रीतिसिद्ध काव्य धारा क्या है ?

रीतिसिद्ध काव्य धारा क्या है(Riti Siddh Kavya Dhara): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में रीतिसिद्ध काव्य धारा पर जानकारी शेयर करेंगे।

रीतिसिद्ध काव्य धारा – Riti Siddh Kavya Dhara

ऐसा काव्य जो अलंकार, रस, गुण, ध्वनि, नायिका-भेद इत्यादि काव्यशास्त्रीय प्रणाली पर रचा जाये, वह रीतिकाव्य कहलाता है। रीतिकाव्य को 3 भागों में बाँटा गया है – (i) रीतिबद्ध (ii) रीतिसिद्ध और (iii) रीतिमुक्त।

रीतिसिद्ध काव्य धारा क्या है ?

रीतिकाव्यधारा की 3 कोटियों में एक कोटि ‘रीतिसिद्ध काव्य’ से अभिप्राय ऐसे काव्य से है, जिसमें लक्षण तो नहीं मिलते हैं; किंतु इनमें काव्यशास्त्रगत सभी विशेषताएँ समाविष्ट हैं। रीतिसिद्ध कवियों ने लक्षणग्रंथ तो नहीं लिखा, परंतु उनका आधार लेते हुए उत्कृष्ट रचनाएँ कीं।

रीतिसिद्ध काव्य वह है जिनमें लक्षण तो नहीं मिलता, परंतु उनमें रीतिकालीन परंपराओं का पूरा निर्वाह हुआ है तथा उसमें भावपक्ष एवं कलापक्ष का पूरा समन्वय है।

रीतिसिद्ध काव्य धारा के कवि – Riti Siddh Kavya Dhara ke Pramukh Kavi

  • बिहारीलाल (सर्वोपरि)
  • बेनी
  • रसनिधि
  • विक्रमसाहि
  • राजा मानसिंह
  • रामसहाय

रीतिबद्ध काव्यधारा की विशेषताएं

(1) शृंगारिकता – रीतिसिद्ध कवि बिहारी श्रृंगारिक कवि थे। उनका श्रृंगार वर्णन अनूठा था। उन्हें संयोग श्रृंगार में जितनी सफलता मिली है।

वियोग श्रृंगार में नहीं –

बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय। (संयोग श्रृंगार)

सौंह करे, भौंहन हँसे, देन कहे नटि जाई।।

(2) भक्ति-नीति – बिहारी का काव्य श्रृंगार, भक्ति एवं नीति की त्रिवेणी है। बिहारी सतसई का यह (मंगलाचरण) दोहा उनकी भक्ति का विशिष्ट दोहा है –

मेरी भव बाधा हरी, राधा नागरि सोय।

जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय।।

रीतिसिद्ध कवियों में बेनी, बिहारी इत्यादि ने उत्कृष्ट नीति-काव्य भी लिखा है।

नहिं पराग, नहिं मधुर मधु नहिं विकास, इहि काला

अली कली ही सौं बंध्यो आगे कौन हवाल।

(3) ब्रजभाषा का प्रयोग, काव्य का स्वरूप मुक्तक, समासोक्ति शैली का प्रयोग, शब्द योजना में नाद-सौंदर्य, अलंकारों का बहुल प्रयोग दोहा छंद इत्यादि रीतिसिद्ध काव्य के सिरमौर कवि बिहारी के कलापक्ष की मुख्य विशेषताएँ थीं।

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निबंध की शैली कितने प्रकार की होती है ?

निबंध की शैलियाँ(Nibandh ki Shailiyan): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में हिंदी निबंध की शैलियाँ पर जानकारी शेयर करेंगे।

निबंध की शैलियाँ – Nibandh Ki Shailiyan

हिंदी निबंध की प्रमुख शैलियाँ समास शैली, व्यास शैली, तरंग शैली, धारा शैली ,विक्षेप और प्रलाप शैली होती है हिंदी निबंध के मुख्यत: पांच तत्त्व होते है।

हिंदी निबंधों की 5 प्रमुख शैलियाँ हैं –

  1. समास शैली
  2. व्यास शैली
  3. तरंग शैली
  4. धारा शैली
  5. विक्षेप एवं प्रलाप शैली

(1) समास शैली

समास प्रधान शैली वह होती है, जिसमें विचारों के विस्तार को संक्षिप्त रूप में प्रकट किया जाता है। इसमें वाक्य सुगठित, परिमार्जित तथा भावविचार सुगुम्फित एवं अलंकृत होता है। विचारात्मक निबंधों में इस शैली का प्रयोग होता है। शुक्ल जी के मनोविकारों से संबंधित निबंधों (यथा—लज्जा, ग्लानि, उत्साह, लोभ- प्रीति इत्यादि) में इस शैली के दर्शन होते हैं।

(2) व्यास शैली

व्यास प्रधान शैली वह होती है, जिसमें विचारों एवं भावों को सरल-सहज शब्दावली में समझा-बुझाकर प्रस्तुत किया जाता है। सुबोधता एवं प्रसाद गुण इस शैली की मुख्य विशेषता है। वर्णनात्मक एवं विवरणात्मक निबंधों में व्यास शैली अपनायी जाती है।

(3) तरंग शैली

तरंग शैली में भाव लहराते हुए से प्रतीत होते हैं। तरंग की भाँति वे उठते और गिरते प्रतीत होते हैं। यह धारा शैली एवं विक्षेप शैली के बीच की शैली है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का मत है। कि “वह भावाकुलता की उखड़ी खड़ी शैली है, जिसका मुख्य गुण पाठकों के हृदय को आंदोलित करना भर है।”

हजारी प्रसाद द्विवेदी के ललित निबंधों (कल्पलता, अशोक के फूल) तथा डॉ. रघुवीर सिंह की ‘शेष स्मृतियाँ’ कृति में इस शैली का सुंदर प्रयोग मिलता है।

(4) धारा शैली

भावनात्मक एवं ललित निबंधों में धारा शैली का प्रयोग होता है। धारा शैली में भावों की धारा निरंतर प्रवाहमान होकर प्रायः एक गति से चलती है। वस्तुतः, इसमें भावना का आवेग समान स्तर और समान गति में विन्यस्त होता है। सरदार पूर्ण सिंह के निबंध (मजदूरी और प्रेम, सच्ची वीरता, आचरण की सभ्यता) इस शैली के उदाहरण है।

(5) विक्षेप एवं प्रलाप शैली

विक्षेप एवं प्रलाप शैली का प्रयोग आत्मपरक एवं भावात्मक निबंधों में होता है। विक्षेप शैली में भावों की धारा कुछ-कुछ उखड़ती हुई रहती है। इसमें तारतम्य एवं नियंत्रण का अभाव रहता है। प्रलाप शैली की भावाभिव्यक्ति में तीव्रता के साथ-साथ कुछ रूक्षता भी रहती है।

अन्य शैली इन प्रमुख शैलियों के अतिरिक्त हिंदी निबंध में व्यय शैली (बालकृष्ण भट्ट, बालमुकुन्द गुप्त, हरिशंकर परसाई), आलोचनात्मक शैली (आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी), आलंकारिक शैली, प्रतीकात्मक, बिम्बात्मक, चित्रात्मक, संवाद शैली इत्यादि विविध शैलियां प्रयोग में लायी जाती हैं।

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निबंध के तत्व कितने होते हैं ?

निबंध के तत्व(Nibandh ke Tatva): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में निबंध के तत्व पर जानकारी शेयर करेंगे। निबंध के प्रमुख तत्त्व वैचारिकता, वैयक्तिकता ,शैली, और समाहारिता होते है।

निबंध के तत्व – Nibandh ke Tatva

निबंध के वैसे कोई सर्वसामान्य तत्त्व निर्धारित नहीं किये जा सकते जैसे कि साहित्य की अन्य विधाओं के तत्त्व स्पष्ट रूप से निर्धारित हो जाते हैं।

निबंध-सृजन के निम्नांकित तत्त्व हो सकते हैं –

  1. वैचारिकता
  2. वैयक्तिकता
  3. शैली
  4. समाहारिता

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(1) वैचारिकता

वैचारिकता निबंध का प्रथम तत्त्व है। निबंध में जिस विचार तत्त्व की प्रधानता होती है, वह विचार तत्त्व भाव का स्पर्श लिए हुए होता है। निबंध की वैचारिकता निबंधकार की आत्मगत वैचारिकता होती है।

(2) वैयक्तिकता

वैयक्तिकता को निबंध का द्वितीय मुख्य तत्त्व कहा जा सकता है। निबंध का मूलाधार यदि विचार है तो विचार का मूलाधार निबंधकार की वैयक्तिकता है। निबंध में वैयक्तिकता से अभिप्राय निबंधकार का वह विषयगत रूप है जो उसके पूरे वैचारिक धरातल पर खड़ा है।

(3) शैली

निबंध में जितना महत्त्व वैचारिकता और वैयक्तिकता का है, उतना ही महत्त्व शैली का भी है। साहित्य की सभी विधाओं में निबंध एक ऐसी विधा है जो पूर्णतया शैली आश्रित है। उत्कृष्ट शैली का मुख्य आधार शब्द चयन और अद्भुत कसाव है, जिसके आधार पर निबंध एक सुगठित रचना बनता है।

(4) समाहारिता

समाहारिता निबंध का एक प्रमुख तत्त्व है। यह समाहार वैचारिकता, वैयक्तिकता और शैली की सानुपातिकता का दूसरा नाम है। निबंध लेखन में निबंधकार की एक आँख निरन्तर तात्त्विक समाहार पर टिकी रहनी चाहिए, नहीं तो निबंध ‘उच्छृंखल बुद्धि विलास’ बनकर रह जायेगी।

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ललित निबंध किसे कहते है ?

