घनानंद के काव्य की विशेषताएँ

घनानंद के काव्य की विशेषताएँ (Ghananand Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत घनानंद के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

घनानंद के काव्य की विशेषताएँ

घनानंद हिंदी साहित्य के अन्तर्गत रीतिकाल के रीतिमुक्त या स्वच्छंद काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। घनानंद दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मीर मुंशी थे। घनानंद का सुजान नामक स्त्री से अटूट प्रेम था। सुजान की विरह-व्यथा में उन्होंने काव्य-रचनाएँ की, इसलिए उन्हें ’प्रेम पीर के कवि’ कहा जाता है। उनके काव्य में प्रेम की विरह-व्यथा का वर्णन किया गया है।

घनानन्द के काव्य की विशेषताओं को इस प्रकार समझा जा सकता है –

1. घनानन्द की स्वछंद-योजना –

रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि ठाकुर ने रीतिबद्ध कवियों की रचना-प्रकृति और उनकी रूढ़िवादी मनोवृत्ति का उपहास करते हुए कहा था –

सखि लीनो मीन मृग खंजन कमल नैन,
सीखि लीनो जस औ प्रताप की कहानी है।

डेल सो बनाये आय मेलत सभी के बीच,
लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है।

रीतिबद्ध कवियों ने कवि-वर्णन परिपाटी में गिनाई हुई बातों को सीखकर काव्य-रचना की प्रणाली अपना ली थी और वे कवि बनने लगे थे तथा उन्हें राजसभा में आदर भी प्राप्त होने लगा था। फलस्वरूप कवि-कर्म ‘खेल’ या ‘क्रीड़ा-कौशल’ की तरह अभ्यास सिद्ध कार्य बन गया था और उनका काव्य काव्यशास्त्र के चौखटे में आबद्ध हो गया था। काव्य में ‘अन्त:प्रेरणा’ और ‘आत्मानुभूति’ के समावेश के लिए बहुत कम अवकाश रह गया था। रीतिबद्ध कवियों की इस मनोवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए घनानन्द ने लिखा था –

यों घनआनन्द छावत भावत जान सजीवन ओर तें आवत।
लोग हैं लागि कवित बनावत, मोहि तो मेरे कवित्त बनावत।।

इस सवैये में घनानंद (Ghananand) ने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया है कि “लोग अर्थात् रीति कवि लगकर, जोड़-तोड़कर कविता बनाते हैं; किन्तु मैंने अपनी कविता का नहीं, वरन् मेरी कविता ने ही मेरा निर्माण किया है।” तात्पर्य यह है कि घनानंद का काव्य उनकी जीवनानुभूति का सहज-स्वच्छंद प्रकाशन है। घनानंद एक ऐसे युग के कवि हैं, जिनमें अधिकांश कवियों की निजी विशेषताओं का सर्वथा अभाव दिखाई देता है। धनानंद एक स्वछंद प्रेमी के रूप में हमारे सामने आते हैं।

रीतिकाल की रीतिमुक्त स्वछंद- काव्यधारा की अपनी सामान्य विशेषताओं के बावजूद घनानंद अपनी निजी विशेषताएँ रखते हैं, जिन्हें भाव, भाषा-शिल्प इत्यादि सभी क्षेत्रों में आसानी से देखा जा सकता है। घनानंद रीतिमुक्त अथवा स्वछंद काव्यधारा के सर्वोत्तम कवि हैं। इस उत्तमता का आधार उनकी निजी विशेषताएँ हैं; जिसकी ओर संकेत करते हुए घनानंद के कविमित्र और उनके प्रशस्तिकार ब्रजनाथ ने लिखा है –

बिनती कर जोरि कै बात कहौं, जौ सुनौ मन कान दै हेत सों जू।
कविता घनानंद की न नोसे पहचान नहिं उहि खेत सो जूँ।।

ब्रजनाथ ने घनानंद के विषय में आगे लिखा है कि –

नेही महा ब्रजभाषा प्रवीन और सुंदरतानि के भेद को जानै।
जोग वियोग की रीति में कोबिद भावना भेद सरुप को ठाने।।

ब्रजनाथ का मत है कि घनानंद की कविता को वही समझ सकता है, जिसके पास हृदय की आंखें हो अर्थात् जिसमें आत्मानुभव और स्वानुभूति हो।

घनानंद का काव्य वियोग प्रधान काव्य है, जो स्वानुभूति के धरातल पर प्रतिष्ठित है। इनकी वेदना का केन्द्र कोई नायक-नायिका न होकर कवि का आत्म या स्व है। इसके कारण घनानंद के प्रेम का पीर कुछ विलक्षण हो गया है।

घनानन्द अपने व्यक्तिगत जीवन में प्रेममार्ग के धीर पथिक रहे हैं और प्रिय की लाख उपेक्षा, निष्ठुरता के बावजूद एकनिष्ठ भाव से दगादार से यारी ही नहीं की है; बल्कि स्वयं दुःख सहकर भी ‘प्रिय के प्रति मंगलकामना का ‘भाव’ प्रकट किया है। देखें –
नित नीके रहौ तुम्हें चाड़ कहा। पै असीस हमारियौ लीजियै जू।

घनानंद का प्रेम-वर्णन स्वानुभूत सत्य है, जिसमें विषम प्रेम की पीड़ा की छटपटाहट है। उनका प्रेम अंत में लौकिक से अलौकिक बन जाता है। घनानंद के प्रेम की कसौटी मीन, पतंग, चातक इत्यादि नहीं; बल्कि प्रेम की चरम अवस्था में ज्ञाता और ज्ञेय की एकता के समान प्रिय और प्रिया का । एक हो जाना है। शुक्ल जी के शब्दों में “प्रेम की गूढ़ अंतर्दशा का उद्घाटन। जैसा घनानंद में है, वैसा हिन्दी का अन्य श्रृंगारी कवि में नहीं।”

