धनानंद एक स्वछंद प्रेमी के रूप में हमारे सामने आते हैं।

रीतिकाल की रीतिमुक्त स्वछंद- काव्यधारा की अपनी सामान्य विशेषताओं के बावजूद घनानंद अपनी निजी विशेषताएँ रखते हैं, जिन्हें भाव, भाषा-शिल्प इत्यादि सभी क्षेत्रों में आसानी से देखा जा सकता है। घनानंद रीतिमुक्त अथवा स्वछंद काव्यधारा के सर्वोत्तम कवि हैं। इस उत्तमता का आधार उनकी निजी विशेषताएँ हैं; जिसकी ओर संकेत करते हुए घनानंद के कविमित्र और उनके प्रशस्तिकार ब्रजनाथ ने लिखा है –

बिनती कर जोरि कै बात कहौं, जौ सुनौ मन कान दै हेत सों जू।
कविता घनानंद की न नोसे पहचान नहिं उहि खेत सो जूँ।।

ब्रजनाथ ने घनानंद के विषय में आगे लिखा है कि –

नेही महा ब्रजभाषा प्रवीन और सुंदरतानि के भेद को जानै।
जोग वियोग की रीति में कोबिद भावना भेद सरुप को ठाने।।

ब्रजनाथ का मत है कि घनानंद की कविता को वही समझ सकता है, जिसके पास हृदय की आंखें हो अर्थात् जिसमें आत्मानुभव और स्वानुभूति हो।

घनानंद का काव्य वियोग प्रधान काव्य है, जो स्वानुभूति के धरातल पर प्रतिष्ठित है। इनकी वेदना का केन्द्र कोई नायक-नायिका न होकर कवि का आत्म या स्व है। इसके कारण घनानंद के प्रेम का पीर कुछ विलक्षण हो गया है।

घनानन्द अपने व्यक्तिगत जीवन में प्रेममार्ग के धीर पथिक रहे हैं और प्रिय की लाख उपेक्षा, निष्ठुरता के बावजूद एकनिष्ठ भाव से दगादार से यारी ही नहीं की है; बल्कि स्वयं दुःख सहकर भी ‘प्रिय के प्रति मंगलकामना का ‘भाव’ प्रकट किया है। देखें –
नित नीके रहौ तुम्हें चाड़ कहा। पै असीस हमारियौ लीजियै जू।

घनानंद का प्रेम-वर्णन स्वानुभूत सत्य है, जिसमें विषम प्रेम की पीड़ा की छटपटाहट है। उनका प्रेम अंत में लौकिक से अलौकिक बन जाता है। घनानंद के प्रेम की कसौटी मीन, पतंग, चातक इत्यादि नहीं; बल्कि प्रेम की चरम अवस्था में ज्ञाता और ज्ञेय की एकता के समान प्रिय और प्रिया का । एक हो जाना है। शुक्ल जी के शब्दों में “प्रेम की गूढ़ अंतर्दशा का उद्घाटन। जैसा घनानंद में है, वैसा हिन्दी का अन्य श्रृंगारी कवि में नहीं।”

रीतिमुक्त कवि धनानंद का प्रेम रीतिकालीन कवियों से सर्वथा पृथक है। घनानंद के प्रेम में स्थूलता के स्थान पर सूक्ष्मता, शारीरिकता के स्थान पर अनुभूति, बाह्यता के स्थान पर आंतरिकता और भोगवाद के स्थान पर भावुकता की प्रधानता है, जो उन्हें स्वछंदतावादी कवि बनाने में पूर्णतः सक्षम है। धनानंद का आलंबन प्रेयसी ‘सुजान’ है।

घनानंद ने सौंदर्य देखा था, प्रेम किया था और अंत में विरह की असह्य वेदना भोगी थी। घनानंद का प्रेममार्ग अत्यन्त सरल है, जिसमें तनिक भी चतुरता या सयानापन अथवा बाँकपन नहीं है।

अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानपन, बाँकपन नहीं।

वस्तुतः स्वच्छन्दतावादी कवि घनानंद के प्रेम की पीड़ा, अंतःप्रेरणा, नेह बौराई, मौन मधि पुकार, संयोग में भी वियोग की कसक है। इसे वही समझ सकता है जिसके पास हृदय की आँखें हों। ब्रजनाथ के शब्दों में कहा जा सकता है कि –

1. समुझै कविता घनआनंद की हिय आँखिन नेह की पीर तकी।
2. प्रेम की चोट लगी किन आँखिन सोइ लहै कहा पंडित होय कै।

‘लल्लन राय’ ने बिल्कुल सही लिखा है कि- “घनानंद के प्रेम में स्वछंदता, परम साहसिकता, घोर रूपासक्ति, गहरी तन्मयता, भावना मूलकता, निष्कामता इत्यादि मुख्य विशेषताएँ हैं। प्रेम की अन्यान्य विभूतियाँ घनानंद के विषम प्रेम को सिंचित कर उसे एक अभिनव आचार से जोड़ती हैं। “.

भाव-विधान के साथ-साथ रूपविधान या शिल्प-सौष्ठव की दृष्टि से भी घनानंद स्वछंदतावादी कवि के निरूपण में बिल्कुल खरे उतरते हैं। लल्लन राय के शब्दों में “भाव-विधान के साथ ही घनानंद ने रूपविधान या शिल्प की दृष्टि से भी रीतिबद्ध कवियों से पार्थक्य दिखाया है। रीतिबद्ध कवियों ने कवि-वर्णन परिपाटी के अन्तर्गत स्वीकृत उपमानों के प्रयोग द्वारा भावों को एक प्रकार से जकड़ दिया था। घनानंद के काव्य में इस प्रकार रीतिबद्धता के विरोध का स्वर स्थान-स्थान पर व्यंजित हुआ है।”

भाषा-शैली की दृष्टि से भी घनानंद ने स्वच्छंद भावों का परिचय दिया है। उन्होंने रीतिबद्धता की लकीर न पीटकर अपने भावों को सजी-सँवरी अत्यन्त व्यंजक, लोकोक्ति, मुहावरों से युक्त व्याकरणसम्मत ब्रजभाषा, चित्रोपम एवं लाक्षणिक विशेषण, सूक्ष्म भावों का सम्मूर्तन, विरोधाभास एवं विरोध वैचित्र्य, प्रयोग वैचित्र्य इत्यादि अनेक दृष्टियों से भाषा को नवीन रूप प्रदान किया है। घनानंद सचमुच ‘भाषा-प्रवीण’ थे। स्वानुभूति चित्रण के लिए भाषा कैसी चाहिये; भाषा में मधुरता, कोमलता और मिठास कैसे आनी चाहिये, इसे वे खूब जानते थे।

घनानंद की शैली उनके व्यक्तित्व के अनुरूप थी। स्वछंद प्रेम के उन्मुक्त गायक घनानंद ने भाव-मुक्तक शैली अपनायी थी। मुक्त छंदों को मिलाकर एक कथा का ढाँचा खड़ा करने में घनानंद का कोई सानी नहीं है। शुक्ल जी के शब्दों में घनानंद के विषय में कहा जा सकता है कि- “प्रेम की पीर को लेकर ही इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।”

2. घनानंद प्रेम के पीर के कवि थे –

प्रेम की पीर के कवि ‘घनानंद’ के काव्य की मूल संवेदना प्रेम है, जिसका आलंबन प्रेयसी ‘सुजान’ है। धनानंद ने सौंदर्य देखा था, प्रेम किया था और अंत में बिरह की असहा वेदना पृथक भोगी थी। रीतिमुक्त कवि घनानंद का प्रेम रीतिबद्ध कवियों के प्रेम से पृथक है; जिसमें स्थूलता के स्थान पर सूक्ष्मता, शारीरिकता के स्थान पर अनुभूति, बाह्यता के स्थान पर आंतरिकता और भोगवाद के स्थान पर भावुकता की प्रधानता है।

