घनानंद के काव्य की विशेषताएँ
घनानंद के काव्य की विशेषताएँ (Ghananand Ke Kavya Ki Visheshtaen): आज के आर्टिकल में हम हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के अन्तर्गत घनानंद के काव्य की विशेषताओं पर सम्पूर्ण जानकारी शेयर करेंगे।
घनानंद के काव्य की विशेषताएँ
घनानंद हिंदी साहित्य के अन्तर्गत रीतिकाल के रीतिमुक्त या स्वच्छंद काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। घनानंद दिल्ली के बादशाह मुहम्मद शाह के मीर मुंशी थे। घनानंद का सुजान नामक स्त्री से अटूट प्रेम था। सुजान की विरह-व्यथा में उन्होंने काव्य-रचनाएँ की, इसलिए उन्हें ’प्रेम पीर के कवि’ कहा जाता है। उनके काव्य में प्रेम की विरह-व्यथा का वर्णन किया गया है।
घनानन्द के काव्य की विशेषताओं को इस प्रकार समझा जा सकता है –
1. घनानन्द की स्वछंद-योजना –
रीतिमुक्त काव्यधारा के कवि ठाकुर ने रीतिबद्ध कवियों की रचना-प्रकृति और उनकी रूढ़िवादी मनोवृत्ति का उपहास करते हुए कहा था –
सखि लीनो मीन मृग खंजन कमल नैन,
सीखि लीनो जस औ प्रताप की कहानी है।
डेल सो बनाये आय मेलत सभी के बीच,
लोगन कवित्त कीबो खेल करि जानो है।
रीतिबद्ध कवियों ने कवि-वर्णन परिपाटी में गिनाई हुई बातों को सीखकर काव्य-रचना की प्रणाली अपना ली थी और वे कवि बनने लगे थे तथा उन्हें राजसभा में आदर भी प्राप्त होने लगा था। फलस्वरूप कवि-कर्म ‘खेल’ या ‘क्रीड़ा-कौशल’ की तरह अभ्यास सिद्ध कार्य बन गया था और उनका काव्य काव्यशास्त्र के चौखटे में आबद्ध हो गया था। काव्य में ‘अन्त:प्रेरणा’ और ‘आत्मानुभूति’ के समावेश के लिए बहुत कम अवकाश रह गया था। रीतिबद्ध कवियों की इस मनोवृत्ति पर कटाक्ष करते हुए घनानन्द ने लिखा था –
यों घनआनन्द छावत भावत जान सजीवन ओर तें आवत।
लोग हैं लागि कवित बनावत, मोहि तो मेरे कवित्त बनावत।।
इस सवैये में घनानंद (Ghananand) ने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया है कि “लोग अर्थात् रीति कवि लगकर, जोड़-तोड़कर कविता बनाते हैं; किन्तु मैंने अपनी कविता का नहीं, वरन् मेरी कविता ने ही मेरा निर्माण किया है।” तात्पर्य यह है कि घनानंद का काव्य उनकी जीवनानुभूति का सहज-स्वच्छंद प्रकाशन है। घनानंद एक ऐसे युग के कवि हैं, जिनमें अधिकांश कवियों की निजी विशेषताओं का सर्वथा अभाव दिखाई देता है। धनानंद एक स्वछंद प्रेमी के रूप में हमारे सामने आते हैं।
रीतिकाल की रीतिमुक्त स्वछंद- काव्यधारा की अपनी सामान्य विशेषताओं के बावजूद घनानंद अपनी निजी विशेषताएँ रखते हैं, जिन्हें भाव, भाषा-शिल्प इत्यादि सभी क्षेत्रों में आसानी से देखा जा सकता है। घनानंद रीतिमुक्त अथवा स्वछंद काव्यधारा के सर्वोत्तम कवि हैं। इस उत्तमता का आधार उनकी निजी विशेषताएँ हैं; जिसकी ओर संकेत करते हुए घनानंद के कविमित्र और उनके प्रशस्तिकार ब्रजनाथ ने लिखा है –