ललित निबंध किसे कहते है(Lalit Nibandh Kise Kahate Hain): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में ललित निबंध पर जानकारी शेयर करेंगे।

ललित निबंध किसे कहते है – Lalit Nibandh Kise Kahate Hain

विगत कुछ वर्षों में निबंध के ही कलात्मक रूप पर विशेष देते बल हुए ललित निबंधों की रचना हुई, जिनमें विषयवस्तु एवं विचारों के सुव्यवस्थित प्रतिपादन के स्थान पर निजी चिंतन एवं अनुभूति को स्वच्छंदतापूर्वक ललित शैली में व्यक्त किया गया। शैली के लालित्य के कारण ही इन्हें ललित निबंध कहा जाता है।

ललित निबंध की विशेषताएँ

ललित निबंध की विशेषताएँ निम्न हैं –

  • ललित निबंध में विचार की अपेक्षा अनुभूति का महत्त्व होता है।
  • कल्पना की प्रधानता पर बल होता है न कि तथ्य पर।
  •  विषयवस्तु के प्रतिपादन के स्थान पर आत्मव्यंजना का आग्रह ललित निबंध की मुख्य विशेषता है।
  • शैली में लालित्य होता है।

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हिंदी के प्रमुख ललित निबंधकार

हिंदी के प्रमुख ललित निबंधकारों में निम्नांकित प्रमुख हैं –

  • कुबेरनाथ राय – प्रिय नीलकंठी, निषाद योग, निषाद बाँसुरी, कामधेनु
  • विद्या निवास मिश्र – तुम चंदन हम पानी, मेरे राम का मुकुट भीग रहा है।
  • कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर – जिंदगी मुस्कराई, दीपजले शंख बजे।
  • हजारी प्रसाद द्विवेदी – कल्पलता, अशोक के फूल निबंध संग्रह।

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निबंध कितने प्रकार के होते है ?

निबंध के प्रकार(Nibandh Ke Prakar): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में निबंध के प्रकार पर जानकारी शेयर करेंगे।

निबंध के प्रकार – Nibandh Ke Prakar

निबंध के प्रकार वर्णनात्मक निबंध, विवरणात्मक निबंध, विचारात्मक निबंध औरभावात्मक निबंध होते है निबंध के मुख्यत: चार प्रकार होते है।

निबंध की परिभाषा :

नि+बंध = निबंध का अर्थ – रोकना या बाँधना है तथा इसके पर्यायवाची के रूप में लेख रचना, संदर्भ, प्रस्ताव इत्यादि शब्द प्रयुक्त होते. हैं। आजकल इसका प्रयोग लैटिन के ‘एग्जीजियर’ (निश्चिततापूर्वक परीक्षण करना) से उत्पन्न ऐसाई (फ्रेंच) व ऐसे Essay (अंग्रेजी) के अर्थ में होता है। संस्कृत में निबंध का समानार्थी शब्द ‘प्रबंध’ है, जिसका मूल अर्थ प्र (प्रकर्ष से) बंध+अन् (बाँधना) अर्थात् सुगुंफित ग्रंथ या रचना होता है।

आधुनिक निबंध के जन्मदाता मौनतेन के अनुसार – निबंध विचारों, उद्धरणों, कथाओं इत्यादि का मिश्रण है। जॉनसन महोदय के अनुसार -“निबंध मन का आकस्मिक और उच्छृंखल आवेग असम्बद्ध और चिंतनहीन बुद्धि विलास मात्र है। आचार्य शुक्ल जी की दृष्टि में निबंध वही है जिसमें व्यक्तित्व या व्यक्तिगत विशेषता है। आत्म प्रकाशन ही निबंध का प्रथम एवं अंतिम लक्ष्य है।

निबंधों को निम्नांकित 4 भागों में विभक्त करते हैं –

  1. वर्णनात्मक निबंध
  2. विवरणात्मक निबंध
  3. विचारात्मक निबंध
  4. भावात्मक निबंध

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(1) वर्णनात्मक निबंध –

वर्णनात्मक निबंध में वर्णन की प्रधानता होती है। इसमें निबंधकार वस्तु को स्थिर होकर देखता है। इसका संबंध अधिकतर देश से होता है, जिसमें कल्पना तत्त्व की भी प्रधानता होती है।

वर्णनात्मक निबंध पटना की अपेक्षा दृश्य आश्रित होते हैं। इसमें व्यास शैली अपनायी जाती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अधिकांश निबंध वर्णनात्मक निबंध हैं।

(2) विवरणात्मक निबंध –

वर्णनात्मक निबंध में देश की प्रधानता होती है, तो विवरणात्मक निबंधों में काल की प्रधानता स्थान पाती है। यह निबंध प्रायः शिकार, पहाड़ की चढ़ाई, कष्टसाध्य यात्रा, ऐतिहासिक घटनाओं, साहसिक कार्यों इत्यादि से संबंधित होता है, इसलिए इसमें कथात्मकता का अंश आ जाता है।

काल्पनिकता, प्रवाहशैली, आत्मकथात्मक शैली, भावात्मकता और कथात्मकता विवरणात्मक निबंध के मूल तत्त्व हैं। श्रीराम शर्मा एवं सियारामशरण गुप्त के निबंध इस कोटि के हैं।

(3) विचारात्मक निबंध –

विचार प्रधान निबंध विचारात्मक निबंध होते हैं। इसमें भावतत्त्व की अपेक्षा बुद्धि तत्त्व की प्रधानता होती है। विचारात्मक निबंध के केन्द्र में कोई साहित्यिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, आध्यात्मिक इत्यादि कोई भी विचार या समस्या होती है।

विचारात्मक निबंध को आलोचनात्मक, गवेषणात्मक तथा विवेचनात्मक निबंध भी कहते हैं। विचारात्मक निबंध में व्यास तथा समास शैली होती है। शुक्ल जी के कई निबंध इस कोटि के हैं।

(4) भावात्मक निबंध –

भावात्मक निबंध में बुद्धितत्त्व गौण और भावों की प्रधानता होती है। मनोभावों के प्राधान्य से युक्त भावात्मक निबंध काव्यात्मकता का आभास देते हैं और कभी-कभी ऐसे निबंधों को गद्य काव्य भी कहते हैं।

चिंतामणि भाग 01 में शुक्लजी के अधिकांश निबंध भावात्मक हैं। रागात्मक तत्त्व की अधिकता से युक्त भावात्मक निबंधों की शैली धारा शैली, तरंग शैली, विक्षेप शैली होती है।

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एकांकी के तत्व कितने होते हैं

एकांकी के तत्व(Ekanki Ke Tatva Bataiye): आज के आर्टिकल में हम गद्य विधा में एकांकी के तत्त्व पर जानकारी शेयर करेंगे।

एकांकी के तत्व – Ekanki Ke Tatva

एकांकी के प्रमुख तत्त्व कथावस्तु,पात्र एवं चरित्र चित्रण,संवाद,देशकाल एवं वातावरण,अभिनेयता और उद्देश्य होते है एकांकी के मुख्यत: छ: तत्त्व होते है।

एकांकी की परिभाषा:

एक अंक वाला नाटक एकांकी नाटक या एकांकी कहलाता है। कहानी की भाँति एकांकी नाटक भी एक घटना, एक परिस्थिति और एक उद्देश्य से बनता है-हजारी प्रसाद द्विवेदी। नाटक और एकांकी में वही संबंध और अंतर है जो उपन्यास और कहानी में होता है। प्रभावोत्पादन की दृष्टि से एकांकी भी उतनी ही सफल नाट्य विद्या है जितना कि नाटक।

डॉ. रांगेय राघव प्रभृति विद्वान् एकांकी को पाश्चात्य One Act Play का हिंदी रूपान्तरण मानते हैं। हरिकृष्ण प्रेमी (मंदिर, बादलों के पार), विष्णु प्रभाकर (अशोक, इंसान, क्या वह दोषी थी, 12 एकांकी, प्रकाश और परछाई), लक्ष्मीनारायण मिश्र (मुक्ति का रहस्य, राजयोग), मोहन राकेश (अंडे के छिलके), भुवनेश्वर (कारवाँ, आदमखोर, इंस्पेक्टर जनरल), उदयशंकर भट्ट (आज का आदमी, जवानी और 6 एकांकी) हिंदी के प्रमुख एकांकीकार हैं।

एकांकी के निम्नांकित छ: तत्त्व माने गये हैं –

  1. कथावस्तु
  2. पात्र एवं चरित्र चित्रण
  3. संवाद
  4. देशकाल एवं वातावरण
  5. अभिनेयता
  6. उद्देश्य

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1. कथावस्तु

कथावस्तु एकांकी का अनिवार्य एवं मूल तत्व है, जिसके बिना एकांकी की कल्पना नहीं की जा सकती। एकांकी की कथावस्तु किसी एक घटना, प्रसंग, एक चरित्र, एक कार्य इत्यादि पर आधारित होती है। इसमें आधिकारिक अर्थात् मूल कथा ही होती है, प्रासंगिक कथाओं (गौण कथाओं) का इसमें स्थान नहीं होता है। एकांकी की कथा प्रारंभ होते ही सीधे लक्ष्य (चरम) की ओर अग्रसर होती है। आरम्भ, चरम एवं अंत ही एकांकी की कथावस्तु की अवस्थाएँ हैं। संक्षिप्तता, सांकेतिकता, मार्मिकता, कौतूहलता, मौलिकता, रोचकता एवं प्रभावान्विति एकांकी के अच्छे कथानक के मुख्य गुण हैं।

2. पात्र एवं चरित्र चित्रण

पात्र एवं चरित्र-चित्रण एकांकी का दूसरा प्रमुख एवं अनिवार्य तत्त्व हैं। एकांकी का फलक सीमित होता. है इसलिए इसमें कम-से-कम गिने-चुने पात्रों की योजना की जाती है। तथा पात्रों का चरित्र – चत्रिण भी रेखाचित्रात्मक स्वरूप में ही संभव हो पाता है। पात्रों का चरित्र-चित्रण एकांकी में जीवंत, विश्वसनीय, गतिशील एवं प्रभावशाली रूप में होना चाहिए ताकि प्रेक्षक उसे आसानी से पचा सके।