घनानंद का प्रेममार्ग अत्यन्त सरल है, जहाँ तनिक भी चतुरता और बांकपन नहीं –

अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानपन, बाँकपन नहीं।

घनानन्द का प्रेम स्वछंद प्रेम है; जो परम साहसिकता, पोर रूपासक्ति, अनन्यता, गहरी तन्मयता और भावनामूलकता इत्यादि विशेषताओं से ओत-प्रोत है। देखें –

1. जब तें निहारे घनानंद सुजान प्यारे,
तब तें अनोखी आगि लागि रही याद की। (घोर रूपासक्ति)

2. इत एकते दूसरो आंक नहीं। (अनन्यता)

पनानंद का प्रेम-वर्णन स्वानुभूति सत्य है, जिसमें विषम प्रेम का पीड़ा की छटपटाहट है। इसे घनानंद ने ‘मौन मधि पुकार’ की संज्ञा दी है। घनानंद के प्रेम की सर्वाधिक विलक्षण स्थिति प्रिय से मिलन पर भी अतृप्ति और संयोग में भी वियोग का भय है। देखें-

यह कैसी संजोगन बूझि परै जु वियाग न क्यों हू बिछोहत है।

घनानंद के प्रेम में स्वयं दुःख सहकर भी प्रिय के प्रति मंगलकामना का भाव व्यक्त हुआ है। प्रेम की यह उदात्त भूमि है। उनका प्रेम अंत में लौकिक से अलौकिक बन जाता है। घनानंद के प्रेम की कसौटी मीन, पतंग, चातक नहीं बल्कि प्रेम की चरम अवस्था में ज्ञाता और ज्ञेय की एकता के समान प्रिय और प्रिया का एक हो जाना है। शुक्लजी के शब्दों में- “प्रेम की गूढ़ अंतर्दशा का उद्घाटन जैसा घनानंद में है, वैसा हिन्दी के अन्य शृंगारी कवि में नहीं।”

प्रेम और श्रद्धा के योग का नाम भक्ति है (शुक्ल, चिन्तामणि)। घनानंद का हृदय लौकिक प्रेम में अनुरक्त था; किंतु सुजान की निष्ठुरता, निर्दयता, विश्वासघात और कपट व्यवहार ने उस लौकिक प्रेम को अलौकिक प्रेम की ओर मोड़ दिया।
घनानंद जितने उच्च कोटि के प्रेम के धीर पथिक थे; उतने ही उच्च कोटि के भक्त थे। चूँकि घनानंद की लौकिक प्रेमासक्ति अलौकिक प्रेमासक्ति में परिणत हो गई थी, इसलिए उनकी भक्ति में ‘रागानुगा भक्ति’ की प्रधानता है –

राधा की जूठनि ही जियो। राधा की प्यासनि ही पियौ।

घनानंद ने कृष्ण और राधा की भक्ति की है। घनानंद की भक्ति में माधुर्यभाव की भक्ति प्रबल रूप से विद्यमान है –

मीत सुजान मिले को महा सुख अंगनि भोय समोह रहयो है।

घनानंद की भक्ति में ‘आराध्य के प्रति अनन्यता और गहन आस्था’ सहज भाव से देखा जा सकता है। देखें –

तुमही गति हौ तुम ही मति हौ, तुम ही पति हौ अति दीनन की।

निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षित घनानंद ने किसी भक्ति-मार्ग का अवलंबन नहीं किया था; उनकी भक्ति परम प्रेमरूपा थी। उनकी भक्ति की सर्वप्रमुख विशेषता भक्त और भगवान के बीच अंतर का मिट जाना है। घनानंद की वैराग्य की प्रधानता, महत्ता और ब्रज की श्रेष्ठता भी प्रतिपादित हुई है।

समासतः, कहा जा सकता है कि घनानंद प्रेम की पीर के कवि थे। घनानंद का काव्य उनके जीवन की विषमजन्य प्रेम और वेदना की मर्मान्तक अभिव्यक्ति है। एकनिष्ठ भाव, सर्वस्व समर्पण, परम साहसिकता, घोर आसक्ति, तन्मयता, भावना मूलकता, निष्कामता इत्यादि घनानंद की प्रेम-पद्धति की मुख्य विशेषताएँ हैं। अन्यान्य रीतिबद्ध कवियों की भाँति घनानंद ने अपने काव्य में सिर्फ प्रेम का चित्रण नहीं किया है; बल्कि अपने जीवन में भी ये प्रेममार्ग के धीर पथिक थे।

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नागार्जुन के काव्य की विशेषताएँ

नागार्जुन के काव्य की विशेषताएँ (Nagarjun Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नागार्जुन के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नागार्जुन के काव्य की विशेषताएँ

नागार्जुन (Nagarjun) का जन्म बिहार के मिथिला के दरभंगा जिले में हुआ। नागार्जुन एक जन कवि हैं। मैथिली, संस्कृत और हिन्दी में रचना करने वाले नागार्जुन हिन्दी-साहित्य में एक लब्धप्रतिष्ठित उपन्यासकार एवं कवि के रूप में जाने जाते हैं। हिन्दी में ‘नागार्जुन’ और मैथिली में ‘यात्री’ उपनाम से कविता करने वाले नागार्जुन के काव्य-संग्रह इस प्रकार हैं –

काव्य – युगधारा, भस्मासुर, सतरंगे पंखों वाली, प्यास, पराई आँखें।

व्यंग्य प्रधान लघु काव्य – खून और शोले, प्रेत का बयान, चना जोर गरम।

नागार्जुन के काव्य की विशेषतायें (Nagarjun Ke Kavya Ki Visheshtaen) इस प्रकार हैं –

1. दुःखवादी चेतना –

नागार्जुन ने अपने संघर्षमय जीवन की दुःख और परिस्थितियों का चित्रण अनेक कविताओं में किया है। इस प्रकार उनके काव्य में दुःखवादी चेतना एक प्रमुख स्वर है। उदाहरण –

मेरा क्षुद्र व्यक्तित्व रुद्ध है, सीमित है
आटा दाल नमक लकड़ी की जुगाड़ में
पत्नी और पुत्र में, सेठ के हुकूम में
कलम ही मेरा हल है कुदाल है
बहुत बुरा हाल है।

2. आशावादी चेतना –

नागार्जुन ने न सिर्फ अपनी रचनाओं में • अपने जीवन के दुःख-दर्द को व्यक्त किया है; बल्कि श्रमिक वर्ग, दलित वर्ग और शोषित वर्ग का भी चित्रण किया है, किन्तु उनकी दृष्टि निराशावादी न होकर आशावादी है। ‘अकाल और उसके बाद’ में वे कहते हैं कि –

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक काली कुतिया, सोई उसके पास………
दानें आये घर के अन्दर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद।

3. उद्बोधनात्मक चेतना –

नागार्जुन के काव्य में उद्बोधनात्मक चेतना की झलक मिलती है। निराशा के अन्धकार में आशा की ज्योति जलाये हुये नागार्जुन दुःखी एवं शोषित वर्ग से कहते हैं कि –