रीतिमुक्त कवि धनानंद का प्रेम रीतिकालीन कवियों से सर्वथा पृथक है। घनानंद के प्रेम में स्थूलता के स्थान पर सूक्ष्मता, शारीरिकता के स्थान पर अनुभूति, बाह्यता के स्थान पर आंतरिकता और भोगवाद के स्थान पर भावुकता की प्रधानता है, जो उन्हें स्वछंदतावादी कवि बनाने में पूर्णतः सक्षम है। धनानंद का आलंबन प्रेयसी ‘सुजान’ है।

घनानंद ने सौंदर्य देखा था, प्रेम किया था और अंत में विरह की असह्य वेदना भोगी थी। घनानंद का प्रेममार्ग अत्यन्त सरल है, जिसमें तनिक भी चतुरता या सयानापन अथवा बाँकपन नहीं है।

अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानपन, बाँकपन नहीं।

वस्तुतः स्वच्छन्दतावादी कवि घनानंद के प्रेम की पीड़ा, अंतःप्रेरणा, नेह बौराई, मौन मधि पुकार, संयोग में भी वियोग की कसक है। इसे वही समझ सकता है जिसके पास हृदय की आँखें हों। ब्रजनाथ के शब्दों में कहा जा सकता है कि –

1. समुझै कविता घनआनंद की हिय आँखिन नेह की पीर तकी।
2. प्रेम की चोट लगी किन आँखिन सोइ लहै कहा पंडित होय कै।

‘लल्लन राय’ ने बिल्कुल सही लिखा है कि- “घनानंद के प्रेम में स्वछंदता, परम साहसिकता, घोर रूपासक्ति, गहरी तन्मयता, भावना मूलकता, निष्कामता इत्यादि मुख्य विशेषताएँ हैं। प्रेम की अन्यान्य विभूतियाँ घनानंद के विषम प्रेम को सिंचित कर उसे एक अभिनव आचार से जोड़ती हैं। “.

भाव-विधान के साथ-साथ रूपविधान या शिल्प-सौष्ठव की दृष्टि से भी घनानंद स्वछंदतावादी कवि के निरूपण में बिल्कुल खरे उतरते हैं। लल्लन राय के शब्दों में “भाव-विधान के साथ ही घनानंद ने रूपविधान या शिल्प की दृष्टि से भी रीतिबद्ध कवियों से पार्थक्य दिखाया है। रीतिबद्ध कवियों ने कवि-वर्णन परिपाटी के अन्तर्गत स्वीकृत उपमानों के प्रयोग द्वारा भावों को एक प्रकार से जकड़ दिया था। घनानंद के काव्य में इस प्रकार रीतिबद्धता के विरोध का स्वर स्थान-स्थान पर व्यंजित हुआ है।”

भाषा-शैली की दृष्टि से भी घनानंद ने स्वच्छंद भावों का परिचय दिया है। उन्होंने रीतिबद्धता की लकीर न पीटकर अपने भावों को सजी-सँवरी अत्यन्त व्यंजक, लोकोक्ति, मुहावरों से युक्त व्याकरणसम्मत ब्रजभाषा, चित्रोपम एवं लाक्षणिक विशेषण, सूक्ष्म भावों का सम्मूर्तन, विरोधाभास एवं विरोध वैचित्र्य, प्रयोग वैचित्र्य इत्यादि अनेक दृष्टियों से भाषा को नवीन रूप प्रदान किया है। घनानंद सचमुच ‘भाषा-प्रवीण’ थे। स्वानुभूति चित्रण के लिए भाषा कैसी चाहिये; भाषा में मधुरता, कोमलता और मिठास कैसे आनी चाहिये, इसे वे खूब जानते थे।

घनानंद की शैली उनके व्यक्तित्व के अनुरूप थी। स्वछंद प्रेम के उन्मुक्त गायक घनानंद ने भाव-मुक्तक शैली अपनायी थी। मुक्त छंदों को मिलाकर एक कथा का ढाँचा खड़ा करने में घनानंद का कोई सानी नहीं है। शुक्ल जी के शब्दों में घनानंद के विषय में कहा जा सकता है कि- “प्रेम की पीर को लेकर ही इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।”

2. घनानंद प्रेम के पीर के कवि थे –

प्रेम की पीर के कवि ‘घनानंद’ के काव्य की मूल संवेदना प्रेम है, जिसका आलंबन प्रेयसी ‘सुजान’ है। धनानंद ने सौंदर्य देखा था, प्रेम किया था और अंत में बिरह की असहा वेदना पृथक भोगी थी। रीतिमुक्त कवि घनानंद का प्रेम रीतिबद्ध कवियों के प्रेम से पृथक है; जिसमें स्थूलता के स्थान पर सूक्ष्मता, शारीरिकता के स्थान पर अनुभूति, बाह्यता के स्थान पर आंतरिकता और भोगवाद के स्थान पर भावुकता की प्रधानता है।

घनानंद का प्रेममार्ग अत्यन्त सरल है, जहाँ तनिक भी चतुरता और बांकपन नहीं –

अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानपन, बाँकपन नहीं।

घनानन्द का प्रेम स्वछंद प्रेम है; जो परम साहसिकता, पोर रूपासक्ति, अनन्यता, गहरी तन्मयता और भावनामूलकता इत्यादि विशेषताओं से ओत-प्रोत है। देखें –