बिनती कर जोरि कै बात कहौं, जौ सुनौ मन कान दै हेत सों जू।
कविता घनानंद की न नोसे पहचान नहिं उहि खेत सो जूँ।।
ब्रजनाथ ने घनानंद के विषय में आगे लिखा है कि –
नेही महा ब्रजभाषा प्रवीन और सुंदरतानि के भेद को जानै।
जोग वियोग की रीति में कोबिद भावना भेद सरुप को ठाने।।
ब्रजनाथ का मत है कि घनानंद की कविता को वही समझ सकता है, जिसके पास हृदय की आंखें हो अर्थात् जिसमें आत्मानुभव और स्वानुभूति हो।
घनानंद का काव्य वियोग प्रधान काव्य है, जो स्वानुभूति के धरातल पर प्रतिष्ठित है। इनकी वेदना का केन्द्र कोई नायक-नायिका न होकर कवि का आत्म या स्व है। इसके कारण घनानंद के प्रेम का पीर कुछ विलक्षण हो गया है।
घनानन्द अपने व्यक्तिगत जीवन में प्रेममार्ग के धीर पथिक रहे हैं और प्रिय की लाख उपेक्षा, निष्ठुरता के बावजूद एकनिष्ठ भाव से दगादार से यारी ही नहीं की है; बल्कि स्वयं दुःख सहकर भी ‘प्रिय के प्रति मंगलकामना का ‘भाव’ प्रकट किया है। देखें –
नित नीके रहौ तुम्हें चाड़ कहा। पै असीस हमारियौ लीजियै जू।
घनानंद का प्रेम-वर्णन स्वानुभूत सत्य है, जिसमें विषम प्रेम की पीड़ा की छटपटाहट है। उनका प्रेम अंत में लौकिक से अलौकिक बन जाता है। घनानंद के प्रेम की कसौटी मीन, पतंग, चातक इत्यादि नहीं; बल्कि प्रेम की चरम अवस्था में ज्ञाता और ज्ञेय की एकता के समान प्रिय और प्रिया का । एक हो जाना है। शुक्ल जी के शब्दों में “प्रेम की गूढ़ अंतर्दशा का उद्घाटन। जैसा घनानंद में है, वैसा हिन्दी का अन्य श्रृंगारी कवि में नहीं।”
रीतिमुक्त कवि धनानंद का प्रेम रीतिकालीन कवियों से सर्वथा पृथक है। घनानंद के प्रेम में स्थूलता के स्थान पर सूक्ष्मता, शारीरिकता के स्थान पर अनुभूति, बाह्यता के स्थान पर आंतरिकता और भोगवाद के स्थान पर भावुकता की प्रधानता है, जो उन्हें स्वछंदतावादी कवि बनाने में पूर्णतः सक्षम है। धनानंद का आलंबन प्रेयसी ‘सुजान’ है।
घनानंद ने सौंदर्य देखा था, प्रेम किया था और अंत में विरह की असह्य वेदना भोगी थी। घनानंद का प्रेममार्ग अत्यन्त सरल है, जिसमें तनिक भी चतुरता या सयानापन अथवा बाँकपन नहीं है।
अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानपन, बाँकपन नहीं।
वस्तुतः स्वच्छन्दतावादी कवि घनानंद के प्रेम की पीड़ा, अंतःप्रेरणा, नेह बौराई, मौन मधि पुकार, संयोग में भी वियोग की कसक है। इसे वही समझ सकता है जिसके पास हृदय की आँखें हों। ब्रजनाथ के शब्दों में कहा जा सकता है कि –
1. समुझै कविता घनआनंद की हिय आँखिन नेह की पीर तकी।
2. प्रेम की चोट लगी किन आँखिन सोइ लहै कहा पंडित होय कै।
‘लल्लन राय’ ने बिल्कुल सही लिखा है कि- “घनानंद के प्रेम में स्वछंदता, परम साहसिकता, घोर रूपासक्ति, गहरी तन्मयता, भावना मूलकता, निष्कामता इत्यादि मुख्य विशेषताएँ हैं। प्रेम की अन्यान्य विभूतियाँ घनानंद के विषम प्रेम को सिंचित कर उसे एक अभिनव आचार से जोड़ती हैं। “.