विध्न बाधा के पहाड़ों को गिरा दो,
ढाह दो।

4. राष्ट्रवादी चेतना –

नागार्जुन पहले भारतीय हैं, उसके बाद और कुछ। उन्होनें दर्जनों कवितायें अपनी मातृभूमि ‘मिथिला’ को सम्बोधित कर लिखी हैं जो उनकी राष्ट्रवादी चेतना का परिचायक हैं। कम्युनिस्ट चीन के आक्रमण पर नागार्जुन तिलमिला उठे थे और उन्होंने आक्रमणकारी चीन को फटकारते हुये एवं ललकारते हुए राष्ट्रप्रेम का परिचय इस प्रकार दिया था –

अनदा, वस्त्रदा, सुखदा, शुभदा
प्राणों से बढ़कर प्यारी धरती हमारी
बने स्वर्ग यह भूमि हमारी।

5. समाजवादी चेतना –

नागार्जुन ने सामाजिक चेतना के अन्तर्गत एक भिक्षुणी के माध्यम से यह बताने की चेष्टा की है कि तपस्या नारी जीवन का सत्य नहीं है; बल्कि उसके जीवन का सत्य उसके मातृत्व में निहित है। नागार्जुन की एक प्रसिद्ध कविता ‘तालाब की मछली है’, जिसमें ‘कोशी’ (नदी) की बाढ़ का जिक्र है। काशी की मछली जब जमींदार के अन्तःपुर में आती है; तब अधेड़ जमींदार की 18 वर्षीय तीसरी पत्नी उसे तलने बैठती है। यहाँ कड़ाही में तली जा रही मछली जमींदार की पत्नी से कहती है कि –

हम भी मछली, तुम भी मछली दोनों उपभोग की वस्तु।

नारी की दासता की पीड़ा को नागार्जुन ने मछलियों के साथ जोड़कर अत्यन्त मार्मिक बना दिया है।

6. प्रकृति-प्रेम एवं प्रणय (प्रेम) चेतना –

नागार्जुन का प्रकृति का चित्रण छायावादी कविता से नितान्त भिन्न सीधा-सादा और सपाट है। गंगा की बाढ़ का चित्रण करते हुये वे कहते हैं कि –

बढ़ी है इस बार गंगा खूब
सामने ही पड़ोसी नीम, सहजन, आँवला, अमरूद
हो रहे आकण्ठ जल में मग्न।

नागार्जुन की प्रणय-चेतना को उनके प्रवास-काल में रचित कविताओं में देखा जा सकता है। इस दृष्टि से उनकी ‘सिन्दूर तिलकित भाल’ उल्लेखनीय है, जिसमें स्वकीया के प्रति उनकी स्मृति इस प्रकार व्यक्त हुई है –

याद आता तुम्हारा सिन्दूर तिलकित भाल।
नागार्जुन जनभाषा के कवि हैं।

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मुक्तिबोध के काव्य की विशेषताएँ

मुक्तिबोध के काव्य की विशेषताएँ (Muktibodh Ki Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत मुक्तिबोध के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

मुक्तिबोध के काव्य की विशेषताएँ

गजानन माधव मुक्तिबोध (Gajanan Madhav Muktibodh) नयी कविता के सर्वाधिक समर्थ एवं सशक्त कवि हैं। हिन्दी- कविता विशेषकर नयी कविता के कवियों में गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ का नाम अविस्मरणीय है। ‘तारसप्तक’ प्रथम के सात कवियों में मुक्तिबोध अपना गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं।

मुक्तिबोध (1917-1964) की काव्य-रचनाओं को इस प्रकार देखा जा सकता है –

काव्य –

चाँद का मुँह टेढ़ा है (1964)
भूरी-भूरी रवाक धूल

प्रमुख कवितायें –

अँधेरे में, ब्रह्मराक्षस, आत्म वक्तव्य, भूल गलती,
चकमक की चिनगारियाँ, दिमागी गुहान्धकार।

मुक्तिबोध के काव्य की विशेषताओं (Muktibodh Ke Kavya Ki Visheshtaen) को इस प्रकार देखा जा सकता है –

1. छायावादी रोमांटिक प्रवृत्ति –

मुक्तिबोध (Muktibodh) के कवि-जीवन का प्रारम्भ छायावाद के पतनकाल में हुआ था। उस समय (1935-1940) की उनकी रचनायें छायावादी भाव-भाषा से प्रभावित हैं। प्रकृति, सौन्दर्य, काल्पनिकता, वेदनानुभूति इत्यादि छायावादी विशेषतायें उनके काव्य में दिखाई पड़ती हैं। देखें –

1. वेदना का कवि बनूँ मैं
कल्पना का मृदु चितेरा।

2. बह रही है दुःख की यह विमल धारा
फूल के इस हास में ही अश्रु का भी हास प्यारा।

2. दुःखवादी चेतना –

मुक्तिबोध के काव्य में दुःखवादी चेतना की प्रबल अभिव्यक्ति हुई है। उनकी काव्य-संवेदना ड्राइंग रूम की काव्य-संवेदना नहीं है; बल्कि मुक्तिबोध सामान्य जन, वेदना, उत्पीड़न, घुटन और निराशा से मर्माहित कवि हैं। उनके काव्य में स्व दुःख की अपेक्षा पर दुःख की अभिव्यक्ति हुई है –

घनी रात बादल रिमझिम है, दिशा मूक निस्तब्ध,
रूपान्तरण व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोई नर की बस्ती, भयंकर।

3. मार्क्सवादी चेतना –

गजानन माधव मुक्तिबोध मार्क्सवादी चेतना के कवि हैं। उनकी मार्क्सवादी चेतना प्रधान कविताओं में सत्ताधारियों, पूँजीपतियों, साधन सम्पन्न प्रतिष्ठित व्यक्तियों के अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशक्त विद्रोहात्मक स्वर की अभिव्यक्ति हुई है। पूँजीवादी समाज के प्रति उनका कथन है कि –

तू है भरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ,
तेरा हवन्स केवल एक तेरा अर्थ।

4. व्यंग्य और विद्रूप –

मुक्तिबोध एक सफल व्यंग्यकार भी थे। उन्होंने समाज की विद्रूपताओं-पूंजीवादी नीतियों, राजनीतिक षड्यंत्रों, आधुनिकीकरण इत्यादि पर तीक्ष्ण व्यंग्य प्रस्तुत किया है। देखें –

1. पाउडर में सफेद अथवा गुलाबी,
छिपे बड़े-बड़े चेचक के दाग मुझे दिखते हैं,
सभ्यता के चेहरे पर।

2. गाँधीजी की मूर्ति पर बैठे हुये घुघ्घू ने,
गाना शुरू किया, हिचकी ताल पर।
रात्रि का काला स्याह कनटोप पहने हुये
आसमान बाबा ने की हनुमान चालीसा।

5. असुरक्षित जीवन का भाव एवं निराशा –

डॉ. रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध की कविता को असुरक्षित जीवन की कविता कहा है। उनके काव्य में भय, संत्रास, छटपटाहट, असुरक्षा, निराशा इत्यादि की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। निराशा का एक चित्र देखें –

घनीरात, बादल रिमझिम है दिशा, मूक कविता,
मन गीला, यह सब क्षणिक जीवन है क्षण भंगुर।

6. विरोध एवं विद्रोह –

मुक्तिबोध के काव्य में विद्रोहात्मक एवं विरोध के स्वर भरे पड़े हैं। उनकी दृष्टि में सामान्य के दुःख-दर्द का एक ही उपाय है और वह है जनक्रांति। मुक्तिबोध का मत है कि—जन संगठन के द्वारा ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। देखें –

साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं
साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं पीते हैं।
धन मन उद्देश्य।

