रीतिकाल का प्रवर्तक किसे कहा जाता है ?

रीतिकाल का प्रवर्तक किसे कहा जाता है (Ritikal Ka Pravartak Kise Kaha Jata Hai): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के अन्तर्गत रीतिकाल के प्रवर्तक के बारे में जानकारी शेयर करेंगे।

रीतिकाल का प्रवर्तक किसे कहा जाता है ?

रीतिकाल का प्रवर्तक चिंतामणि त्रिपाठी को कहा जाता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने रीतिकाव्य का प्रवर्तक चिंतामणि त्रिपाठी को स्वीकार किया है, केशवदास को नहीं। शुक्ल जी ने केशवदास को रीतिकाव्य का प्रवर्तक न मानने के दो कारण बताए हैं –

1. केशव की कविप्रिया के बाद काव्य-रीति की परंपरा का समाप्त हो जाना और फिर 50 वर्षों के उपरांत चिंतामणि त्रिपाठी द्वारा अखण्ड रूप से इस परंपरा का चलना।

2. आदर्श की भिन्नता – केशवदास अलंकारवादी कवि थे, जो अलंकार और चमत्कार पर बल देते थे।

शुक्ल जी की इन मान्यताओं का डॉ. श्यामसुन्दर दास, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. गुलाबराय इत्यादि ने खंडन कर रीतिकाव्य की परंपरा के प्रवर्तन का श्रेय केशवदास को ही दिया है। इन विद्वानों का मत यह है कि यह एक संयोग मात्र ही था कि केशवदास के बाद रीतिकाव्य की अविच्छिन्न परंपरा नहीं चली। फिर चिंतामणि त्रिपाठी द्वारा चल पड़ी। सिर्फ इस कारण से चिंतामणि त्रिपाठी रीतिकाव्य के प्रवर्तक नहीं ठहरते हैं।

वस्तुतः केशवदास ने ही सर्वप्रथम लक्षण-ग्रंथ लिखकर हिंदी के आचार्यों के लिए रीति का मार्ग प्रशस्त किया। केशव चमत्कारी कवि थे और सिर्फ वे अलंकारों पर बल देते थे। शुक्ल जी की दूसरी मान्यता के संबंध में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने ’कविप्रिया’ में जहाँ अलंकारों का विवेचन किया, वहीं ’रसिकप्रिया’ में रस-सिद्धान्त के सभी अंगों और भेदों का सम्यक् प्रतिपादन किया। निःसंदेह, केशवदास ही रीतिकाव्य के प्रवर्तक हैं।

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गीतिकाव्य से आप क्या समझते हैं ?

गीतिकाव्य से आप क्या समझते हैं (Geeti Kavya Se Aap Kya Samajhte Hain): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत गीतिकाव्य पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

गीतिकाव्य से आप क्या समझते हैं ?

अंग्रेजी के लिरिक (Lyric) शब्द के लिए हिंदी में गीत, प्रगीत या ‘गीतिकाव्य (Geeti Kavya)’ शब्द प्रयुक्त होते हैं। ग्रीस में ‘लायर’ नामक वाद्ययंत्र पर गाये जाने वाले गीतों को ‘लिरिक’ कहा जाता था परन्तु कालांतर में संपूर्ण गेय काव्य को ‘लिरिक’ (Lyric) कहा जाने लगा। गीतिकाव्य गेय काव्य है, जिसमें गेयता, भाव-प्रवणता, आत्माभिव्यक्ति, रागात्मक अन्विति, कोमलकांत पदावली, सौंदर्यमयी कल्पना इत्यादि तत्त्व प्रमुखता से विद्यमान होते हैं।

यह भावावेशमयी स्थिति से उत्पन्न होती है। वर्ड्सवर्थ जब कविता को Spontaneous overflow of powerfull feelings कहते हैं, तो उनका संकेत ‘गीति’ की ओर होता है। ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान’ यह पंक्ति देखें या अंग्रेजी कवि शैले की पंक्ति (Our sweetest songs are those that tell us the saddest thought) तो स्पष्ट होता है कि गीति का आधार कोमल संवेग या भाव है, जो हर्ष- विषाद के आवेश से संबंध रखता है।

महादेवी वर्मा ने लिखा है कि – “सुख- दुःख की भावावेशमयी अवस्था विशेषकर गिने हुए शब्दों में स्वर-साधना के उपयुक्त चित्रण कर देना ही गीत है।”

गीतिकाव्य के तत्त्व –

1. वैयक्तिकता – गीति आत्माभिव्यक्ति अथवा वैयक्तिक अनुभूतियों का सहज स्वाभाविक प्रकाशन है।

2. भाव प्रवणता – यह गीति काव्य की आत्मा है।

3. गीति स्वतः पूर्ण रचना है। अतः, भावान्विति गीति काव्य का प्रधान तत्त्व है।

4. गीति अनिवार्यतः गेय होती है। अतः, ‘गेयता’ इसका एक अनिवार्य तत्त्व है। गेय होने के कारण ही उसे गीति कहा जाता है।

5. गीति का भाव लालित्य और भावातिरेक उसकी शैली पर निर्भर करता है। अतः, कोमल सरस पदावली गीतिकाव्य का एक मुख्य तत्त्व है।

6. अन्य तत्त्व – संक्षिप्तता, प्रवाहमयता, अनुकूल भाषा-शैली इत्यादि।

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नायक कितने प्रकार के होते हैं ?