डॉ. रामकुमार वर्मा का मत है कि- “घटना से अधिक शक्तिशाली पात्र होते हैं। एकांकी में पात्र महारथी होता है। घटनाएँ रथ बनकर समस्या-संग्राम में उसे गति प्रदान करती हैं।” आज एकांकी में संघर्ष (मानव-जीवन की विभिन्न समस्याओं से उत्पन्न घात-प्रतिघात) को भी अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है और इसे भी एकांकी का एक अन्य तत्त्व माना जाने लगा है।

3. संवाद –

संवाद, कथोपकथन अथवा डायलॉग एकांकी का प्राणतत्त्व है। कथावस्तु एवं पात्रों के चरित्र-चित्रण की सफलता संवादों पर ही आधारित होते हैं। एकांकी के संवाद कथा-विकास एवं चरित्र-चित्रण के विकास में समर्थ होने चाहिए। संक्षिप्तता, रोचकता, ध्वन्यात्मकता, सजीवता, स्वाभाविकता इत्यादि विशेषताएँ भी एकांकी के संवादों में अपेक्षित हैं। संवादों की भाषा-शैली सरल, सहज, बोधगम्य एवं प्रवाहपूर्ण होनी चाहिए।

4. देशकाल एवं वातावरण

‘देश’ का तात्पर्य है- ‘स्थान’; ‘काल’ का अर्थ है- ‘समय’ एवं ‘वातावरण’ से अभिप्राय है— ‘परिवेश’। चूँकि एकांकी का ‘कैनवस’ लघु होता है, इसलिए इसमें देशकाल एवं वातावरण के विस्तृत विश्लेषण की गुंजायश नहीं होती, सिर्फ एकांकी में इसका आभास मात्र होता है।

5. संकलन-त्रय –

एकांकी में संकलन-त्रय (स्थान, समय एवं कार्यघटना की एकता) का निर्वाह एकांकी में सौंदर्य की सृष्टि हेतु आवश्यक है। डॉ. रामकुमार वर्मा, विष्णु प्रभाकर सरीखे प्रसिद्ध एकांकीकार एकांकी में संकलन-त्रय का निर्वाह आवश्यक मानते हैं जबकि डॉ. नगेन्द्र सरीखे आलोचकों की यह मान्यता है कि एकांकी में संकलन-त्रय के प्रति अधिक आग्रह नहीं होना चाहिए।

6. अभिनेयता

अभिनेयता एकांकी का वह केन्द्रीय तत्त्व है जिसकी मंच पर अभिनीत होने में है। चूंकि एकांकी दृश्यकाव्य है, इसलिए एकांकी अभिनेय होता है। एकांकी में अभिनय के चारों प्रकारों – आंगिक, वाचिक, आहार्य एवं सात्त्विक का प्रयोग होता है।

7. उद्देश्य

‘उद्देश्य’ एकांकी का अंतिम वह तत्त्व है, जिसकी प्रेरणा से वशीभूत होकर कोई एकांकीकार ‘एकांकी’ का सृजन करता है। रसास्वादन, आनंदोपलब्धि, किसी समस्या का समाधान, मानव जीवन की एक स्थिति विशेष का चित्रण इत्यादि कुछ भी एकांकी का उद्देश्य हो सकता है। यह उद्देश्य एकांकी में आरोपित न होकर अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्त होना चाहिए।

इस प्रकार, एकांकी के इन तत्त्वों के समावेश से ही एकांकी की दृश्य – काव्यता सिद्ध होती है।

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इकाई - 7 हिंदी कहानियाँ NTA-UGC NET

UGC NET HINDI UNIT 7 PDF – NTA JRF Hindi Sahitya | इकाई 7 हिंदी कहानियाँ

आज के आर्टिकल में हम आपको NTA UGC  द्वारा आयोजित NET/JRF के अंतर्गत हिंदी विषय की इकाई 7 हिंदी कहानियाँ(UGC NET HINDI UNIT 7 PDF) के बारे में जानकारी शेयर कर रहें है

UGC NET HINDI UNIT 7 PDF – हिंदी कहानियाँ

इकाई – 7 हिंदी कहानियाँ : NTA-UGC NET

1. चंद्रदेव से मेरी बातें, दुलाई वाली (बंग महिला/राजेन्द बाला घोष)
2. एक टोकरी भर मिट्टी (माधवराव सप्रे)
3. राही (सुभद्रा कुमारी चौहान)
4. ईदगाह, दुनिया का सबसे अनमोल रत्न (प्रेमचंद)
5. कानों में कँगना (राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह)
6. उसने कहा था (चंद्रधर शर्मा गुलेरी)
7. आकाशदीप (जयशंकर प्रसाद)
8. अपना-अपना भाग्य (जैनेन्द्र)
9. मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम, लाल पान की बेगम (फणीश्वरनाथ रेणु)
10. गैंग्रीन/रोज (अज्ञेय)
11. कोसी का घटवार (शेखर जोशी)
12. अमृतसर आ गया, चीफ की दावत (भीष्म साहनी)
13. सिक्का बदल गया (कृष्णा सोबती)
14. इंस्पेक्टर मातादीन चाँद पर (हरिशंकर परसाई)
15. पिता (ज्ञानरंजन)
16. राजा निरबंसिया (कमलेश्वर)
17. परिन्दे (निर्मल वर्मा)

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मीराँबाई की पदावली

मीराँबाई की पदावली – परशुराम चतुर्वेदी | प्रथम 20 पद Meera Padavali

मीराँबाई की पदावली परशुराम चतुर्वेदी सप्रसंग व्याख्या सहित : मीराबाई की पदावली का संकलन आचार्य परशुराम चतुर्वेदी(Meera ki padawali : Parsuram Chaturwedi) के द्वारा किया गया। इस आर्टिकल में इसके पद 1-20 तक व्याख्या सहित दिए गए है।

मीराँबाई की पदावली – परशुराम चतुर्वेदी | प्रथम 20 पद

भक्त शिरोमणि मीरांबाई: सामान्य परिचय

मीराबाई का जन्म मारवाड़ परगने के कुड़की नामक गाँव में संवत् 1555 में हुआ था। यह गाँव वर्तमान में पाली जिले में आता है। हालांकि विद्वान इस विषय पर एकमत नहीं हैं। कोई उनका जन्म चौकड़ी में, कोई बाजौली में तो कोई मेड़ता में मानता है। मीरा जोधपुर के संस्थापक राव जोधा के पुत्र राव दूदा की पौत्री थी। उनके पिता का नाम रतनसिंह था तथा माता का नाम वीर कँवरी था। अपने पिता की इकलौती संतान मीरा के बचपन का नाम पेमल था। उनका लालन-पालन उनके दादा राव दूदा ने किया जो वैष्णव भक्त थे। अतः मीरा का बचपन कृष्ण भक्ति की छाया में व्यतीत हुआ।

इनका विवाह मेवाड़ के महाराणा संग्रामसिंह के ज्येष्ठ पुत्र कुँवर भोजराज से हुआ था। दुर्भाग्यवश युवावस्था में ही भोजराज की मृत्यु हो गई। फलतः मीरा को जीवन में संसारिकता से विरक्ति हो गई। उन्होंने कुल की मर्यादा व रूढ़ियों का त्याग कर अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में समर्पित कर दिया। मीरा के इस व्यवहार से राजमाता कर्मवती व राणा विक्रम ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। कहा जाता है कि परिवारजनों द्वारा सताए जाने एवं भक्ति में बाधा उपस्थित किए जाने पर उन्होंने समकालीन कवि तुलसीदास से मार्गदर्शन माँगा। तब तुलसी ने इस पद के माध्यम से उन्हें मार्गदर्शन प्रदान किया, बतलाया जाता है

‘’जाके प्रिय न राम बैदेही।

तजिए ताहि कोटि बैरी सम यद्यपि परम सनेही॥‘’

मीरा की उपासना ‘माधुर्य भाव’ की थी। उन्होंने अपने इष्ट श्री कृष्ण को प्रियतम या पति रूप में माना। मीरा पीड़ा व वेदना की कवयित्री हैं। सत्संग के द्वारा भक्ति और भक्ति से ज्ञान द्वारा मुक्ति की कामना उनकी रचनाओं में झलकती है। मीरा के दाम्पत्य भाव में अनन्यता है। उन्होंने लिखा है – ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।’ उनकी रचनाओं में विरह वेदना, आत्मनिवेदन तथा आत्मसर्मपण सर्वत्र झलकता है। मीरा की रचनायें लिखित रूप में प्राप्त नहीं हुई हैं। ऐसा माना जाता है कि उनके पदों को लिपिबद्ध करने का कार्य उनकी सुखी ललिता ने किया था।

Note : हिंदी साहित्य के बेहतरीन नोट्स देखें

आज उनकी रचनाओं का संकलन मीरा पदावली के नाम से मिलता है। मीरा के कुछ पद गुरू ग्रंथ साहब में भी मिलते हैं। मीरा की मुख्य भाषा राजस्थानी है जिसमें ब्रज, गुजराती, खड़ी बोली, अवधी आदि अनेक भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। परिवार द्वारा प्रताड़ित मीरा मेवाड़ छोड़कर वृंदावन आई लेकिन यहाँ भी उनकी कठिनाईयाँ कम नहीं हुई। ऐसी किवदन्ती है कि मीरा द्वारकाजी गई जहाँ सम्वत् 1603 में वे कृष्ण की मूर्ति में समा गई। कवि सुमित्रानंदन पंत ने मीरा बाई को ‘भक्ति के तपोवन की शकुन्तला’ तथा राजस्थान के मरुस्थल की मंदाकिनी कहा है। भक्तमाल के रचयिता कवि नाभादास ने निम्न पंक्तियों द्वारा मीरा के जीवन पर प्रकाश डाला है –