इस उदाहरण के द्वारा मुक्तिबोध ने जन संगठन की सिफारिश की है।

मुक्तिबोध के कला पक्ष की विशेषताएँ

1. भाषा –

मुक्तिबोध की भाषा अधिकांशतः सरल, तत्सम एवं तद्भव प्रधान है; जिसमें उर्दू, फारसी (जैसे- खुदा, स्याह, सिवाही, रौब, रोशनी, सौहदा, जिन्दगी इत्यादि) के शब्दों की बहुलता है। इनके काव्य में अंग्रेजों शब्द कम आये हैं। रहस्यवादी शब्दावली नगीना, इकठ्ठा, पिंगला, सुषुम्ना, ज्ञानमणि इत्यादि का भी प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा कथ्य के अनुसार करवट लेती है।

2. अप्रस्तुत योजना –

अप्रस्तुत योजना की दृष्टि से मुक्तिबोध ने अपने गहन व्यक्तित्व का परिचय दिया है। उनकी अप्रस्तुत योजना में मौलिकता, नवीनता, यथार्थ बोध आदि विशेषतायें देखने को मिलती हैं।

जैसे –

बैचेनी के साँपों को मैंने छाती से रगड़ा है। यहाँ बैचेनी के लिए साँपों एक उपयुक्त अप्रस्तुत है।
आत्मा की कुतिया भाँतों के जालों से इत्यादि कुछ चौंका देने वाले अप्रस्तुतों की भी मुक्तिबोध ने सृष्टि की है।

3. प्रतीक योजना –

मुक्तिबोध का काव्य इस दृष्टि से अत्यंत उत्कृष्ट है। मुक्तिबोध ने जिन परम्परागत, पौराणिक, ऐतिहासिक प्रतीकों का प्रयोग किया है, वैसा प्रयोग आज तक कोई नहीं कर सका है। इस दृष्टि से मुक्तिबोध अकेले कवि हैं। उनके कुछ प्रतीक देखें –
पौराणिक प्रतीक – एकलव्य, अक्षयवर, नकड़ी का रावण।

ऐतिहासिक प्रतीक –
ब्रह्म राक्षस (अतीत की बौद्धिक चेतना का प्रतीक)
रक्तालोक स्रात पुरुष – (संघर्षशील संस्कृति का प्रतीक)

4. अलंकार, रस-योजना –

मुक्तिबोध के काव्य में उपमा, यमक, मानवीकरण इत्यादि के उदाहरण तो मिलते हैं किन्तु रस-योजना का अभाव मिलता है। नाद-सौंदर्य मुक्तिबोध के काव्य की एक अन्य प्रमुख विशेषता है।

5. शैली –

शैली की दृष्टि से मुक्तिबोध का कोई जोड़ नहीं है। मुक्तिबोध की अविस्मरणीय स्मृति उपलब्धि है-उनकी फैंटेसी-शैली। ‘ब्रह्मराक्षस’ और ‘अँधेरे में’ शीर्षक कविताऐं फैंटेसी शैली का सुन्दर नमूना है।
इस प्रकार मुक्तिबोध का काव्य भावपक्ष एवं कलापक्ष की दृष्टि से सम्पन्न है।

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रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ

रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ(Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavyagat Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ

रामधारी सिंह दिनकर के काव्य में सांस्कृतिक चेतना

भारतीय संस्कृति महान् है; जिसे रामधारी सिंह दिनकर सरीखे अनेक साहित्यकारों ने उसे अपने साहित्य में पिरोया ही नहीं है, अपनी लेखनी और कला की बदौलत उसे भव्य रूप देकर अनुकरणीय एवं विश्वव्यापी बना दिया है। ‘संस्कृति’ का अर्थ ‘संस्कार संपन्न जीवन’ है। संस्कृति मानव-जीवन को विकृति से बचाकर सुकृति की ओर अग्रसर करने वाला एक ऐसा रचनात्मक प्रत्यय है जो अतीत से प्रेरित, वर्तमान से प्रतिबद्ध और भविष्य के प्रति उन्मुख है।

दिनकर ने अपने साहित्य में न सिर्फ काव्य में बल्कि गद्य-साहित्य (जैसे- संस्कृति के चार अध्याय (1956), हमारी सांस्कृतिक एकता (1954), रेती के फूल (1954 ई.) में भारतीय सांस्कृतिक एकता को भव्य रूप में प्रस्तुत किया है, जिनसे वह आगामी पीढ़ियों का मार्गदर्शन कर सके हैं।

मानवतावादी भावना, गरीबों के प्रति पक्षधरता, लोककल्याण, विश्वप्रेम, विश्वशांति कर्म की महत्ता, आशावादिता, भाग्यवाद एवं पुनर्जन्म पर विश्वास, नारी सम्मान, गाँधीवादी विचारधारा इत्यादि सांस्कृतिक वृत्तियाँ, जो सांस्कृतिक चेतना के आकार हैं, दिनकर-साहित्य में मूल्यों, उच्चादर्शों के साथ अभिव्यक्त हुए हैं। भारतीय आदर्शों के गायक, भारतीय संस्कृति के आख्याता दिनकर के काव्य में सांस्कृतिक चेतना का निरूपण निम्न रूपों में द्रष्टव्य है –

1. मानवतावादी भावना –

महान् मानवता की भावनात्मकता की प्रतीक एक व्यक्तिवाचक संज्ञा का नाम है- ‘रामधारी सिंह दिनकर’। मानव के कवि, मानव-मन और मानव-समस्याओं के कवि दिनकर का दृष्टिकोण मानवतावादी है; जो भारतीय सभ्यता संस्कृति का दृष्टिकोण अति प्राचीनकाल से रहा है। दिनकर की मानवतावादी भावनाओं में मानव- समानता, लोक-सेवा का आदर्श, सर्वहित की कामना, त्याग तप, परदुखकातरता, शोषितों के प्रति सहानुभूति, शोषण और बंधनमुक्त समाज की स्थापना इत्यादि के उच्चादर्श सन्निहित हैं। कवि का मानवतावादी दृष्टिकोण इन पंक्तियों में बखूबी साकार हुआ है –

मैं भी सोचता हूँ, जगत से कैसे उठे जिज्ञासा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर करुणा, प्रेम, अहिंसा,
जियें मनुज किस भाँति परस्पर, होकर भाई-भाई।

जब तक मनुज-मनुज का यह, सुख भाग नहीं सम होगा,
शमित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा।

श्रेय होगा मनुज का समता विधायक ज्ञान,
स्नेह सिंचित न्याय पर नव-विश्व का निर्माण।”

2. विश्वप्रेम और लोककल्याण –

अपने देश के दु:ख दैन्य, संघर्ष, पीड़ा से ऊपर उठकर दिनकर की दृष्टि विश्वप्रेम और लोककल्याण की भावना की ओर भी गई है। सांसारिक दुःखों को देखकर दिनकर जहाँ दुःखी होते हैं; आँसू बहाते हैं; वहीं दुःख के कारणों की पड़ताल भी करते हैं। वह कहते हैं कि –

है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार।

भोग-लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम,
बह रही असहाय नर की भावना निष्काम।

दिनकर की कविताओं में लोककल्याण, लोकमंगल की भावना इस प्रकार साकार हुई है –

हटो स्वर्ग के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं।
दूध-दूध ओ वत्स ! तुम्हारा दूध खोजने हम आते हैं।

3. गरीबों के प्रति पक्षधरता –

राष्ट्रकवि दिनकर की सांस्कृतिक चेतना दुःखी, गरीब, असहाय, शोषित, पीड़ित वर्ग पर बार-बार गयी है और उन्होंने इन वर्गों की यथार्थ स्थिति का अंकन कर जहाँ एक ओर इस वर्ग के देशवासियों को अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करने की प्रेरणा दी है, वहीं अन्यायियों, अत्याचारियों एवं शोषकों को सचेत करते हुए चेतावनी भी दी है –

1. जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
वसन कहाँ ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।

2. श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।”

दिनकर ने जहाँ कहीं अन्याय, शोषण इत्यादि का दृश्य देखा, उसे मिटाने के लिए उन्हें इन्क्लाब की शिद्दत से आवश्यकता महसूस हुई। इन दृश्यों को देखकर उनका खून खौल उठता है और वह ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में कह उठते है कि हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है।

4. आशा, भाग्यवाद और पुनर्जन्म पर विश्वास –

आशावादिता, भाग्यवाद एवं पुनर्जन्म भारतीय संस्कृति के प्रमुख आयाम हैं। राष्ट्रकवि दिनकर आशावादी कवि हैं; जिन्होंने एक ओर पराधीन देश, तड़पती दासता, और पिसती हुई मानवता के बीच नई आशा जाग्रत करने का स्तुत्य प्रयास किया है; वहीं मानव-समाज को आशावाद का दिव्य सन्देश देते हुए निराशा को कभी पास फटकने न देने का निवेदन किया है। कवि का आशावादी दृष्टिकोण देखें –

धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसायेगी
दिन की कराल दाहकता पर चाँदनी सुशीतल छायेगी
फूलों से भरा भुवन होगा।

भारतीय संस्कृति के अनुरूप दिनकर की ‘भाग्यवाद’ एवं ‘पुनर्जन्म’ पर गहरी आस्था है। देखें –

किंतु भाग्य है चली, कौन किससे कितना पाता है।
यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।

5. नारी सम्मान –

भारतीय संस्कृति में नारी को ‘देवी’ के रूप में देखा गया है। ऐसा कहा भी गया है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।’ भारतीय संस्कृति के पोषक दिनकर ने नारी को अपार श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखा है। रेणुका, उर्वशी, द्वापर आदि काव्य ग्रंथों में दिनकर ने नारी के त्याग, सहिष्णुता, आत्मसमर्पण, आत्मदान, करुणा, क्षमा इत्यादि गुणों का गुणगान किया है, वहीं यह भी बताया है कि नारी के जीवन में रुदन ही रुदन है और उसे सान्त्वना देने वाला कोई नहीं है। नारी के प्रति दिनकर का दृष्टिकोण देखें –

1. नारी क्रिया नहीं; वह केवल क्षमा, शांति, करुणा है।

2. पुरुष बसंत है और स्त्री वर्षा
राजा बसंत, वर्षा ऋतुओं की रानी।

6. गाँधीवादी विचारधारा –

दिनकर ने गाँधीवादी विचारधारा, यथा – अहिंसा, अस्पृश्यता निवारण, अस्पृश्यों के मंदिर-प्रवेश, ग्राम-सुधार, स्त्री-जीवन में सुधार, कर्मयोग, लोक-संग्रह की भावना इत्यादि का उल्लेख करके युगीन-परिवेश का सुंदर परिचय दिया है। देखें –

1. मैं भी सोचता हूँ…
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर करुणा, प्रेम, अहिंसा। (अहिंसा)

2. बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हो यदि काम ?
नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं वंश, धन, धाम। (अस्पृश्यता)

7. सांस्कृतिक चेतना के कुछ अन्य पहलू –

दिनकर-काव्य में ‘सांस्कृतिक चेतना के कुछ अन्य पहलू’ भी दिखाई देते हैं। मसलन-आस्तिकता, शिष्टाचार, अतिथि सत्कार, आत्मनिग्रह इत्यादि-इत्यादि। आस्तिकता भारतीय संस्कृति का प्रधान गुण है, जिससे दिनकर अछूते नहीं रहे हैं। ताण्डव, विपथगा, अर्द्धनारीश्वर सरीखी कविताएँ इसके प्रमाण हैं।

दिनकर को भगवान की अटूट शक्ति पर विश्वास होने के कारण ही ऐसी आस्था है कि भगवान एक न एक दिन अवश्य पीड़ित, व्याकुल, दुःखी, गरीब एवं शोषित भारतीय अवाम का उद्धार करेंगे। स्त्री की लज्जा लूटते देख उन्होंने दुर्गा माता, भगवान शंकर इत्यादि देव-देवियों से अपना रूप प्रकट करने के लिए प्रार्थना भी की हैं। यथा –

एक हाथ में डमरू, एक में वीणा मधुर
बालचंद्र दोपित त्रिपुण्ड पर बलिहारी ! बलिहारी !

दिनकर-साहित्य में अतिथि-सत्कार, शिष्टाचार के उदाहरण भी भरे पड़े हैं। ‘अतिथि देवो भवः’ भारतीय संस्कृति की प्रधान विशेषता है। दिनकर की कालजयी रचना ‘उर्वशी’ में ‘पुरूरवा’ सुकन्या तापसी के आगमन पर कह उठते हैं कि –

सती सुकन्या ! कीर्तिमयी भामिनी महर्षि च्यवन की ?
सादर लाओ उन्हें, स्वप्न अब फलित हुआ लगता है।

‘भीष्म’ को तात, पितामह कहना; पति को आर्यपुत्र; मित्र को बंधु; गुरु को गुरुवर; गुरु-शिष्य को ब्राह्मणकुमार; पत्नी को देवी इत्यादि कहना दिनकर-काव्य में शिष्टाचार के द्योतक हैं। भारतीय संस्कृति में निग्रह- अपरिग्रह का महत्त्व काफी है। दिनकर ने कर्ण की निलभिता और दानशीलता (रश्मिरथी) तथा स्त्रियों के पातिव्रत्य धर्मपालन पर बल देकर अपनी भारतीय सांस्कृतिक चेतना का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है।

उपर्युक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि दिनकर का काव्य राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना का अद्भुत दस्तावेज है। आज बिहार, झारखण्ड, पश्चिमी बंगाल समेत भारत के कई राज्य जिस नक्सली-समस्या से जूझ रहे हैं, उसे लेकर दिनकर ने 5 दशक पूर्व ही सजग करते हुए लिख दिया था कि – ‘कहीं भूख बेताब हुई तो आबादी की खैर नहीं।’ राष्ट्रकवि दिनकर की दूरदृष्टि एवं समष्टि-चेतना के मूल में राष्ट्रीयता है –

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भूमण्डल भर का है।

दिनकर की राष्ट्रीय चेतना का परीक्षण करने पर स्पष्ट होता है कि उनकी राष्ट्रीय चेतना स्वतंत्रता – पूर्व और स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् इन 2 सोपानों में विकसित हुई है। ‘बारदोली विजय’ (1932 ई.) से लेकर ‘हुंकार’ (1939 ई.) तक की दिनकर की राष्ट्रीय चेतना में विद्रोह एवं क्रांति का पुट विद्यमान है। दिनकर की दृष्टि में विद्रोह, इन्क्लाब एवं क्रांति की पहली और शर्त है- जनजागृति।

इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम पराधीनता, शोषक-वर्ग, शोषण-सत्ता के अस्तित्व को मटियामेट, नेस्तनाबूद करने के लिए अवाम को जनजागृति का सन्देश देते हुए नई हुंकार भरने का आग्रह किया है। दिनकर की राष्ट्रीय चेतना सामधेनी (1947 ई.) में साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्ध उठ खड़ा होने का शंखनाद फूँकती है। इसमें कवि ने स्वयं को ‘अमर विभा का दूत’ और ‘धरणी का अमृत कलशवाही’ कहा गया है।