भाव-विधान के साथ-साथ रूपविधान या शिल्प-सौष्ठव की दृष्टि से भी घनानंद स्वछंदतावादी कवि के निरूपण में बिल्कुल खरे उतरते हैं। लल्लन राय के शब्दों में “भाव-विधान के साथ ही घनानंद ने रूपविधान या शिल्प की दृष्टि से भी रीतिबद्ध कवियों से पार्थक्य दिखाया है। रीतिबद्ध कवियों ने कवि-वर्णन परिपाटी के अन्तर्गत स्वीकृत उपमानों के प्रयोग द्वारा भावों को एक प्रकार से जकड़ दिया था। घनानंद के काव्य में इस प्रकार रीतिबद्धता के विरोध का स्वर स्थान-स्थान पर व्यंजित हुआ है।”
भाषा-शैली की दृष्टि से भी घनानंद ने स्वच्छंद भावों का परिचय दिया है। उन्होंने रीतिबद्धता की लकीर न पीटकर अपने भावों को सजी-सँवरी अत्यन्त व्यंजक, लोकोक्ति, मुहावरों से युक्त व्याकरणसम्मत ब्रजभाषा, चित्रोपम एवं लाक्षणिक विशेषण, सूक्ष्म भावों का सम्मूर्तन, विरोधाभास एवं विरोध वैचित्र्य, प्रयोग वैचित्र्य इत्यादि अनेक दृष्टियों से भाषा को नवीन रूप प्रदान किया है। घनानंद सचमुच ‘भाषा-प्रवीण’ थे। स्वानुभूति चित्रण के लिए भाषा कैसी चाहिये; भाषा में मधुरता, कोमलता और मिठास कैसे आनी चाहिये, इसे वे खूब जानते थे।
घनानंद की शैली उनके व्यक्तित्व के अनुरूप थी। स्वछंद प्रेम के उन्मुक्त गायक घनानंद ने भाव-मुक्तक शैली अपनायी थी। मुक्त छंदों को मिलाकर एक कथा का ढाँचा खड़ा करने में घनानंद का कोई सानी नहीं है। शुक्ल जी के शब्दों में घनानंद के विषय में कहा जा सकता है कि- “प्रेम की पीर को लेकर ही इनकी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबाँदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।”
2. घनानंद प्रेम के पीर के कवि थे –
प्रेम की पीर के कवि ‘घनानंद’ के काव्य की मूल संवेदना प्रेम है, जिसका आलंबन प्रेयसी ‘सुजान’ है। धनानंद ने सौंदर्य देखा था, प्रेम किया था और अंत में बिरह की असहा वेदना पृथक भोगी थी। रीतिमुक्त कवि घनानंद का प्रेम रीतिबद्ध कवियों के प्रेम से पृथक है; जिसमें स्थूलता के स्थान पर सूक्ष्मता, शारीरिकता के स्थान पर अनुभूति, बाह्यता के स्थान पर आंतरिकता और भोगवाद के स्थान पर भावुकता की प्रधानता है।
घनानंद का प्रेममार्ग अत्यन्त सरल है, जहाँ तनिक भी चतुरता और बांकपन नहीं –
अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानपन, बाँकपन नहीं।
घनानन्द का प्रेम स्वछंद प्रेम है; जो परम साहसिकता, पोर रूपासक्ति, अनन्यता, गहरी तन्मयता और भावनामूलकता इत्यादि विशेषताओं से ओत-प्रोत है। देखें –
1. जब तें निहारे घनानंद सुजान प्यारे,
तब तें अनोखी आगि लागि रही याद की। (घोर रूपासक्ति)
2. इत एकते दूसरो आंक नहीं। (अनन्यता)