‘’सदृश्य गोपिका प्रेम प्रगट कलि जुगत दिखायो।

निर अंकुश अति निडर रसिक जन रसना गायो।।

दुष्ट ने दोष विचार मृत्यु को उद्धिम कियो।

बार न बांकों भयो गरल अमृत ज्यों पीयो।

भक्ति निशान बजाय कैं काहुन तें नाहिन लजी।

लोक लाज कुल श्रृंखला तजि मीरा गिरधर भजी।‘’

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मीराँबाई की पदावली – सम्पादक आचार्य परशुराम चतुर्वेदी

 

स्तुति वंदना

नोट : इस पद में राग तिलंग है ।

मन थें परस हरि रे चरण।।

मन थें परस हरि रे चरण।। टेक॥

सुभग सीतल कँवल कोमल, जगत ज्वाला हरण।

जिण चरण प्रहलाद परस्याँ, इन्द्र पदवी धरण।

जिण चरण ध्रुव अटल करस्याँ, सरण असरण सरण।

जिण चरण ब्रह्माण्ड भेट्याँ, नखसिखाँ सिरी धरण।

जिण चरण कालियाँ नाथ्याँ, गोप-लीला करण।

जिण चरण गोबरधन धार्यों, गरब मघवा हरण।

दासि मीराँ लाल गिरधर, अगम तारण तरण।।1।।

शब्दार्थ

परस-स्पर्श/ वंदन, कँवल कोमल-कमल के समान कोमल, सुभग- सुंदर, तरी- उद्धार, मधवा-इन्द्र, अगम-अगम्य, सिरी धरण- श्री की शोभा, तारण-उद्वार।

भावार्थ

इस पद में मीराबाई ने श्रीकृष्ण के प्रति अपनी अनन्य भक्ति को प्रस्तुत किया है। वे अपने मन को सम्बोधित करते हुए कहती हैं कि हे मन तू श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श कर। श्रीकृष्ण के ये सुन्दर शीतल कमल जैसे चरण सभी प्रकार के दैविक, दैहिक तथा भौतिक तापों का नाश करने वाले है। इन चरणों के स्पर्श से भक्त प्रहलाद का उद्धार हुआ और उन्हें इन्द्र की पदवी प्राप्त हुई।

इन्हीं चरणों के आश्रय में आकर भक्त ध्रुव ने अटल पदवी प्राप्त की। इन्हीं चरणों से श्रीकृष्ण ने ब्रह्माण्ड को भी भेद दिया था और यह ब्रह्माण्ड उन्हीं चरणों से नख से शिख तक सौंदर्य और सौभाग्य से मंडित है। इन्हीं चरणों के स्पर्श से गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या बाई का उद्धार हुआ। इन्हीं कृष्ण ने ब्रजवासियों के रक्षार्थ कालिया नाग की 1 का अन्त किया और गोपियों के साथ लीला सम्पन्न इन्हीं श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को धारण कर इन्द्र के गर्व को चकनाचूर कर दिया। मीरा ऐसे प्रभु के चरणों की दासी है और उनसे प्रार्थना करती है कि वे अगम्य संसार से उन्हें पार उतारें।

विशेष

  1. मीरा ने प्रभु कृष्ण के प्रति अपनी भावपूर्ण प्रार्थना प्रस्तुत की है।
  2. इस पद में माधुर्य गुण तथा शांत रस है।
  3. भाषा पर राजस्थानी शब्दों का प्रभाव है।
  4. भगवान के भक्त वत्सल, शरणागत रूप तथा व्यापक स्वरूप का वर्णन किया गया है।

राम ललित

म्हारो परनाम बाँकेबिहारी जी।

म्हारो परनाम बाँकेबिहारी जी।

मोर मुगट माथ्याँ तिलक बिराज्याँ, कुण्डल अलकाँ धारी जी।

अधर मधुर धर वंशी बजावाँ, रीझ रिझावाँ, राधा प्यारी जी।

या छब देख्याँ मोह्याँ मीराँ, मोहन गिरवरधारी जी।।2।।

शब्दार्थ

बाँकेबिहारी – रसिक श्री कृष्ण, अलकां-लटें, अधर – होंठ, अलकाँ धारी – काली अलकावलि धारण करने वाले।

भावार्थ

कवयित्री मीरा बाई ने इस पद में भगवान के अलौकिक सौंदर्य का वर्णन करते हुए इस मनोहारी छवि को अपने हृदय में बसाने का भाव प्रकट किया है। वे कहतीं है कि मेरा सारा समर्पण श्री बांके बिहारी जी के प्रति है। उनके सिर पर मोर का सुन्दर मुकुट और माथे पर तिलक शोभायमान है। कानों में लटकदार कुण्डल हैं। उनके होठों पर बंशी है, वे सदैव राधा को रिझाते हैं। श्रीकृष्ण की यह सुन्दर छवि देखकर मीरा मोहित हो जाती है। वे कहती है ऐसे सभी को मोहित करने वाले एवं गोवर्धन पर्वत धारण करने वाले श्रीकृष्ण सदा मेरे हृदय में बसें।

विशेष गिरवरधारी में बहुब्रीहि समास है। रचना में माधुर्य भक्ति प्रदर्शित है।

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राग हमीर

बस्या म्हारे नेणण माँ नंदलाल।

बस्या म्हारे नेणण माँ नंदलाल।

मोर मुगट मकराक्रत कुण्डल अरुण तिलक सोहाँ भाल।

मोहन मूरत साँवराँ रारत नेण बण्या विशाल।

अधर सुधा रस मुरली राजा उर बैजन्ती माल।

मीराँ प्रभु संताँ सुखदायाँ भगत बछल गोपाल ॥13

शब्दार्थ नेणण मां – आँखों में, कटि-कमर, नूपुर-घुंघरू।

भावार्थ

इस पद में कवयित्री मीरा बाई ने श्रीकृष्ण की माधुरी मूर्ति को अपने हृदय में बसाने का निवेदन किया है। कृष्ण का सुंदर रूप बड़े-बड़े नेत्र, अधरों पर अमृत के समान वर्षा करने वाली मुरली और गले में भव्य बैजयंती माला सुशोभित है। कृष्ण की कमर में बंधी सुन्दर घण्टियाँ व उनसे निकलने वाले घुंघरू के मधुर स्वर सभी संतों को सुख देने वाले हैं। कवयित्री निवेदन करती है कि भल वत्सल श्रीकृष्ण मेरे नयनों में निवास करें।

विशेष मोहन मूरत सांवरी सूरत में अनुप्रास अलंकार है।

हरि म्हारा जीवण प्राण आधार।

हरि म्हारा जीवण प्राण आधार।

और असिरो ना म्हारा थें विण, तीनूँ लोक मँझार।

थें विण म्हाणे जग ना सुहावाँ, निख्याँ सब संसार।

मीराँ रे प्रभु दासी रावली, लीज्यो नेक निहार ॥4

शब्दार्थमझार – मझधार, बिण-बिना, थैं-तुम्हारे, निख्याँ-देखा, रावली- आपकी, असिरा-शरण।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य समर्पण को उजागर करते हुए लिखा है कि श्रीकृष्ण मेरे जीवन व प्राणों के आधार हैं। उनके बिना मेरा तीनों लोकों में कोई नहीं है। मीरा कहती हैं कि उन्हें कृष्ण के बिना संसार में कोई भी अच्छा नही लगता। उन्होनें इस मिथ्या जगत को खूब अच्छी तरह देख लिया है। वे निवेदन करती है कि हे श्रीकृष्ण मैं आपकी दासी हूँ। अतः आप मुझे भुला मत देना।

विशेष इस पद में दास्य भाव की भक्ति प्रकट हुई है।

राग कान्हरा

तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर।

तनक हरि चितवाँ म्हारी ओर।

हम चितवाँ थें चितवो ना हरि, हिवड़ो बड़ो कठोर।

म्हारो आसा चितवणि थारी ओर ना दूजा दोर।

ऊभ्याँ ठाढ़ी अरज करूँ हूँ करताँ करताँ भोर।

मीराँ रे प्रभु हर अविनासी देस्यूँ प्राण अकोर।।5।।

शब्दार्थ तनक-थोड़ा सा, चितवाँ – देखो, म्हारी – हमारी, अकोर – उत्सर्ग, दोर – दौड़/पहुँच।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में भगवान की कृपा दृष्टि अपने ऊपर चाही है। वे निवेदन करती है कि हे श्रीकृष्ण मेरी ओर भी थोड़ी दृष्टि डालो। हमारी दृष्टि सदैव आपकी ओर लगी रहती है। कभी आप अपनी दृष्टि भी हम पर डालें ताकि हमारा भी उद्धार हो। यदि आप ऐसा नहीं करते तो आप हृदय के बड़े कठोर हैं। हमारे जीवन की पूरी आस तुम्हारी चित्वन है। इसके अलावा हमारा कहीं ठिकाना नही है। मेरा इस संसार में तुम्हारे सिवा और कोई नही है। आपके लिए हमारे जैसे लाखों-करोड़ों भक्त हो सकते हैं। मीरा कृष्ण की चित्वन रूपी कृपा की प्रतीक्षा करते-करते ऊब गई है और रात से भोर हो गई लेकिन प्रभु कृष्ण आप फिर भी द्रवित नहीं हुए। हे अविनाशी आप मुझ पर कृपा दृष्टि कीजिये। मैं अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दूँगी।

विशेषमीरा की अनन्य भक्ति प्रकट हुई है। हम चितवाँ थें चितवो ना हरि, हिवड़ो बड़ो कठोर। इस पंक्ति में उपालम्भ भाव है।