1. जब तें निहारे घनानंद सुजान प्यारे,
तब तें अनोखी आगि लागि रही याद की। (घोर रूपासक्ति)

2. इत एकते दूसरो आंक नहीं। (अनन्यता)

पनानंद का प्रेम-वर्णन स्वानुभूति सत्य है, जिसमें विषम प्रेम का पीड़ा की छटपटाहट है। इसे घनानंद ने ‘मौन मधि पुकार’ की संज्ञा दी है। घनानंद के प्रेम की सर्वाधिक विलक्षण स्थिति प्रिय से मिलन पर भी अतृप्ति और संयोग में भी वियोग का भय है। देखें-

यह कैसी संजोगन बूझि परै जु वियाग न क्यों हू बिछोहत है।

घनानंद के प्रेम में स्वयं दुःख सहकर भी प्रिय के प्रति मंगलकामना का भाव व्यक्त हुआ है। प्रेम की यह उदात्त भूमि है। उनका प्रेम अंत में लौकिक से अलौकिक बन जाता है। घनानंद के प्रेम की कसौटी मीन, पतंग, चातक नहीं बल्कि प्रेम की चरम अवस्था में ज्ञाता और ज्ञेय की एकता के समान प्रिय और प्रिया का एक हो जाना है। शुक्लजी के शब्दों में- “प्रेम की गूढ़ अंतर्दशा का उद्घाटन जैसा घनानंद में है, वैसा हिन्दी के अन्य शृंगारी कवि में नहीं।”

प्रेम और श्रद्धा के योग का नाम भक्ति है (शुक्ल, चिन्तामणि)। घनानंद का हृदय लौकिक प्रेम में अनुरक्त था; किंतु सुजान की निष्ठुरता, निर्दयता, विश्वासघात और कपट व्यवहार ने उस लौकिक प्रेम को अलौकिक प्रेम की ओर मोड़ दिया।
घनानंद जितने उच्च कोटि के प्रेम के धीर पथिक थे; उतने ही उच्च कोटि के भक्त थे। चूँकि घनानंद की लौकिक प्रेमासक्ति अलौकिक प्रेमासक्ति में परिणत हो गई थी, इसलिए उनकी भक्ति में ‘रागानुगा भक्ति’ की प्रधानता है –

राधा की जूठनि ही जियो। राधा की प्यासनि ही पियौ।

घनानंद ने कृष्ण और राधा की भक्ति की है। घनानंद की भक्ति में माधुर्यभाव की भक्ति प्रबल रूप से विद्यमान है –

मीत सुजान मिले को महा सुख अंगनि भोय समोह रहयो है।

घनानंद की भक्ति में ‘आराध्य के प्रति अनन्यता और गहन आस्था’ सहज भाव से देखा जा सकता है। देखें –

तुमही गति हौ तुम ही मति हौ, तुम ही पति हौ अति दीनन की।

निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षित घनानंद ने किसी भक्ति-मार्ग का अवलंबन नहीं किया था; उनकी भक्ति परम प्रेमरूपा थी। उनकी भक्ति की सर्वप्रमुख विशेषता भक्त और भगवान के बीच अंतर का मिट जाना है। घनानंद की वैराग्य की प्रधानता, महत्ता और ब्रज की श्रेष्ठता भी प्रतिपादित हुई है।

समासतः, कहा जा सकता है कि घनानंद प्रेम की पीर के कवि थे। घनानंद का काव्य उनके जीवन की विषमजन्य प्रेम और वेदना की मर्मान्तक अभिव्यक्ति है। एकनिष्ठ भाव, सर्वस्व समर्पण, परम साहसिकता, घोर आसक्ति, तन्मयता, भावना मूलकता, निष्कामता इत्यादि घनानंद की प्रेम-पद्धति की मुख्य विशेषताएँ हैं। अन्यान्य रीतिबद्ध कवियों की भाँति घनानंद ने अपने काव्य में सिर्फ प्रेम का चित्रण नहीं किया है; बल्कि अपने जीवन में भी ये प्रेममार्ग के धीर पथिक थे।

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नागार्जुन के काव्य की विशेषताएँ

नागार्जुन के काव्य की विशेषताएँ (Nagarjun Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत नागार्जुन के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

नागार्जुन के काव्य की विशेषताएँ

नागार्जुन (Nagarjun) का जन्म बिहार के मिथिला के दरभंगा जिले में हुआ। नागार्जुन एक जन कवि हैं। मैथिली, संस्कृत और हिन्दी में रचना करने वाले नागार्जुन हिन्दी-साहित्य में एक लब्धप्रतिष्ठित उपन्यासकार एवं कवि के रूप में जाने जाते हैं। हिन्दी में ‘नागार्जुन’ और मैथिली में ‘यात्री’ उपनाम से कविता करने वाले नागार्जुन के काव्य-संग्रह इस प्रकार हैं –

काव्य – युगधारा, भस्मासुर, सतरंगे पंखों वाली, प्यास, पराई आँखें।

व्यंग्य प्रधान लघु काव्य – खून और शोले, प्रेत का बयान, चना जोर गरम।

नागार्जुन के काव्य की विशेषतायें (Nagarjun Ke Kavya Ki Visheshtaen) इस प्रकार हैं –

1. दुःखवादी चेतना –

नागार्जुन ने अपने संघर्षमय जीवन की दुःख और परिस्थितियों का चित्रण अनेक कविताओं में किया है। इस प्रकार उनके काव्य में दुःखवादी चेतना एक प्रमुख स्वर है। उदाहरण –