पनानंद का प्रेम-वर्णन स्वानुभूति सत्य है, जिसमें विषम प्रेम का पीड़ा की छटपटाहट है। इसे घनानंद ने ‘मौन मधि पुकार’ की संज्ञा दी है। घनानंद के प्रेम की सर्वाधिक विलक्षण स्थिति प्रिय से मिलन पर भी अतृप्ति और संयोग में भी वियोग का भय है। देखें-
यह कैसी संजोगन बूझि परै जु वियाग न क्यों हू बिछोहत है।
घनानंद के प्रेम में स्वयं दुःख सहकर भी प्रिय के प्रति मंगलकामना का भाव व्यक्त हुआ है। प्रेम की यह उदात्त भूमि है। उनका प्रेम अंत में लौकिक से अलौकिक बन जाता है। घनानंद के प्रेम की कसौटी मीन, पतंग, चातक नहीं बल्कि प्रेम की चरम अवस्था में ज्ञाता और ज्ञेय की एकता के समान प्रिय और प्रिया का एक हो जाना है। शुक्लजी के शब्दों में- “प्रेम की गूढ़ अंतर्दशा का उद्घाटन जैसा घनानंद में है, वैसा हिन्दी के अन्य शृंगारी कवि में नहीं।”
प्रेम और श्रद्धा के योग का नाम भक्ति है (शुक्ल, चिन्तामणि)। घनानंद का हृदय लौकिक प्रेम में अनुरक्त था; किंतु सुजान की निष्ठुरता, निर्दयता, विश्वासघात और कपट व्यवहार ने उस लौकिक प्रेम को अलौकिक प्रेम की ओर मोड़ दिया।
घनानंद जितने उच्च कोटि के प्रेम के धीर पथिक थे; उतने ही उच्च कोटि के भक्त थे। चूँकि घनानंद की लौकिक प्रेमासक्ति अलौकिक प्रेमासक्ति में परिणत हो गई थी, इसलिए उनकी भक्ति में ‘रागानुगा भक्ति’ की प्रधानता है –
राधा की जूठनि ही जियो। राधा की प्यासनि ही पियौ।
घनानंद ने कृष्ण और राधा की भक्ति की है। घनानंद की भक्ति में माधुर्यभाव की भक्ति प्रबल रूप से विद्यमान है –
मीत सुजान मिले को महा सुख अंगनि भोय समोह रहयो है।
घनानंद की भक्ति में ‘आराध्य के प्रति अनन्यता और गहन आस्था’ सहज भाव से देखा जा सकता है। देखें –
तुमही गति हौ तुम ही मति हौ, तुम ही पति हौ अति दीनन की।
निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षित घनानंद ने किसी भक्ति-मार्ग का अवलंबन नहीं किया था; उनकी भक्ति परम प्रेमरूपा थी। उनकी भक्ति की सर्वप्रमुख विशेषता भक्त और भगवान के बीच अंतर का मिट जाना है। घनानंद की वैराग्य की प्रधानता, महत्ता और ब्रज की श्रेष्ठता भी प्रतिपादित हुई है।
समासतः, कहा जा सकता है कि घनानंद प्रेम की पीर के कवि थे। घनानंद का काव्य उनके जीवन की विषमजन्य प्रेम और वेदना की मर्मान्तक अभिव्यक्ति है। एकनिष्ठ भाव, सर्वस्व समर्पण, परम साहसिकता, घोर आसक्ति, तन्मयता, भावना मूलकता, निष्कामता इत्यादि घनानंद की प्रेम-पद्धति की मुख्य विशेषताएँ हैं। अन्यान्य रीतिबद्ध कवियों की भाँति घनानंद ने अपने काव्य में सिर्फ प्रेम का चित्रण नहीं किया है; बल्कि अपने जीवन में भी ये प्रेममार्ग के धीर पथिक थे।
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