नायक कितने प्रकार के होते हैं (Nayak Kitne Prakar Ke Hote Hai): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नायक के प्रकार के बारे में सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नायक कितने प्रकार के होते हैं ?

नायक के 4 प्रकार होते हैं –

1. धीरोदात्त

2. धीरललित

3. धीर प्रशांत

4. धीरोद्धत्त

(1) धीरोदात्त – वह नायक जिसका अंतःकरण शोक, क्रोध इत्यादि से अविचलित रहता है। वह गंभीर, क्षमावान, अहंकारशून्य, वचनपालक, विनयी, उदारचरित वाला होता है। जैसे—राम, युधिष्ठिर।

(2) धीरललित – कला आसक्त, सुखान्वेषी, कोमल एवं निश्चित स्वभाव वाला नायक। जैसे—उदयन (स्वप्नवासवदत्तम्) श्रीकृष्ण (चंद्रावली नाटक)।

(3) धीर प्रशांत – शांत स्वभाव वाला, सामान्य गुणों से युक्त ब्राह्मण अथवा वैश्यादिक नायक। जैसे—मृच्छकटिक का नायक चारुदत्त।

(4) धीरोद्धत्त – मायावी, अहंकारी, उग्र, चपल, धोखेबाज, आत्म प्रशंसक। जैसे—रावण, मेघनाद, मेघनाद, परशुराम।

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नाटक और गीति नाटक में अंतर बताइए ?

नाटक और गीति नाटक में अंतर बताइए (Natak Aur Geeti Natak Mein Antar Bataiye): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नाटक और गीति नाटक में अंतर के बारे में सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नाटक और गीति नाटक में अंतर बताइए ?

नाटक और गीति नाट्य में मुख्य अंतर संवाद का होता है। नाटक के संवाद गद्य में और गीति नाट्य के संवाद पद्य में या लयात्मक कविता के रूप में होते हैं। काव्य के प्रयोग से गीति नाट्यों में भावावेग की तीव्रता और कल्पना की झंकार का वातावरण उत्पन्न होता है। उस काव्यात्मक विशेषता के अतिरिक्त गीति नाट्य का रूपबंध और रचना रूढ़ियाँ नाटक की होती हैं।

गीति नाट्य के कुछ उदाहरण हैं –

अंधायुग-धर्मवीर भारती। मत्स्यगंधा-उदयशंकर भट्ट।
एक कंठ विषपायी-दुष्यंत कुमार। स्वर्णश्री-गिरिजा कुमार माथुर।

हिंदी में गीति नाट्य-परंपरा का श्रीगणेश जयशंकर प्रसाद के ‘करुणालय’ से हुआ। यह हिंदी गीति नाट्य की प्रथम रचना है तो मैथिलीशरण गुप्त द्वारा रचित ‘अनघ’ द्वितीय गीति नाट्य है।

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नाटक एवं एकांकी में अंतर बताइए ?

नाटक एवं एकांकी में अंतर बताइए (Natak Avn Ekanki Mein Antar Bataiye): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नाटक एवं एकांकी में अंतर के बारे में सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नाटक एवं एकांकी में अंतर बताइए ?

1. नाटक में जीवन का विस्तार, लंबाई और परिधि का विस्तार होता है; जबकि एकांकी में जीवन की किसी एक घटना, प्रसंग या पहलू को चित्रित किया जाता है। एकांकी की परिधि सीमित तथा क्षेत्र भी सीमित होता है।

2. नाटक में संकलन-त्रय का निर्वाह आवश्यक नहीं किन्तु एकांकी में संकलनत्रय का निर्वाह होना महत्त्वपूर्ण है।

3. नाटक में 5 से 10 तक अंक होते हैं जबकि एकांकी में मात्र 1 अंक।

4. एकांकी प्राय: संघर्ष स्थल से प्रारम्भ होता है, जो शीघ्र गति पकड़कर लक्ष्य की ओर दौड़ता है अर्थात् एकांकी में वेग संपन्न प्रवाह का महत्त्व होता है जबकि नाटक की गति धीमी होती है और वह धीरे-धीरे चरम सीमा (Climax) की ओर अग्रसर होता है।

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