मेरा क्षुद्र व्यक्तित्व रुद्ध है, सीमित है
आटा दाल नमक लकड़ी की जुगाड़ में
पत्नी और पुत्र में, सेठ के हुकूम में
कलम ही मेरा हल है कुदाल है
बहुत बुरा हाल है।

2. आशावादी चेतना –

नागार्जुन ने न सिर्फ अपनी रचनाओं में • अपने जीवन के दुःख-दर्द को व्यक्त किया है; बल्कि श्रमिक वर्ग, दलित वर्ग और शोषित वर्ग का भी चित्रण किया है, किन्तु उनकी दृष्टि निराशावादी न होकर आशावादी है। ‘अकाल और उसके बाद’ में वे कहते हैं कि –

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक काली कुतिया, सोई उसके पास………
दानें आये घर के अन्दर कई दिनों के बाद
चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद।

3. उद्बोधनात्मक चेतना –

नागार्जुन के काव्य में उद्बोधनात्मक चेतना की झलक मिलती है। निराशा के अन्धकार में आशा की ज्योति जलाये हुये नागार्जुन दुःखी एवं शोषित वर्ग से कहते हैं कि –

विध्न बाधा के पहाड़ों को गिरा दो,
ढाह दो।

4. राष्ट्रवादी चेतना –

नागार्जुन पहले भारतीय हैं, उसके बाद और कुछ। उन्होनें दर्जनों कवितायें अपनी मातृभूमि ‘मिथिला’ को सम्बोधित कर लिखी हैं जो उनकी राष्ट्रवादी चेतना का परिचायक हैं। कम्युनिस्ट चीन के आक्रमण पर नागार्जुन तिलमिला उठे थे और उन्होंने आक्रमणकारी चीन को फटकारते हुये एवं ललकारते हुए राष्ट्रप्रेम का परिचय इस प्रकार दिया था –

अनदा, वस्त्रदा, सुखदा, शुभदा
प्राणों से बढ़कर प्यारी धरती हमारी
बने स्वर्ग यह भूमि हमारी।

5. समाजवादी चेतना –

नागार्जुन ने सामाजिक चेतना के अन्तर्गत एक भिक्षुणी के माध्यम से यह बताने की चेष्टा की है कि तपस्या नारी जीवन का सत्य नहीं है; बल्कि उसके जीवन का सत्य उसके मातृत्व में निहित है। नागार्जुन की एक प्रसिद्ध कविता ‘तालाब की मछली है’, जिसमें ‘कोशी’ (नदी) की बाढ़ का जिक्र है। काशी की मछली जब जमींदार के अन्तःपुर में आती है; तब अधेड़ जमींदार की 18 वर्षीय तीसरी पत्नी उसे तलने बैठती है। यहाँ कड़ाही में तली जा रही मछली जमींदार की पत्नी से कहती है कि –

हम भी मछली, तुम भी मछली दोनों उपभोग की वस्तु।

नारी की दासता की पीड़ा को नागार्जुन ने मछलियों के साथ जोड़कर अत्यन्त मार्मिक बना दिया है।

6. प्रकृति-प्रेम एवं प्रणय (प्रेम) चेतना –

नागार्जुन का प्रकृति का चित्रण छायावादी कविता से नितान्त भिन्न सीधा-सादा और सपाट है। गंगा की बाढ़ का चित्रण करते हुये वे कहते हैं कि –

बढ़ी है इस बार गंगा खूब
सामने ही पड़ोसी नीम, सहजन, आँवला, अमरूद
हो रहे आकण्ठ जल में मग्न।

नागार्जुन की प्रणय-चेतना को उनके प्रवास-काल में रचित कविताओं में देखा जा सकता है। इस दृष्टि से उनकी ‘सिन्दूर तिलकित भाल’ उल्लेखनीय है, जिसमें स्वकीया के प्रति उनकी स्मृति इस प्रकार व्यक्त हुई है –

याद आता तुम्हारा सिन्दूर तिलकित भाल।
नागार्जुन जनभाषा के कवि हैं।

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मुक्तिबोध के काव्य की विशेषताएँ

मुक्तिबोध के काव्य की विशेषताएँ (Muktibodh Ki Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत मुक्तिबोध के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

मुक्तिबोध के काव्य की विशेषताएँ

गजानन माधव मुक्तिबोध (Gajanan Madhav Muktibodh) नयी कविता के सर्वाधिक समर्थ एवं सशक्त कवि हैं। हिन्दी- कविता विशेषकर नयी कविता के कवियों में गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ का नाम अविस्मरणीय है। ‘तारसप्तक’ प्रथम के सात कवियों में मुक्तिबोध अपना गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं।

मुक्तिबोध (1917-1964) की काव्य-रचनाओं को इस प्रकार देखा जा सकता है –

काव्य –

चाँद का मुँह टेढ़ा है (1964)
भूरी-भूरी रवाक धूल

प्रमुख कवितायें –

अँधेरे में, ब्रह्मराक्षस, आत्म वक्तव्य, भूल गलती,
चकमक की चिनगारियाँ, दिमागी गुहान्धकार।

मुक्तिबोध के काव्य की विशेषताओं (Muktibodh Ke Kavya Ki Visheshtaen) को इस प्रकार देखा जा सकता है –

1. छायावादी रोमांटिक प्रवृत्ति –

मुक्तिबोध (Muktibodh) के कवि-जीवन का प्रारम्भ छायावाद के पतनकाल में हुआ था। उस समय (1935-1940) की उनकी रचनायें छायावादी भाव-भाषा से प्रभावित हैं। प्रकृति, सौन्दर्य, काल्पनिकता, वेदनानुभूति इत्यादि छायावादी विशेषतायें उनके काव्य में दिखाई पड़ती हैं। देखें –