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 म्हारो गोकुल रो ब्रजवासी।

म्हारो गोकुल रो ब्रजवासी।

ब्रजलीला लख जन सुख पावाँ, ब्रजवनताँ सुखरासी।

नाच्याँ गावाँ ताल बजावाँ, पावाँ आणंद हाँसी।

नन्द जसोदा पुत्र री, प्रगट्याँ प्रभु अविनासी।

पीताम्बर कट उर बैजणताँ, कर सोहाँ री बाँसी।

मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, दरसरण, दीज्यो दासी 116 11

शब्दार्थ ब्रजवनता- ब्रज की स्त्रियाँ, आणंद-आनन्द।

भावार्थ

मीरा श्रीकृष्ण की भक्ति में डूबी हुई है। वे कहतीं है हमारे श्रीकृष्ण तो ब्रज में निवास करते हैं। उनकी लीलाओं को देखकर ब्रज की स्त्रियाँ सुख प्राप्त करती हैं। वे नाचती हैं, गाती हैं, ताली बजाती हैं और आनंद की हँसी प्राप्त करती है। अविनाशी प्रभु कृष्ण ने नंद व यशोदा के पुत्र के रूप में अवतार लिया है। उनके कमर पर सुन्दर पीले वस्त्र, गले में सुन्दर बैजयंती माला और हाथों में मुरली शोभायमान रहती है। मीरा निवेदन करती है कि उनके तो एक मात्र स्वामी श्रीकृष्ण है। वे श्रीकृष्ण अपनी दासी को दर्शन देकर कृतार्थ करें।

विशेष

श्रीकृष्ण के सौन्दर्य के साथ-साथ उनके ब्रह्म रूप का वर्णन किया गया है।

हे मा बड़ी बड़ी अखियन वारो,

हे मा बड़ी बड़ी अखियन वारो,

साँवरी मो तन हेरत हसिके।

भौंह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके।

जतन करो जन्तर लिखि बाँधों, ओखद लाऊँ घसिके।

ज्यों तोकों कछु और बिथा हो, नाहिन मेरो बसिके।

कौन जतन करों मोरी आली, चन्दन लाऊँ घसिके।

जन्तर मन्तर जादू टोना, माधुरी मूरति बसिके।

साँवरी सूरत आन मिलावो ठाढ़ी रहूँ मैं हँसिके।

रेजा रेजा भयो करेजा अन्दर देखो धँसिके।

मीरा तो गिरधर बिन देखे, कैसे रहे घर बसिके॥17

शब्दार्थ

हेरत-देखकर, जन्तर-यंत्र, जतन-प्रयत्न, रेजा-टुकड़े, ओखद-औषध।

 

भावार्थ

मीरा ने कृष्ण के माधुर्य रूप का वर्णन किया है। वे कहती हैं कि बड़ी-बड़ी आँखों वाले साँवले श्रीकृष्ण की मेरी ओर मुस्कराहट भरी दृष्टि और उनकी टेड़ी कमान जैसी भौंहें, सुन्दर नेत्र आदि से मैं उनके वशीभूत हो गई हूँ। मेरी वेदना का कारण कोई और नहीं है। श्रीकृष्ण के जादू-टोने मेरे हृदय में बस गये हैं और श्रीकृष्ण की मनोहर मूर्ति मेरे हृदय में से नहीं निकलती है। मीरा कहती है कि मैं श्रीकृष्ण को अपने हृदय से मिलाने के लिए बेसर्बी से प्रतीक्षा कर रही हूँ। श्रीकृष्ण के बिना मेरा कलेजा टूक-टूक हुआ जाता है। कृष्ण के वियोग में वेदना से मीरा इस प्रकार पीड़ित है कि वे बिना कृष्ण के दर्शन किए घर में कैसे रह सकती है।

विशेष

‘’भौंह कमान बान बाँके लोचन, मारत हियरे कसिके।

इस पंक्ति में सांगरूपक है। रेजा रेजा भयो करेजा।‘’

– इस पंक्ति में रूढ़ि लक्षणा है।

हेरी मा नन्द को गुमानी म्हाँरे मनड़े बस्यो।

हेरी मा नन्द को गुमानी म्हाँरे मनड़े बस्यो।

गहे द्रुम डार कदम की ठाड़ो मृदु मुसकाय म्हारी और हँस्यो।

पीताम्बर कट काछनी काछे, रतन जटित माथे मुगट कस्यो।

मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, निरख बदन म्हारो मनड़ो फँस्यो।।18।।

शब्दार्थद्रुम-वृक्ष, काछनी-धोती।

भावार्थ

मीरा कहती है कि नंद का गर्वीला पुत्र अर्थात् श्रीकृष्ण मेरे मन में बस गया है। वह कदम की डाल पकड़े हुए मेरी ओर देखकर मुस्करा रहा है। उसके पीले वस्त्र कमर में धोती और मस्तक पर रत्नजड़ित सुशोभित था। मीरा श्रीकृष्ण की इस छवि को हृदयंगम करके कहती है कि यह अपूर्ण छवि बरबस ही मुझे मोहित कर रही है, जिसे देखकर मेरा मन सम्मोहित हो गया है।

विशेष

संयोग श्रृंगार, स्वप्नावस्था, तीव्र उत्कंठा और माधुर्य गुण का प्रयोग हुआ है।

थारो रूप देख्याँ अटकी।

थारो रूप देख्याँ अटकी।

कुल कुटुम्ब सजन सकल बार बार हटकी।

विसरयाँ ना लगन लगाँ मोर मुगट नटकी।

म्हारो मन मगन स्याम लोक कह्याँ भटकी।

मीराँ प्रभु सरण गह्याँ जाण्या घट घट की॥19

शब्दार्थ

थारो – तुम्हारा, सजण – अपने लोग, हटकी – टोका/मनाही, अटकी – स्थिर, भटकी – गई।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में श्रीकृष्ण के रूप सौंदर्य के स्वयं पर असर का वर्णन किया है। वे कहती है कि हे श्रीकृष्ण! तुम्हारे माधुरी रूप को देखकर मेरी आँखे अटक गई हैं। अपने लोगों ने मुझे बार-बार मना किया, लेकिन मैं उनसे दूर होकर भी आपकी शरण की कामना करती हूँ। मोर मुकुट धारण करने वाले श्रीकृष्ण में मेरा मन रम गया है। इसे लोग मेरा भटकना कहते हैं। मीरा कहती है कि यह भटकना नहीं है बल्कि मैंने उस अन्तर्यामी ईश्वर की शरण प्राप्त की है जो प्रत्येक हृदय की बात जानता है।

विशेष

मीरा की कृष्ण के प्रति निष्ठा एवं दृढ़ता प्रकट हुई है। इस पद में मीरा की प्रभु की भक्ति को लोगों द्वारा भटकना की ओर भी संकेत किया गया है। कुल कुटुम्ब में अनुप्रास अलंकार है तथा रचना में ‘ट’ वर्ग के प्रयोग से श्रुतिकटुत्व दोष पैदा हुआ है।

 

राग त्रिवेनी

निपट बंकट छब अटके।

निपट बंकट छब अटके।

देख्याँ रूप मदन मोहन री, पियत पियूख न मटके।

बारिज भवाँ अलक मतवारी, नेण रूप रस अटके।

टेढ्या कट टेढ़े कर मुरली, टेढया पाय लर लटके।

मीराँ प्रभु रे रूप लुभाणी, गिरधर नागर नटके ।।10।।

शब्दार्थ

निपट – नितान्त, बंकट-टेढ़ी, नैणा-नेत्र, पियूख-दूध/अमृत, बारिज कमल।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में कहा है कि श्रीकृष्ण की नितान्त टेढ़ी अर्थात् त्रिभंगी छवि उसके नेत्रों में बस गई है। वे कहती हैं कि मेरे नेत्रों ने श्रीकृष्ण के इस माधुर्य रूप का अमृत तुल्य पान किया है। जिससे वे और मटकने लगी है और ये नेत्र उस रूप माधुरी रूपी रस पर अटक गये है। उनके मुख पर सुन्दर और टेढ़ी अलखें तथा बांसुरी बजाते समय टेढ़ी कमर और ऐसे ही टेढ़े हाथों में पकड़े मुरली तथा पैरों की लटकती टेढ़ी दशा नटवर नागर श्रीकृष्ण के त्रिभंगी रूप में सभी को मोहित करने वाली होती है। उस पर मीरा पूरी तरह मोहित है।

विशेष

  1. कृष्ण की त्रिभंगी छवि का वर्णन किया गया है।
  2. नेत्रों के वर्णन में मानवीकरण अलंकार है।

 म्हा मोहन रो रूप लुभाणी।

म्हा मोहन रो रूप लुभाणी।

सुन्दर बदना कमल दल लोचन, बाँकाँ चितवन नेणाँ समाणी।

जमना किनारे कान्हा धेनु चरावाँ, बंशी बजावाँ मीट्ठाँ वाणी।

तन मन धन गिरधर पर वाराँ, चरण कँवल बिलमाणी।।11।।

शब्दार्थ बदण-मुख (वदन), लुभाणी-मोहित, दल-पत्ता, समाणी – समा गयी, धेनु-गाय, धण-धन, बिलमाणी – रम गई।

भावार्थ

मीरा कहती है कि मैं अपने आराध्य प्रियतम श्रीकृष्ण के रूप पर मोहित हो गई हूँ। उन प्रियतम श्रीकृष्ण का वदन (मुख) सुन्दर है, कमल पत्र के समान उनके नेत्र हैं तथा उनकी दृष्टि बांकी है जो कि मेरे नेत्रों में समा रही है। वह प्रियतम कृष्ण युमना नदी के किनारे गायें चराते रहते हैं और मधुर स्वर-लहरी में बंशी बजाते रहते हैं। मीरा कहती है कि मैं अपना शरीर, मन और धन (अपना सर्वस्व) गिरधर कृष्ण पर न्योछावर करती हूँ तथा उनके चरण-कमलों में रम गई हूँ।