स्वतंत्रता के पश्चात् दिनकर की राष्ट्रीय चेतना लोकमंगल, मानववादिता, पंचशील, अंतरराष्ट्रीय समस्या इत्यादि की ओर अग्रसर होती है; किंतु चीनी-आक्रमण (1962 ई.) के पश्चात् पुनः राष्ट्रीयता की ओर ही केन्द्रित हो जाती है। राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ दिनकर ने अपने काव्य में आशावादिता, भाग्य एवं पुनर्जन्म पर विश्वास, कर्म की महत्ता अध्यात्म, त्याग एवं संयम, सहिष्णुता, नारी सम्मान, विश्व-बंधुत्व, विश्वमंत्री, विश्वप्रेम, वसुधैव कुटुम्बकम् इत्यादि भारतीय संस्कृति का आख्यान प्रस्तुत कर अपनी सांस्कृतिक चेतना का अन्यतम उदाहरण प्रस्तुत किया है।

लगभग 44 साल पहले 24 अप्रैल, 1974 का वह मनहूस दिन, वस्तुतः काले ‘सूरज का दिन था; जब ‘दिनकर’ की असामयिक मौत से वे जहाँ सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गये, वहीं साहित्य की दुनिया सूनी हो गई और राष्ट्रकवि की लेखनी सदा के लिए खामोश हो गई। ‘कल्कि’ नामक काव्य लिखने अथवा गाँधी और उनके दर्शन पर विश्वकाव्य रचने या फिर बुद्ध एवं सीता पर विस्तारपूर्वक साहित्य-सर्जन करने की उनकी सारी इच्छाएँ और योजनाएँ धरी की धरी रह गईं।

सचमुच शताब्दियों बाद दिनकर जैसी महान् और विरल प्रतिभाएँ जन्म लिया करती हैं; जिनका व्यक्तित्व, जिनकी शख्सियत, जिनका लेखकीय संघर्ष, जिनकी लेखनी, जिनकी सृजनक्षमता, जिनकी गुणवत्ता और जिनका अवदान अपने आप में एक शाश्वत् और चिरंतन कहानी बन जाती है।

सदियों बाद जिस प्रकार कवि वाल्मीकि, महर्षि व्यास, लोकनायक तुलसीदास, महाकवि सूरदास, संत कबीर आज भी अमर हैं; उसी प्रकार राष्ट्रकवि दिनकर और उनकी ‘राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना’ युगों-युगों तक जीवित एवं अमर रहेंगी। उनका नाम हिंदी साहित्य के स्वर्णिम अध्याय में युगों-युगों तक जिंदा रहेगा। राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना से सम्पृक्त दिनकर- साहित्य, वस्तुतः : हिंदी-साहित्य की एक ऐसी अमूल्य थाती है, जिस पर पूरे राष्ट्र को गौरव है।

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रामधारी सिंह दिनकर के काव्य की विशेषताएँ

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रामधारी सिंह दिनकर के काव्य की विशेषताएँ

दिनकर के काव्य में राष्ट्रीय चेतना

रामधारी सिंह दिनकर को राष्ट्रकवि कहा जाता है। रामसिंह दिनकर की कविताओं में राष्ट्रीय चेतना समग्र रूप से दिखाई देती है। उनकी कविताओं में भारतीय आदर्शों और मूल्यों की स्थापना होती है। उनकी कविताओं में राष्ट्रीय जागरण उजागर होता है। वह सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक पाखंड के विरुद्ध है। दिनकर की कविताओं में विद्रोह और विप्लव की गूँज भी है।

कुछ प्रसिद्ध पंक्तियाँ है –

“हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पर रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।”

सिमरिया (बिहार) के ‘दिनकर’ जो भारत के दिनकर बने, सचमुच में ‘चमन के ऐसे दीदावर’ थे, जिन्हें महादेवी वर्मा ने ‘अग्नि संभव कवि’, एक भारतीय आत्मा ‘माखनलाल चतुर्वेदी’ ने अपने ‘युग की ज्वालमाल’तथा द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने ‘अनल का कवि’ कहा है। उनकी कविताओं में योद्धा का जैसा गंभीर घोष है, अनल का जैसा तीव्र ताप है और सूर्य का जैसा प्रखर तेज है, वह अन्यत्र कहाँ ?

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ शौर्य, वीरत्व, अद्भुत उत्साह, पौरुष एवं क्रांति के कवि हैं। दिनकर के लेखन और सृजनात्मकता में संवेदनाओं और भावों का वैविध्य संसार उपस्थित है। वे अपने साहित्य में कहीं गांधीवाद का समर्थन करते दिखाई देते हैं, तो कहीं प्रकृति और नारी की आकांक्षा प्रकट करते हैं और कहीं वर्ग-संघर्ष और सर्वहारा के उदय की वकालत करते हैं।

इन्हीं तमाम अंतर्विरोधों के बीच यदि दिनकर-साहित्य में गहरे भावों और अहसासों से भरी हुई कोई एक तस्वीर बनायी जाये, तो वह निश्चित रूप से ‘राष्ट्रीयता’ की ही तस्वीर बनेगी, जिसमें दिनकर एक नया रंग, एक नया जोश, एक नयी जागृति इत्यादि भरते दिखाई देते हैं और एक महान् ‘राष्ट्रीय कवि’ के रूप में सर्वसमक्ष आते हैं।

दिनकर और राष्ट्रीयता – राष्ट्रकवि दिनकर ने लिखा है कि – राष्ट्रीयता मेरे व्यक्तित्व के भीतर से नहीं जन्मी; उसने बाहर से आकर मुझे आक्रांत किया। उस समय सारा देश उत्साह से उच्छल और दासता की पीड़ा से बेचैन था। अपने समय की धड़कन सुनने को जब भी मैं देश के हृदय से कान लगाता, मेरे कान में किसी बम की धड़ाके की आवाज उठती; फांसी पर झूलने वाले किसी नौजवान की निर्भीक पुकार आती…. मेरी वैयक्तिक अनुभूतियाँ धरी रह गईं और मेरा सारा अस्तित्व समाज और राष्ट्र अनुभूतियों के अधीन हो गया।”

साहित्य की दुनिया में साल 1934 ई. में ‘रेणुका’ काव्य संग्रह के माध्यम से यह प्रतिष्ठित नाम पहली बार गूँजा था और ऐसा गूँजा कि आज तक गूँजता ही रहा है तथा भविष्य में अनवरत गूँजता ही रहेगा। 30 सितम्बर, 1908 को मुंगेर जिले के सिमरिया गाँव में जन्मे किशोर दिनकर ने मात्र 11 वर्ष की वय में वर्ष 1919 में ‘बारदोली- सन्देश’ नामक कविता रचकर अपनी साहित्यिक यात्रा का श्रीगणेश किया धा। दिनकर का साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण उस दौर में हुआ था, जब हमारा देश परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था और वह युग भारतीय परतंत्रता के विरुद्ध जनजागरण और राष्ट्रीय आन्दोलन का युग था।

राजगुरु धुरेन्द्र शास्त्री से इन्हें राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभाषा प्रेम, स्वदेशानुराग की विकणारी प्राप्त हुई थी और भारतेन्दु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी एवं बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ सरीखे तत्कालीन कवियों से प्रेरणा प्राप्त कर दिनकर ने स्वतंत्रता- प्राप्ति के लिए जिस क्रांति और विद्रोह का सिंहनाद किया, जन-जागरण के लिए जो रणभेरी बजाई, जनता की राष्ट्रीय चेतना की नब्ज को जिस प्रकार टटोला, वह स्तुत्य है, जिससे सारा देश अंगड़ाई लेता हुआ जाग उठा।