1. वेदना का कवि बनूँ मैं
कल्पना का मृदु चितेरा।

2. बह रही है दुःख की यह विमल धारा
फूल के इस हास में ही अश्रु का भी हास प्यारा।

2. दुःखवादी चेतना –

मुक्तिबोध के काव्य में दुःखवादी चेतना की प्रबल अभिव्यक्ति हुई है। उनकी काव्य-संवेदना ड्राइंग रूम की काव्य-संवेदना नहीं है; बल्कि मुक्तिबोध सामान्य जन, वेदना, उत्पीड़न, घुटन और निराशा से मर्माहित कवि हैं। उनके काव्य में स्व दुःख की अपेक्षा पर दुःख की अभिव्यक्ति हुई है –

घनी रात बादल रिमझिम है, दिशा मूक निस्तब्ध,
रूपान्तरण व्यापक अंधकार में सिकुड़ी सोई नर की बस्ती, भयंकर।

3. मार्क्सवादी चेतना –

गजानन माधव मुक्तिबोध मार्क्सवादी चेतना के कवि हैं। उनकी मार्क्सवादी चेतना प्रधान कविताओं में सत्ताधारियों, पूँजीपतियों, साधन सम्पन्न प्रतिष्ठित व्यक्तियों के अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशक्त विद्रोहात्मक स्वर की अभिव्यक्ति हुई है। पूँजीवादी समाज के प्रति उनका कथन है कि –

तू है भरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ,
तेरा हवन्स केवल एक तेरा अर्थ।

4. व्यंग्य और विद्रूप –

मुक्तिबोध एक सफल व्यंग्यकार भी थे। उन्होंने समाज की विद्रूपताओं-पूंजीवादी नीतियों, राजनीतिक षड्यंत्रों, आधुनिकीकरण इत्यादि पर तीक्ष्ण व्यंग्य प्रस्तुत किया है। देखें –

1. पाउडर में सफेद अथवा गुलाबी,
छिपे बड़े-बड़े चेचक के दाग मुझे दिखते हैं,
सभ्यता के चेहरे पर।

2. गाँधीजी की मूर्ति पर बैठे हुये घुघ्घू ने,
गाना शुरू किया, हिचकी ताल पर।
रात्रि का काला स्याह कनटोप पहने हुये
आसमान बाबा ने की हनुमान चालीसा।

5. असुरक्षित जीवन का भाव एवं निराशा –

डॉ. रामविलास शर्मा ने मुक्तिबोध की कविता को असुरक्षित जीवन की कविता कहा है। उनके काव्य में भय, संत्रास, छटपटाहट, असुरक्षा, निराशा इत्यादि की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है। निराशा का एक चित्र देखें –

घनीरात, बादल रिमझिम है दिशा, मूक कविता,
मन गीला, यह सब क्षणिक जीवन है क्षण भंगुर।

6. विरोध एवं विद्रोह –

मुक्तिबोध के काव्य में विद्रोहात्मक एवं विरोध के स्वर भरे पड़े हैं। उनकी दृष्टि में सामान्य के दुःख-दर्द का एक ही उपाय है और वह है जनक्रांति। मुक्तिबोध का मत है कि—जन संगठन के द्वारा ही मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। देखें –

साथ-साथ घूमते हैं, साथ-साथ रहते हैं
साथ-साथ सोते हैं, खाते हैं पीते हैं।
धन मन उद्देश्य।

इस उदाहरण के द्वारा मुक्तिबोध ने जन संगठन की सिफारिश की है।

मुक्तिबोध के कला पक्ष की विशेषताएँ

1. भाषा –

मुक्तिबोध की भाषा अधिकांशतः सरल, तत्सम एवं तद्भव प्रधान है; जिसमें उर्दू, फारसी (जैसे- खुदा, स्याह, सिवाही, रौब, रोशनी, सौहदा, जिन्दगी इत्यादि) के शब्दों की बहुलता है। इनके काव्य में अंग्रेजों शब्द कम आये हैं। रहस्यवादी शब्दावली नगीना, इकठ्ठा, पिंगला, सुषुम्ना, ज्ञानमणि इत्यादि का भी प्रयोग हुआ है। इनकी भाषा कथ्य के अनुसार करवट लेती है।

2. अप्रस्तुत योजना –

अप्रस्तुत योजना की दृष्टि से मुक्तिबोध ने अपने गहन व्यक्तित्व का परिचय दिया है। उनकी अप्रस्तुत योजना में मौलिकता, नवीनता, यथार्थ बोध आदि विशेषतायें देखने को मिलती हैं।

जैसे –

बैचेनी के साँपों को मैंने छाती से रगड़ा है। यहाँ बैचेनी के लिए साँपों एक उपयुक्त अप्रस्तुत है।
आत्मा की कुतिया भाँतों के जालों से इत्यादि कुछ चौंका देने वाले अप्रस्तुतों की भी मुक्तिबोध ने सृष्टि की है।

3. प्रतीक योजना –

मुक्तिबोध का काव्य इस दृष्टि से अत्यंत उत्कृष्ट है। मुक्तिबोध ने जिन परम्परागत, पौराणिक, ऐतिहासिक प्रतीकों का प्रयोग किया है, वैसा प्रयोग आज तक कोई नहीं कर सका है। इस दृष्टि से मुक्तिबोध अकेले कवि हैं। उनके कुछ प्रतीक देखें –
पौराणिक प्रतीक – एकलव्य, अक्षयवर, नकड़ी का रावण।