विशेष

स्वर-लहरी में तत्पुरुष तथा चरण-कमल में कर्मधारय समास है।

साँवरा णन्द णंदेन, दीठ पड्याँ माई।

साँवरा णन्द णंदेन, दीठ पड्याँ माई।

डारयाँ सब लोकलाज सुध बुध बिसराई।

मोर चन्द्रमाकिरीट मुगुट छब सोहाई।

केसर री तिलक भाल, लोणण सुखदाई।

कुण्डल झलकाँ कपोल अलकाँ लहराई।

मीणाँ तज सरवर ज्यों मकर मिलण धाई।

नटवर प्रभू भेष धर्यां रूप जग लो भाई।

गिरधर प्रभू अंग अंग मीराँ बल जाई।।12।।

शब्दार्थ

डारयाँ – त्याग दिया/डाल दिया, कपोल – गाल, अलका – बाल, मीणाँ – मछलियाँ, मकर – मगर, नटवर – रसिक/आकर्षक/सजीला, बल -न्योछावर।

भावार्थ

मीरा कहती है कि अरी सखी, नंद जी के पुत्र साँवले श्रीकृष्ण जब से मुझे दिखाई दिये (मेरी दृष्टि में पड़े) तब से मैं सब लोक-लाज का त्याग कर अपनी सुध-बुध खो बैठी हूँ। भाव यह है कि मैं उनकी प्रेम दीवानी हो गई हूँ और लोक मर्यादा को भूलकर उन्मत्त हो गई हूँ। उन प्रियतम श्रीकृष्ण ने मोरपंखों के रंग बिरंगे चन्द्रकों वाला सुन्दर चमकीला मुकुट सिर पर धारण कर रखा है, जो कि अत्यधिक शोभायमान हो रहा है। ललाट पर उन्होंने केसर का तिलक लगा रखा है जो कि देखने वालों की • आँखों को बहुत ही अच्छा लगता है। उनके कानों में कुण्डल झलक रहे हैं और घुंघराले बाल लहरा रहे हैं। • उनकी शोभा ऐसी लग रही है कि मानो मछलियाँ तालाब को छोड़कर मगर से मिलने के लिए दौड़ रही हों। रसिक शिरोमणि प्रभु कृष्ण ने ऐसा भेष धारण कर रखा है, जिसे देखकर सभी लोग ललचा जाते हैं। मीरा कहती हैं कि र प्रभु गिरधर कृष्ण मेरे अंग-अंग में समाये हुए हैं और मैं उन पर न्योछावर होना चाहती हूँ।

विशेष

“मीणाँ तज सरवर ज्यों मकर मिलण धाई।” में हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है।

प्रेमासक्ति

राग नीलाम्बरी

श्रीकरण केलि

नेणाँ लोभाँ अटकाँ शक्याँ णा फिर आया।।

नेणाँ लोभाँ अटकाँ शक्याँ णा फिर आया।।

रूँम-रूँम नखसिख लख्याँ, ललक ललक अकुलाय।

म्याँ ठाढ़ी घर आपणे मोहन निकल्याँ आय।

बदन चन्द परगासताँ, मन्द मन्द मुसकाय।

सकल कुटुम्बाँ बरजताँ बोल्या बोल बनाय।

नेणां चंचल अटक ना मान्या; परहथं गयाँ बिकाय।

भलो कह्याँ काँई कह्याँ बुरो री सब लया सीस चढ़ाय।

मीरा रे प्रभु गिरधर नागर बिना पल रह्याँ ना जाय।।13।।

शब्दार्थ रूँम-रोम, अकुलाय-आकुल-व्याकुल होवे, बरजताँ – मना करने पर, परहथ – पराये हाथ।

भावार्थ

मीरा भक्ति भाव से कहती है कि ये मेरे रूप-माधुरी के लोभी नेत्र एक बार प्रियतम कृष्ण की छवि पर अटक गये, तो फिर वापिस नही आ सके। मेरा रोम-रोम उनके नख – शिख की शोभा देखकर बार-बार देखने के लिए आकुल व्याकुल बना रहता है। एक बार मेरे घर में प्रियतम मोहन अपने आप आ गये, उस समय वे अपने मुख रूपी चन्द्रमा को प्रकाशित करते हुए मंद-मंद मुस्काने लगे। तब मेरे परिवार के सब लोगों के द्वारा मना करने पर भी वे मधुर वचनों में (मधुर बातें बनाकर मुझसे बोलते रहे। मेरे चंचल नेत्र मेरा कहा नहीं मानते हैं, अब तो ये पराये हाथ (प्रियतम कृष्ण के हाथ) उनकी रूप-माधुरी के लालच में बिक गये हैं। इस संसार में अच्छी बात कहने पर भी कोई नहीं मानता है, परन्तु बुरी बात को सब लोग सिर पर चढ़ा लेते हैं अर्थात् सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। मीरा कहती है कि हे चतुर गिरधर प्रियतम! अब मुझसे आपके बिना एक पल भी नहीं रहा जा सकता।

विशेष

“बदन चन्द परगासताँ, मन्द मन्द मुसकाय” में संयोग श्रृंगार है।

राग कामोद

आली री म्हारे नेणाँ बाण पड़ी।

आली री म्हारे नेणाँ बाण पड़ी।

चित्त चढ़ी म्हारे माधुरी मूरत, हिवड़ा अणी गड़ी।

कब री ठाढ़ी पंथ निहारों, अपने भवन खड़ी।

अटक्याँ प्राण साँवरो प्यारो, जीवन मूर जड़ी।

मीराँ गिरधिर हाथ बिकाणी, लोग कह्याँ बिगड़ी।।14।।

शब्दार्थ नैणा-नेत्र, बाण-बान/अभ्यास, आलि-सुखी, हेवड़ा-ह्रदय, जीवन मूर जड़ी- प्राणों के आधारस्वरूप औषध के समान, अणी गड़ी-उनकी आँखों की कोर चुभ गई।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण की माधुरी मूरत को अपने हृदय में बताया है। वे अपनी सखी से कह रही हैं कि सखी मेरे नेत्रों को श्रीकृष्ण की माधुरी झलक के दर्शन की आदत पड़ गई है। मेरे हृदय में श्रीकृष्ण की माधुरी मूर्ति स्थापित हो गई है जो ह्रदय में बहुत गहराई तक चुभ गई है। मैं न जाने कब से अपने आराध्य की प्रतीक्षा में हूँ। मेरे प्राण श्रीकृष्ण में अटके हुए हैं। श्रीकृष्ण के प्रति मेरे इस समर्पण को लोग चाहे भटकना कहें या बिगड़ना, मैं तो श्रीकृष्ण के हाथों में अपना सर्वस्व समर्पित कर चुकी हूँ। इस पद में मीरा का श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण उजागर हुआ है।

विशेष दाम्पत्य तथा माधुर्य भाव की अभिव्यक्ति हुई है।

प्रेमाभिलासा

नेणाँ वणज बसवाँ री, म्हारा साँवराँ आवाँ।

नेणाँ वणज बसवाँ री, म्हारा साँवराँ आवाँ।

नेणाँ म्हारा साँवरा राज्याँ, डरता पलक ना लावाँ।

म्हारा हिरदाँ बस्याँ मुरारी, पलपल दरसण पावाँ।

स्याम मिलन सिंगार सजावाँ, सुख री सेज बिछावाँ।

मीराँ रे प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलिजावा।।15।।

शब्दार्थ बणज – कमल के समान कोमल।

भावार्थ

मीराबाई ने इस पद में अपनी सखी से कहा है कि मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण को मैं अपने कमल के समान कोमल नेत्र रूपी घर में बसाउँगी। मेरे नेत्रों में मेरे प्रियतम का बास है इसलिए मैं पलक नहीं झपकती हूँ जिससे कहीं श्रीकृष्ण मेरे दर्शन से दूर नहीं हो जाएँ। भाव यह है कि मीरा अपने प्रियतम को सदैव देखते रहना चाहती है इसलिए वे पलक भी नहीं झपकना चाहती। मीरा कहती है कि श्रीकृष्ण मेरे हृदय में है, इसलिए मैं नित्य उनके दर्शन करती हूँ और उनसे मिलन सुख के लिए सदैव श्रृंगार कर सुख रूपी सेज बिछाती हूँ। मीरा आगे कहती है कि चतुर प्रभु श्री कृष्ण ही मेरे प्रियतम हैं। मैं उन पर बार-बार न्योछावर होती हूँ।

विशेष मीरा के इस पद में उनकी कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति तथा संयोग श्रृंगार की अभिव्यक्ति हुई है।

राग मुल्मानी

असा प्रभु जाण न दीजै हो।

असा प्रभु जाण न दीजै हो।

तन मन धन करि वारणै, हिरदे धरि लीजै हो।

आव सखी मुख देखिये, नैणाँ रस पीजै हो।

जिह जिह बिधि रीझे हीर, सोई विधि कीजै हो।

सन्दर स्याम सुहावणा, मुख देख्याँ जीजै हो।

शब्दार्थ जाण – जाने, बारणें – न्योछावर, असा – ऐसे अनुपम।

भावार्थ

कवयित्री मीरा कहती है कि ऐसे परम मनोहारी भक्त वत्सल प्रभु कृष्ण को मैं जाने नहीं दूंगी। मैं उन्हें तन मन धन समर्पित करके अपने ह्रदय में बसा लूँगी। मीरा अपनी सखी से कहती है कि श्रीकृष्ण के आते ही अपने नेत्रों के द्वारा उनके मुख को देखकर मैं रूप माधुरी का पान करूँगी। जिस-जिस तरीके से श्रीकृष्ण प्रसन्न होंगे वह सब उपाय करूंगी। मैं उनके श्याम सलोने रूप के मुख सौंदर्य को देखकर जीवित हूँ। मीरा कहती है कि मीरा के प्रभु अत्यंत सहज हैं, जो सहजता से मुझ पर रीझते हैं। यह मेरा परम सौभाग्य है।