डॉ. श्रीनिवास शर्मा के शब्दों में – सच्चे अर्थों में भारतीय युवा वर्ग के निराश हृदय में देशभक्ति की उमंग लहराने वाले एकमात्र कवि उन दिनों रामधारी सिंह दिनकर ही थे। अनुभूति की तीव्रता, भावों की गतिशीलता और क्रांति की पुकार दिनकर की कविता में निरंतर गूँजती रही।

‘राग और आग के कवि’ दिनकर की काव्यकृति ‘रेणुका’ में क्रांति का उद्घोष है, तो ‘हुंकार’ में वैतालिक का जागरण गान और विप्लव के गीतों का गान है। रसवंती, द्वंद्वगीत, सामधेनी, इतिहास के आँसू, धूप और धुआँ इत्यादि काव्य-संग्रहों की विभिन्न कविताएँ कवि के राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत ऐसी कविताएँ हैं; जिनमें विप्लव और विद्रोह की आग की लपटें मशाल बनकर जन-जागरण को दिव्य सन्देश देती हुई अवाम में प्राण फूँकने का कार्य करती हैं। कवि दिनकर ‘कुरुक्षेत्र’ में समाज एवं राष्ट्र से भी ऊपर उठकर ‘युद्ध एवं शांति’ की अंतरराष्ट्रीय समस्या और उसके समाधान में व्यग्र एवं चैचेन दिखाई पड़ते हैं।

दिनकर ‘रश्मिरथी ‘चैल कुसुम प्रभृति रचनाओं में ‘मानवतावाद’ का तो ‘उर्वशी’ में कामाध्यात्म जगत् का प्रत्याख्यान करते दिखाई देते हैं। दिल्ली, नीम के पत्ते, चक्रवाल, कविश्री, सीपी और शंख, नये सुभाषित, परशुराम की प्रतीक्षा इत्यादि रचनाओं में कवि का स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देशप्रेम कहीं आक्रोश में, कहीं तीव्र व्यंग्य के रूप में, कहीं आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक विषमताओं के विरुद्ध विद्रोह एवं क्रांति के रूप में प्रकट हुआ है। देखें –

सकल देश में हलाहल है, दिल्ली में हाला है।
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अँधियारा है।

मखमल के परदों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट-सा संसार।

रामवृक्ष बेनीपुरी ने अक्षरश: सत्य लिखा है कि- हमारे क्रांतियुग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में इस समय दिनकर कर रहा है। क्रांतिकारी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, दिनकर की कविता उसकी सच्ची तस्वीर है।” “हिमालय के प्रति’ (रेणुका) शीर्षक कविता ‘दिनकर’ की राष्ट्रीय चेतना का ‘प्रारंभिक उन्मेष’ एवं ‘प्रथम द्वार’ माना जाता है-

मेरे नगपति मेरे विशाल
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रांत सीमापति! तूने की पुकार!

‘हिमालय के प्रति’ से लेकर ‘हारे के हरिनाम’ (अंतिम रचना) तक के रचनात्मक यात्रा के पड़ाव में ‘राष्ट्रीयता’ ही दिनकर के काव्य का मूल स्वर है। उदय आक्रोश एवं क्रांति भरे राष्ट्रीय ओजस्वी गान ही दिनकर की कविताओं की पहचान हैं। सम्पूर्ण दिनकर काव्य में उनकी राष्ट्रीय-चेतना के विविध पहलू एवं विशिष्टताएं इस प्रकार दृष्टिगोचर होती है –

1. अतीत का गौरवगान –

दिनकर की ‘राष्ट्रीयता’ का एक प्रमुख पक्ष है- ‘अतीत का गौरवगान’। दिनकर के हृदय में अतीत का इतना प्रबल आग्रह है कि उन्होंने बार-बार और पग-पग पर पीछे मुड़कर राष्ट्रीयता का दिग्दर्शन किया है। इस संबंध में ‘रेणुका’ में उनका उद्देश्य इस प्रकार व्यक्त हुआ है –

“प्रिय दर्शन इतिहास कंठ में, आज ध्वनित हो काव्य बने,
वर्तमान की चित्रपटी पर, भूतकाल संभाव्य बने।”

हिमालय, खंडहर, गंगा, मगध, वैशाली, मिथिला इत्यादि से जुड़े भारतवर्ष के स्वर्णिम अतीत का गौरवगान कर दिनकर ने राष्ट्रीयता का अद्भुत परिचय दिया है; जिससे भारतीय विशेषत: बिहार- प्रदेश की संस्कृति, प्राकृतिक सौन्दर्य, ऐतिहासिक गरिमा, भौगोलिक इत्यादि महत्त्व जीवित हो उठे हैं।

राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत ‘पाटलिपुत्र गंगा’ शीर्षक कविता में कवि गंगा से प्रश्न करता है कि भारत चन्द्रगुप्त, समुद्रगुप्त और अशोक महान् जैसे प्रतापी महावीरों की धरा रही है। जिसके गौरव गीतों को तूने भी सुना है, क्या वे सारी बातें अब भी उसे स्मरण हैं –

आता है क्या याद मगध का, सुरसरि! वह अशोक सम्राट।
गंगे! गौतम के उपदेश, ध्वनित हो रहे इन लहरों में
देवि! अहिंसा के संदेश।

दिनकर ने ‘हिमालय’ को साकार, दिव्य, गौरव, पौरुष के पूंजीभूत ज्वाल जननी के हिमकिरीट और भारत के दिव्य भाल के रूप में देखते हुए यह बताया है कि हिमालय सदा से अजय, निर्बन्ध, युग-युग से गर्वोन्नत और महान् रहा है। ‘मिथिला’ के गौरवशाली अतीत का स्मरण करते हुए दिनकर जी कहते हैं कि कल की वैभवशालिनी मिथिला आज किस प्रकार भिखारिणी-वेश में पड़ी हुई है ?

कवि जानना चाहता है कि उसने अपनी सारी अनन्तनिधियाँ कहाँ खो दी हैं? जिस सीता ने संसार की रमणियों को आदर्श का दान दिया, वह अब कहाँ है ? भारत के पथ-प्रदर्शक गौतम बुद्ध कहाँ हैं; जिनके संदेशों ने तिब्बत, ईरान, चीन तक पहुँचकर भारत की ख्याति में चार चाँद लगाया था। कवि दिनकर को ‘वैशाली’ के उस लिच्छवी शासक की सख्त आवश्यकता महसूस होती है, जिसने गणतंत्र की पवित्र परंपरा को अक्षुण्ण और जाग्रत बनाये रखा था –

वैशाली के भग्नावशेष से पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?
अरी ओ उदास गंडकी ! बता विद्यापति के गान कहाँ ?