ऐतिहासिक प्रतीक –
ब्रह्म राक्षस (अतीत की बौद्धिक चेतना का प्रतीक)
रक्तालोक स्रात पुरुष – (संघर्षशील संस्कृति का प्रतीक)

4. अलंकार, रस-योजना –

मुक्तिबोध के काव्य में उपमा, यमक, मानवीकरण इत्यादि के उदाहरण तो मिलते हैं किन्तु रस-योजना का अभाव मिलता है। नाद-सौंदर्य मुक्तिबोध के काव्य की एक अन्य प्रमुख विशेषता है।

5. शैली –

शैली की दृष्टि से मुक्तिबोध का कोई जोड़ नहीं है। मुक्तिबोध की अविस्मरणीय स्मृति उपलब्धि है-उनकी फैंटेसी-शैली। ‘ब्रह्मराक्षस’ और ‘अँधेरे में’ शीर्षक कविताऐं फैंटेसी शैली का सुन्दर नमूना है।
इस प्रकार मुक्तिबोध का काव्य भावपक्ष एवं कलापक्ष की दृष्टि से सम्पन्न है।

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रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ

रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ(Ramdhari Singh Dinkar Ki Kavyagat Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।

रामधारी सिंह दिनकर की काव्यगत विशेषताएँ

रामधारी सिंह दिनकर के काव्य में सांस्कृतिक चेतना

भारतीय संस्कृति महान् है; जिसे रामधारी सिंह दिनकर सरीखे अनेक साहित्यकारों ने उसे अपने साहित्य में पिरोया ही नहीं है, अपनी लेखनी और कला की बदौलत उसे भव्य रूप देकर अनुकरणीय एवं विश्वव्यापी बना दिया है। ‘संस्कृति’ का अर्थ ‘संस्कार संपन्न जीवन’ है। संस्कृति मानव-जीवन को विकृति से बचाकर सुकृति की ओर अग्रसर करने वाला एक ऐसा रचनात्मक प्रत्यय है जो अतीत से प्रेरित, वर्तमान से प्रतिबद्ध और भविष्य के प्रति उन्मुख है।

दिनकर ने अपने साहित्य में न सिर्फ काव्य में बल्कि गद्य-साहित्य (जैसे- संस्कृति के चार अध्याय (1956), हमारी सांस्कृतिक एकता (1954), रेती के फूल (1954 ई.) में भारतीय सांस्कृतिक एकता को भव्य रूप में प्रस्तुत किया है, जिनसे वह आगामी पीढ़ियों का मार्गदर्शन कर सके हैं।

मानवतावादी भावना, गरीबों के प्रति पक्षधरता, लोककल्याण, विश्वप्रेम, विश्वशांति कर्म की महत्ता, आशावादिता, भाग्यवाद एवं पुनर्जन्म पर विश्वास, नारी सम्मान, गाँधीवादी विचारधारा इत्यादि सांस्कृतिक वृत्तियाँ, जो सांस्कृतिक चेतना के आकार हैं, दिनकर-साहित्य में मूल्यों, उच्चादर्शों के साथ अभिव्यक्त हुए हैं। भारतीय आदर्शों के गायक, भारतीय संस्कृति के आख्याता दिनकर के काव्य में सांस्कृतिक चेतना का निरूपण निम्न रूपों में द्रष्टव्य है –

1. मानवतावादी भावना –

महान् मानवता की भावनात्मकता की प्रतीक एक व्यक्तिवाचक संज्ञा का नाम है- ‘रामधारी सिंह दिनकर’। मानव के कवि, मानव-मन और मानव-समस्याओं के कवि दिनकर का दृष्टिकोण मानवतावादी है; जो भारतीय सभ्यता संस्कृति का दृष्टिकोण अति प्राचीनकाल से रहा है। दिनकर की मानवतावादी भावनाओं में मानव- समानता, लोक-सेवा का आदर्श, सर्वहित की कामना, त्याग तप, परदुखकातरता, शोषितों के प्रति सहानुभूति, शोषण और बंधनमुक्त समाज की स्थापना इत्यादि के उच्चादर्श सन्निहित हैं। कवि का मानवतावादी दृष्टिकोण इन पंक्तियों में बखूबी साकार हुआ है –

मैं भी सोचता हूँ, जगत से कैसे उठे जिज्ञासा,
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर करुणा, प्रेम, अहिंसा,
जियें मनुज किस भाँति परस्पर, होकर भाई-भाई।

जब तक मनुज-मनुज का यह, सुख भाग नहीं सम होगा,
शमित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा।

श्रेय होगा मनुज का समता विधायक ज्ञान,
स्नेह सिंचित न्याय पर नव-विश्व का निर्माण।”

2. विश्वप्रेम और लोककल्याण –

अपने देश के दु:ख दैन्य, संघर्ष, पीड़ा से ऊपर उठकर दिनकर की दृष्टि विश्वप्रेम और लोककल्याण की भावना की ओर भी गई है। सांसारिक दुःखों को देखकर दिनकर जहाँ दुःखी होते हैं; आँसू बहाते हैं; वहीं दुःख के कारणों की पड़ताल भी करते हैं। वह कहते हैं कि –

है बहुत बरसी धरित्री पर अमृत की धार,
पर नहीं अब तक सुशीतल हो सका संसार।

भोग-लिप्सा आज भी लहरा रही उद्दाम,
बह रही असहाय नर की भावना निष्काम।

दिनकर की कविताओं में लोककल्याण, लोकमंगल की भावना इस प्रकार साकार हुई है –

हटो स्वर्ग के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं।
दूध-दूध ओ वत्स ! तुम्हारा दूध खोजने हम आते हैं।