विशेष मीरा के इस पद में गहन आत्मानुभूति उजागर हुई है।

राग मालकोस

म्हाँ गिरधर आगाँ नाच्या री।

म्हाँ गिरधर आगाँ नाच्या री।

नाच नाच म्हाँ रसिक रिझावाँ, प्रीति पुरातन जाँच्या री।

स्याम प्रीत री बाँध घूँघरयाँ मोहन म्हारो साँच्याँ री।

लोक लाज कुल री मरजादाँ, जग माँ नेक ना राख्याँ री।

प्रीतम पल छन ना बिसरावाँ, मीराँ हरि रँग राच्याँ री।।17।।

शब्दार्थ पुरातन – पुरानी, जाँचा – परखी।

भावार्थ

मीरा कहती है कि मैं अपने गिरधर गोपाल के आगे नृत्य करती रही। इस प्रकार नृत्य कर-कर के मैं अपने आराध्य को रिझाती हूँ। मेरी और कृष्ण की प्रीत पुरानी है। भाव यह है कि यह प्रति जन्म-जन्मान्तर की है। कृष्ण मेरे सच्चे प्रियतम हैं इसलिए अपने कुल और लोक लाज की मर्यादाओं की परवाह न करते हुए मैं पूरी तरह श्रीकृष्ण के रंग में रंग गई हूँ।

विशेष इस पद में मधुर भक्ति तथा कृष्ण के प्रति अनन्य समर्पण प्रकट हुआ है।

 

राग झिझोटी

म्हाराँ री गिरधर गोपाल दूसहाँ नाँ कूयाँ।

म्हाराँ री गिरधर गोपाल दूसहाँ नाँ कूयाँ।

दूसराँ नाँ कूयाँ साध सकल लोक जूयाँ।

भाया छाँड्याँ, बन्धा छाँड्याँ सगाँ सूयाँ।

साधाँ ढिंग बैठ बैठ, लोक लाज खूयाँ।

भगत देख्याँ राजी ह्याँ, जगत देख्याँ रूयाँ।

अँसुवाँ जल सींच सींच प्रेम बेल बूयाँ।

दधि मथ घृत काढ़ लयाँ डार दया छूयाँ।

राणा विष रो प्यालो भेज्याँ पीय मगन हूयाँ।

मीरा री लगन लग्याँ होणा हो जो हूयाँ।।18।।

शब्दार्थ कूयाँ- कोई, सूयाँ-लोक, सांधा-साधु।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में कृष्ण के प्रति अपने अनन्य समर्पण को प्रकट किया है। वे कहती है कि इस संसार में मेरे केवल श्रीकृष्ण हैं और कोई दूसरा नही हैं। उन्होंने कहा कि मैंने सारा संसार देख लिया है। संसार में सब स्वार्थी हैं। इस बात को जानकर ही मैंने सभी लौकिक बंधन रिश्ते छोड़ दिये हैं। अब मैं सत्संग में बैठकर प्रभु भक्ति में लीन रहती हूँ। इससे मैंने झूठी लोक लाज को छोड़ दिया है। इस जीवन में मुझे भगवान भक्ति से प्रसन्नता होती है लेकिन स्वार्थी संसार द्वारा निंदा की बात सुनकर रोना आता है। मैंने दुःख और वेदना के आंसुओं से श्रीकृष्ण के प्रति अपनी प्रेम रूपी बेल को सींचा है। जिस प्रकार दही में से छाछ को अलग करके घृत को ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार मैंने संसार में सारतत्व को ग्रहण कर लिया है। इस भक्त रूप में बाधा स्वरूप राणा जी ने जो जहर का प्याला भेजा था उसे मैंने श्रीकृष्ण के प्रसाद रूप में ग्रहण किया और कृष्ण में मगन हो गई। मीरा कहती है। कि मेरी पूरी लग्न श्रीकृष्ण के प्रति है और जो कुछ भी होगा वह उनकी इच्छा से ही होगा।

विशेष

इस पद में मीरा की वेदना तथा अनन्य समर्पण के साथ- साथ परिवार वालों द्वारा सताने का भी वर्णन मिलता है।

राग पटमंजरी

माई साँवरे रँग राँची।

माई साँवरे रँग राँची।

साज सिंगार बाँध पग घूँघर, लोकलाज तज नाँची।

गयाँ कुमत लयाँ साधाँ संगम स्याम प्रीत जग साँची।

गायाँ गायाँ हरि गुण निसदिन, काल ब्याल री बाँची।

स्याम विना जग खाराँ लागाँ, जग री बाताँ काँची।

मीराँ सिरि गिरधर नट नागर भगति रसीली जाँची॥19

शब्दार्थ राँची-रंग गई, साँची-सच्ची, व्याल- सर्प, काँची- निरर्थक।

भावार्थ

मीरा ने इस पद में अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति पूर्ण आस्था एवं समर्पण को व्यक्त किया है। मीरा कहती है कि वह पूरी तरह कृष्ण भक्ति में रम चुकी है। इसलिए सारी लोक लाज की परवाह किये बिना मैं कृष्ण को रिझाने के लिए अपना शृंगार करके घुंघरू बांध के नृत्य करती हूँ। मुझमें सांसारिकता के प्रति लगाव की जो कुमति थी वो अब समाप्त हो चुकी है। मैंने सत्संग को अपना लिया है, जिससे मैं जान गई हूँ कि संसार में कृष्ण ही सच्चे है और उनके प्रति प्रीति सच्ची है। मैंने दिन-रात प्रभु गुण गाकर मृत्यु रूपी दंश से अपना बचाव किया है। मीरा कहती है कि कृष्ण के बिना संसार अप्रिय लगता है और संसार के सारे सुख भी झूठे लगते हैं। मीरा ने श्रीगिरधर गोपाल की रसीली भक्ति को ही उचित माना है।

विशेष इस पद में भगवत भक्ति को श्रेष्ठ बताया गया है।

राग गुणकली

मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।।

मैं तो गिरधर के घर जाऊँ।।

गिरधर म्याँरों साँचो प्रीतम, देखत रूप लुभाऊँ।।

रैण पड़ै तब ही उठि जाऊँ, ज्यूँ त्यँ वाहि लुभाऊँ

जो पहिरावै सोई पहिरू, जो दे सोई खाऊँ।

मेरी उणरी प्रीत पुराणी, उण विन पल न रहाऊँ।

जहँ बैठावे तितही बैठूं, बेचे तो बिक जाऊँ।

मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, बार-बार बलि जाऊँ।।20।।

शब्दार्थ प्रीतम – प्रियतम, रैण-रात।

भावार्थ

इस पद में मीरा श्रीकृष्ण के प्रति अपने समर्पण को व्यक्त कर रही है। वे कहती हैं कि मैं तो रात्रि होते ही अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के पास चली जाती हूँ और सुबह होते ही लौट आती हूँ। मैं रात-दिन उनके साथ खेलती हूँ और उन्हें रिझाती हूँ। मेरे सर्वस्व श्रीकृष्ण हैं वो मुझे जैसे रखेंगे, जो पहनायेंगे, जो खाने को देंगे मैं वही स्वीकार कर लूँगी, क्योंकि मेरा उनका जन्म-जन्मांतर का संबंध है। मीरा कहती है कृष्ण मुझसे जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूंगी। इस प्रकार वे अपने प्रभु श्रीकृष्ण पर अपने आपको न्यौछावर करती है।

विशेष

इस पद में माधुर्य भाव, कांता भाव तथा अनन्य समर्पण का चित्रण हुआ है। इस पद में लौकिक प्रेम में अलौकिक प्रेम झलकता है।

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कैमरे में बंद अपाहिज – पाठ सार व भावार्थ | रघुवीर सहाय

कैमरे में बंद अपाहिज: इस आर्टिकल में रघुवीर सहाय की चर्चित कविता कैमरे में बंद अपाहिज(Camere Mein Band Apahij) को व्याख्या सहित समझाया गया है।

कैमरे में बंद अपाहिज(Camere Mein Band Apahij) : कविता सार

रघुवीर सहाय की ‘कैमरे में बन्द अपाहिज’ कविता उनके ‘लोग भूल गये हैं’ काव्य-संग्रह से संकलित है। इसमें शारीरिक चुनौती को झेलते व्यक्ति से टेलीविजन कैमरे के सामने किस तरह के सवाल पूछे जायेंगे और कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए उससे कैसी भंगिमा की अपेक्षा की जायेगी, इसका सपाट तरीके से बयान करते हुए एक तरह से पीड़ा के साथ दृश्य-संचार माध्यम के सम्बन्ध को निरूपित किया गया है।

वस्तुतः किसी की पीड़ा को बहुत बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँचाने वाले व्यक्ति को उस पीड़ा के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, परन्तु दूरदर्शनकर्मी वैसी संवेदनशीलता नहीं रखते हैं। वे तो उस व्यक्ति के प्रति कठोरता का व्ययहार करते हैं तथा अपने कारोबारी स्वार्थ को ऊपर रखकर कार्यक्रम को आकर्षक एवं बिकाऊ बनाने का प्रयास करते रहते हैं।

दूरदर्शन के सामने आकर जो व्यक्ति अपना दुःख-दर्द और यातना-वेदना को बेचना चाहता है, वह ऐसा अपाहिज बताया गया है, जो लोगों की करुणा का पात्र बनता है। प्रस्तुत कविता में मीडिया-माध्यम की ऐसी व्यावसायिकता एवं संवेदनहीनता पर आक्षेप किया गया है।

Note : हिंदी साहित्य के बेहतरीन नोट्स देखें

(1)भावार्थ: हम दूरदर्शन पर बोलेंगे

हम दूरदर्शन पर बोलेंगे

हम समर्थ शक्तिवान

हम एक दुर्बल को लाएँगे

एक बंद कमरे में

उससे पूछेंगे तो आप क्या अपाहिज हैं?