वस्तुत:, दिनकर ने हिमालय, खंडहर, गंगा, वैशाली, बोधिसत्व, लिच्छवी शासक, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त, गौतम बुद्ध, सीता इत्यादि के स्वर्णिम अतीत के पृष्ठों द्वारा एक ओर राष्ट्र के अतीतादर्श, ऐश्वर्य इत्यादि के विषय में चिंता प्रकट की है; तो दूसरी ओर जनमानस में नये प्राण फूँकने का संचार किया है। दिनकर की कविता में अतीत ‘मृत’ नहीं, बल्कि ‘उज्ज्वल भविष्य के संदेशवाहक’ के रूप में प्रकट हुआ है।

2. वर्तमान की पीड़ा, दु:ख-दैन्य एवं संघर्ष का चित्रण –

वर्तमान की जय, अभीत हो खुलकर मन की पीर बजे
एक राग मेरा भी रण में, बंदी की जंजीर बजे।

कवि दिनकर की आँखें परतंत्र भारत की दुर्दशा देखकर मर्माहत हो उठती हैं। कृषक वर्ग के शोषण, श्रमिक वर्ग के उत्पीड़न, सामाजिक असमानता, सर्वत्र दु:ख-दैन्य का साम्राज्य, विदेशियों द्वारा प्रजा के शोषण के भाँति-भाँति चित्र देखकर दिनकर की राष्ट्रीय चेतना इस प्रकार व्यक्त होती है –

उस पुण्यभूमि पर आज तपी, रे आन पड़ा संकट कराल,
व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे, हँस रहे चतुर्दिक् विविध व्याल।

कवि दिनकर वर्तमान भारतीय जीवन में सर्वत्र खुशहाली का बसंत देखना चाहते हैं। इस क्रम में उसे मेवाड़ के वीर महाराणा प्रताप का स्मरण हो उठता है; जिन्होंने देश की रक्षा के निमित्त वन-वन की खाक छानी थी। कवि शिद्दत से महसूस करता है कि आज पुनः अतीतकालिक मेवाड़ के पौरुष की आवश्यकता है, ताकि वह तमाम प्रकार के जीवन-संघर्षों से लोहा ले सके।
कवि दिनकर ने स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत ‘दिल्ली’ शीर्षक कविता के माध्यम से वर्तमान-कालीन राष्ट्रीय समस्या को इस प्रकार वाणी दी है –

सकल देश में हलाहल है, दिल्ली में हाला है।
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अँधियारा है।

3. जनजागरण का उद्घोष –

‘जनजागरण का उद्घोष’ युगकवि दिनकर की राष्ट्रीय-चेतना का केन्द्रीय तत्त्व है। जागृति की हुंकार ही दिनकर का समूचा काव्य है। स्वतंत्रता चाहे व्यक्ति की हो, राष्ट्र की हो अथवा फिर सारी मानवता की, दिनकर की दृष्टि में वह सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। दिनकर-काव्य में जनजागरण का उद्घोष देखें –

अनाचार की तीव्र आँच में अपमानित अकुलाते हैं,
जागो बोधि सत्व ! भारत के हरिजन तुम्हें बुलाते हैं।

जागो विप्लव के वाक् ! दंभियों के इन अत्याचारों से,
जागो, हे जागो, तप निधान ! दलितों के हाहाकारों से।

वस्तुतः, उदग्र आक्रोश एवं क्रांति से भरे राष्ट्रीय ओजस्वी और जागृति गान दिनकर की कविताओं की पहचान है। द्वारिका प्रसाद सक्सेना के शब्दों में कहा जा सकता है कि- दिनकर की कविता जन-जीवन को शौर्य, पराक्रम एवं वीरता से परिपूर्ण करके कर्मण्यता की ओर उन्मुख करने वाली है, जो रंग-रग में तृप्त अनल धधकाकर मानवों को त्याग और बलिदान के पथ पर ले जाकर, हृदयों में जोश एवं उमंग के शोले जलाकर अन्याय और अनाचार के विरुद्ध विद्रोह एवं क्रांति की प्ररेणा देती है।”

4. प्रतिशोध एवं शक्ति के महत्त्व का प्रतिपादन –

राष्ट्रकवि दिनकर का काव्य प्रतिशोध एवं शक्ति का अद्भुत दस्तावेज है। दिनकर की दृष्टि में सौन्दर्य में शक्ति विद्यमान होती है। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि –

हे सौंदर्य शक्ति का अनुचर जो है बली वही है सुन्दर,
सुन्दरता निस्सार वस्तु है, हो न साथ में शक्ति अगर।’

दिनकर विवेक की अपेक्षा ‘बल’ को अधिक महत्त्व देते हैं। युद्ध एवं शांति के काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ में दिनकर प्रतिशोध एवं शक्ति के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए लिखते हैं कि –

प्रतिशोध से हैं होती शौर्य की शिखाएँ दीप्त
प्रतिशोध-हीनता नरों में महापाप है।

5. क्रांति का आह्वान –

दिनकर अनल के कवि है, जिनका अधिकांश काव्य बलिदान और वीरता का राग है; अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध क्रांति और विद्रोह करनेवाला सिंहनाद है; अकर्मण्यता और आलस की रात्रि को नष्ट करके जन-जन में कर्मण्यता, शूरता एवं पराक्रमशीलता के प्रभात को लाने वाला दिवस मणि का दिव्यालोक है। दिनकर लोगों की सोयी चेतना को जगाते हुए क्रांति, लाल क्रांति, हिंसात्मक क्रांति तक का आह्वान करते हैं –

1. गिराओ बम, गोली दागो
गाँधी की रक्षा करने को गाँधी से आगे भागो।

2. उठा खड्ग, यह और किसी पर नहीं
स्वयं गाँधी, गंगा, गौतम पर ही संकट है।

6. हिंसात्मक मार्ग की स्वीकृति –

दिनकर की राष्ट्रीयता हिंसक क्रांति की समर्थक है। दिनकर न सिर्फ राष्ट्रीय चेतना के अंतर्गत अतीत का गौरव गान गाते हैं; न सिर्फ देश की वर्तमान दशा पर क्षोभ व्यक्त करते हैं; न सिर्फ जागरण का संदेश देते हैं, बल्कि क्रांति का आह्वान करते हुए हिंसात्मक मार्ग की स्वीकृति भी प्रदान करते हैं। दिनकर की राष्ट्रीयता का यह एक प्रमुख पहलू है, जिन्हें बतौर उदाहरण स्वरूप इस प्रकार देखा जा सकता है –

1. रे! रोक न युधिष्ठिर को न यहाँ, जाने उनको स्वर्ग धीर
पर, फिर, हमें गांडीव-गदा लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।
तड़प रही घायल स्वदेश की शान है, सीमा पर संकट में हिन्दुस्तान है।
तिलक चढ़ा मत और हृदय में हूक दो, दे सकते हो तो गोली-बंदूक दो।।

2. क्रान्तिधात्री कविते ! जागे उठ, आडम्बर में आग लगा दे….
जग में ऐसी आग सुलगा दे।”

7. शांति के विषय में दिनकर की धारणा –

दिनकर नाम के अनुरूप ही सूर्य की तपन और प्रकाश के अनन्य कवि हैं। दो महायुद्धों की भीषण विकरालता और भावी महायुद्ध की त्रासद आशंका से भयाक्रांत विश्व के बुद्धिजीवियों के समक्ष दिनकर ने ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘सामधेनी’ में राष्ट्रीय ही नहीं एक अंतरराष्ट्रीय समस्या-युद्ध एवं शांति की समस्या पर विचार किया है। दिनकर की स्पष्ट मान्यता है कि शांति ! शांति !!और शांति !!! सिर्फ चिल्लाने या राग अलापने से कतई नहीं मिल सकती है, क्योंकि –

जब शांतिवादियों ने कपोत छोड़े थे
किसने आशा से नहीं हाथ जोड़े थे ?
पर हाय धर्म यह भी धोखा है, छल है
उजले कबूतरों में भी छिपा अनल है।

कवि दिनकर भारतीय अवाम को ‘शांति’ की बजाय कठोर बनने का संदेश देते हुए कहते हैं कि –

एकही पंथ तुम भी आघात हनो रे।
मेषत्व छोड़ मेषों ! तुम व्याघ्र बनो रे।

कवि दिनकर की राष्ट्रीय चेतना में नवयुग की चेतना, व्यक्ति की महत्ता, लोकमंगल, लोककल्याण इत्यादि की भावनाएँ भी सन्निहित हैं।

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