3. गरीबों के प्रति पक्षधरता –

राष्ट्रकवि दिनकर की सांस्कृतिक चेतना दुःखी, गरीब, असहाय, शोषित, पीड़ित वर्ग पर बार-बार गयी है और उन्होंने इन वर्गों की यथार्थ स्थिति का अंकन कर जहाँ एक ओर इस वर्ग के देशवासियों को अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करने की प्रेरणा दी है, वहीं अन्यायियों, अत्याचारियों एवं शोषकों को सचेत करते हुए चेतावनी भी दी है –

1. जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
वसन कहाँ ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।

2. श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।”

दिनकर ने जहाँ कहीं अन्याय, शोषण इत्यादि का दृश्य देखा, उसे मिटाने के लिए उन्हें इन्क्लाब की शिद्दत से आवश्यकता महसूस हुई। इन दृश्यों को देखकर उनका खून खौल उठता है और वह ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में कह उठते है कि हम जीतेंगे यह समर, हमारा प्रण है।

4. आशा, भाग्यवाद और पुनर्जन्म पर विश्वास –

आशावादिता, भाग्यवाद एवं पुनर्जन्म भारतीय संस्कृति के प्रमुख आयाम हैं। राष्ट्रकवि दिनकर आशावादी कवि हैं; जिन्होंने एक ओर पराधीन देश, तड़पती दासता, और पिसती हुई मानवता के बीच नई आशा जाग्रत करने का स्तुत्य प्रयास किया है; वहीं मानव-समाज को आशावाद का दिव्य सन्देश देते हुए निराशा को कभी पास फटकने न देने का निवेदन किया है। कवि का आशावादी दृष्टिकोण देखें –

धरती के भाग हरे होंगे, भारती अमृत बरसायेगी
दिन की कराल दाहकता पर चाँदनी सुशीतल छायेगी
फूलों से भरा भुवन होगा।

भारतीय संस्कृति के अनुरूप दिनकर की ‘भाग्यवाद’ एवं ‘पुनर्जन्म’ पर गहरी आस्था है। देखें –

किंतु भाग्य है चली, कौन किससे कितना पाता है।
यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है।

5. नारी सम्मान –

भारतीय संस्कृति में नारी को ‘देवी’ के रूप में देखा गया है। ऐसा कहा भी गया है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।’ भारतीय संस्कृति के पोषक दिनकर ने नारी को अपार श्रद्धा एवं सम्मान की दृष्टि से देखा है। रेणुका, उर्वशी, द्वापर आदि काव्य ग्रंथों में दिनकर ने नारी के त्याग, सहिष्णुता, आत्मसमर्पण, आत्मदान, करुणा, क्षमा इत्यादि गुणों का गुणगान किया है, वहीं यह भी बताया है कि नारी के जीवन में रुदन ही रुदन है और उसे सान्त्वना देने वाला कोई नहीं है। नारी के प्रति दिनकर का दृष्टिकोण देखें –

1. नारी क्रिया नहीं; वह केवल क्षमा, शांति, करुणा है।

2. पुरुष बसंत है और स्त्री वर्षा
राजा बसंत, वर्षा ऋतुओं की रानी।

6. गाँधीवादी विचारधारा –

दिनकर ने गाँधीवादी विचारधारा, यथा – अहिंसा, अस्पृश्यता निवारण, अस्पृश्यों के मंदिर-प्रवेश, ग्राम-सुधार, स्त्री-जीवन में सुधार, कर्मयोग, लोक-संग्रह की भावना इत्यादि का उल्लेख करके युगीन-परिवेश का सुंदर परिचय दिया है। देखें –

1. मैं भी सोचता हूँ…
किस प्रकार फैले पृथ्वी पर करुणा, प्रेम, अहिंसा। (अहिंसा)

2. बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हो यदि काम ?
नर का गुण उज्ज्वल चरित्र है, नहीं वंश, धन, धाम। (अस्पृश्यता)

7. सांस्कृतिक चेतना के कुछ अन्य पहलू –

दिनकर-काव्य में ‘सांस्कृतिक चेतना के कुछ अन्य पहलू’ भी दिखाई देते हैं। मसलन-आस्तिकता, शिष्टाचार, अतिथि सत्कार, आत्मनिग्रह इत्यादि-इत्यादि। आस्तिकता भारतीय संस्कृति का प्रधान गुण है, जिससे दिनकर अछूते नहीं रहे हैं। ताण्डव, विपथगा, अर्द्धनारीश्वर सरीखी कविताएँ इसके प्रमाण हैं।

दिनकर को भगवान की अटूट शक्ति पर विश्वास होने के कारण ही ऐसी आस्था है कि भगवान एक न एक दिन अवश्य पीड़ित, व्याकुल, दुःखी, गरीब एवं शोषित भारतीय अवाम का उद्धार करेंगे। स्त्री की लज्जा लूटते देख उन्होंने दुर्गा माता, भगवान शंकर इत्यादि देव-देवियों से अपना रूप प्रकट करने के लिए प्रार्थना भी की हैं। यथा –

एक हाथ में डमरू, एक में वीणा मधुर
बालचंद्र दोपित त्रिपुण्ड पर बलिहारी ! बलिहारी !