तो आप क्यों अपाहिज हैं?

आपका अपाहिजपन तो दुःख देता होगा देता है?

(कैमरा दिखाओ इसे बड़ा बड़ा)

हाँ तो बताइए आपका दुःख क्या है

जल्दी बताइए वह दुःख बताइए।

बता नहीं पाएगा।

कठिन–शब्दार्थ : समर्थ = शक्तिशाली, साधन-सम्पन्न। दुर्बल =कमजोर। अपाहिज=अपंग, जिसका कोई अंग बेकार हो।

भावार्थ – कवि कहता है कि दूरदर्शन के कार्यक्रम संचालक स्वयं को समर्थ और शक्तिमान मानकर चलते हैं। वे अपनी बात को सुदूर तक प्रसारित करने में समर्थ हैं, इस कारण अहंभाव रहता है और दूसरे को कमजोर मानते हैं। दूरदर्शन का कार्यक्रम संचालक कहता है कि हम स्टूडियो के बन्द कमरे में एक कमजोर एवं व्यथित व्यक्ति को बुलायेंगे। उस अपंग व्यक्ति को स्टूडियो के कैमरे के सामने लाकर हम उससे पूछेंगे कि क्या आप अपाहिज हैं? जबकि वह व्यक्ति स्पष्टतया अपंग दिखाई दे रहा है, तो भी पूछेंगे कि आप अपंग क्यों हैं? उससे ऐसा पूछना सर्वथा अनुचित है।

अपाहिज इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दे पायेगा। तब उसके दुःख को कुरेदा जायेगा और उससे अगला प्रश्न पूछा जायेगा कि आपको अपना अपाहिज होना काफी दुःख देता होगा, अर्थात् अपनी अपंगता पर सुख तो कभी नहीं मिलता होगा? इस तरह अपाहिज जब कुछ नहीं कह पायेगा, तो उसे अपाहिज होने से सचमुच दुःखी होने का समर्थन किया जायेगा।

कार्यक्रम संचालक द्वारा इस तरह पूछने के साथ कैमरामैन को निर्देश दिया जायेगा कि इसके चेहरे पर और अधिक बड़ा करके कैमरा दिखाओ, तो कैमरामैन उसके चेहरे को कैमरे के सामने लाकर उसकी अपंगता को स्पष्ट दिखायेगा। फिर संचालक उत्तेजित होकर अपंग व्यक्ति से पूछेगा कि जल्दी से बताइए, आपका दुःख क्या है? आप अपने दुःख के बारे में सभी दर्शकों को बताइए।

परन्तु वह व्यक्ति अपने दुःख के बारे में कुछ नहीं बतायेगा। संचालक को अपंग व्यक्ति की पीड़ा के प्रति कोई संवेदना नहीं है। वह जानता है कि अपंग व्यक्ति ऐसे प्रश्न पर चुप ही रहेगा। इसलिए वह कार्यक्रम को प्रभावी बनाने के लिए ऐसे प्रश्न करना अपना कर्त्तव्य मानता है।

विशेष –

  1. प्रस्तुत कविता रघुवीर सहाय के कविता संग्रह ‘लोग भूल गए हैं’ से उद्धृत है।
  2. इसमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की हृदयहीनता पर प्रकाश डाला है।
  3. इसकी शैली नाटकीय तथा वार्तालाप की है।

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(2) सोचिए बताइए…

सोचिए

बताइए

आपको अपाहिज होकर कैसा लगता है।

कैसा

यानी कैसा लगता है

(हम खुद इशारे से बताएँगे कि क्या ऐसा?)

सोचिए

बताइए

थोड़ी कोशिश करिए

(यह अवसर खो देंगे ?)

आप जानते हैं कि कार्यक्रम रोचक बनाने के वास्ते

हम पूछ-पूछकर उसको रुला देंगे

इंतजार करते हैं आप भी उसके रो पड़ने का

करते हैं?

(यह प्रश्न पूछा नहीं जाएगा)

कठिन-शब्दार्थ : रोचक=दिलचस्प। इन्तजार=प्रतीक्षा।

भावार्थ – कवि के वर्णनानुसार दूरदर्शन कार्यक्रम का संचालक एक अपंग व्यक्ति का साक्षात्कार लेते समय उससे अटपटे प्रश्न करता है। वह उससे पूछता है कि आप सोचकर बताइये कि आपको अपाहिज होकर कैसा लगता है, अर्थात् अपाहिज होने से आपको कितना दुःख होता है। यदि वह अपंग नहीं बता पाता है तो संचालक उसे संकेत करके बताता है, बेहदे इशारे करते हुए कहता है कि क्या आपको इस तरह का दर्द होता है?

थोड़ा कोशिश कीजिए और अपनी पीड़ा से लोगों को परिचित कराइये। आपके सामने लोगों को अपनी पीड़ा बताने का यह अच्छा अवसर है, दूरदर्शन पर सारे लोग आपको देख रहे हैं। अपना दर्द नहीं बताने से आप यह मौका खो देंगे। आपको ऐसा मौका फिर नहीं मिल सकेगा।

कार्यक्रम का संचालक कहता है कि आपको पता है कि हमें अपने इस कार्यक्रम को रोचक बनाना है। इसके लिए यह जरूरी है कि अपाहिज व्यक्ति अपना दुःख-दर्द स्पष्टतया बता दे। इसलिए वे उससे इतने प्रश्न पूछेंगे कि पूछ-पूछकर रुला देंगे। उस समय दर्शक भी उस अपंग व्यक्ति के रोने का पूरा इन्तजार करते हैं; क्योंकि दर्शक भी दूरदर्शन पर अपंग व्यक्ति के दुःख-दर्द को उसके मुख से सुनना चाहते हैं। क्या वे भी रो देंगे, अर्थात् क्या उनकी प्रतिक्रिया मिल सकेगी ?

विशेष-

  1. कवि ने बताया है कि मानवीय संवेदना विक्रय की वस्तु नहीं है।
  2. ‘आपको अपाहिज’ में अनुप्रास अलंकार है।
  3. ‘पूछ-पूछकर’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
  4. ‘आपको… लगता है’ में प्रश्नालंकार है।

(3) फिर हम परदे पर दिखलाएँगे।

फिर हम परदे पर दिखलाएँगे।

फूली हुई आँख की एक बड़ी तसवीर

बहुत बड़ी तसवीर

और उसके होंठों पर एक कसमसाहट भी

(आशा है आप उसे उसकी अपंगता की पीड़ा मानेंगे)

एक और कोशिश

दर्शक

धीरज रखिए

हमें दोनों एक संग रुलाने हैं

आप और वह दोनों

(कैमरा

बस करो

नहीं हुआ

रहने दो

परदे पर वक्त की कीमत है)

अब मुसकुराएँगे हम

आप देख रहे थे सामाजिक उद्देश्य से युक्त कार्यक्रम

(बस थोड़ी ही कसर रह गई)

धन्यवाद।

कठिन-शब्दार्थ : कसमसाहट = छटपटाहट, बेचैनी। अपंगता -अपाहिजपन।

भावार्थ – दूरदर्शन कार्यक्रम संचालक का यह प्रयास रहता है कि उसके बेहूदे प्रश्नों से अपाहिज रोवे और वह उससे सम्बन्धित दृश्य का प्रसारण करे। इसलिए वह अपाहिज की सूजी हुई आँखें बहुत बड़ी करके दिखाता है। इस प्रकार वह उसके दुःख-दर्द को बहुत बड़ा करके दिखाना चाहता है। वह अपाहिज के होठों की बेचैनी एवं लाचारी भी दिखाता है। संचालक कार्यक्रम को रोचक बनाने के प्रयास में सोचता है कि अपाहिज की बेचैनी को देखकर दर्शकों को उसकी अनुभूति हो जायेगी ।

इसलिए वह कोशिश करता है कि अपाहिज के दुःख-दर्द को इस तरह दिखावे कि दर्शक केवल उस अपाहिज को देखें और धैर्यपूर्वक उसके दर्द को आत्मसात् कर सकें। परन्तु कार्यक्रम संचालक जब दर्शकों को रुलाने की चेष्टा में सफल नहीं होता है, तो तब वह कैमरामैन को कैमरा बन्द करने का आदेश देता है तथा कहता है कि अब बस करो, यदि अपाहिज का दर्द पूरी तरह प्रकट न हो सका, तो न सही। परदे का एक-एक क्षण कीमती होता है। समय और धन-व्यय का ध्यान रखना पड़ता है।

आशय यह है कि कार्यक्रम को दूर-दर्शन पर प्रसारित करने में काफी समय एवं धन का व्यय होता है। इसलिए अपाहिज के चेहरे से कैमरा हटवाकर संचालक दर्शकों को सम्बोधित कर कहता है कि अभी आपने सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु दिखाया गया कार्यक्रम प्रत्यक्ष देखा। इसका उद्देश्य अपाहिजों के दुःख-दर्द को पूरी तरह सम्प्रेषित करना था, परन्तु इसमें थोड़ी-सी कमी रह गई, अर्थात् अपाहिज के रोने का दृश्य नहीं आ सका तथा दर्शक भी नहीं रो पाये।

अगर दोनों एक साथ रो देते, तो कार्यक्रम सफल हो जाता। अन्त में कार्यक्रम संचालक दर्शकों को धन्यवाद देता है। यह धन्यवाद मानो उसके संवेदनाहीन व्यवहार पर व्यंग्य है।

विशेष –

  1. कवि ने दूरदर्शन पर दिखाए जाने वाले कार्यक्रम का व्यंग्यात्मक चित्रण किया है।
  2. मुक्त छंद का प्रयोग तथा वार्तालाप में नाटकीय शैली का प्रयोग किया है।

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