छायावाद की विशेषताएं

छायावाद की विशेषताएं – अर्थ, परिभाषा और प्रवृत्तियां

छायावाद (Ekanki Ke Tatva Bataiye): छायावाद आधुनिक हिंदी-कविता की उस धारा का नाम है, जो सन् 1918 ई. से 1936 ई. तक हिंदी-काव्य की प्रमुख प्रवृत्ति रही। वैयक्तिकता, भावुकता, काल्पनिकता, नवीन सौंदर्य बोध, प्रकृति का सूक्ष्म चित्रण, गीतात्मकता इत्यादि छायावाद की मुख्य विशेषताएँ थीं। छायावाद के नामकरण एवं परिभाषा के संबंध में बड़ा ऊहापोह है।

छायावाद का क्या अर्थ है ?

शुक्ल जी ने छायावाद का संबंध अंग्रेजी के ‘फैंटसमेटा’ (Phantasmata) से जोड़ा, नंददुलारे वाजपेयी ने इसका संबंध ‘युगबोध से जोड़ते हुए इसे आध्यात्मिक छाया का भान’ कहा। मुकुटधर पाण्डेय ने इसे कविता न मानकर उसकी छाया माना। इसी प्रकार सुशील कुमार ने इसे कोरे काग़ज की भाँति अस्पष्ट, निर्मल ब्रह्म की विशद छाया, वाणी की नीरवता इत्यादि-इत्यादि कहा।

सांकेतिक सूक्ष्म अभिव्यक्ति के कारण आज छायावाद उस सशक्त काव्यधारा के लिए प्रयुक्त होता है, जिसकी अवधि महज 18- 20 वर्ष है; पर जो जीवन और काव्य के प्रति नई दृष्टि अपनाने तथा विषय, भाव, भाषा, शिल्प के क्षेत्र में क्रांति लाने के कारण एक सशक्त आन्दोलन सिद्ध हुआ।

छायावाद की परिभाषा

(1) रामचंद्र शुक्ल – छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिये। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में और दूसरा काव्य शैली या विशेष के व्यापक अर्थ में।

(2) डॉ. रामकुमार वर्मा – ‘जब परमात्मा की छाया आत्मा पर पड़ने लगे और आत्मा की छाया परमात्मा पर तो यही छायावाद है।’

(3) नंददुलारे वाजपेयी – ‘छायावाद मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान है।’

(4) जयशंकर प्रसाद – कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगे, तब हिंदी में उसे छायावाद से अभिहित किया गया।

छायावाद की विशेषताएं

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1. वैयक्तिकता –

छायावाद युग में कवियों का विषय हो गया था- ‘आत्मकथा’ और शैली ‘मैं’। पंत का ‘उच्छ्वास’, प्रसाद का आँसू, निराला के ‘विप्लवी बादल’ और ‘सरोज स्मृति’ इसी वैयक्तिकता के अग्रदूत हैं। छायावादी कविता में जिस ढंग से निजी बातें एकदम खरे रूप में कही गईं, पहले कभी नहीं।

‘मैं तो अबाध गति मरुत सदृश हूँ चाह रहा अपने मन की।’

2. नवीन सौंदर्य बोध –

छायावादी कवियों ने नारी सौंदर्य के रीतिकालीन प्रतिमानों को ध्वस्त करते हुए नारी को अपमान के पंक और वासना के पर्यंक से उठाकर देवी, प्राण और सहचरी के उच्च आसन पर प्रतिष्ठित किया। पंत ने नारी को ‘देवी, माँ, सहचरी प्राण’ कहा तो निराला ने विधवा को ‘इष्टदेव के मंदिर की पूजा-सी’ कहा। प्रसाद ने नारी को आदर्श श्रद्धा में देखा।

“नील परिधान बीच सुकुमार खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघवन बीच गुलाबी रंग।‘’ (कामायनी)

छायावादी कवियों का नवीन सौंदर्य बोध प्रकृति-चित्रण में भी परिलक्षित हुआ। पंत अपने चित्रण के लिए विशेष प्रसिद्ध हुए।

3. स्वछंद कल्पना –

यह छायावादी कवियों के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थी। कल्पना छायावादी कवियों के ‘मन की पाँख’ थी, वह उसकी स्वतंत्रता, मुक्ति, विद्रोह, आनंद इत्यादि आकांक्षाओं की प्रतीक थी। कल्पना छायावादी कवियों की ‘राग शक्ति’ थी, तो ‘बोध शक्ति’ भी।

4. अन्य विशेषताएँ –

भावुकता (यह छायावाद का पर्याय हो गई), जिज्ञासा (प्रथम रश्मि का आना रंगिणि तूने कैसे पहचाना), रहस्यात्मकता (निमंत्रण देता मुझको कौन?), वेदना की अभिव्यक्ति (मैं नीर भरी दुःख की बदली – महादेवी), दुःख ही जीवन की कथा रही (निराला) इत्यादि छायावाद की अन्य विशेषताएँ थीं।

5. कोमलकांत पदावली, संगीतात्मकता, चित्रात्मकता, अनूठी उपमाओं और प्रतीकों का प्रयोग छायावाद की शिल्पगत प्रवृत्तियाँ थीं। इसके अतिरिक्त छंद के क्षेत्र में मुक्तछंद का प्रयोग (जैसे-जूही की कली), अलंकार के क्षेत्र में मानवीकरण एवं विशेषण-विपर्यय इन दो नए अलंकारों का प्रयोग छायावाद की मुख्य विशेषताएँ थीं।

यथा –

1. मेघमय आसमान से उतर रही वह, संध्यासुंदरी परी सी धीरे-धीरे। (मानवीकरण)
2. तुम्हारी आँखों का बचपन ! खेलता जब अल्हड़ खेल (विशेषण विपर्यय)।

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