दिनकर-साहित्य में अतिथि-सत्कार, शिष्टाचार के उदाहरण भी भरे पड़े हैं। ‘अतिथि देवो भवः’ भारतीय संस्कृति की प्रधान विशेषता है। दिनकर की कालजयी रचना ‘उर्वशी’ में ‘पुरूरवा’ सुकन्या तापसी के आगमन पर कह उठते हैं कि –

सती सुकन्या ! कीर्तिमयी भामिनी महर्षि च्यवन की ?
सादर लाओ उन्हें, स्वप्न अब फलित हुआ लगता है।

‘भीष्म’ को तात, पितामह कहना; पति को आर्यपुत्र; मित्र को बंधु; गुरु को गुरुवर; गुरु-शिष्य को ब्राह्मणकुमार; पत्नी को देवी इत्यादि कहना दिनकर-काव्य में शिष्टाचार के द्योतक हैं। भारतीय संस्कृति में निग्रह- अपरिग्रह का महत्त्व काफी है। दिनकर ने कर्ण की निलभिता और दानशीलता (रश्मिरथी) तथा स्त्रियों के पातिव्रत्य धर्मपालन पर बल देकर अपनी भारतीय सांस्कृतिक चेतना का सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया है।

उपर्युक्त आधारों पर कहा जा सकता है कि दिनकर का काव्य राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना का अद्भुत दस्तावेज है। आज बिहार, झारखण्ड, पश्चिमी बंगाल समेत भारत के कई राज्य जिस नक्सली-समस्या से जूझ रहे हैं, उसे लेकर दिनकर ने 5 दशक पूर्व ही सजग करते हुए लिख दिया था कि – ‘कहीं भूख बेताब हुई तो आबादी की खैर नहीं।’ राष्ट्रकवि दिनकर की दूरदृष्टि एवं समष्टि-चेतना के मूल में राष्ट्रीयता है –

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भूमण्डल भर का है।

दिनकर की राष्ट्रीय चेतना का परीक्षण करने पर स्पष्ट होता है कि उनकी राष्ट्रीय चेतना स्वतंत्रता – पूर्व और स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् इन 2 सोपानों में विकसित हुई है। ‘बारदोली विजय’ (1932 ई.) से लेकर ‘हुंकार’ (1939 ई.) तक की दिनकर की राष्ट्रीय चेतना में विद्रोह एवं क्रांति का पुट विद्यमान है। दिनकर की दृष्टि में विद्रोह, इन्क्लाब एवं क्रांति की पहली और शर्त है- जनजागृति।

इसलिए उन्होंने सर्वप्रथम पराधीनता, शोषक-वर्ग, शोषण-सत्ता के अस्तित्व को मटियामेट, नेस्तनाबूद करने के लिए अवाम को जनजागृति का सन्देश देते हुए नई हुंकार भरने का आग्रह किया है। दिनकर की राष्ट्रीय चेतना सामधेनी (1947 ई.) में साम्राज्यवादी शोषण के विरुद्ध उठ खड़ा होने का शंखनाद फूँकती है। इसमें कवि ने स्वयं को ‘अमर विभा का दूत’ और ‘धरणी का अमृत कलशवाही’ कहा गया है।

स्वतंत्रता के पश्चात् दिनकर की राष्ट्रीय चेतना लोकमंगल, मानववादिता, पंचशील, अंतरराष्ट्रीय समस्या इत्यादि की ओर अग्रसर होती है; किंतु चीनी-आक्रमण (1962 ई.) के पश्चात् पुनः राष्ट्रीयता की ओर ही केन्द्रित हो जाती है। राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ दिनकर ने अपने काव्य में आशावादिता, भाग्य एवं पुनर्जन्म पर विश्वास, कर्म की महत्ता अध्यात्म, त्याग एवं संयम, सहिष्णुता, नारी सम्मान, विश्व-बंधुत्व, विश्वमंत्री, विश्वप्रेम, वसुधैव कुटुम्बकम् इत्यादि भारतीय संस्कृति का आख्यान प्रस्तुत कर अपनी सांस्कृतिक चेतना का अन्यतम उदाहरण प्रस्तुत किया है।

लगभग 44 साल पहले 24 अप्रैल, 1974 का वह मनहूस दिन, वस्तुतः काले ‘सूरज का दिन था; जब ‘दिनकर’ की असामयिक मौत से वे जहाँ सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गये, वहीं साहित्य की दुनिया सूनी हो गई और राष्ट्रकवि की लेखनी सदा के लिए खामोश हो गई। ‘कल्कि’ नामक काव्य लिखने अथवा गाँधी और उनके दर्शन पर विश्वकाव्य रचने या फिर बुद्ध एवं सीता पर विस्तारपूर्वक साहित्य-सर्जन करने की उनकी सारी इच्छाएँ और योजनाएँ धरी की धरी रह गईं।

सचमुच शताब्दियों बाद दिनकर जैसी महान् और विरल प्रतिभाएँ जन्म लिया करती हैं; जिनका व्यक्तित्व, जिनकी शख्सियत, जिनका लेखकीय संघर्ष, जिनकी लेखनी, जिनकी सृजनक्षमता, जिनकी गुणवत्ता और जिनका अवदान अपने आप में एक शाश्वत् और चिरंतन कहानी बन जाती है।

सदियों बाद जिस प्रकार कवि वाल्मीकि, महर्षि व्यास, लोकनायक तुलसीदास, महाकवि सूरदास, संत कबीर आज भी अमर हैं; उसी प्रकार राष्ट्रकवि दिनकर और उनकी ‘राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना’ युगों-युगों तक जीवित एवं अमर रहेंगी। उनका नाम हिंदी साहित्य के स्वर्णिम अध्याय में युगों-युगों तक जिंदा रहेगा। राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना से सम्पृक्त दिनकर- साहित्य, वस्तुतः : हिंदी-साहित्य की एक ऐसी अमूल्य थाती है, जिस पर पूरे राष्ट्र को गौरव है।

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